चन्द्रकान्ता सन्तति 5/20.5

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चंद्रकांता संतति भाग 5  (1896) 
द्वारा देवकीनन्दन खत्री

[ २०१ ]

5

देवीसिंह और भूतनाथ की यह इच्छा न थी कि आज सवेरा होते ही हम लोग यहाँ से चले जायें और अपनी स्त्रियों के किसी तरह की जाँच न करें, मगर लाचारी थी, क्योंकि नकाबपोशों की इच्छा के विरुद्ध वे यहाँ नहीं रह सकते थे, साथ ही इसके मकान-मालिक की मेहरबानी और मीठे बर्ताव का भी उन्हें वैसा ही खयाल था, जैसाकि इस मजबूरी की अवस्था में होना चाहिए। सवेरा होने पर जब कई नकाबपोश उनके सामने आये और उन्हें बाहर निकलने के लिए कहा तो देवीसिंह और भूतनाथ उठ खड़े हुए और कमरे के बाहर निकल उनके पीछे-पीछे रवाना हुए। जब मकान के नीचे उतरकर मैदान में पहुँचे तो देवीसिंह का इशारा पाकर भूतनाथ ने नकाबपोश से कहा, "हम तुम्हारे मकान-मालिक से एक दफे और मिलना चाहते हैं।

नकाबपोश––इस समय उनसे मुलाकात नहीं हो सकती।

भूतनाथ––अगर घण्टे या दो घण्टे में मुलाकात हो सके तो हम लोग ठहर जायें।

नकाबपोश––नहीं, अब मुलाकात हो ही नहीं सकती। उन्होंने रात ही को जो हुक्म दे रखा था. हम लोग उसको पूरा कर रहे हैं।

भूतनाथ––हम लोगों को कोई जरूरी बात पूछनी हो तो?

नकाबपोश––एक चिट्ठी लिखकर रख जाओ, उसका जवाब तुम्हारे पास पहुँच जायेगा।

भूतनाथ––अच्छा, यह बताओ कि यहाँ हम लोगों ने गिरफ्तार होने के पहले जिन दो औरतों को देखा था, उनसे भी मुलाकात हो सकती है या नहीं?

नकाबपोश––नहीं, क्या उन लोगों को आपने खानदानी समझ रखा है?

दूसरा नकाबपोश––इन सब फिजूल बातों से कोई मतलब नहीं और न हम लोगों को इतनी फुरसत ही है। आप लोग नाहक हम लोगों को रंज करते हैं और हमारे मालिक की उस मेहरबानी को एकदम भूल जाते हैं जिसकी बदौलत आप लोग कैदखाने की हवा खाने से बच गये।

भूतनाथ––(कुछ क्रोध-भरी आवाज में) अगर हम लोग यहाँ से न जायें तो तुम क्या करोगे? [ २०२ ]नकाबपोश––(रंज के साथ) जबरदस्ती निकाल बाहर करेंगे। आप लोग अपने तिलिस्मी खंजर के भरोसे न भूलियेगा, ऐसे-ऐसे तुच्छ खंजरों का काम हम लोग अपने नाखूनों से लेते हैं। बस, सीधी तरह कदम उठाइये और इस जमीन को अपनी मिलकियत न समझिये।

नकाबपोशों की बातें यद्यपि भूतनाथ और देवीसिंह को बुरी मालूम हुईं, मगर बहुत-सी बातों को सोच-विचारकर चुप ही रहे और तकरार करना उचित न जाना। सब नकाबपोशों ने मिलकर उन्हें खोह के बाहर किया और लौटते समय भूतनाथ और देवीसिंह से एक नकाबपोश ने कहा, "बस, अब इसके अन्दर आने का खयाल न कीजियेगा, कल दरवाजा खुला रह जाने के कारण आप लोग चले आये, मगर अब ऐसा मौका न मिलेगा।"

नकाबपोशों के चले जाने के बाद भूतनाथ और देवीसिंह वहाँ से रवाना हुए और कुछ दूर जाकर जंगल में एक घने पेड़ की छाया देखकर बैठ गये और यों बातचीत करने लगे––

भूतनाथ––कहिये, अब क्या इरादा है?

