चन्द्रकान्ता सन्तति 6/21.7

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चंद्रकांता संतति भाग 6  (1896) 
द्वारा देवकीनंदन खत्री

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जरूरी कामों से छुट्टी पाकर ऐयारों ने रसोई बनाई, क्योंकि इस बंगले में खाने-पीने की सभी चीजें मौजूद थीं और सभी ने खुशी-खुशी भोजन किया। इसके बाद सब कोई उसी कमरे में आ बैठे जिसमें रात को चलती-फिरती तस्वीरों का तमाशा देखा [ ४४ ] था। इस समय भी सभी की निगाहें ताज्जुब के साथ उन्हीं तस्वीरों पर पड़ रही थीं।

सुरेन्द्रसिंह --- मैं बहुत गौर कर चुका मगर अभी तक समझ में न आया कि इन तस्वीरों में किस तरह की कारीगरी खर्च की गई है जो ऐसा तमाशा दिखाती हैं । अगर मैं अपनी आँखों से इस तमाशे को देखे हुए न होता और कोई गैर आदमी मेरे सामने ऐसे तमाशे का जिक्र करता तो मैं उसे पागल ही समझता, मगर अब स्वयं देख लेने पर भी विश्वास नहीं होता कि दीवार पर लिखी तस्वीरें इस तरह काम करेंगी।

जीतसिंह --- बेशक ऐसी ही बात है । इतना देखकर भी किसी के सामने यह कहने का हौसला न होगा कि मैंने ऐसा तमाशा देखा था और सुनने वाला भी कभी विश्वास न करेगा।

ज्योतिषीजी --- आखिर यह एक तिलिस्म ही है, इसमें सभी बातें आश्चर्य की ही दिखायी देती हैं।

जीतसिंह --– चाहे यह तिलिस्म हो मगर इसके बनाने वाले तो आदमी ही थे। जो बात मनुष्य के किये नहीं हो सकती वह तिलिस्म में भी नहीं दिखाई दे सकती।

गोपालसिंह --- आपका कहना बहुत ठीक है, तिलिस्म की बातें चाहे कैसा ही ताज्जुब पैदा करने वाली क्यों न हों मगर गौर करने से उनकी कारीगरी का पता लग ही जायगा । आपने बहुत ठीक कहा, आखिर तिलिस्म के बनानेवाले भी तो मनुष्य ही थे !

वीरेन्द्रसिंह --- जब तक समझ में न आवे तब तक उसे चाहे कोई जादू कहे या करामात कहे मगर हम लोग सिवाय कारीगरी के कुछ भी नहीं कह सकते और पता लगाने तथा भेद मालूम हो जाने पर यह बात सिद्ध हो ही जाती है। इन चित्रों की कारीगरी पर भी अगर गौर किया जायगा तो कुछ न कुछ पता लग ही जायगा। ताज्जुब नहीं कि इन्द्रजीतसिंह को इसका भेद मालूम हो ।

सुरेन्द्रसिंह --- बेशक इन्द्रजीत को इसका भेद मालूम होगा ही। (इन्द्रजीतसिंह की तरफ देखकर) तुमने किस तरकीब से इन तस्वीरों को चलाया था ?

इन्द्रजीतसिंह --- (मुस्कुराते हुए) मैं आपसे अर्ज करूँगा और यह भी बताऊंगा कि इसमें भेद क्या है । मालूम हो जाने पर आप इसे एक साधारण बात ही समझेंगे। पहली दफा जब मैंने इस तमाशे को देखा था, तो मुझे भी बड़ा ही ताज्जुब पैदा हुआ था, मगर तिलिस्मी किताब की मदद से जब मैं इस दीवार के अन्दर पहुँचा तो सब भेद खुल गया।

सुरेन्द्रसिंह --- (खुश होकर) तब तो हम लोग बेकार ही परेशान हो रहे हैं और इतना सोच-विचार कर रहे हैं । तुम अब तक चुप क्यों थे ?

गोपालसिंह --- ऐयारों की तबीयत देख रहे थे।

सुरेन्द्रसिंह --- खैर बताओ तो सही कि इसमें क्या कारीगरी है ?

इतना सुनते ही इन्द्रजीतसिंह उठ कर उस दीवार के पास चले गये और सुरेन्द्रसिंह की तरफ देखकर बोले, "आप जरा तकलीफ कीजिए तो मैं इस भेद को भी समझा दूं !"

