चन्द्रकान्ता सन्तति 5/18.7

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चंद्रकांता संतति भाग 5  (1896) 
द्वारा देवकीनन्दन खत्री

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अब हम थोडा-सा हाल राजा गोपालसिंह का लिखते हैं। जब वह बरामदे पर से झाँकने वाला आदमी मायारानी के चलाए हुए तिलिस्मी तमंचे की तासीर से बेहोश होकर नीचे आ गिरा और भीमसेन उसके चेहरे की नकाब हटाने और सूरत देखने पर चौंककर बोल उठे कि "वाह-वाह, यह तो राजा गोपालसिंह हैं, तब मायारानी बहुत ही प्रसन्न हुई और भीमसेन से बोली, "बस, अब विलम्ब करना उचित नहीं है, एक ही [ १०३ ]बार में सिर धड़ से अलग कर देना चाहिए।"

भीमसेन––नहीं, इसे एकदम से मार डालना उचित न होगा, बल्कि कैद करके तिलिस्म का कुछ हाल मालूम करना लाभदायक होगा।

मायारानी––मैंने इसे कैद में रख कर हद से ज्यादा तकलीफें दी, तब तो इसने तिलिस्म का कुछ हाल कहा नहीं, अब क्या कहेगा, बस इसे मार डालना ही मुनासिव है।

इसके जवाब में उसी बरामदे पर से जिस पर से वह आदमी लुढ़क कर नीचे आया था किसी ने कहा, "तिलिस्म का हाल जानने का शौक अभी तक लगा ही है। इस बात की खबर नहीं कि अब तुम लोगों के मरने में केवल सात घण्टे की देर बाकी रह गई है।"

सभी ने चौंककर उसकी तरफ देखा और पुनः एक आदमी को उसी बरामदे में टहलता हुआ पाया मगर अब की दफ इस आदमी का चेहरा नकाब से खाली था और एक जलती हुई मोमबत्ती बायें हाथ में मौजूद थी जिससे उसका रोबीला चेहरा साफ-साफ दिखाई दे रहा था। मायारानी और उसके साथियों को यह देख कर बड़ा ताज्जुब हुआ कि यह दूसरा आदमी भी राजा गोपालसिंह ही मालूम होता था बल्कि बनिस्बत पहले आदमी के ठीक राजा गोपालसिंह मालूम होता था। इस कैफियत ने मायारानी का कलेजा हिला दिया और वह डर से काँपती हुई उसको इस तरह देखने लगी जैसे कोई व्याध जंगल में अकस्मात् आ खड़े हुए शेर की तरफ देखता हो।

सभी को अपनी तरफ ताज्जुब के साथ देखते-देखते उस आदमी ने पुनः कहा, "न तो वह राजा गोपाल सिंह है और न उसकी जुबानी तिलिस्म का कोई भेद ही तुम लोगों को मालूम हो सकता है। अरे ओ कम्बख्त मायारानी, तू तो वर्षों तक मेरे साथ रह चुकी है, क्या तू भी मुझे नहीं पहचानती। राजा गोपाल सिंह मैं हूँ या वह है? तू उसके नाटे कद को नहीं देखती? अगर वह राजा गोपाल सिंह होता तो क्या उस तिलिस्मी तमंचे की एक गोली खाकर गिर पड़ता! भला मुझ पर भी एक नहीं पचास गोली चला, देख, क्या असर होता है।"

नये गोपालसिंह की इस बात ने मायारानी की रही-सही ताकत भी हवा कर दी और अब उसे अपने सामने मौत की सूरत दिखाई देने लगी। यद्यपि उसने इस गोपालसिंह पर भी तिलिस्मी तमंचा चलाने का इरादा किया था, मगर अब उसके हाथों में इतनी ताकत न रही कि तमंचे में गोली डालकर चला सके। इसी तरह उसके साथी भी घबड़ाकर इस नये राजा गोपालसिंह की तरफ देखने और अपने मन में सोचने लगे, "व्यर्थ इस मायारानी के फेर में पड़ कर यहाँ आए।"