देवीसिंह बात तो यह है कि हम लोग नकाबपोशों के घर जाकर बेइज्जत हो गये। चाहे ये दोनों नकाबपोश कुछ भी कहें मगर मुझे निश्चय है कि दरबार में आने वाले दोनों नकाबपोश वही हैं जिनके हम मेहमान हुए थे। मुझे तो शर्म आयेगी जब दरबार में मैं उन्हें अपने सामने देखूँगा। इसके अतिरिक्त यदि यहाँ से जाकर अपनी स्त्री को घर में न देखूँगा, आर्श्चय रंज और क्रोध की कोई हद न रहेगी।

भूतनाथ––यद्यपि मैं एक तौर पर बेहया हो गया हूँ, परन्तु आज की बेइज्जती दिल को फाड़े डालती है। बहुत ऐयारी की, मगर ऐसा जिक्र कभी नहीं उठा था, मेरी तो यहाँ से हटने की इच्छा नहीं होती, यही जी में आता है कि इनमें से एक-न-एक को अवश्य पकड़ना चाहिए और अपनी स्त्री के विषय में इतना कहना काफी है कि यदि अपने घर जाकर अपनी स्त्री को पा लिया तो मैं भी अपनी स्त्री की तरफ से बेफिक्र हो जाऊँगा।

देवीसिंह––करने के लिए तो हम लोग बहुत कुछ कर सकते हैं, मगर जब मैं उनके बर्ताव पर ध्यान देता हूँ, तव लाचारी आकर पल्ला पकड़ लेती है। जब एक बार उन्होंने हम लोगों को गिरफ्तार किया तो हर तरह का सलूक कर सकते थे, परन्तु किसी तरह की बुराई हमारे साथ नहीं की। दूसरे वे लोग स्वयं हमारे महाराज के दरबार में हाजिर हुआ करते हैं और समय पर अपने को प्रकट कर देने का वादा भी कर चुके हैं, ऐसी अवस्था में उनके साथ खोटा बर्ताव करते डर लगता है। कहीं ऐसा न हो कि वे लोग रंज हो जायें और दरबार में आना छोड़ दें, अगर ऐसा हुआ तो बड़ी बदनामी होगी और कैदियों का मामला भी आजकल के ढंग से अधूरा ही रह जायेगा!

भूतनाथ––आप बात तो ठीक कहते हैं, परन्तु···

देवीसिंह––नहीं, अब इस समय तरह देना ही उचित है। जिस तरह मैं अपनी बदनामी का खयाल करता हूँ, उसी तरह तुमको भी तो खयाल होगा!

भूतनाथ––जरूर! यदि नकाबपोशों का कोई अकेला आदमी कब्जे में आ जाये [ २०३ ]तो शायद काम निकल जाये और किसी को इस बात की खबर भी न हो।

इस तरह की बातें हो रही थीं कि उनके कानों में घोड़े के टापों की आवाज आई और दोनों ने घूमकर पीछे की तरफ देखा। एक नकाबपोश सवार आता हुआ दिखाई पड़ा जिस पर निगाह पड़ते ही भूतनाथ ने देवीसिंह से कहा, "यह भी जरूर उन्हीं में से है, भला एक दफे तो और कोशिश कीजिए और जिस तरह हो सके, इसे गिरफ्तार कीजिए, फिर जैसा होगा देखा जायेगा। बस, अब इस समय सोचने-विचारने का मौका नहीं है।"

वह सवार बिल्कुल बेफिक्री के साथ धीरे-धीरे आ रहा था, अतः ये दोनों भी उसके रास्ते के दोनों तरफ पेड़ों की आड़ देकर उसे गिरफ्तार करने को नीयत से खड़े हो गये। जब वह नकाबपोश सवार इन दोनों की सीध पर पहुँचा और आगे बढ़ना ही चाहता था, तभी भूतनाथ के हाथ की फेंकी हुई कमन्द उसके घोड़े के गले में जा पड़ी। घोड़ा भड़ककर उछलने-कूदने लगा और तब दोनों ने लपककर घोड़े की लगाम थाम ली। उस सवार ने खंजर खींचकर वार करना चाहा, मगर कुछ सोचकर रुक गया और साथ ही इसके इन दोनों को भी उसने लड़ने के लिए तैयार देखा।

नकाबपोश––(भूतनाथ से) तुम मुझे व्यर्थ क्यों रोकते हो? मुझसे क्या चाहते हो?

भूतनाथ––हम लोग तुम्हें किसी तरह की तकलीफ देना नहीं चाहते, बस, थोड़ी देर के लिए घोड़े से नीचे उतरो, और हमारी दो-चार बातों का जवाब देकर जहाँ जी में आवे, चले जाओ।

नकाबपोश––बहुत अच्छा, मगर नकाब हटाने के लिए जिद न करना।

इतना कहकर नकाबपोश घोड़े के नीचे उतर पड़ा और भूतनाथ ने उससे कहा, "लेकिन तुम्हें अपने चेहरे से नकाब हटाना पड़ेगा, और यह काम सबसे पहले होगा।" यह कहते-कहते भूतनाथ ने अपने हाथ से उसके चेहरे की नकाब उलट दी, मगर उसके चेहरे पर निगाह पड़ते ही चौंककर बोल बैठा, "हैं, यह तो मेरी स्त्री है जो नकाबपोशों के घर में दिखाई पड़ी थी!"