चन्द्रगुप्त मौर्य्य/चतुर्थ अंक/१३

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चन्द्रगुप्त मौर्य्य  (1932) 
द्वारा जयशंकर प्रसाद
[ २१७ ]
[ भयभीत भाव से राक्षस और सुवासिनी का प्रवेश ]

राक्षस––चारी ओर अर्थ्य-सेना! कही से निकलने का उपाय नही। क्या किया जाय सुवासिनी!

सुवा०––यह तपोवन हैं, यही कही हम लोग छिप रहेगे।

राक्षस––पै देश-द्रोही, ब्राह्मण-द्रोही बौद्ध! हृदय कॉप रहा है। क्या होगा?

सुवा––आर्य्यो को तपोवन इन राग-द्वेपो मे परे है।

राक्षस––तो चलो कही।––( सामने देखकर )―–सुवासिनी! वह देखो––वह कौन?

सुवा०––( देखकर ) आर्य्य चाणक्य।

राक्षस––आर्य्य-साम्राज्य का महामन्त्री इस तपोवन में!

सुवा०––यही तो ब्राह्मण की महत्ता है राक्षम्! यो तो मूर्खो की निवृत्ति भी प्रवृत्तिमूलक होती है। देखो, यह सूर्य्य-रश्मियो का-सा रसग्रहण कितना निष्काम, कितना निवृत्तिपूर्ण हैं!

'राक्षस––सचमुच मेरा भ्रम था सुवासिनी! मेरी इच्छा होती है कि चल कर इस महात्मा के सामने अपना अपराध स्वीकार कर लू और क्षमा माँग लू!

सुवा०––बडी अच्छी बात सोची तुमने। देखो―

[ दोनो छिप जाते है ]
चाणक्य--( आँख खोलता हुआ )––कितना गौरवमये आज का अरुणोदय है! भगवान् सविता, तुम्हारा आलोक, जगत् का मंगल करे। मै आज जैसे निष्काम हो रहा हैं। विदित होता है कि आज तक जो कछ किया, वह सब भ्रम था, मुख्य वस्तु आज सामने आई। आज मझे अपने अन्तर्निहित ब्राह्मणत्व की उपलब्धि हो रही है। चैतन्य-सागर निस्तरग [ २१८ ]
चन्द्रगुप्त
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हैं और ज्ञान-ज्योति निर्मल हैं। तो क्या मेरा कर्म कुलाल-चक्र अपना निर्मित भाण्ड उतारकर बर चुका? ठीक तो, प्रभात-पवन के साथ सब की सुख-कामना शान्ति का आलिंगन कर रही है। देव! आज मैं धन्य हूँ।

[ दूसरी ओर झाड़ी में मौर्य्या ]

[मौर्य्य―ढोग हैं! रक्त और प्रतिशोध, क्रूरता और मृत्यु का खेल देखते ही जीवन बीता, अब क्या मैं इस सरल पथ पर चल सकूँगा? यह ब्राह्मण आँख मूँँदने-खोलने का अभिनय भले ही करे, पर मैं! असम्भव है। अरे, जैसे मेरा रक्त खौलने लगा! हृदय में एक भयानक चेतना, एक अबजा का अट्टहास, प्रतिहिंसा जैसे नाचने लगी! वह, एक साधारण मनुष्य, दुर्बल कंकाल, विश्व के समूचे शस्त्र-बल को तिरस्कृत किये बैठा है! रख दू गले पर खड्ग, फिर देखूँ तो यह प्राणभिक्षा माँगता है या नहीं] सम्राट चन्द्रगुप्त के पिता की अवज्ञा! नहीं-नही, ब्रह्महत्या होगी, हो; मेरा प्रतिशोध और चन्द्रगुप्त का निष्कटक राज्य!――

[ छुरी निकाल कर चाणक्य को मारना चाहता है, सुवासिनी दौड़कर उसका हाथ पकड़ लेती है। दूसरी ओर से अलका, सिहरण, अपनी माता के साथ चन्द्रगुप्त का प्रवेश ]

चन्द्रगुप्त―(आश्चर्य और क्रोध से)—यह क्या पिताजी! सुवा- सिनी! वोलो, वात क्या हैं?

सुवा०—मैने देखा कि सेनापति, आर्य्य चाणक्य को मारना ही चाहते हैं, इसलिए मैने इन्हे रोका!

