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चन्द्रगुप्त मौर्य्य/चन्द्रगुप्त का शासन

विकिस्रोत से
चन्द्रगुप्त मौर्य्य
जयशंकर प्रसाद

इलाहाबाद: भारती भंडार, पृष्ठ ३९ से – ४७ तक

 

चन्द्रगुप्त का शासन

गंगा और शोण के तट पर मौर्य्य-राजधानी पाटलीपुत्र बसा था। दुर्ग---पत्थर, ईंट तथा लकड़ी के बने हुए सुदृढ प्राचीर से परिवेष्ठित था। नगर ८० स्टेडिया लम्बा और ३० स्टेडियो चौडा था। दुर्ग में ६४ द्वार तथा ५७० बुर्ज थे । सौध-श्रेणी, राजमार्ग, सुविस्तृत पण्य-वीथिका से नगर पूर्ण था और व्यापारियो की दूकाने अच्छे प्रकार से सुशोभित और सज्जित रहती थी। भारतवर्ष की केन्द्र नगरी कुसुमपुरी
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"पुष्पगुप्त ही ने उस पहाड़ी नदी का वॉध, महाराज चन्द्रगुप्त की आज्ञा से इसलिए बनाया कि खेती को बहुत लाभ होगा और उस बड़ी झील का नाम सुदर्शन रक्खा ।
वास्तव में कुसुम-पूर्ण रहती थी। सुसज्जित तुरंगों पर धनाढय लोग प्राय राजमार्ग में यातायात किया करते थे । गंगा के कूल में बने हुए सुन्दर राजमन्दिर में चन्द्रगुप्त रहता था और केवल तीन कामो के लिए महल के बाहर आता—————

पहिला, प्रजाओ का आवेदन सुनना, जिसके लिए प्रतिदिन एक बार चन्द्रगुप्त को विचारक का आसन ग्रहण करना पड़ता था। उस समय प्राय. तुंरग पर, जो आभूषणो से सजा हुआ रहता था, चन्द्रगुप्त आरोहण करता और प्रतिदिन न्याय से प्रजा का शासन करता था ।

दूसरा, धर्मानुष्ठान बलिप्रदान करने के लिए, जो पर्व और उत्सव के उपलक्षो पर होते थे । मक्तागच्छ-शोभित कारु-कार्य-खचित शिविका पर ( जो कि सम्भवत खुली हुई होती थी ) चन्द्रगुप्त आरोहण करता । इसमें ज्ञात हैं होता कि चन्द्रगुप्त वैदिक धर्मावलम्बी था, क्योकि——————————

“मैसूर में मुद्रित अर्थशास्त्र चाणक्य ही का बनाया है और वह चन्द्रगुप्त के ही लिए बनाया गया है, यह एक प्रकार से सिद्ध हो चुका । उसका उल्लेख प्राय दशकुमारचरित, कादम्बरी तथा कामन्दकीय आदि में मिलता है। उसमें भी लिखा है कि "सर्वशा स्त्राण्यनुक्रम्य प्रयोगमुपलभ्य च । कौटिल्येन नरेन्द्रार्थे शासनाय विधि कृत ।।" ( ७५ पृष्ठ, अर्थशास्त्र ) यह नरेन्द्र शब्द चन्द्रगुप्त के ही लिए प्रयोग किया गया है, उसमें चन्द्रगुप्त के क्षत्रिय होने के तथा वेदधम्मवलम्बी होने के बहुत-से प्रमाण मिलते है ।

( तृतीये स्नान भोजन च सेवेत, स्वाध्याय च कुर्वीत ) ३७ पृ० ( प्रतिष्ठितहनि मध्यमुपासीत ) ६८ पृष्ठ, अर्थशास्त्र ।

‘स्वाध्याय' और 'सध्यां' में ही ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त वेदधर्मावलम्वी था और यहां पर वह मुरा शूद्रावाली कल्पना भी कट जाती है, क्योकि चाणक्य, जिलने लिखा है कि "शूद्रस्य द्विजातिशुश्रूषा"

बौद्ध और जैन ये ही धर्म उस समय वैदिक धर्म के प्रतिकूल प्रचलित थे । बलिप्रदानादिक कर्म वैदिक ही होता रहा होगा ।