इस नये गोपालसिंह ने पुनः पुकारकर मायारानी ने कहा, "हाँ-हाँ, सोचती क्या है, तिलिस्मी तमंचा चला और तमाशा देख, या कह तो मैं स्वयं तेरे पास चला आऊँ! और भीमरोन वगैरह, तुम लोग क्यों इसके फेर में पड़कर अपनी-अपनी जान दे रहे हो! क्या तुम समझ रहे हो कि यह तिलिस्म की रानी हो जायेगी और तुम्हें अपना हिस्सेदार बना लेगी! कदापि नहीं, अब इसकी जान किसी तरह नहीं बच सकती और मैं अभी नीचे आकर तुम सभी का काम तमाम करता हूँ। हाँ, अगर तुम लोग अपनी जान बचाना [ १०४ ]चाहते हो तो मैं तुम्हें कहता हूँ कि मायारानी का खयाल न करके उसे इसी जगह छोड़ दो और तुम लोग उस सफेद संगमरमर के चबूतरे पर भागकर चले जाओ। खबरदार, दूसरी जगह मत खड़े होना और मेरे नीचे आने के पहले ही यहाँ से हटकर उस चबूतरे पर चले जाना, नहीं तो पछताओगे!"

इतना कहकर नये गोपालसिंह ने मोमबत्ती नीचे फेंक दी और पीछे की तरफ हटकर उन लोगों की नजरों से गायब हो गये।

अब भीमसेन और माधवी वगैरह को निश्चय हो गया कि मायारानी के किए कुछ न होगा और इसका साथ करके हम लोगों ने व्यर्थ ही में अपने को आफत में ला फँसाया। इस तिलिस्मी बाग तथा राजा गोपालसिंह की माया का पता नहीं लगता, अतः मायारानी का साथ देना और गोपालसिंह की बात न मानना निःसन्देह अपना गला अपने हाथ से काटना है। इतना सोचते-सोचते ही वे लोग गोपाल सिंह के कहे मुताबिक उस संगमरमर के चबूतरे पर चले गये जो उनसे थोड़ी ही दूर पर उनके पीछे की तरफ पड़ता था।

होना तो ऐसा ही चाहिए था कि गोपालसिंह की बातों से डरकर मायारानी भी उन लोगों के साथ-ही-साथ उसी संगमरमर वाले चबूतरे पर चली जाती, मगर न मालूम क्या सोचकर उसने ऐसा न किया और वहाँ से भागकर उन फौजी सिपाहियों की भीड़ में जा छिपी जो इस बाग में खड़े हुए इनकी बातें सुन नहीं सकते थे, मगर ताज्जुब के साथ सब-कुछ देख जरूर रहे थे।

वह संगमरमर का चबूतरा, जिस पर भीमसेन वगैरह चले गये थे, उनके जाने के थोड़ी ही देर बाद इस तेजी के साथ जमीन के अन्दर धंस गया कि उन लोगों को कूदकर भागने की भी मोहलत न मिली। कुछ देर बाद उन सभी को न मालूम कहाँ उलटकर वह चबूतरा फिर ऊपर चला आया और ज्यों का त्यों अपने स्थान पर जम गया।

इस समय केवल सुबह की सफेदी ही ने चारों तरफ अपना दखल नहीं जमा लिया था, बल्कि आसमान पर पूरव की तरफ सूरज की लालिमा भी कुछ दूर तक फैल चुकी थी, इसलिए उस चबूतरे पर जाने वाले भीमसेन और माधवी वगैरह का जो हाल हुआ, वह माधवी के फौजी सिपाहियों ने भी बखूबी देख लिया। अपने मालिक और उनके साथियों की यह दशा देख फौजी सिपाही घबरा गये और चाहने लगे कि यदि कहीं रास्ता मिल जाय तो हम लोग भी यहाँ से भागकर अपनी जान बचावें। उन्हें अपने झुँड में मायारानी का आ जाना बहुत ही बुरा मालूम हुआ और उन्होंने बड़ी बेमुरौवती के साथ मायारानी से कहा, "तुम्हारी ही बदौलत हम लोगों की यह दशा हुई है और हमारे मालिकों पर भी आफत आई, अत: अब तुम हमारी मण्डली में से चली जाओ, नहीं तो हम लोग जूते से तुम्हारे सिर की खबर लेंगे, तुम्हारे जाने के बाद हम लोगों पर जो कुछ बीतेगी, उसे सह लेंगे।"