चन्द्र०—गुरुदेव, प्रणाम! चन्द्रगुप्त क्षमा का भिखारी नही, न्याय करना चाहता है। बतलाइए, पूरा विवरण सुनना चाहता हूँ, और पिताजी, आप शस्त्र रख दीजिए! सिंहरण! (सिंंहरण अगे बढता है)।

चाणक्य―(हँस कर)―सम्राट्! न्याय करना तो राजा का कर्तव्य है; परन्तु यहाँ पिता और गुरु का सम्वन्य है, कर सकोगे?

चन्द्र०―पिताजी!

मौर्य्य―हाँ चन्द्रगुप्त, मैं इस उद्धत ब्राह्मण का―सब की अवज्ञा [ २१९ ]करने वाले महत्वाकांक्षी का—वध करना चाहता था। कर न सका, इसका दुःख है। इस कुचक्रपूर्ण रहस्य का अन्त न कर सका।

चन्द्र॰—पिताजी, राज्य-व्यस्था आप जानते होंगे—वध के लिए प्राणदण्ड होता है, और आपने गुरुदेव का—इस आर्य्य-साम्राज्य के निर्माण-कर्ता ब्राह्मण का—वध करने जाकर कितना गुरुतर अपराध किया है!

चाणक्य—किन्तु सम्राट्‌, वह वध हुआ नहीं, ब्राह्मण जीवित है। अब यह उसकी इच्छा पर है कि वह व्यवहार के लिए न्यायाधिकरण से प्रार्थना करे या नहीं।

चन्द्रगुप्त-जननी—आर्य्य चाणक्य!

चाणक्य—ठहरो देवी!—(चन्द्रगुप्त से)—मैं प्रसन्न हूँ वत्स! यह मेरे अभिनय का दण्ड था। मैंने आज तक जो किया, वह न करना चाहिए था, उसी का महाशक्ति-केन्द्र ने प्रायश्चित करना चाहा। मैं विश्वस्त हूँ कि तुम अपना कर्त्तव्य कर लोगे। राजा न्याय कर सकता है, परन्तु ब्राह्मण क्षमा कर सकता है।

राक्षस—(प्रवेश करके)—आर्य्य चाणक्य! आप महान्‌ हैं, मैं आपका अभिनन्दन करता हूँ। अब न्यायाधिकरण से, अपने अपराध—विद्रोह का दण्ड पाकर सुखी रह सकूँगा। सम्राट्‌ आपकी जय हो!

चाणक्य—सम्राट्‌, मुझे आज का अधिकार मिलेगा?

चन्द्र॰—आज वही होगा, गुरुदेव, जो आज्ञा होगी।

चाणक्य—मेरा किसी से द्वेष नहीं, केवल राक्षस के सम्बन्ध में अपने पर सन्देह कर सकता था, आज उसका भी अन्त हो। सम्राट्‌ सिल्यूकस आते ही होंगे, उसके पहले ही हमें अपना सब विवाद मिटा देना चाहिए।

चन्द्र॰—जैसी आज्ञा।

चाणक्य—आर्य्य शकटार के भावी जामाता अमात्य राक्षस के लिए मैं अपना मन्त्रित्व छोड़ता हूँ। राक्षस! सुवासिनी को सुखी रखना।

[सुवासिनी और राक्षस चाणक्य को प्रणाम करते हैं]

[ २२० ]

मौर्य्य—और मेरा दण्ड? आर्य्य चाणक्य, मैं क्षमा ग्रहण न करूँ, तब? आत्महत्या करूँगा!

चाणक्य—मौर्य्य! तुम्हारा पुत्र आज आर्य्यावर्त्त का सम्राट्‌ है—अब और कौन-सा सुख तुम देखना चाहते हो? काषाय ग्रहण कर लो, इसमें अपने अभिमान को मारने का तुम्हें अवसर मिलेगा। वत्स चन्द्रगुप्त! शस्त्र दो आमात्य राक्षस को!

[मौर्य्य शस्त्र फेंक देता है। चन्द्रगुप्त शस्त्र देता है। राक्षस-सविनय ग्रहण करता है]

सब—सम्राट्‌ चन्द्रगुप्त मौर्य्य की जय!

[प्रतिहारी का प्रवेश]

प्रति॰—सम्राट्‌ सिल्यूकस शिविर से निकल चुके हैं।

चाणक्य—उनकी अभ्यर्थना राजमन्दिर में होनी चाहिए, तपोवन में नहीं।

चन्द्र॰—आर्य्य, आप उस समय न उपस्थित रहेंगे?

चाणक्य—देखा जायगा।

[सबका प्रस्थान]