तीसरे, मृगया खेलने के समय कुजर पर सवारी निकलती । उस समय चन्द्रगुप्त स्त्री-गण से घिरा रहता था, जो धनुर्वाण आदि लिए उसके शरीर की रक्षा करती थी ।

उस समय राजमार्ग डोरी से घेरा रहता था और कोई उसके भीतर नही जाने पाता था ।

चन्द्रगुप्त राजसभा में बैठता तो चार सेवक आबनूस के बेलन से उसका अग सवाहन करते थे । यद्यपि चन्द्रगुप्त प्रबल प्रतापी राजा था , पर वह षड्यन्त्रो से शकित होकर एक स्थान पर सदा नही रहता था, जिसका कि मुद्राराक्षस में कुछ आभास मिलता है और यह मेगास्थनीज ने भी लिखा है।

हाथी, पहलवान, मेढा और गैंडों की लड़ाई भी होती थी, जिसे राजा और प्रजा दोनो बड़े चाव से देखते थे। बहुत से उत्सव भी नगर में हुआ करते थे।

प्रहरी स्त्रियाँ, जो कि मोल ली जाती थी, राजा के शरीर की सदा
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( अर्थशास्त्र ) वही यदि चन्द्रगुप्त शूद्र होता तो उसके लिए 'स्वाध्याय' और 'सध्या' का उपदेश न देता।

अस्तु, जहाँ तक देखा जाता है, चन्द्रगुप्त वैदिक-धर्म्मावलम्बी ही था और यह भी प्रसिद्ध है कि अशोक ही ने बौद्धधर्म को State Religion वनाया ।

अर्थशास्त्र में वर्षा होने के लिए इन्द्र की विशेष पूजा का उल्लेख है तथा शिव, स्कद, कुबेर इत्यादि की पूजा प्रचलित थी, इनके देवालय नगर के मध्य में रखना आवश्यक समझा जाता था।

अर्थशास्त्र २०६-५५ पृ०

R. C D Dutt का भी मत है कि चन्द्रगुप्त और उसका पुत्र बिन्दुसार बौद्ध नही था।

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रक्षा करती थी। वे रथो, घोडो और हाथियों पर राजा के साथ चलती

थी, राज-दरवार बहुत आडम्वर से सजा रहता था, जो कि दर्शनीय रहता था । मेगास्थनीज इत्यादि ने इसका विवरण विस्तृत रूप से लिखा हैं।* पाटलीपुत्र नगरी मौर्य्य-राजधानी होने से बहुत उन्नत अवस्था में थी।

राजधानी में नगर का शासन-प्रबन्ध भी छ विभागों में विभक्त था । ओर उनके द्वारा पूर्णरूप से नगर का प्रबन्ध होता था । मेगास्थनीज़ लिखता है कि प्रथम विभाग उन कर्मचारियो का था, जो विक्रय वस्तुओ का मूल्य-निर्धारण और श्रमजीवियो का वेतन तथा शिल्पियो
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  • The district possesses special interest, both for Historian and Archeologist Patna City has been identified with Patliputra (See Plibothra of Megasthanes ), which supposed to have been founded six hundred years before the Christian era by Raja Ajatshatru, a contemporary of Gautam, the founder of the Buddhist religion.

( Imp Gaz of India, Vol XI, p 24 )

त्रिकाड शेप और हेमचन्द्र-अभिधान में तथा मुद्राराक्षस मे पाटलीपुत्र के दो और नाम पाये जाते है, एक कुसुमपुर और दूसरा पुष्पपुर। चीनी यात्री भी इन नामो से परिचित था । The pilgrimage of Fa-Hien में इसका विवरण है। हितोपदेश में लिखा है कि——— "अस्ति भागीरथीतीरे पाटलीपुत्र नाम नगरम् ।” पर ग्रीक लोगो ने उसे गंगा और हिरण्यवाह के तट पर होना लिखा है । इधर मुद्राराक्षस के "गोण सिन्दूरशोणा मम गजपतय पास्यन्ति शतश" से ज्ञात होता है कि वह गोण और गंगा के संगम पर था । पाटलीपुत्र कब बसा, इसका ठीक पता नहीं चलता । कथा-सरित्सागर के मत से इसे पुत्रक नामक ब्राह्मण-कुमार और पाटली नाग्नी राजकुमारी ने अपने नामो से बसाया था, पर इसके लिए जो कथा है, वह विश्वास के योग्य नही है ।
का शुल्क-निर्धारण तथा निरीक्षण करता था । किसी शिल्पी के अगभग करने से वही विभाग उन लोगो को दण्ड देता था। सम्भवते यह विभाग म्युनिस्पैलिटी के बराबर था, जो कि पाँच सदस्यों से कार्य्य निर्वाह करता था ।

