चन्द्रकान्ता सन्तति 5/19.10

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चंद्रकांता संतति भाग 5  (1896) 
द्वारा देवकीनन्दन खत्री

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नकाबपोश ने झुक कर सलाम किया और जिधर से आया था उसी तरफ लौट गया। थोड़ी देर तक और कुछ बातचीत होती रही। जिसके बाद सब कोई अपने-अपने ठिकाने चले गए। केवल महाराज सुरेन्द्रसिंह, वीरेन्द्रसिंह, जीतसिंह, तेजसिंह और गोपालसिंह रह गए और इन लोगों में कुछ देर तक उसी नकाबपोश के विषय में बातचीत होती रही। क्या-क्या बातें हुई, इसे हम इस जगह खोलना उचित नहीं समझते और न इसकी जरूरत देखते हैं। दूसरे दिन फिर उसी तरह का दरबारे-खास लगा जैसा पहले दिन लगा था और जिसका खुलासा हाल हम ऊपर के बयान में लिख आये हैं। आज के दरबार में वे दोनों नकाबपोश हाजिर होने वाले थे, जिनकी तरफ से कल एक नकाबपोश आया था। अतः राजा साहब की तरफ से कल ही सिपाहियों और चोबदारों को हुक्म मिल गया था कि जिस समय दोनों दोनों नकाबपोश आवें उसी समय बिना इत्तिला किए ही दरबार में पहुँचा दिए जायें । यही सबब था कि आज दरबार लगने के कुछ ही देर बाद एक चोब[ १६८ ]दार के पीछे-पीछे वे दोनों नकाबपोश हाजिर हुए।

इन दोनों नकाबपोशों की पोशाक बहुत ही बेशकीमत थी। सिर पर बेलदार शमला था, जिसके आगे हीरे का जगमगाता हुआ सरपेंच था। भद्दी, मगर कीमती नकाब में बड़े-बड़े मोतियों की झालर लगी हुई थी। चपकन और पायजामे में भी सलमे-सितारे की जगह हीरे और मोतियों की भरमार थी तथा परतले के बेशकीमत हीरे ने तो सभी को ताज्जुब ही में डाल दिया था जिसके सहारे जड़ाऊ कब्जे की एक तलवार लटक रही थी। दोनों नकाबपोशों की पोशाक एक ही ढंग की थी और दोनों एक ही उम्र के मालूम पड़ते थे।

यद्यपि देखने से तो यही मालूम होता था कि ये दोनों नकाबपोश राजाओं से भी ज्यादा दौलत रखने वाले और किसी अमीर खानदान के होनहार बहादुर हैं। मगर इन दोनों ने बड़े अदब के साथ महाराज सुरेन्द्र सिंह, वीरेन्द्रसिंह और जीतसिंह को सलाम किया और इन तीनों के सिवाय और किसी की तरफ ध्यान भी न दिया। महाराज की आज्ञानुसार राजा गोपालसिंह के बगल में इन दोनों को जगह मिली। जीतसिंह ने सभ्यतानुसार कुशल-मंगल का प्रश्न किया।

दुष्टों के सिरताज, पतितों के महाराजाधिराज, नमकहरामों के किबलेगाह और दोजखियों के जहाँनाह मायारानी के तिलिस्मी दारोगा साहब तलब किये गए और जब हाजिर हुए तो बिना किसी को सलाम किए, जहाँ चोबदार ने बैठाया, बैठ गए। इस समय इनके हाथों में हथकड़ी और पैरों में ढीली बेड़ी पड़ी हुई थी। जब से इन्हें कैदखाने की हवा नसीब हुई तब से बाहर की कोई खबर इनके कानों तक पहुँची न थी। इन्हीं के लिए नहीं बल्कि तमाम कैदियों के लिए इस बात का इन्तजाम किया गया था कि किसी तरह की अच्छी या बुरी खबर उनके कानों तक न पहुँचे और न कोई उनकी बातों का जवाब ही दे।

महाराज का इशारा पाकर पहले राजा गोपालसिंह ने बात शुरू की और दारोगा की तरफ देखकर कहा––

गोपालसिंह––कहिए दारोगा साहब, मिजाज तो अच्छा है! अब आपको अपनी बेकसूरी साबित करने के लिए किन-किन चीजों की जरूरत है?

दारोगा––मुझे किसी चीज की जरूरत नहीं है और मैं उम्मीद करता हूँ कि आपको भी इस बात का कोई सबूत न मिला होगा कि मैंने आपके साथ किसी तरह की बुराई की थी या मुझे इस बात की खबर भी थी कि आपको महारानी ने कैद कर रक्खा है।

गोपालसिंह––(मुस्कुराते हुए) नहीं-नहीं, आप मेरे बारे में किसी तरह का कोई तरदुद न करें। मैं आपसे अपने मामले में बातचीत करना नहीं चाहता और न यही पूछना चाहता हूँ कि शुरू-शुरू में आपने मेरी शादी में कैसे-कैसे नोंक-झोंक के काम किए और बहुत सी मंड़वे की बातों को तै करते हुए अन्त में किस मायारानी को लेकर अपने किस मेहरबान गुरु-भाई के पास किस तरह की मदद लेने गये थे या फिर जमाने ने क्या रंग दिखाये, इत्यादि। मेरे साथ तो जो कुछ आपने किया, उसे याद करने का ध्यान भी [ १६९ ]मैं अपने दिल में लाना पसन्द नहीं करता मगर मेरे पुराने दोस्त इन्द्रदेव आपसे कुछ पूछे बिना भी न रहेंगे। उन्हें चाहिए था कि अब भी अपने गुरुभाई का नाता निबाहें, मगर अफसोस, किसी बेविश्वासे ने उन्हें यह कहकर रंज कर दिया है कि "इन्दिरा और सरयू की किस्मतों का फैसला भी इन्हीं दारोगा साहब के हाथ से हुआ है!"

