चन्द्रकान्ता सन्तति 6/21.9

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चंद्रकांता संतति भाग 6  (1896) 
द्वारा देवकीनंदन खत्री

[ ४८ ]

9

देवीसिंह को चम्पा की सचाई पर भरोसा था और वह उसे बहुत ही नेक तथा पतिव्रता भी समझते थे, जिस पर चम्पा ने देवीसिंह के चरणों की कसम खाकर विश्वास दिला दिया था कि वह नकाबपोशों के घर में नहीं गई और कोई सबब न था कि देवीसिंह चम्पा की बात झूठ समझते । इस जगह यद्यपि देवीसिंह पुनः चम्पा को देखकर क्रोध में आ गये थे, मगर तुरन्त ही नीचे लिखी बातें विचार कर ठण्डे हो गये और सोचने लगे-

"क्या मुझे पहचानने में धोखा हुआ ? नहीं-नहीं, मेरी आँखें ऐसी गन्दी नहीं है । तो क्या वास्तव में वह चम्पा ही थी जिसे अभी मैंने देखा या पहले भी देखा था ! [ ४९ ]यह भी नहीं हो सकता ! चम्पा जैसी नेक औरत कसम खाकर मुझसे झूठ भी नहीं बोल सकती। हाँ, उसने क्या कसम खाई थी? यही कि "मैं आपके चरणों की कसम खाकर कहती हूँ कि मुझे कुछ भी याद नहीं कि आप कव की बात कर रहे हैं।" ये ही उसके शब्द हैं, मगर यह कसम तो ठीक नहीं। यहां आने के बारे में उसने कसम नहीं खाई बल्कि अपनी याद के बारे में कसम खाई है, जिसे ठीक नहीं भी कह सकते । तो क्या उसने वास्तव में मुझे भूलभुलैये में डाल रक्खा हैं ? खैर यदि ऐसा भी हो तो मुझे रंज न होना चाहिए क्योंकि वह नेक है । यदि ऐसा किया भी होगा तो किसी अच्छे ही मतलब से किया होगा या फिर कुमारों की आज्ञा से किया होगा।'

ऐसी बातों को सोचकर देवीसिंह ने अपने क्रोध को ठण्डा किया, मगर भूतनाथ की बेचैनी दूर नहीं हुई।

वे दोनों औरतें जब आलमारी के अन्दर घुसकर गायब हो गई तब हमारे दोनों कुमार तथा महाराज सुरेन्द्रसिंह और वीरेन्द्रसिंह ने भी उसके अन्दर पैर रक्खा । दरवाजे के साथ दाहिनी तरफ एक तहखाने के अन्दर जाने का रास्ता था जिसके बारे में दरियाफ्त करने पर इन्द्रजीतसिंह ने बयान किया कि “यह जमानिया जाने का रास्ता है, तहखाने में उतर जाने के बाद एक सुरंग मिलेगी जो बराबर जमानिया तक चली गई है।" इन्द्रजीतसिंह की बात सुनकर देवीसिंह और भूतनाथ को विश्वास हो गया कि दोनों औरतें इसी तहखाने में उतर गई हैं जिससे उन्हें भागने के लिए काफी जगह मिल सकती है । भूतनाथ ने देवीसिंह की तरफ देखकर इशारे से कहा कि "इस तहखाने में चलना चाहिए।" मगर जवाब में देवीसिंह ने इशारे से ही इनकार करके अपनी लापरवाही जाहिर कर दी।

उस दीवार के अन्दर इतनी जगह न थी कि सब कोई एक साथ ही जाकर वहाँ की कैफियत देख सकते, अतएव दो-तीन दफे करके सब कोई उसके अन्दर गये और उन सब पुरजों को देखकर बहुत प्रसन्न हुए जिनके सहारे वे तस्वीरें चलती-फिरती और काम करती थीं । जब सब लोग उस कैफियत को देख चुके तब उस दीवार का दरवाजा बंद कर दिया गय।।