द्वितीय विभाग विदेशियो के व्यवहार पर ध्यान रखता था । पीडित विदेशियो की सेवा करता था, उनके जाने के लिए वाहन आदि का आयोजन करना, उनके मरने पर उनकी सम्पत्ति की व्यवस्था करना और उन्हे जो हानि पहुँचावे, उनको कठोर दण्ड से दण्डित करना उनका कार्य्य था । इससे ज्ञात होता है कि व्यापार अथवा अन्य कार्यों के लिए बहुत-से विदेशी कुसुमपुर में आया करते थे।

तृतीय विभाग प्रजाओ के मरण और जन्म की गणना करता था और उनपर कर निर्धारित करता था ।

चतुर्थ विभाग व्यापार का निरीक्षण करता था और तुला तथा नाप का प्रबन्ध करता था ।

पचम विभाग राजकीय कोष का था, जहाँ द्रव्य बनाये जाते और रक्षित रहते थे ।

छठा विभाग राजकीय कर का था, जिसमे व्यापारियो के लाभ
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बौद्ध लोग लिखते है कि राजा अजातशत्रु के मंत्री वर्षकार ने पाटली ग्राम में एक दुर्ग बनवाया था, जिसे देखकर महात्मा बुद्ध ने कहा था कि यह कुछ दिनो मे एक प्रधान नगर हो जायगा। इधर वायुपुराण में लिखा है कि अजातशत्रु के पुत्र उदयाश्व ने यह नगर बसाया है——

स वै पुरवर राजा पृथिव्या कुसुमाह्वय ।

गगाया दक्षिणे कोणे चतुर्थाब्दे करिष्यति ।। वायुपुराण ।

अजातशत्रु और बुद्ध समकालीन थे । बुढ़ का निर्वाण ५५० ई० पू० मे मान ले तो सम्भव है कि पाटली-दुर्ग पचास वर्ष के बाद नगर-रूप में परिणत हो गया हो । अनुमान किया जाता है कि ५०० ई० पू० मे पाटलीपुत्र बसा था ।

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से दसमाश लिया जाता था और उन्हें खूब सावधानी से कार्य करना होता था। जो उस कर को न देता, वह कठोर दण्ड से दण्डित होता था।

राज्य के कर्मचारी लोग भूमि की नाप और उसपर कर-निर्धारण करते थे और जल की नहरों का समुचित प्रवन्ध करते थे, जिससे सब कृषको को सरलता होती थी । रुद्रदामा के गिर्नारवाले लेख से प्रतीत होता है कि सुदर्शन हद महाराज चन्द्रगुप्त के राजत्व-काल में बना था । इससे ज्ञात होता है कि राज्य में सर्वत्र जल का प्रबन्ध रहता था तथा कृषको के लाभ पर विशेष ध्यान रहता था ।

राज्य के प्रत्येक प्रान्त में समाचार संग्रह करने वाले थे, जो सत्य समाचार चन्द्रगुप्त को देते थे। चाणक्य-सा बुद्धिमान् मन्त्री चन्द्रगुप्त को बडे भाग्य से मिला था और उसकी विद्वत्ता ऊपर लिखित प्रवन्धो से ज्ञात होती है । युद्धादि के समय में भी भूमि बराबर जोती जाती थी, उसके लिए कोई बाधा नही थी ।

