चन्द्रगुप्त मौर्य्य/द्वितीय अंक/७

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चन्द्रगुप्त मौर्य्य  (1932) 
द्वारा जयशंकर प्रसाद
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पर्वतेश्वर का प्रासाद

अलका—सिंहरण मेरी आशा देख रहा होगा और मैं यहाँ पड़ी हूँ! आज इसका कुछ निबटारा करना होगा। अब अधिक नहीं—(आकाश की ओर देखकर)—तारों से भरी हुई काली रजनी का नीला आकाश―जैसे कोई विराट् गणितज्ञ निभृत में रेखा-गणित की समस्या सिद्ध करने के लिए बिन्दु दे रहा हैं।

[पर्वतेश्वर का प्रवेश]

पर्व॰—अलका! बड़ी द्विविधा है।

अलका—क्यों पौरव?

पर्व॰—मैं तुमसे प्रतिश्रुत हो चुका हूँ कि मालव-युद्ध में मैं भाग न लूँगा, परन्तु सिकन्दर का दूत आया है कि आठ सहस्र अश्वारोही लेकर रावी-तट पर मिलो। साथ ही पता चला है, कि कुछ यवन-सेना अपने देश को लौट रही हैं।

अलका—(अन्यमनस्क होकर)—हाँ कहते चलो!

पर्व॰—तुम क्या कहती हो अलका?

अलका—मैं सुनना चाहती हूँ!

पर्व॰—बतलाओ, मैं क्या करूँ?

अलका—जो अच्छा समझो। मुझे देखने दो ऐसी सुन्दर वेणी-फूलों से गूँथी हुई श्यामा-रजनी की सुन्दर वेणी—अहा!

पर्व॰—क्या कह रही हो?

अलका—गाने की इच्छा होती है, सुनोगे?

[गाती है]

बिखरी किरन अलक व्याकुल हो विरस वदन पर चिंता लेख,
छायापथ में राह देखती गिनती प्रणय-अवधि की रेख।
प्रियतम के आगमन-पंथ में उड़ न रही है कोमल धूल,
कादंबिनी उठी यह ढँकने वाली दूर जलधि के कूल।

[ १२९ ]

समय-विहग के कृष्णपक्ष में रजत चित्र-सी अंकित कौन?
तुम हो सुंदरि तरल तारिके! बोलो कुछ, बैठो मत मौन!
मंदाकिनी समीप भरी फिर प्यासी आँखें क्यों नादान।
रूप-निशा की उषा में फिर कौन सुनेगा तेरा गान!


पर्व॰—अलका! मैं पागल होता जा रहा हूँ। यह तुमने क्या कर दिया है!

अलका—मैं तो गा रही हूँ।

पर्व॰—परिहास न करो। बताओ, मैं क्या करूँ?

अलका—यदि सिकन्दर के रण-निमन्त्रण में तुम न जाओगे तो तुम्हारा राज्य चला जायगा।

पर्व॰—बड़ी विडम्बना है!

अलका—पराधीनता से बढ़कर विडम्बना और क्या है? अब समझ गए होंगे कि वह संधि नहीं, पराधीनता की स्वीकृति थी।

पर्व॰—मैं समझता हूँ कि एक हजार अश्वारोहियों को साथ लेकर वहाँ पहुँच जाऊँ, फिर कोई बहाना ढूँढ निकालूँगा।

अलका—(मन में) मै चलूँ, निकल भागने का ऐसा अवसर दूसरा न मिलेगा!—(प्रकट) अच्छी बात है, परन्तु मैं भी साथ चलूँगी! मैं यहाँ अकेले क्या करूँगी?

[पर्वतेश्वर का प्रस्थान]