अफसोस, अपनी करतूतों के कारण आज मायारानी इस दशा को पहुँच गई कि अपने सिपाहियों की झिड़की सहे और जूतियाँ खाय। सिपाहियों की बात जब मायारानी ने न मानी तो कई सिपाहियों ने जूतियों से उसकी खबर ली, और उसी समय ऊपर से [ १०५ ]किसी के पुकारने की आवाज आई।

जिस जगह ये सिपाही लोग थे, उससे थोड़ी ही दूर पर एक बुर्ज था। इस समय उसी बुर्ज पर चढ़े हुए राजा गोपालसिंह को उन सिपाहियों ने देखा और मालूम किया कि वह आवाज उन्हीं ने दी थी।

गोपालसिंह की कैफियत देखकर सिपाहियों का कलेजा पहले ही दहल चुका था, अतः अब इस बात का हौसला नहीं कर सकते थे कि उनका मुकाबला करें। उन्हें देखने के साथ ही उस फौज का अफसर हाथ जोड़कर खड़ा हो गया और बोला, "आज्ञा!"

गोपालासिंह ने कहा, "हम खूब जानते हैं कि तुम लोग बेकसूर हो और जो कुछ कसूर है, वह तुम्हारे मालिकों का है, सो तुमने देख ही लिया कि वे अपनी सजा को पहुँच गये, अब वे जीते नहीं हैं जो तुमसे आकर मिलेंगे, अतः अब तुम लोगों को हुक्म दिया जाता है कि तुम लोग अपनी-अपनी जान बचाकर यहाँ से निकल जाओ। यदि तुम्हारी इच्छा हो तो तुम्हारे जाने के लिए दरवाजा खोल दिया जाय और तुम लोग बाग से बाहर होकर जहाँ इच्छा हो चले जाओ। यदि तुम चाहोगे और नेकचलनी का वादा करोगे तो हमारी फौज में भी तुम को जगह मिल जायगी।"

फौजी अफसर––(हाथ जोड़े हुए) आप स्वयं राजा हैं और जानते हैं कि सिपाही लोग तनख्वाह के वास्ते लड़ते हैं। जो राज्य या जमीन के वास्ते लड़े और सिपाहियों को तनख्वाह दे, कसूर उसी का समझा जाता है। हमारे मालिक नादान थे, आपके प्रताप का खयाल न करके मायारानी की बातों में आकर नष्ट हो गये, अब हम लोग आपके अधीन हैं और चाहते हैं कि हम लोगों को इस कैद से छुटकारा ही नहीं बल्कि आपके सरकार में नौकरी भी मिले। इस समय हम लोग अपने को आप ही का ताबेदार समझते हैं।

गोपालसिंह––अच्छा, तो जैसा चाहते हो, वैसा ही होगा। इस समय से तुम्हें अपना नौकर समझ के हुक्म दिया जाता है कि मायारानी जो तुम लोगों के बीच में चली आई है, जूतियाँ लगाकर अलग कर दी जाय और तुम लोग (हाथ का इशारा करके) उस तरफ की दीवार के पास चले जाओ। वहाँ तुम्हें एक छोटा सा दरवाजा खुला हुआ दिखाई देगा, बस उसी राह से तुम लोग बाहर चले जाना और किसी ठिकाने मैदान में डेरा जमाना। हमारा राजदीवान स्वयं तुम्हारे पास पहुँचकर सब इन्तजाम कर देगा। मगर खबरदार, इस बात का खूब खयाल रखना कि मायारानी तुम लोगों के साथ बाहर न जाने पावे और तुम लोगों में से एक आदमी भी उसका साथ न दे।