राजकीय सेना मे, जिसे राजा अपने व्यय से रखते थे, रणतरी २००० थी ।* ८००० रथ, जो चार घोड़ों से जुते रहते थे, जिस पर एक रथी और दो योद्धा रहते थे । ४,००,००० पैदल असिचर्म्मधारी, धनुर्वाणवारी । ३०,००० अश्वारोही । ९०,००० रण-कुञ्जर, जिन पर महावत लेकर ४ योद्धा रहते थे और युद्ध के भारवाही, अश्व के सेवक तथा अन्यान्य सामग्री ढोनेवालो को मिलाकर ६,००,००० मनुष्यो की भीड़-भाड़ उस सेना में थी और उस सेना-विभाग के प्रत्येक ६ विभागो में ५ सदस्य रहते थे ।

प्रथम विभाग नौ-सेना का था । दूसरा विभाग युद्ध-सम्वन्धी भोजन, वस्त्र, छकडे, वाजा, सेवक और जानवरो के चारा का प्रवन्ध करता था ।
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“नदीपर्वतदुर्गीयाम्या नदीदुर्गीयात् भूमि लाभ श्रेयान् नदीदुर्गे हि हस्तिस्तम्भसक्रमसेतुबन्धूनीभिस्साव्यम्”–अर्थशास्त्र २९४

“नावध्यक्ष समुद्रसयाननदीमुखतर प्रचारान् देवमरोविसरोनदीतराश्च स्थानीयादिप्ववेक्षेत ।"——अर्थशास्त्र, प्रकरण ४५
तीसरे वर्ग के अधीन पैदल सैनिक रहते थे । चौथा विभाग अश्वारोहियो का था । पाँचवाँ, युद्ध-रथ की देखभाल करता था । छठा, युद्ध के हाथियो का प्रबन्ध करता था ।

इस प्रकार सुरक्षित सेना और अत्युत्तम प्रबन्ध से चन्द्रगुप्त ने २४ वर्ष तक भारत-भूमि का शासन किया । भारतवर्ष के इतिहास में मौर्य्य-युग का एक स्मरणीय समय छोड़कर २९७ ई० पू० मे मानवलीला सवरण करके चन्द्रगुप्त ने अपने सुयोग्य पुत्र के हाथ में राज्य-सिंहासन दिया।

सम्राट् चन्द्रगुप्त दृढ़ शासक, विनीत, व्यवहार-चतुर, मेधावी, उदार, नैतिक, सद्गुण-सम्पन्न तथा भारतभूमि के सपूतो में से एक रत्न था । बौद्ध ग्रंथ, अर्थकथा और वायुपुराण से चन्द्रगुप्त का शासन २४ वर्षों का ज्ञात होता है जो ३२१ ई० पू० से २९७ तक ठीक प्रतीत होता है ।

चन्द्रगुप्त के समय का भारतवर्ष

भारतभूमि अतीव उर्वरा थी, कृत्रिम जल-स्रोत जो कि राजकीय प्रबन्ध से बने थे, खेती के लिए बहुत लाभदायक थे । प्राकृतिक बड़ी-बड़ी नदियाँ अपने तट के भूभाग को सदैव उर्वर बनाती थी। एक वर्ष में दो बार अन्न काटे जाते थे, यदि किसी कारण से एक फसल ठीक न हुई, तो दूसरी अवश्य इतनी होती कि भारतवर्ष को अकाल का सामना नही करना पड़ता था । कृषक लोग बहुत शान्तिप्रिय होते थे । युद्ध आदि के समय में भी कृषक लोग आनन्द से हल चलाते थे । उत्पन्न हुए अन्न का चतुर्थाश राजकोश में जाता था। खेती की उन्नति की ओर राजा का भी विशेष ध्यान रहता था । कृषक लोग आनन्द में अपना जीवन व्यतीत करते थे ।

दलदलो मे अथवा नदियों के तटस्थ भूभाग मे, फल-फूल भी बहुतायत से उगते थे और ये सुस्वादु तथा गुणदायक होते थे।

जानवर भी यहाँ अनेक प्रकार के यूनानियो ने देखे थे। वे कहते है कि चौपाये यहाँ जितने सुन्दर और बलिष्ठ होते थे, वैसे अन्यत्र नही ।


