चन्द्रकान्ता सन्तति 6/23.4

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चंद्रकांता संतति भाग 6  (1896) 
द्वारा देवकीनंदन खत्री
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अब हम थोड़ा-सा हाल नानक और उसकी मां का बयान करते हैं जो हर तरफ से कसूरवार होने पर भी महाराज की आज्ञानुसार कैद किये जाने से बच गये और उन्हें केवल देश-निकाले का दण्ड दिया गया।

यद्यपि महाराज ने उन दोनों पर दया की और उन्हें छोड़ दिया, मगर यह बात सर्वसाधारण को पसन्द न आई। लोग यही कहते रहे कि 'यह काम महाराज ने अच्छा नहीं किया और इसका नतीजा बहुत बुरा निकलेगा।' आखिर ऐसा ही हुआ अर्थात् नानक ने इस अहसान को भूल कर फसाद करने और लोगों की जान लेने पर ही कमर बांधी।

जब नानक की माँ और नानक को देश-निकाले का हुक्म हो गया और इन्द्रदेव के आदमी इन दोनों को सरहद के पार करके लौट आये तब ये दोनों बहुत ही दुःखी और उदास हो एक पेड़ के नीचे बैठ कर सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिए। उस समय सवेरा हो चुका था और सूर्य की लालिमा पूरब में आसमान पर फैल रही थी।

रामदेई–-कहो, अब क्या इरादा है ? हम लोग तो बड़ी मुसीबत में फंस गए !

नानक–बेशक मुसीबत में फंस गए और बिल्कुल कंगाल कर दिये गए । तुम्हारे जेवरों के साथ ही साथ मेरे हर्वे भी छीन लिए गये और हम इस लायक भी न रहे कि किसी ठिकाने पहुंच कर रोजी के लिए कुछ उद्योग कर सकते ।

रामदेई-ठीक है, मगर मैं समझती हूँ कि अगर हम लोग किसी तरह नन्हीं के यहां पहुँच जायँगे तो खाने का ठिकाना हो जायेगा और उससे किसी तरह की मदद भी ले सकेंगे।

नानक-नन्हीं के यहां जाने से क्या फायदा होगा? वह तो खुद गिरफ्तार होकर कैद की हवा खा रही होगी ! हाँ, उसका भतीजा बेशक बचा हुआ है जिसे उन लोगों ने छोड़ दिया और जो नन्हीं की जायदाद का मालिक बन बैठा होगा, मगर उससे किसी तरह की उम्मीद मुझको नहीं हो सकती।

रामदेई--ठीक है, मगर नन्हीं की लौंडियों में से दो-एक ऐसी हैं जिनसे मुझे मदद मिल सकती है।

नानक--मुझे इस बात की भी उम्मीद नहीं है, इसके अतिरिक्त वहाँ तक पहुंचने के लिए भी तो समय चाहिए, यहाँ तो शाम की भूख बुझाने को पल्ले में कुछ नहीं है।

रामदेई--ठीक है मगर क्या तुम अपने घर भी मुझे नहीं ले जा सकते? वहीं तो तुम्हारे पास रुपये-पैसे की कमी नहीं होगी!

नानक--हाँ, यह हो सकता है, वहां पहुंचने पर फिर मुझे किसी तरह की तक- लीफ नहीं हो सकती, मगर इस समय तो वहाँ तक पहुँचना भी कठिन हो रहा है। (लम्बी साँस लेकर) अफसोस, मेरा ऐयारी का बटुआ भी छीन लिया गया और हम लोग इस लायक भी नहीं रह गये कि किसी तरह सूरत बदल कर अपने को लोगों की आँखों से छिपा लेते। [ १४० ]रामदेई--खैर, जो होना था सो हो गया, अब इस समय अफसोस करने से काम नहीं चलेगा। सब जेवर छिन जाने पर भी मेरे पास थोड़ा-सा सोना बचा हुआ है, अगर इससे कुछ काम चले तो

नानक--(चौंक कर) क्या कुछ है?

रामदेई–-हाँ !

इतना कहकर रामदेई ने धोती के अन्दर से छिपी हुई सोने की एक करधनी निकाली और नानक के आगे रख दी।

नानक--(करधनी को हाथ में लेकर) बहुत है, हम लोगों घर तक पहुँचा देने के लिए काफी है, और वहाँ पहुंचने पर किसी तरह की तकलीफ न रहेगी, क्योंकि वहाँ मेरे पास खाने-पीने की कमी नहीं है।

रामदेई--तो क्या वहाँ चलकर इन बातों को भूल

नानक--(बात काट कर) नहीं-नहीं, यह न समझना कि वहाँ पहुँच कर हम इन बातों को भूल जायेंगे और बेकार बैटे टुकड़े तोड़ेंगे, बल्कि वहाँ पहुँच कर इस बात का बन्दोबस्त करेंगे कि अपने दुश्मनों से बदला लिया जाय।