फौजी अफसर––जो हुक्म।

मायारानी बेइज्जत हो ही चुकी थी, मगर फिर भी दूर खड़ी यह सब कार्रवाई देख और बातें सुन रही थी। उसे इन सिपाहियों की नमकहरामी पर बड़ा क्रोध आया और वह वहाँ से भागकर पश्चिम की तरफ वाले दालान में चली गई, तथा एक कोठरी के अन्दर घुसकर गायब हो गयी। शायद इस कोठरी में कोई तहखाना या रास्ता था, जिसका हाल उसे मालूम था। उसी राह से होकर वह मकान की दूसरी मंजिल पर चली गई और उसी जगह से छिपकर तिलिस्मी तमंचे की गोली उन फौजी सिपाहियों पर चलाने लगी जो राजा गोपालसिंह की आज्ञानुसार दरवाजे की तरफ जा रहे थे। इन [ १०६ ]गोलियों की तासीर का हाल हम पहले कई जगह लिख आये हैं और बता आये हैं कि इन गोलियों में से निकला हुआ धुआँ आला दर्जे की बेहोशी का असर बात की बात में पैदा करता था, अब बेचारे सिपाहियों को दरवाजे तक पहुँचने की भी मोहलत न मिली और तीन ही चार गोलियों में से निकले धुएँ ने उन सभी को बेहोश करके जमीन पर लिटा दिया।

अपनी कार्रवाई को देखकर मायारानी बहुत प्रसन्न हुई, मगर उसकी प्रसन्नता ज्यादा देर तक कायम न रही, क्योंकि उसी समय उसने राजा गोपालसिंह को उन सिपाहियों की तरफ जाते देखा। वह ताज्जुब में आकर उसी जगह खड़ी देखने लगी कि अब क्या होता है। उसने देखा कि राजा गोपालसिंह ने उन सिपाहियों के मध्य में पहुँचकर एक गोला जमीन पर पटका जो गिरते ही भारी आवाज के साथ फट गया और उसमें से इतना ज्यादा धुआँ निकला कि उसने क्रमशः फैलकर हर तरफ से उन सिपाहियों को घेर लिया और फिर हवा होकर आसमान की तरफ उठ गया। उस धुएँ की तासीर से सब सिपाहियों की बेहोशी जाती रही और वे लोग उठकर ताज्जुब के साथ एक-दूसरे का मुँह देखने लगे। सिपाहियों के अफसर ने अपने पास राजा गोपाल सिंह को मौजूद पाया और निगाह पड़ते ही हाथ जोड़कर बोला, "आपने तो हम लोगों को बाहर चले जाने की आज्ञा दे दी थी, फिर हम लोग बेहोश क्यों कर दिये गये?"

इसके जवाब में गोपालसिंह ने कहा, "तुम लोगों को हमने नहीं, बल्कि कम्बख्त मायारानी ने बेहोश किया था, हमने यहाँ पहुँचकर तुम्हारी बेहोशी दूर कर दी। अब तुम लोग एक सायत भी विलम्ब न करो और शीघ्र ही यहाँ से चले जाओ।"

उस अफसर ने झुककर सलाम किया और अपने साथियों को कुछ इशारा करके वहाँ से चल पड़ा। यह हाल देख मायारानी ने पुनः तिलिस्मी तमंचे की गोलियाँ उन लोगों पर चलाईं, मगर इसका असर कुछ भी न हुआ और वे सब सिपाही राजा गोपालसिंह की बदौलत थोड़ी ही देर में इस तिलिस्मी बाग के बाहर हो गये। फिर मायारानी को यह भी मालूम न हुआ कि राजा गोपालसिंह कहाँ गये और क्या हुए।