चन्द्रगुप्त मौर्य्य/चतुर्थ अंक/२

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चन्द्रगुप्त मौर्य्य  (1932) 
द्वारा जयशंकर प्रसाद
[ १७८ ]


पथ में राक्षस और सुवासिनी

सुवा॰—राक्षस! मुझे क्षमा करो!

राक्षस—क्यों सुवासिनी, यदि वह बाधा एक क्षण और रुकी रहती तो क्या हम लोग इस सामाजिक नियम के बन्धन से बँध न गये होते! अब क्या हो गया?

सुवा॰—अब पिताजी की अनुमति आवश्यक हो गयी है।

राक्षस—(व्यंग्य से)—क्यों? क्या अब वह तुम्हारे ऊपर अधिकार नियंत्रण रखते हैं? क्या उनका तुम्हारे विगत जीवन से कुछ सम्पर्क नहीं?क्या...

सुवासिनी—अमात्य! मैं अनाथ थी, जीविका के लिए मैंने चाहे कुछ भी किया हो; पर स्त्रीत्व नहीं बेचा।

राक्षस—सुवासिनी, मैंने सोचा था, तुम्हारे अंक में सिर रखकर विश्राम करते हुए मगध की भलाई से विपथगामी न हूँगा। पर तुमने ठोकर मार दिया! क्या तुम नहीं जानती कि मेरे भीतर एक दुष्ट प्रतिभा सदैव सचेष्ट रहती है? अवसर न दो, उसे न जगाओ! मुझे पाप से बचाओ!

सुवा॰—मैं तुम्हारा प्रणय स्वीकार नहीं करती। किन्तु अब इसका प्रस्ताव पिताजी से करो। तुम मेरे रूप और गुण के ग्राहक हो, और सच्चे ग्राहक हो, परन्तु राक्षस! मैं जानती हूँ कि यदि ब्याह छोड़कर अन्य किसी भी प्रकार से मैं तुम्हारी हो जाती तो तुम ब्याह से अधिक सुखी होते। उधर पिता ने—उनके लिए मेरा चारित्र्य, मेरी निष्कलंकता नितान्त वाञ्छनीय हो सकती है—मुझे इस मलिनता के कीचड़ से कमल के समान हाथों में ले लिया है! मेरे चिर दुःखी पिता! राक्षस, तुम वासना से उपेजित हो, तुम नहीं देख रहे हो कि सामने एक जुड़ता हुआ घायल हृदय बिछुड़ जायगा, एक पवित्र कल्पना सहज ही नष्ट हो जायगी! [ १७९ ]

राक्षस—यह मैं मान लेता, कदाचित्‌ इस पर पूर्ण विश्वास भी कर लेता, परन्तु सुवसिनी, मुझे शंका है। चाणक्य का तुम्हारा बाल्यपरिचय है। तुम शक्तिशाली की उपासना...

सुवा॰—ठहरो अमात्य! मैं चाणक्य को इधर तो एक प्रकार से विस्मृत ही हो गयी थी, तुम इस सोयी हुई भ्रान्ति को न जगाओ!

(प्रस्थान)

राक्षस—चाणक्य भूल सकता है? कभी नहीं। वह राजनीति का आचार्य हो जाय, वह विरक्त तपस्वी हो जाय, परन्तु सुवासिनी का चित्र-यदि अंकित हो गया है तो उहूँ—(सोचता है।)

(नेपथ्य से गान)

कैसी कड़ी रूप की ज्वाला?
पड़ता है पतंगा सा इसमें मन होकर मतवाला,
सान्ध्य-गगन-सी रागमयी यह बड़ी तीव्र है हाला,
लौह-श्रृंखला से न कड़ी क्या यह फूलों की माला?

राक्षस—(चैतन्य होकर)—तो चाणक्य से फि मेरी टक्कर होगी, होने दो! यह अधिकारी सुखदायी होगा। आज से हृदय का यही ध्येय रहा। शकटार से किस मुँह से प्रस्ताव करूँ! वह सुवासिनी को मेरे हाथ में सौंप दे, यह असम्भव है! तो मगध में फिर एक आँधी आवे! चलूँ, चन्द्रगुप्त भी तो नहीं है, चन्द्रगुप्त सम्राट्‌ हो सकता है, तो दूसरे भी इसके अधिकारी हैं। कल्याणी की मृत्यु से बहुत से लोग उत्तेजित हैं। आहुति की आवश्यकता है, बह्नि प्रज्वलित है।

(प्रस्थान)