चन्द्रकान्ता सन्तति 5/18.9

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चंद्रकांता संतति भाग 5  (1896) 
द्वारा देवकीनन्दन खत्री
[ १११ ]

9

सवेरा हो जाने पर जब भूतनाथ और बलभद्रसिंह से मिलने के लिए पन्नालाल तिलिस्मी खँडहर के अन्दर नम्बर दो वाले कमरे में गये तो भूतनाथ को चारपाई पर सोते पाया और बलभद्र सिंह को वहाँ न देखा। पन्नालाल ने भूतनाथ को जगाकर पूछा, "आज तुम इस समय तक खुर्राटे ले रहे हो, यह क्या मामला है!"

भूतनाथ––बलभद्र सिंह जी ने गप-शप में तीन पहर रात बैठे ही बैठे बिता दी इसलिए सोने में बहुत कम आया और अभी तक आँख नहीं खुली, आइये बैठिये।

पन्नालाल––बलभद्रसिंह जी कहाँ हैं?

भूतनाथ––मुझे क्या खबर, इसी जगह कहीं होंगे, मुझे तो अभी आपने सोते से जगाया है।

पन्नालाल––मगर मैंने तो उन्हें कहीं भी नहीं देखा!

भूतनाथ––किसी पहरे वाले से पूछिये, शायद हवा खाने के लिए कहीं बाहर चले गये हों।

बलभद्रसिंह को वहाँ न पाकर पन्नालाल को बड़ा ही ताज्जुब हुआ और भूतनाथ भी घबराया-सा दिखाई देने लगा। पहले तो पन्नालाल और भूतनाथ दोनों ही ने उन्हें खँडहर वाले मकान के अन्दर खोजा मगर जब कुछ पता न लगा तब फाटक पर आकर पहरे वालों से पूछा। पहरे वालों ने भी उन्हें देखने से इनकार करके कहा कि "हम लोगों ने बलभद्र सिंह जी को फाटक के वाहर निकलते नहीं देखा। अतः हम लोग उनके बारे में कुछ नहीं कह सकते।"

बलभद्रसिंह कहाँ चले गये? आसमान पर उड़ गये, दीवार में घुस गये, या जमीन के अन्दर समा गये, क्या हुए? इस बात ने सभी को तरद्दुद में डाल दिया। धीरे-धीरे जीतसिंह को भी इस बात की खबर हुई। जीतसिंह स्वयं उस खँडहर वाले मकान में गये और तमाम कमरों, कोठरियों ओर तहखानों को देख डाला मगर बलभद्रसिंह का पता न लगा। भूतनाथ से भी तरह-तरह के सवाल किये गये, मगर इससे भी कुछ फायदा न हुआ।

संध्या के समय राजा वीरेन्द्रसिंह की सवारी उस तिलिस्मी खँडहर के पास आ पहुँची और राजा वीरेन्द्र सिंह तथा तेजसिंह वगैरह सब कोई उसी खँडहर वाले मकान में उतरे। पहर भर जाते तक तो इन्तजामी होहल्ला मचता रहा, इसके बाद लोगों को राजा साहब से मुलाकात करने की नौबत पहुँची, मगर राजा साहब ने वहाँ पहुँचने के साथ ही भूतनाथ और बलभद्रसिंह का हाल जीतसिंह से पूछा था और बलभद्रसिंह के बारे में जो कुछ हुआ था, उसे उन्होंने राजा साहब से कह सुनाया था। पहर रात जाने के बाद जब भूतनाथ आज्ञानुसार दरबार में हाजिर हुआ तब राजा वीरेन्द्रसिंह ने उससे पूछा, "कहो भूतनाथ, अच्छे तो हो?"

भूतनाथ––(हाथ जोड़कर) महाराज के प्रताप से प्रसन्न हूँ। [ ११२ ]वीरेन्द्रसिंह––सफर में हमको जो कुछ रंज और गम हुआ, तुमने वह सुना ही होगा?

भूतनाथ––ईश्वर न करे महाराज को कभी रंज और गम हो मगर हाँ समयानुकूल जो कुछ होना था हो ही गया।

वीरेन्द्रसिंह––(ताज्जुब से) क्या तुम्हें इस बारे में कुछ मालूम हुआ है?

भूतनाथ––जी हाँ!

वीरेन्द्रसिंह––कैसे?

भूतनाथ––इसका जवाब देना तो कठिन है, क्योंकि भूतनाथ बनिस्वत जवान और कान के अन्दाज से ज्यादा काम लेता है।

वीरेन्द्रसिंह––(मुस्कुराकर) तुम्हारी होशियारी और चालाकी में तो कोई शक नहीं है मगर अफसोस इस बात का है कि तुम्हारे रहस्य तुम्हारी ही तरह द्विविधा में डालने वाले हैं। अभी कल की बात है कि हमको तुम्हारे बारे में इस बात की खुशखबरी मिली थी कि तुम बलभद्रसिंह को किसी भारी कैद से छुड़ाकर ले आये, मगर आज कुछ और ही बात सुनाई पड़ रही है।

भूतनाथ––जी हाँ, मैं तो हर तरह से अपनी किस्मत की गुत्थी को सुलझाने का उद्योग करता हूँ मगर विधाता ने उसमें उलझनें डाल दी हैं कि मालूम पड़ता है कि अव इस शरीर को चुनारगढ़ के कैदखाने का आनन्द अवश्य भोगना ही पड़ेगा।

