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चन्द्रगुप्त मौर्य्य/चतुर्थ अंक/१४

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चन्द्रगुप्त मौर्य्य
जयशंकर प्रसाद

इलाहाबाद: भारती भंडार, पृष्ठ २२१ से – २२२ तक

 
 

१४
राज-सभा

[एक ओर से सपरिवार चन्द्रगुप्त, और दूसरी ओर से साइवर्टियस, मेगास्थनीज, एलिस और कार्नेलिया के साथ सिल्यूकस का प्रवेश; सब बैठते हैं]

चन्द्र॰—विजेता सिल्यूकस का मैं अभिनन्दन करता हूँ—स्वागत!

सिल्यू॰—सम्राट्‌ चन्द्रगुप्त! आज मैं विजेता नहीं, विजित से अधिक भी नहीं! मैं सन्धि और सहायता के लिए आया हूँ।

चन्द्र॰—कुछ चिन्ता नहीं सम्राट्‌, हम लोग शस्त्र-विनिमय करचुके, अब हृदय का विनिमय...

सिल्यू॰—हाँ, हाँ, कहिए!

चन्द्र॰—राजकुमारी, स्वागत! मैं उस कृपा को नहीं भूल गया, जो ग्रीक-शिविर में रहने के समय मुझे आप से प्राप्त हुई थी।

सिल्यू॰—हाँ कार्नी! चन्द्रगुप्त उसके लिए कृतज्ञता प्रगट कर रहे हैं।

कार्ने॰—मैं आपको भारतवर्ष का सम्राट्‌ देखकर कितनी प्रसन्न हूँ।

चन्द्र॰—अनुगृहीत हुआ (सिल्यूकस से) औंटिगोनस से युद्ध होगा। सम्राट्‌ सिल्यूकस, गज-सेना आपकी सहायता के लिए जायगी। हिरात में आपके जो प्रतिनिधि रहेंगे, उनसे समाचार मिलने पर और भी सहायता के लिए आर्य्यवर्त्त प्रस्तुत है।

सिल्यू॰—इसके लिए धन्यवाद देता हूँ। सम्राट्‌ चन्द्रगुप्त, आज से हम लोग दृढ़ मैत्री के बन्धन में बँधे! प्रत्येक का दुःख-सुख, दोनों का होगा, किन्तु एक अभिलाषा मन में रह जायगी।

चन्द्र॰—वह क्या?

सिल्यू॰—उस बुद्धिसागर, आर्य्य-साम्राज्य के महामंत्री, चाणक्य को देखने की बड़ी अभिलाषा थी। चन्द्र०––उन्होने विरक्त होकर, शान्तिमय जीवन बिताने का निश्चय किया है।

[ सहसा चाणक्य का प्रवेश, अभ्युत्थान देखकर प्रणाम करते है ]

सिल्यू०––आर्य चाणक्य, मैं आपका अभिनन्दन करता हूँ।

चाणक्य––सुखी रहो सिल्यूकस, हम भारतीय ब्राह्मणो के पास सबकी कल्याण-कामना के अतिरिक्त और क्या है, जिससे अभ्यर्थना करूँँ? मैं आज का दृश्य देखकर चिर-विश्राम के लिए संसार से अलग होना चाहता हूँ।

सिल्यू०––और मै सन्धि करके स्वदेश लौटना चाहता हूँ। आपके आशीर्वाद की बड़ी अभिलापा थी। सन्धिपत्र .....

चाणक्य––किन्तु संविपत्र स्वार्थों से प्रवल नही होते, हस्ताक्षर तलवारों को रोकने में असमर्थ प्रमाणित होंगे। तुम दोनों ही सम्राट् हो, शस्त्र-व्यवसायी हो; फिर भी संघर्ष हो जाना कोई आश्चर्य की बात न होगी। अतएव, दो बालुका-पूर्ण कगारो के बीच में एक निर्मल स्रोत- स्विनी का रहना आवश्यक है।

सिल्यू०––सो कैसे?

चाणक्य––ग्रीस की गौरव-लक्ष्मी कार्नेलिया को मैं भारत की कल्याणी बनाना चाहता हूँ। ――यही ब्राह्मण की प्रार्थना है।

सिल्यू०––मै तो इससे प्रसन्न ही हूँगा, यदि........

चाणक्य––यदि का काम नही, मैं जानता हूँ, इसमें दोनों प्रसन्न और सुखी होगे।

सिल्यू०––( कार्नेलिया की ओर देखता है, वह सलज्ज सिर झुका लेती है )––तब आओ बेटी...........आओ चन्द्रगुप्त!

दोनों ही सिल्यूकस के पास जाते हैं, सिल्यूकस उनका हाथ मिलाता हैं। फूलो की वर्षा और जयध्वनि ]

चाणक्य––( मौर्य्य का हाथ पकड़ कर )––चलो, अब हम लोग चले!

यवनिका