चन्द्रगुप्त मौर्य्य/द्वितीय अंक/६

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चन्द्रगुप्त मौर्य्य  (1932) 
द्वारा जयशंकर प्रसाद
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मालवों के स्कन्धावार में युद्ध-परिषद्

देवबल—परिषद् के सम्मुख में यह विज्ञप्ति उपस्थित करता हूँ कि यवन-युद्ध के लिए जो सन्धि मालव-क्षुद्रकों से हुई हैं, उसे सफल बनाने के लिए आवश्यक है कि दोनों गणों की एक सम्मिलित सेना बनाई जाय और उसके सेनापति क्षुद्रकों के मनोनीत सेनापति मागध चन्द्रगुप्त ही हो। उन्हीं की आज्ञा से सैन्य-संचालन हो।

[सिंहरण का प्रवेश—परिषद् में हर्ष]

सब—कुमार सिंहरण की जय।

नागदत्त—मगध एक साम्राज्य है। लिच्छिवि और वृजिगंणतत्र को कुचलनेवालें मगध का निवासी हमारी सेना का संचालन करे, यह अन्याय है। मैं इसका विरोध करता हूँ।

सिंह॰—मैं मालव-सेना का बलाधिकृत हूँ। मुझे सेना का अधिकार परिषद् ने प्रदान किया है और साथ ही में सन्धि-विग्रहिक का कार्य भी करता हूँ। पंचनद की परिस्थिति स्वयं देख आया हूँ और मागध चन्द्रगुप्त को भी भलीभाँति जानता हूँ। मैं चन्द्रगुप्त के आदेशानुसार युद्ध चलाने के लिए सहमत हूँ। और भी मेरी एक प्रार्थना है—उत्तरापथ के विशिष्ट राजनीतिज्ञ आर्य्य चाणक्य के गम्भीर राजनीतिक विचार सुनने पर आप लोग अपना कर्तव्य निश्चित करें।

गणमुख्य—आर्य्य चाणक्य व्यासपीठ पर आवे।

चाणक्य—(व्यासपीठ से) उत्तरापथ के प्रमुख गणतंत्र मालव राष्ट्र की परिषद का मैं अनुगृहीत हूँ कि ऐसे गम्भीर अवसर पर मुझे कुछ कहने के लिए उसने आमंत्रित किया। गणतंत्र और एकराज्य का प्रश्न यहाँ नहीं, क्योंकि लिच्छिवि और वृजियों का अपकार करने वाला मगध का एक राज्य, शीघ्र ही गणतंत्र में परिवर्तित होनेवाला है। युद्ध-काल में एक नायक की आज्ञा माननी पड़ती है। वहाँ शलाका ग्रहण करके शस्त्र प्रहार करना असम्भव है। अतएव सेना का एक नायक तो होना ही चाहिए। [ १२७ ]और यहाँ की परिस्थिति में चन्द्रगुप्त से बढ़ कर इस कार्य के लिए दूसरा व्यक्ति न होगा। वितस्ता-प्रदेश के अधीश्वर पर्वतेश्वर के यवनों से सन्धि करने पर भी चन्द्रगुप्त ही के उद्योग का यह फल है कि पर्वतेश्वर की सेना यवन-सहायता को न आवेगी। उसी के प्रयत्न से यवन-सेना में विद्रोह भी हो गया है, जिससे उनका आगे बढ़ना असम्भव हो गया है। परन्तु सिकन्दर की कूटनीति प्रत्यावर्तन में भी विजय चाहती है। वह अपनी विद्रोही सेना को स्थल-मार्ग से लौटने की आज्ञा देकर नौबल के द्वारा स्वयं सिन्धु-संगम तक के प्रदेश विजय करना चाहता है। उसमें मालवों का नाश निश्चित है। अतएव, सेनापतित्व के लिए आप लोग चन्द्रगुप्त को वरण करें, तो क्षुद्रकों का सहयोग भी आप लोगो को मिलेगा। चन्द्रद्रगुप्त को ही उन लोगों ने भी सेनापति बनाया हैं।

नाग॰—ऐसा नहीं हो सकता!

चाणक्य—प्रबल प्रतिरोध करने के लिए दोनों सैन्यों में एकाधिपत्य होना आवश्यक है। साथ ही क्षुद्रकों की सन्धि की मर्य्यादा भी रखनी चाहिए। प्रश्न शासन का नहीं, युद्ध का है। युद्ध में सम्मिलित होने वाले वीरों को एकनिष्ठ होना ही लाभदायक है। फिर तो मालव और क्षुद्रक दोनों ही स्वतंत्र-संघ हैं और रहेंगे। सम्भवत इसमें प्राच्यों का एक गणराष्ट्र आगामी दिनों में और भी आ मिलेगा।

नाग॰—समझ गया, चन्द्रगुप्त को ही सम्मिलित सेना का सेनापति बनाना श्रेयस्कर होगा।

सिंह॰—अन्न, पान और भैषज्य सेवा करनेवाली स्त्रियों ने मालविका को अपना प्रधान बनाने की प्रार्थना की हैं।

गणमूख्य—यह उन लोगों की इच्छा पर हैं। अस्तु, महाबलाधि-कृत-पद के लिए चन्द्रगुप्त को ही वरण करने की आज्ञा परिषद देती हैं। (समवेत जयघोष)