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यहाँ के सुन्दर बैलो को सिकन्दर ने यूनान भी भेजा था । जानवरो में जंगली और पालतू सब प्रकार के यहाँ मिलते थे । पक्षी भी भिन्न-भिन्न प्रदेशो मे बहुत प्रकार के थे, जो अपने घोसलो में बैठ कर भारत के सुस्वादु फल खाकर कमनीय कण्ठ से उसकी जय मनाते थे । धातु भी यहाँ प्राय सब उत्पन्न होते थे । सोना, चाँदी, ताँबा, लोहा और जस्ता इत्यादि यहाँ के खानो में से निकलते और उनसे अनेक प्रकार के उपयोगी अस्त्र-शस्त्र, साज-आभूषण इत्यादि प्रस्तुत होते थे । शिल्प यहाँ का बहुत उन्नत अवस्था में था, क्योंकि उसके व्यवसायी सब प्रकार के कर से मुक्त होते थे। यही नहीं, उनको राजा से सहायता भी मिलती थी जिससे कि वे स्वच्छन्द होकर अपना कार्य करे । क्या विधि-विडम्बना हैं, उसी भारत के शिल्प की, जहाँ के बनाए आडम्बर तथा शिल्प की वस्तुओं को देखकर यूनानियो ने कहा था कि 'भारत की राजधानी पाटलीपुत्र को देखकर फारस की राजधानी कुछ भी नही प्रतीत होती ।'

शिल्पकार राज-कर से मुक्त होने के कारण राजा और प्रजा दोनों के हितकारी यन्त्र बनाता था, जिससे कार्यों में सुगमता होती थी।

प्लिनी कहता है कि 'भारतवर्ष में मनुष्य पाँच वर्ग के है--एक जो लोग राजसभा में कार्य करते है, दूसरे सिपाही, तीसरे व्यापारी, चौथे कृषक और एक पाँचवाँ वर्ग भी है जो कि दार्शनिक कहलाता है।'

पहले वर्ग के लोग सम्भवत ब्राह्मण थे जो कि नीतिज्ञ होकर राजसभा में धर्माधिकार का कार्य करते थे ।

और सिपाही लोग अवश्य क्षत्रिय ही थे । व्यापारियो को वणिक् सम्प्रदाय था । कृषक लोग शूद्र अथवा दास थे , पर वह दासत्व सुसभ्य लोगो की गुलामी नही थी ।

पाँचवाँ वर्ग उन ब्राह्मणो का था, जो संसार से एक प्रकार से अलग होकर ईश्वराराधना में अपना दिन बिताते तथा सदुपदेश देकर संसारी लोगो को आनन्दित करते थे । वे स्वयं यज्ञ करते थे और दूसरे को यज्ञ कराते थे, सम्भवत वे ही मनुष्यो का भविष्य कहते थे और

यदि उनका भविष्य कहना सत्य न होता तो वे फिर उस सम्मान की दृष्टि से नही देखे जाते थे।

भारतवासियो का व्यवहार बहुत सरल था। यज्ञ को छोड़ कर वे मदिरा और कभी नहीं पीते थे। लोगो का व्यय इतना परिमित था कि सूद पर ऋण कभी नही लेते थे । भोजन वे लोग नियत समय में तथा अकेले ही करते थे । व्यवहार के वे लोग बहुत सच्चे होते थे, झूठ से उन लोगो को घृणा थी । बारीक मलमल के कामदार कपड़े पहन कर वे चलते थे । उन्हे सौन्दर्य का इतना ध्यान रहता था कि नौकर उन्हे छाता लगाकर चलता था। आपस में मुकदमे बहुत कम होते थे ।

विवाह एक जोड़ी बैल देकर होता था और विशेष उत्सव में आडम्बर से कार्य करते थे । तात्पर्य यह है कि, महाराज चक्रवर्ती चन्द्रगुप्त के शासन में प्रजा शान्तिपूर्वक निवास करती थी और सब लोग आनन्द से अपना जीवन व्यतीत करते थे । शिल्प-वाणिज्य की अच्छी उन्नति थी। राजा और प्रजा में विशेष सद्भाव था, राजा अपनी प्रजा के हित-साधन मे सदैव तत्पर रहता था । प्रजा भी अपनी भक्ति से राजा को सन्तुष्ट रखती थी। चक्रवर्ती चन्द्रगुप्त का शासन-काल भारत का स्वर्णयुग था ।