इस काम से छुट्टी पाकर सब लोग इन्द्रजीत सिंह की इच्छानुसार उस चबूतरे के पास आए जिस पर सुफेद पत्थर की खूबसूरत पुतली बैठी हुई थी। इन्द्रजीतसिंह ने सुरेन्द्र सिंह की तरफ देखकर कहा, "यदि आज्ञा हो तो मैं इस दरवाजे को खोलूं और आपको तिलिस्म के अन्दर ले चलू ।"

सुरेन्द्र सिंह--हम भी यही चाहते हैं कि अब तिलिस्म के अन्दर चलकर वहाँ की कैफियत देखें, मगर यह तो बताओ कि जब इस चबूतरे के अन्दर जाने के बाद हम यह तिलिस्म देखते हुए चुनारगढ़ वाले तिलिस्म की तरफ रवाना होंगे, तो वहां पहुंचने में कितनी देर लगेगी?

इन्द्रजीतसिंह--कम-से-कम बारह घण्टे । तमाशा देखने के सबब से यदि इससे ज्यादा देर हो जाय तो भी कोई ताज्जब नहीं।

सुरेन्द्र सिंह--रात हो जाने के सबब किसी तरह का हर्ज तो न होगा? [ ५० ]इन्द्रजीतसिंह-कुछ भी नहीं ! रात-भर बराबर तमाशा देखते हुए हम लोग चले जा सकते हैं।

सुरेन्द्र सिंह-खैर, तब तो कोई हर्ज नहीं।

इन्द्रजीतसिंह ने पुतली वाले चबूतरे का दरवाजा उसी ढंग से खोला जैसे पहले खोल चुके थे और सभी को लिए हुए नीचे वाले तहखाने में पहुंचे, जिसमें बड़े-बड़े हण्डे अफियों और जवाहरात से भरे हुए रखे थे।

इस कमरे में दो दरवाजे भी थे जिनमें से एक तो खुला हुआ था और दूसरा बन्द । खुले हुए दरवाजे के बारे में दरियाफ्त करने पर कुंअर इन्द्रजीतसिंह ने बयान किया कि यह रास्ता जमानिया को गया है और हम दोनों भाई तिलिस्म तोड़ते हुए इसी राह से आये हैं। यहाँ से बहुत दूर पर एक स्थान है जिसका नाम तिलिस्मी किताब में 'ब्रह्म-मण्डल' लिखा हुआ है, उस जगह से भी मुझे एक छोटी-सी किताब मिली थी जिसमें इस विचित्र बँगले का पूरा हाल लिखा हुआ था कि तिलिस्म (चुनारगढ़ वाला) तोड़ने वाले के लिए क्या-क्या जरूरी है । उस किताब को चुनारगढ़ तिलिस्म की चाबी कहें तो अनुचित न होगा। वह किताब इस समय मौजूद नहीं है क्योंकि पढ़ने के बाद वह तिलिस्म तोड़ने के काम में खर्च कर दी गई। उस स्थान (ब्रह्म-मण्डल) में बहुत-सी तस्वीरें देखने योग्य हैं और वहां की सैर करके भी आप बहुत प्रसन्न होंगे।"

सुरेन्द्र सिंह-हम जरूर उस स्थान को देखेंगे, मगर अभी नहीं । हाँ, और यह दूसरा दरवाजा जो बन्द है, कहाँ जाने के लिए है ?