राजा गोपालसिंह के जुबानी थपेड़ों ने दारोगा का मुँह नीचा कर दिया। पुरानी बातों और करतूतों ने आँखों के आगे ऐसी भयानक मूरतें पैदा कर दी जिनके देखने की ताकत इस समय उसमें न थी। उसके दिल में एक तरह का दर्द सा मालूम होने लगा और उसका दिमाग चक्कर खाने लगा। यद्यपि उसकी बदकिस्मती और उसके पापों ने भयानक अन्धकार का रूप धारण करके उसे चारों तरफ से घेर लिया था, परन्तु इस अन्धकार में भी उसे सुबह के झिलमिलाते हुए तारे की तरह उम्मीद की एक बारीक और हलकी रोशनी बहुत दूर पर दिखाई दे रही थी जिसका सबब इन्द्रदेव था, क्योंकि इसे (दारोगा को) इन्दिरा और सरयू के प्रकट होने का हाल कुछ भी मालूम न था और वह यही समझ रहा था कि इन्द्रदेव पहले की तरह अभी तक इन बातों से बेखबर होगा और इन्दिरा तथा सरयू भी तिलिस्म के अन्दर मर-खप कर अपने बारे में मेरी बदकारियों का सबूत अपने साथ ही लेती गई होंगी। अस्तु, ताज्जुब नहीं कि आज भी इन्द्रदेव मुझे अपना गुरुभाई समझ कर मदद करे। इसी सबब से उसने मुश्किल से अपने दिल को सम्हाला और इन्द्रदेव की तरफ देख के कहा––

"राम-राम, भला इस अनर्थ का भी कुछ ठिकाना है! क्या आप भी इस बात को सच मान सकते हैं?"

इन्द्रदेव––अगर इन्दिरा मर गई होती और यह कलमदान नष्ट हो गया होता तो इस बात को मानने के लिए मुझे जरूर कुछ उद्योग करना पड़ता।

इतना कहकर इन्द्रदेव ने इन्दिरा की तस्वीर वाला वह कलमदान निकालकर सामने रख दिया।

इन्द्रदेव की बातें सुन और इस कलमदान की सूरत पुनः देख कर दारोगा की बची-बचाई उम्मीद भी जाती रही। उसने भय और लज्जा से सिर झुका लिया और बदन में पैदा हुई भई कँपकँपी को रोकने का उद्योग करने लगा। इसी बीच में भूतनाथ बोल उठा––

"दारोगा साहब, इन्दिरा को आपके पंजे से बार-बार छुड़ाने वाला भूतनाथ भी तो आपके सामने ही मौजूद है और अगर आप चाहें तो उस कम्बख्त औरत से भी मिल सकते हैं जिसने उस बाग में आपको कुएँ के अन्दर धकेला था और बेचारी इन्दिरा को दुःख के अथाह समुद्र से बाहर किया था।"

भूतनाथ की बात सुनते ही दारोगा काँप गया और घबड़ाकर उन नये आये हुए दोनों नकाबपोशों की तरफ देखने लगा। उसी समय उनमें से एक नकाबपोश ने नकाब हटा कर रूमाल से अपने चेहरे को इस तरह पोंछा जैसे पसीना आने पर कोई अपने चेहरे को साफ करता है लेकिन इससे उसका असल मतलब केवल इतना ही था कि दारोगा उसकी सूरत देख ले। [ १७० ]दारोगा के साथ-ही-साथ और कई आदमियों की निगाह उस नकाबपोश के चेहरे पर गई मगर उनमें से किसी ने भी आज के पहले उसकी सूरत नहीं देखी थी इसलिए कोई कुछ अनुमान न कर सका, हाँ दारोगा उसकी सूरत देखते ही भय और दुःख से पागल हो गया। वह घबड़ा कर उठ खड़ा हुआ और उसी समय चक्कर खाकर जमीन पर गिरने के साथ ही बेहोश हो गया।

यह कैफियत देख लोगों को बड़ा ही ताज्जुब हुआ। राजा सुरेन्द्रसिंह, जीतसिंह, वीरेन्द्रसिंह, तेजसिंह, देवीसिंह और राजा गोपालसिंह ने भी उस नकाबपोश की सूरत देख ली थी, मगर इनमें से न तो किसी ने उसे पहचाना और न उससे कुछ पूछना ही उचित जाना अतः आज्ञानुसार दरबार बर्खास्त किया गया और वह कम्बख्त नकटा दारोगा पुनः कैदखाने की अंधेरी कोठरी में डाल दिया गया। उन दोनों नकाबपोशों में से एक ने तेजसिंह से पूछा, "कल किसका मुकदमा होगा?" जवाब में तेजसिंह ने बलभद्रसिंह का नाम लिया और दोनों नकाबपोश वहां से रवाना हो गये।