महाराज सुरेन्द्रसिंह उठकर कुमार के पास चले गये और उनके पीछे-पीछे और लोग भी वहाँ जाकर खड़े हो गये। इन्द्रजीतसिंह ने दीवार पर हाथ फेरकर सुरेन्द्रसिंह [ ४५ ] से कहा, "देखिये, असल में इस दीवार पर किसी तरह की चित्रकारी या तस्वीर नहीं है, दीवार साफ है और वास्तव में शीशे की है, तस्वीरें जो दिखाई देती हैं वे इसके अन्दर और दीवार से अलग हैं।"

कुमार की बात सुनकर सभी ने ताज्जुब के साथ उस दीदार पर हाथ फेरा और जीतसिंह ने खुश होकर कहा-"ठीक है, अब हम इस कारीगरी को समझ गए ! ये तस्वीरें अलग-अलग किसी धातु के टुकड़ों पर बनी हुई हैं और ताज्जुब नहीं कि तार या कमानी पर जड़ी हों, किसी तरह की शक्ति पाकर उस तार या कमानी में हरकत होती है और उस समय ये तस्वीरें चलती हुई दिखाई देती हैं।"

इन्द्रजीतसिंह --- बेशक यही बात है, देखिये, अब मैं इन्हें फिर चलाकर आपको दिखाता हूँ और इसके बाद दीवार के अन्दर ले चलकर सब भ्रम दूर कर दूंगा।

इस दीवार में जिस जगह जमानिया के किले की तस्वीर बनी थी, उसी जगह किले के तुर्ज के ठिकाने पर कई सूराख भी दिखाये गये थे जिनमें से एक छेद (सूराख) वास्तव में सच्चा था पर वह केवल इतना ही लम्बा-चौड़ा था कि एक मामूली खंजर का कुछ हिस्सा उसके अन्दर जा सकता था इन्द्रजीतसिंह ने कमर से तिलिस्मी खंजर निकाल कर उसके अन्दर डाल दिया और महाराज सुरेन्द्रसिंह तथा जीतसिंह की तरफ देखकर कहा "इस दीवार के अन्दर जो पुर्जे बने हैं, वे बिजली का असर पहुँचने ही से चलने- फिरने या हिलने लगते हैं। इस तिलिस्मी खंजर में आप जानते ही हैं कि पूरे दर्जे की बिजली भरी हुई है, अस्तु, उन पुों के साथ इनका संयोग होने ही से काम हो जाता है।

इतना कहकर इन्द्रजीतसिंह चुपचाप खड़े हो गये और सभी ने बड़े गौर से उन तस्वीरों को देखना शुरू किया बल्कि महाराज सुरेन्द्रसिंह, वीरेन्द्र सिंह, जीतसिंह, तेजसिंह और राजा गोपालसिंह ने तो कई तस्वीरों के ऊपर हाथ भी रख दिया। इतने ही में दीवार चमकने लगी और इसके बाद तस्वीरों ने वही रंगत पैदा की जो हम ऊपर के बयान में लिख आये हैं। महाराज और राजा गोपालसिंह वगैरह ने जो अपना हाथ तस्वीरों पर रख दिया था वह ज्यों का त्यों बना रहा और तस्वीरें उनके हाथों के नीचे से निकलकर इधर-उधर आने-जाने लगी जिसका असर उनके हाथों पर कुछ भी नहीं होता था। इस सबब से सभी को निश्चय हो गया कि उन तस्वीरों का इस दीवार के साथ कोई सम्बन्ध नहीं। इस बीच में कुंअर इन्द्रजीतसिंह ने अपना तिलिस्मी खंजर दीवार के अन्दर से खींच लिया। उसी समय दीवार का चमकना बन्द हो गया और तस्वीरें जहाँ की तहाँ खड़ी हो गई अर्थात् जो जितनी चल चुकी थीं, उतनी ही चलकर रुक गई । दीवार पर गौर करने से मालूम होता था कि तस्वीरें पहले ढंग की नहीं बल्कि दूसरे ही ढंग की बनी हुई हैं ।

जीतसिंह --- यह भी बड़े मजे की बात है, लोगों को तस्वीरों के विषय में धोखा देने और ताज्जुब में डालने के लिए इससे बढ़कर कोई खेल नहीं हो सकता।