इन्द्रजीतसिंह--यही चुनारगढ़ वाले तिलिस्म में जाने का रास्ता है । इस समय यही दरवाजा खोला जायगा और हम लोग इसी राह से जायंगे।

सुरेन्द्रसिंह-खैर, तो अब इसे खोलना चाहिए ।

पाठक, आपको इस सन्तति के पढ़ने से मालूम होता ही होगा कि अब यह उपन्यास समाप्ति की तरफ चला जा रहा है। हमारे लिखने के लिए अब सिर्फ दो बातें रह गई हैं, एक तो इस चुनारनगढ़ वाले तिलिस्म की कैफियत और दूसरे दुष्ट कैदियों का मुकदमा, जिसके साथ बचे-बचाये भेद भी खुल जायेंगे । हमारे पाठकों में से बहुत से ऐसे हैं जिनकी रुचि अब तिलिस्मी तमाशे की तरफ कम झुकती है परन्तु उन पाठकों की संख्या बहुत ज्यादा है जो तिलिस्म के तमाशे को पसन्द करते हैं और उसकी अवस्था विस्तार के साथ दिखाने अथवा लिखने के लिए बराबर जोर दे रहे हैं। इस उपन्यास में जो कुछ तिलिस्मी बातें लिखी गई हैं यद्यपि वे असम्भव नहीं और विज्ञान-वेत्ता अथवा साइंस जानने वाले जरूर कहेंगे कि 'हाँ ऐसी चीजें तैयार हो सकती हैं।' तथापि बहुत से अनजान आदमी ऐसे भी हैं जो इसे बिल्कुल खेल ही समझते हैं और कई इसकी देखा-देखी अपनी लिखी अनूठी किताबों में असम्भव बातें लिखकर तिलिस्म के नाम को बदनाम भी करने लग गये हैं, इसलिए हमारा ध्यान अब तिलिस्म लिखने की तरफ नहीं झुकता मगर क्या किया जाय लाचारी है, एक तो पाठकों की रुचि की तरफ ध्यान देना पड़ता है दूसरे चुनारगढ़ के चबूतरे वाले तिलिस्म की कैफियत लिखे बिना भीकाम नहीं चलता जिसे इस उपन्यास की बुनियाद ही कहना चाहिए और जिसके लिए [ ५१ ]चन्द्रकान्ता उपन्यास में वादा कर चुके हैं। अतः इस जगह चुनारगढ़ के चबूतरे वाले तिलिस्म की कैफियत लिखकर इस पक्ष को पूरा करते हैं, तब उसके बाद दोनों कुमारों की शादी और कैदियों के मामले की तरफ ध्यान देकर इस उपन्यास को पूरा करेंगे।

महाराज की आज्ञानुसार इन्द्रजीतसिंह दरवाजा खोलने के लिए तैयार हो गये । इस दरवाजे के ऊपर वाले महराब में किसी धातु के तीन मोर बने हुए थे जो हरदम हिला ही करते थे। कुमार ने उन तीनों मोरों की गर्दन घुमाकर एक में मिला दी, उसी समय दरवाजा भी खुल गया और कुमार ने सभी को अन्दर जाने के लिए कहा। जब सब उसके अन्दर चले गये, तब कुमार ने भी उन मोरों को छोड़ दिया और दरवाजे के अन्दर जाकर महाराज से कहा, "यह दरवाजा इसी ढंग से खुलता है, मगर इसके बन्द करने की कोई तरकीब नहीं है, थोड़ी देर में आप से आप बन्द हो जायगा। देखिए,तरफ भी दरवाजे के ऊपर वाले महराब में उसी तरह के मोर बने हुए हैं अतएव इधर से भी दरवाजा खोलने के समय वही तरकीब करनी होगी।"