वीरेन्द्रसिंह––नहीं-नहीं भूतनाथ, यद्यपि बलभद्रसिंह का यकायक गायब हो जाना तरह-तरह के खुटके पैदा करता है मगर हमें तुम्हारे ऊपर किसी तरह का सन्देह नहीं हो सकता। अगर तुम्हें ऐसा करना ही होता तो इतनी आफत उठा कर उन्हें क्यों छुड़ाते और क्यों यहाँ तक लाते? अतः तुम हमारी खफगी से तो बेफिक्र रहो, मगर इस बात के जानने का उद्योग जरूर करो कि बलभद्रसिंह कहाँ गये और क्या हुए।

भूतनाथ––(सलाम करके) ईश्वर आपको सदैव प्रसन्न रक्खे! मैं आशा करता हूँ कि एक सप्ताह के अन्दर ही बलभद्रसिंह का पता लगाकर उन्हें सरकार में उपस्थित करूंगा।

वीरेन्द्रसिंह––शाबाश, अच्छा अब तुम जाकर आराम करो।

आज्ञानुसार मूतनाथ वहाँ से उठकर अपने डेरे पर चला गया और बाकी लोग भी अपने ठिकाने कर दिये गये। जब राजा वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह अकेले रह गए तब उन दोनों में यों बातचीत होने लगी––

वीरेन्द्रसिंह––कुछ समझ में नहीं आता कि यह रहस्य कैसा है? भूतनाथ की बातों से तो किस तरह का खुटका नहीं होता!

तेजसिंह––जहाँ तक पता लगाया गया है उससे यही जाहिर होता है कि बलभद्रसिंह इस इमारत के बाहर नहीं गए, मगर इस बात पर भी विश्वास करना कठिन हो रहा है।

वीरेन्द्रसिंह––निःसन्देह ऐसा ही है।

तेजसिंह––देखना चाहिए भूतनाथ एक सप्ताह के अन्दर क्या कर दिखाता है। [ ११३ ]वीरेन्द्रसिंह––यद्यपि मैंने भूतनाथ की दिलमाजई कर दी है, परन्तु उसका जी शान्त नहीं हो सकता। खैर जो भी हो, मगर तुम उसे अपनी हिफाजत में समझो और पता लगाओ कि यह मामला कैसा है।

तेजसिंह––ऐसा ही होगा!


10

मायारानी ने जब समझा कि वे फौजी सिपाही इस बाग के बाहर हो गये और गोपालसिंह को भी वहाँ न देखा, तब हिम्मत करके अपने ठिकाने से निकली और पुनः बाग में आकर उस तरफ रवाना हुई जिधर उस गोपालसिंह को बेहोश छोड़ आई थी जो उसके चलाए हुए तिलिस्मी तमंचे की गोली के असर से बेहोश होकर बरामदे के नीचे आ रहा था, मगर वहाँ पहुँचने के पहले ही उसने उस दूसरे कुएँ के ऊपर एक गोपालसिंह को देखा जिसे फौजी सिपाहियों ने मिट्टी से पाट दिया था। मायारानी एक पेड़ की आड़ में खड़ी हो गई और उसी जगह से तिलिस्मी तमंचे वाली एक गोली उसने इस गोपालसिंह पर चलाई। गोली लगते ही गोपालसिंह लुढ़ककर जमीन पर आ रहा और मायारानी दौड़ती हुई उसके पास जा पहुँची। थोड़ी देर तक तो उसकी सूरत देखती रही, इसके बाद कमर से खंजर निकालकर गोपालसिंह का सिर काट डाला और तब खुशी-भरी निगाहों से चारों तरफ देखने लगी, यद्यपि उसे पूरा विश्वास न था कि मैंने असली गोपालसिंह को मार डाला है।

यद्यपि दिन बहुत चढ़ चुका था मगर अभी तक उसे जरूरी कामों से निपटने या कुछ खाने-पीने की परवाह न थी या यों कहिए कि उसे इन बातों का मोहलत हो नहीं मिल सकी थी। गोपालसिंह की लाश को उसी जगह छोड़कर वह बाग के तीसरे दर्जे में जाने की नीयत से अपने दीवानखाने में आई और उसी मामूली राह से बाग के तीसरे दर्जे में चली गई जिस राह से एक दिन तेजसिंह वहाँ पहुँचाये गये थे।

वहाँ भी उसने दूर ही से नम्बर दो वाली कोठरी के दरवाजे पर एक गोपालसिंह को बैठे बल्कि कुछ करते हुए देखा। मायारानी ताज्जुब में आकर थोड़ी देर तक तो उस गोपालसिंह को देखती रही, इसके बाद उसे भी उसी तिलिस्मी तमंचे वाली गोली का निशाना बनाया। जब वह भी बेहोश होकर जमीन पर लेट गया तब मायारानी ने वहाँ पहुँचकर उसका भी सिर काट डाला और एक लम्बी साँस लेकर आप-ही-आप बोली, "क्या अब भी असली गोपालसिंह न मरा होगा! मगर अफसोस, उस एक गोपालसिंह पर ऐसी गोली ने कुछ भी असर न किया था। कदाचित असली गोपालसिंह वही हो!"

इसके जवाब में किसी ने कोठरी के अन्दर से कहा, "हाँ, असली गोपालसिंह वह भी न था और असली गोपालसिंह अभी तक नहीं मरा!"

इस बात ने मायारानी का कलेजा हिला दिया और वह काँपती हुई ताज्जुब के