रामदेई–-हां, मेरा भी यही इरादा है, क्योंकि मुझे तुम्हारे बाप की बेमुरौवती का बड़ा रंज है जिसने हम लोगों को दूध की मक्खी की तरह एकदम निकाल कर फेंक दिया और पिछली मुहब्बत का कुछ खयाल न किया । शान्ता और हरनामसिंह को पाकर ऐंठ गया और इस बात का कुछ भी खयाल न किया कि आखिर नानक भी तो उसका ही लड़का है और वह ऐयारी भी जानता है।

नानक–-(जोश के साथ) बेशक यह उसकी बेईमानी और हरामजदगी है ! अगर वह चाहता तो हम लोगों को बचा सकता था।

रामदेई--बचा लेना वया, यह जो कुछ किया सब उसी ने तो किया। महाराज ने तो हुक्म दे ही दिया था कि 'भूतनाथ की इच्छानुसार इन दोनों के साथ बर्ताव किया जाय।

नानक--बेशक ऐसा ही है ! उसी कम्बख्त ने हम लोगों के साथ ऐसा सलूक किया । मगर क्या चिन्ता है, इसका बदला लिये बिना मैं कभी न छोड़े गा।

रामदेई--(आँसू बहाकर) मगर तेरी बातों पर मुझे विश्वास नहीं होता क्योंकि तेरा जोश थोड़ी ही देर का होता है।

नानक-(क्रोध के साथ रामदेई के पैरों पर हाथ रख के) मैं तुम्हारे चरणों की कसम खाकर कहता हूँ कि इसका बदला लिए बिना कभी न रहूँगा।

रामदेई--भला मैं भी तो सुनूं कि तू क्या बदला लेगा? मेरे खयाल से तो वह जान से मार देने लायक है।

नानक--ऐसा ही होगा, ऐसा ही होगा ! जो तुम कहती हो वही करूँगा बल्कि उसके लड़के हरनामसिंह को भी यमलोक पहुँचाऊँगा!

रामदेह--शाबाश ! मगर मेरा चित्त तब तक प्रसन्न नहीं होगा जब तक शान्ता का सिर अपने तलवों से न रगड़ने पाऊँगी! [ १४१ ]नानक-मैं उसका सिर भी काट कर तुम्हारे सामने लाऊँगा और तब तुमसे आशीर्वाद लूंगा।

रासदेई-शाबाश, ईश्वर तेरा भला करे ! मैं समझती हूँ कि इन बातों के लिए तू एक दफा फिर कसम खा जिसमें मेरी पूरी दिलजमई हो जाय।

नानक--(सूर्य की तरफ हाथ उठाकर) मैं त्रिलोकीनाथ के सामने हाथ उठाकर कसम खाता हूँ कि अपनी माँ की इच्छा पूरी करूँगा और जब तक ऐसा न कर लूंगा, अन्न न खाऊँगा।

रामदेई--(नानक की पीठ पर हाथ फेरकर) बस-बस, अब मैं प्रसन्न हो गई और मेरा आधा दुःख जाता रहा।

नानक--अच्छा, तो फिर यहाँ से उठो। (हाथ का इशारा करके) किसी तरह उस गांव में पहुँचना चाहिए, फिर सब बन्दोबस्त होता रहेगा।

दोनों उठे और एक गाँव की तरफ रवाना हुए जो वहां से दिखाई दे रहा था।


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पाठक, आपने सुना कि नानक ने क्या प्रण किया ? अतः अब यहाँ पर हम यह कह देना उचित समझते हैं कि नानक अपनी मां को लिये हुए जब घर पहुंचा तो वहाँ उसने एक दिन के लिए भी आराम न किया। ऐयारी का बटुआ तैयार करने के बाद हर तरह का इन्तजाम करके और चार-पांच शागिर्दो और नौकरों को साथ लेकर वह उसी दिन घर के बाहर निकला और चुनार की तरफ रवाना हुआ। जिस दिन कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह की बारात निकलने वाली थी उस दिन वह चुनार की सरहद में मौजूद था। वारात की कैफियत उसने अपनी आँखों से देखी थी और इस बात की फिक्र में भी लगा हुआ था कि किसी तरह दो-चार कैदियों को कैद से छुड़ा कर अपना साथी बना लेना चाहिए और मौका मिलने पर राजा गोपालसिंह को भी इस दुनिया से उठा देना चाहिए।

अब हम कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह का हाल बयान करते हैं।

दोपहर दिन का समय है और सब कोई भोजन इत्यादि से निश्चिन्त हो चुके हैं।

एक सजे हुए कमरे में राजा गोपालसिंह, भरतसिंह, कुंअर आन्दसिंह, भैरोंसिंह और तारासिंह बैठे हुए हँसी-खुशी की बातें कर रहे हैं।

गोपालसिंह-(भरतसिंह से) क्या मुझे स्वप्न में भी इस बात की उम्मीद हो सकती थी कि आपसे किसी दिन मुलाकात होगी? कदापि नहीं, क्योंकि लोगों के कहने पर मुझे विश्वास हो गया कि आप जंगल में डाकुओं के हाथ से मारे गए

भरतसिंह--और इसका बहुत बड़ा सबब यह था कि तब तक दारोगा की बेई- मानी का आपको पता न लगा था, उसे आप ईमानदार समझते थे और उसी ने मुझे कैद किया था।