दरवाजे के अन्दर जाने के बाद तिलिस्मी खंजर से रोशनी करने की जरूरत न रही क्योंकि यहाँ की छत में कई सूराख ऐसे बने हुए थे जिनमें से रोशनी बखूबी आ रही थी और आगे की तरफ निगाह दौड़ाने से यह भी मालूम होता था कि थोड़ी दूर जाने के बाद हम लोग मैदान में पहुंच जायेंगे जहाँ से खुला आसमान बखूबी दिखाई देगा, अतः तिलिस्मी खंजर की रोशनी बन्द कर दी गई और दोनों कुमारों के पीछे-पीछे सब कोई आगे की तरफ बड़े। लगभग डेढ़ सौ कदम तक जाने के बाद एक खुला हुआ दरवाजा मिला जिसमें चौखट या किवाड़ कुछ भी न था। इस दरवाजे के बाहर होने पर सभी ने अपने को संगमर्मर के छोटे से एक दालान में पाया और आगे की तरफ छोटा-सा बाग देखा जिसकी रविशें निहायत खूबसूरत स्याह और सुफेद पत्थरों से बनी हुई थीं मगर पेड़ों की किस्म में से केवल कुछ जंगली पौधों और लताओं की हरियाली मात्र ही बाग का नाम चरितार्थ करने के लिए दिखाई दे रही थी। इस बाग के चारों तरफ चार दालान चार ढंग के बने हुए थे और बीच में छोटे-छोटे कई चबूतरे और नहर की तौर पर सुन्दर और पतली नालियां बनी हुई थीं जिनमें पहाड़ से गिरते हुए झरने का साफ जल बहकर वहाँ के पेड़ों को तरी पहुंचा रहा था और देखने में भी बहुत भला मालूम होता था। मैदान में से निकलकर और आँख उठाकर देखने पर बाग के चारों तरफ ऊँचे-ऊँचे हरे-भरे पहाड़ दिखाई दे रहे थे और वे इस बात की गवाही दे रहे थे कि यह बाग पहाड़ी की तराई अथवा घाटी में इस ढंग से बना हुआ है कि बाहर से किसी आदमी की इसके अन्दर आने की हिम्मत नहीं हो सकती और न कोई इसके अन्दर से निकलकर बाहर ही जा सकता है।

कुंअर इन्द्रजीतसिंह ने महाराज सुरेन्द्रसिंह की तरफ देखकर कहा, "उस चबूतरे वाले तिलिस्म के दो दर्जे हैं, एक तो यही बाग है और दूसरा उस चबूतरे के पास पहुंचने पर मिलेगा। इस बाग में आप जितने खूबसूरत चबूतरे देख रहे हैं सभी के अन्दर बेअन्दाज दौलत भरी पड़ी है । जिस समय हम दोनों यहाँ आये थे इन चबूतरों का छूना बल्कि इनके पास पहुंचना भी कठिन हो रहा था। (एक चबूतरे के पास ले जाकर) [ ५२ ]देखिये, चबूतरे के बगल में नीचे की तरफ कड़ी लगी हुई है और इसके साथ नथी हुई जो बारीक जंजीर है वह (हाथ का इशारा करके) इस तरफ एक कुएं में गिरी हुई है। इसी तरह हरएक चबूतरे में कड़ी और जंजीर लगी हुई है जो सब उसी कुएँ में जाकर इकट्ठी हुई हैं । मैं नहीं कह सकता कि उस कुएं के अन्दर क्या है, मगर उसकी तासीर यह थी कि इन चबूतरों को कोई छू नहीं सकता था। इसके अतिरिक्त आपको यह सुनकर ताज्चुब होगा कि उस चुनार वाले तिलिस्मी चबूतरे में भी जिस पर पत्थर का (असल में किसी धातु का) आदमी सोया हुआ है, एक जंजीर लगी हुई है और वह जंजीर भी भीतर-ही-भीतर यहाँ तक आकर उसी कुएं में गिरी हुई है जिसमें वे सब जंजीरें इकट्ठी हुई हैं, बस यही और इतना ही यहाँ का तिलिस्म है। इसके अतिरिक्त दरवाजों को छिपाने के सिवाय और कुछ भी नहीं है। हम दोनों भाइयों को तिलिस्मी किताब की बदौलत यह सब हाल मालूम हो चुका था, अतएव जब हम दोनों भाई यहाँ आए थे तो इन चबूतरों से बिल्कुल हटे रहते थे। पहला काम हम लोगों ने जो किया वह यही था कि ये नालियां जो पानी से भरी और बहती हुई आप देख रहे हैं, जिस पहाड़ी झरने की बदौलत लबालब हो रही हैं उसमें से एक नई नाली खोदकर उसका पानी उसी कुएँ में गिरा दिया जिसमें सब जंजीरें इकट्ठी ई हैं क्योंकि वह चश्मा भी उस कुएँ के पास ही है और अभी तक उसका पानी उस कुएँ में बराबर गिर रहा है । जब उस चश्मे का पानी (कई घण्टे तक) कुएं के अन्दर गिरा-तब इन चबूतरों का तिलिस्मी असर जाता रहा और ये छूने के लायक हुए मानो उस कुएँ में बिजली की आग भरी हुई थी जो पानी गिरने से ठंडी हो गई। हम दोनों भाइयों ने तिलिस्मी खंजर से सब जंजीरों को काट-काट इन चबूतरों का और उस चुनारगढ़ वाले तिलिस्मी चबूतरे का भी सम्बन्ध उस कुएँ से छुड़ा दिया, इसके बाद इन चबूतरों को खोलकर देखा और मालूम किया कि इनके अन्दर क्या है। अब आपकी आज्ञा होगी तो ऐयार लोग इस दौलत को चुनारगढ़ या जहाँ आप कहेंगे, वहाँ पहुँचा देंगे।"

