चन्द्रकान्ता सन्तति 5/20.4

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चंद्रकांता संतति भाग 5  (1896) 
द्वारा देवकीनन्दन खत्री

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महाराजा सुरेन्द्रसिंह का दरबारे-खास लगा हुआ है। जीतसिंह, वीरेन्द्रसिंह, तेजसिंह, गोपालसिंह और भैरोंसिंह वगैरह अपने खास ऐयारों के अतिरिक्त कोई गैर आदमी यहाँ दिखाई नहीं देता। महाराज की आज्ञानुसार एक नकाबपोश ने कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह का हाल इस तरह कहना शुरू किया––

नकाबपोश––जब तक राजा गोपालसिंह वहाँ रहे तब तक का हाल तो इन्होंने आपसे कहा ही होगा, अब मैं उसके बाद का हाल बयान करूँगा।

राजा गोपालसिंह से बिदा हो दोनों कुमार उसी बावली पर पहुँचे। जब राजा गोपालसिंह सबको लिए हुए वहाँ से चले गये उस समय सवेरा हो चुका था, अतएव दोनों भाई जरूरी काम और प्रातःकृत्य से छुट्टी पाकर बावली के अन्दर उतरे। निचली सीढ़ी पर पहुँचकर आनन्दसिंह ने अपने कुल कपड़े उतार दिए और केवल लंगोट पहने हुए जल के अन्दर बीचोंबीच में जा गोता लगाया। वहाँ जल के अन्दर एक छोटा-सा चबूतरा था और उस चबूतरे के बीचोंबीच में लोहे की मोटी कड़ी लगी हुई थी। जल में जाकर उसी को आनन्दसिंह ने उखाड़ लिया और इसके बाद जल के बाहर चले आए। बदन पोंछकर कपड़े पहन लिए, लंगोट सूखने के लिए फैला दिया और दोनों भाई सीढ़ी पर बैठकर जल के सूखने का इन्तजार करने लगे।

जिस समय आनन्दसिंह ने जल में जाकर वह लोहे की कड़ी निकाल ली, उसी समय से बावली का जल तेजी के साथ घटने लगा, यहाँ तक कि दो घण्टे के अन्दर ही बावली खाली हो गई और सिवा कीचड़ के उसमें कुछ न रहा, और वह कीचड़ भी मालूम होत! [ १९८ ]था कि बहुत जल्द सूख जायेगा, क्योंकि नीचे की जमीन पक्की और संगीन बनी हुई थी, केवल नाम मात्र को मिट्टी या कीचड़ का हिस्सा उस पर था। इसके अतिरिक्त किसी सुरंग या नाली की राह निकल जाते हुए पानी ने भी बहुत-कुछ सफाई कर दी थी।

बावली के नीचे वाली चारों तरफ की अन्तिम सीढ़ी लगभग तीन हाथ के ऊँची थी और उसकी दीवार में चारों तरफ चार दरवाजों के निशान बने हुए थे जिसमें से पूरब की तरफ वाले निशान को दोनों कुमारों ने तिलिस्मी खंजर से साफ किया। जब उसके आगे वाले पत्थरों को उखाड़कर अलग किया तो अन्दर जाने के लिए रास्ता दिखाई दिया जिसके विषय में कह सकते हैं कि वह एक सुरंग का मुहाना था और इस ढंग से बन्द किया गया था जैसा कि ऊपर बयान कर चुके हैं।

इसी सुरंग के अन्दर कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह को जाना था, मगर पहर भर तक उन्होंने इस खयाल से उसके अन्दर जाना मौकूफ रखा था कि उसके अन्दर से पुरानी हवा निकलकर ताजी हवा भर जाये, क्योंकि यह बात उन्हें पहले ही से मालूम थी कि दरवाजा खुलने के बाद थोड़ी ही देर में उसके अन्दर की हवा साफ हो जायेगी।

पहर भर दिन बाकी था जब दोनों कुमार उस सुरंग के अन्दर घुसे और तिलिस्मी खंजर की रोशनी करते हुए आधे घण्टे तक बराबर चले गये। सुरंग में कई जगह ऐसे सूराख बने हुए थे जिनमें से रोशनी तो नहीं मगर हवा तेजी के साथ आ रही थी और यही सबब था कि उसके अन्दर की हवा थोड़ी देर में साफ हो गई।