तेजसिंह --- जी हाँ, एक दिन में पचासों तरह की तस्वीरें इस दीवार पर लोगों को दिखा सकते हैं, पता लगना तो दूर रहा गुमान भी नहीं हो सकता कि यह क्या मामला है और ऐसी अनूठी तस्वीरें नित्य क्यों बन जाती हैं। [ ४६ ]सुरेन्द्रसिंह --- बेशक यह खेल मुझे बहुत अच्छा माल्म हुआ। परन्तु अब इन तस्वीरों को ठीक अपने ठिकाने पर पहुँचाकर छोड़ देना चाहिए।

"बहुत अच्छा" कहकर इन्द्रजीतसिंह आगे बढ़ गये और पुनः तिलिस्मी खंजर उसी सूराख में डाल दिया जिससे उसी तरह दीवार चमकने और तस्वीरें चलने लगीं। ताज्जुब के साथ लोग उसका तमाशा देखते रहे । कई घण्टे के बाद जब तस्वीरों की यह लीला समाप्त हुई और एक विचित्र ढंग के खटके की आवाज आई, तब इन्द्रजीतसिंह ने दीवार के अन्दर से तिलिस्मी खंजर निकाल लिया और दीवार का चमकना भी बन्द हो गया।

इस तमाशे से छुट्टी पाकर महाराज सुरेन्द्र सिंह ने इन्द्रजीतसिंह की तरफ देखा और कहा, "अब हम लोगों को इस दीवार के अन्दर ले चलो।"

इन्द्रजीतसिंह --- जो आज्ञा, पहले बाहर से जांच कर आप अन्दाजा कर लें कि यह दीवार कितनी मोटी है।

सुरेन्द्रसिंह --- इसका अन्दाज हमें मिल चुका है, दूसरे कमरे में जाने के लिए इसी दीवार में जो दरवाजा है उसकी मोटाई से पता लग जाता है जिस पर हमने गौर किया है।

इन्द्रजीतसिंह --- अच्छा तो अब एक दफे आप पुनः उसी दूसरे कमरे में चलें क्यों कि इस दीवार के अन्दर जाने का रास्ता उधर ही से है।

इन्द्रजीतसिंह की बात सुनकर महाराज सुरेन्द्रसिंह तथा और सब लोग उठ खड़े हुए और कुमार के साथ-साथ पुनः उसी कमरे में गए जिसमें दो चबूतरे बने हुए थे।

इस कमरे में तस्वीर वाले कमरे की तरफ जो दीवार थी, उसमें एक आलमारी का निशान दिखाई दे रहा था और उसके बीचोंबीच में लोहे की एक खूटी गड़ी हुई थी जिसे इन्द्रजीतसिंह ने उमेठना शुरू किया। तीस-पैंतीस दफे उमेठ कर अलग हो गए और दूर खड़े होकर उस निशान की तरफ देखने लगे । थोड़ी देर बाद वह आलमारी हिलती हुई मालूम पड़ी और फिर यकायक उसके दोनों पल्ले दरवाजे की तरह खुल गए। साथ ही उसके अन्दर से दो औरतें निकलती हुई दिखाई पड़ी जिनमें एक तो भूतनाथ की स्त्री थी और दूसरी देवीसिंह की स्त्री चम्पा । दोनों औरतों पर निगाह पड़ते ही भूतनाथ और देवीसिंह चमक उठे और उनके ताज्जुब की कोई हद न रही, साथ ही इसके दोनों ऐयारों को क्रोध भी चढ़ आया और लाल-लाल आँखें करके उन औरतों की तरफ देखने लगे । उन्हीं के साथ-ही-साथ और लोगों ने भी ताज्जुब के साथ उन औरतों को देखा।

इस समय उन दोनों औरतों का चेहरा नकाब से खाली था, मगर भूतनाथ और देवीसिंह के चेहरे पर निगाह पड़ते ही उन दोनों ने आँचल से अपना चेहरा छिपा लिया और पलट कर पुनः उसी आलमारी के अन्दर जा लोगों की निगाह से गायब हो गईं। उनकी इस करतूत ने भूतनाथ और देवीसिंह के क्रोध को और भी बढ़ा दिया।