इसके बाद इन्द्र जीतसिंह ने महाराज की आज्ञानुसार उन चबूतरों का ऊपरी हिस्सा, जो सन्दूक के पल्ले की तरह खुलता था, खोल-खोलकर दिखाया। महाराज तथा और सब कोई यह देखकर बहुत प्रसन्न हुए कि उनमें बेहिसाब धन-दौलत और जेवरों के अतिरिक्त बहुत-सी अनमोल चीजें भी भरी हुई हैं जिनमें से दो चीजें महाराज ने बहुत पसन्द कीं। एक तो जड़ाऊ सिंहासन जिसमें अनमोल हीरे और माणिक विचित्र ढंग से जड़े हुए थे और दूसरा किसी धातु का बना हुआ एक चन्द्रमा था । इस चन्द्रमा में दो पल्ले थे, जब दोनों पल्ले एक साथ मिला दिये जाते तो उसमें से चन्द्रमा की तरह साफ और निर्मल तथा बहुत दूर तक फैलने वाली रोशनी पैदा होती थी।

उन चबूतरों के अन्दर की चीजों को देखते-ही-देखते तमाम दिन बीत गया। उस समय कुंअर इन्द्रजीतसिंह ने महाराज की तरफ देखकर कहा, "इस बाग में इन चबूतरों के सिवाय और कोई चीज देखने योग्य नहीं है और अब रात भी हो गई है, इस- लिए यद्यपि आगे की तरफ जाने में कोई हर्ज तो नहीं है, मगर आज की रात इसी बाग में ठहर जाते तो अच्छा था।" [ ५३ ]भूतनाथ--क्या आज की रात भूखे-प्यासे ही बितानी पड़ेगी?

इन्द्रजीतसिंह--(मुस्कुराते हुए) प्यासे तो नहीं कह सकते, क्योंकि पानी का चश्मा बह रहा है जितना चाहो पी सकते हो, मगर खाने के नाम पर तब तक कुछ नहीं मिल सकता जब तक कि हम चुनारगढ़ वाले तिलिस्मी चबूतरे से बाहर न हो जायें ।

जीतसिंह--खैर, कोई चिन्ता नहीं, ऐयारों के बटुए खाली न होंगे, कुछ-न-कुछ खाने की चीजें उनमे जरूर होंगी।

सुरेन्द्र सिंह--अच्छा, अब जरूरी कामों से छुट्टी पाकर किसी दालान में आराम करने का बन्दोबस्त करना चाहिए ।

महाराज की आज्ञानुसार सब कोई जरूरी कामों से निपटने की फिक्र में लगे और इसके बाद एक दालान में आराम करने के लिए बैठ गये। खास-खास लोगों के लिए ऐयारों ने अपने सामान में से बिस्तरे का इन्तजाम कर दिया।