आप सुन चुके होंगे कि तिलिस्मी बाग के चौथे दर्जे में (जहाँ के देवमन्दिर में दोनों कुमार कई दिन तक रह चुके हैं) देवमन्दिर के अतिरिक्त चारों तरफ चार मकान बने हुए थे[१] और उसमें से उत्तर की तरफ वाला मकान गोलाकार स्याह पत्थर का बना हुआ था तथा उसके चारों तरफ चर्खियाँ और तरह-तरह के कल-पुर्जे लगे हुए थे। उस सुरंग का दूसरा मुहाना उसी मकान के अन्दर था और इसीलिए सुरंग के बाहर होकर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह ने अपने को उसी मकान में पाया। इस मकान के चारों तरफ एक गोलाकार दालान के अतिरिक्त कोई कोठरी या कमरा न था। बीच में एक संगमरमर का चबूतरा था और उस पर स्याह रंग का एक मोटा आदमी बैठा हुआ था जो जाँच करने पर मालूम हुआ कि लोहे का है। उसी आदमी के सामने की तरफ दालान में सुरंग का वह मुहाना था जिसमें से दोनों कुमार निकले थे। उसी सुरंग की बगल में एक और सुरंग थी और उसके अन्दर उतरने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई थीं। चारों तरफ देख-भाल करने के बाद दोनों कुमार उसी सुरंग में उतर गये और आठ-दस सीढ़ी नीचे उतर जाने के बाद देखा कि सुरंग खुलासा है तथा बहुत दूर तक चली गई है। लगभग सौ कदम तक दोनों कुमार बे-खटके चले गये और इसके बाद वे एक छोटे से बाग में पहुँचे जिसमें खूबसूरत पेड़-पत्तों का तो कहीं नाम-निशान भी न था हाँ, जंगली बेर, मकोय तथा केले के पेड़ों की कमी भी न थी। दोनों कुमार सोचे हुए थे कि यहाँ भी और जगहों की तरह हम सन्नाटा पाएंगे किसी आदमी की सूरत दिखाई न देगी मगर ऐसा न था। वहां कई आदमियों को इधर[ १९९ ]उधर घूमते देख दोनों कुमारों को बड़ा ही ताज्जुब हुआ और वे गौर से उन आदमियों की तरफ देखने लगे जो बिल्कुल जंगली और भयानक मालूम पड़ते थे।

वे आदमी गिनती में पाँच थे और उन लोगों ने भी दोनों कुमारों को देखकर उतना ही ताज्जुब किया जितना कुमारों ने उनको देखकर। वे लोग इकट्ठे होकर कुमार के पास चले आये और उनमें से एक ने आगे बढ़कर कुमार से पूछा, "क्या आप दोनों के साथ भी वही सलूक किया गया जो हम लोगों के साथ किया गया था? मगर ताज्जुब है कि आपके कपड़े और हरबे छीने नहीं गए और आप लोगों के चेहरे पर भी किसी तरह का रंज नहीं मालूम पड़ता!"

इन्द्रजीतसिंह––तुम लोगों के साथ क्या सलूक किया गया? तुम लोग कौन हो?

आदमी––हम लोग कौन हैं, इसका जवाब देना सहज नहीं है और न आप थोड़ी देर में इसका जवाब सुन ही सकते हैं, मगर आप अपने बारे में सहज में बता सकते हैं कि किस कसूर पर यहाँ पहुँचाए गये?

इन्द्रजीतसिंह––हम दोनों तिलिस्म को तोड़ते और कई कैदियों को छुड़ाते हुए अपनी खुशी से यहाँ तक आये हैं और अगर तुम लोग कैदी हो तो समझ रखो इस कैद की अवधि पूरी हो गई और बहुत जल्द अपने को स्वतन्त्र विचरते हुए देखोगे।

आदमी हमें कैसे विश्वास हो कि जो कुछ आप कह रहे हैं वह सच है?

इन्द्रजीतसिंह––अभी नहीं तो थोड़ी देर में स्वयं विश्वास हो जायेगा।

इतना कहकर कुमार आगे की तरफ बढ़े और वे लोग उन्हें घेरे हुए साथ-साथ जाने लगे। इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह को विश्वास हो गया कि सरयू की तरह ये लोग भी इस तिलिस्म में कैद किये गये हैं और दारोगा या मायारानी ने इनके साथ यह सलूक किया है, और वास्तव में बात भी ऐसी ही थी।

इन आदमियों की उम्र यद्यपि बहुत ज्यादा न थी, मगर रंज, गम और तकलीफ की बदौलत सूखकर काटा हो गये थे। सिर और दाढ़ी के बालों ने बढ़ और उलझकर उनकी सूरत डरावनी कर दी थी और चेहरे की जर्दी तथा गड्ढे में घुसी हुई आँखें उनकी बुरी अवस्था का परिचय दे रही थीं।

इस बाग में पानी का एक चश्मा था और वही इन कैदियों की जिन्दगी का सहारा था, मगर इस बात का पता नहीं लग सकता था कि पानी कहाँ से आता है और निकलकर कहाँ चला जाता है। इसी नहर की बदौलत यहाँ की जमीन का बहुत बड़ा हिस्सा तर हो रहा था और इस सबब से उन कैदियों को केला वगैरह खाकर अपनी जान बचाये रहने का मौका मिलता था।

बाग के बीचोंबीच में बीस या पच्चीस हाथ ऊँचा एक बुर्ज था और उस बुर्ज के चारों तरफ स्याह पत्थर का कमर बराबर ऊँचा चबूतरा बना हुआ था, मगर इस बात का पता नहीं लगता था कि इस बुर्ज पर चढ़ने के लिए कोई रास्ता भी है या नहीं, अगर है तो कहाँ से है। दोनों कुमार उस चबूतरे पर बेधड़क जाकर बैठ गये और तब इन्द्रजीतसिंह ने उन कैदियों की तरफ देखकर कहा, "कहो, अब तुम्हें विश्वास हुआ कि जो कुछ हमने कहा था, वह सच है?" [ २०० ]आदमी––जी हाँ, अब हम लोगों को विश्वास हो गया, क्योंकि हम लोगों ने इस चबूतरे को कई दफे आजमाकर देख लिया है। इस पर बैठना तो दूर रहा, हम इसे छूने के साथ ही बेहोश हो जाते थे, मगर ताज्जुब है कि आप पर इसका असर कुछ भी नहीं होता।

इन्द्रजीतसिंह––इस समय तुम लोग भी इस चबूतरे पर बैठ सकते हो जब तक हम बैठे हैं।

आदमी––(चबूतरा छूने की नीयत से बढ़ता हुआ) क्या ऐसा हो सकता है?

इन्द्रजीतसिंह––आजमा के देख लो।

उस आदमी ने चबूतरा छूआ मगर उस पर कुछ बुरा असर न हुआ और तब कुमार की आज्ञा पा वह चबूतरे पर बैठ गया। उसकी देखा-देखी सभी आदमी उस चबूतरे पर बैठ गये और जब किसी तरह का बुरा असर होते न देखा, तब हाथ जोड़कर कुमार से बोले, "अब हम लोगों को आपकी बात में किसी तरह का शक न रहा, आशा है कि आप कृपा करके अपना परिचय देंगे।"

जब कुँअर इन्द्रजीतसिंह ने अपना परिचय दिया, तब सब-के-सब उनके पैरों पर गिर पड़े और डबडबाई आँखों से उनकी तरफ देखकर बोले, "दुहाई है, महाराज की! हमारे मामले पर विचार होकर दुष्टों को दण्ड मिलना चाहिए।"

इतना कहकर नकाबपोश चुप हो गया और कुछ सोचने लगा। इसी समय वीरेन्द्रसिंह ने उससे कहा, "मालूम होता है कि उस चबूतरे में बिजली का असर था और इस सबब से उसे कोई छू नहीं सकता था, मगर दोनों लड़कों के पास बिजली वाला तिलिस्मी खंजर मौजूद था और उसके जोड़ की अँगूठी भी, इसलिए तब तक के लिए उसका असर जाता रहा, जब तक दोनों लड़के उस पर बैठे रहे।"

नकाबपोश––(हाथ जोड़कर) जी, बेशक यही बात है।

वीरेन्द्रसिंह––अच्छा, तब क्या हुआ?

नकाबपोश––इसके बाद कुमार ने उन सबका हाल पूछा और उन सबने रो-रोकर अपना हाल बयान किया।

वीरेन्द्रसिंह––उन लोगों ने अपना हाल क्या कहा?

नकाबपोश––मैं यही सोच रहा था कि उन लोगों ने जो कुछ अपना हाल बयान किया वह मैं इस समय कहूँ या न कहूँ।

तेजसिंह––क्या उन लोगों का हाल कहने में कोई हर्ज है? आखिर हम लोगों को मालूम तो होगा ही।

नकाबपोश––जरूर मालूम होगा और मेरी ही जुबानी मालूम होगा। मैं जो कहने से रुकता हूँ, वह केवल एक ही दो दिन के लिए, हमेशा के लिए नहीं।

तेजसिंह––यही बात है तो हमें एक दिन के लिए कोई जल्दी भी नहीं।

नकाबपोश––(हाथ जोड़कर) अतः अब आज्ञा हो तो हम लोग डेरे पर जायें।

कल पुनः सभा में उपस्थित होकर यदि देवीसिंह और भूतनाथ न आये, तो कुमार का हाल सुनावेंगे। [ २०१ ]सुरेन्द्रसिंह––(इशारे से जाने की आज्ञा देकर) तुम दोनों ने इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह का हाल सुनाकर अपने विषय में हम लोगों आश्चर्य को और भी बढ़ा दिया।

दोनों नकाबपोश उठ खड़े हुए और अदब के साथ सलाम करके वहाँ से रवाना हुए।

  1. देखिए नौवां भाग, पहला बयान।