चन्द्रगुप्त मौर्य्य/द्वितीय अंक/८

विकिस्रोत से
चन्द्रगुप्त मौर्य्य  (1932) 
द्वारा जयशंकर प्रसाद
[ १३० ]
 


रावी के तट पर सैनिकों के साथ मालविका और चन्द्रगुप्त, नदी में दूर पर कुछ नावें

माल॰—मुझे शीघ्र उत्तर दीजिए।

चन्द्र॰—जैसा उचित समझो, तुम्हारी आवश्यक सामग्री तुम्हारे आधीन रहेगी। सिंहरण को कहाँ छोड़ा?

माल॰—आते ही होंगे।

चन्द्र॰—(सैनिक से)—तुम लोग कितनी दूर तक गए थें?

सैनिक—अभी चार योजन तक यवनों का पता नहीं। परन्तु कुछ भयभीत सैनिक रावी के उस पार दिखाई दिएँ। मालव को पचासों हिंस्रिकाये वहाँ निरीक्षण कर रही हैं। उन पर धनुर्धर है।

सिंह॰—(प्रवेश करके)—वह पर्वतेश्वर की सेना होगी। किन्तु मागध! आश्चर्य है।

चन्द्र॰—आश्चर्य कुछ नहीं।

सिंह॰—क्षुद्रकों के केवल कुछ ही गुल्म आये हैं, और तो...

चन्द्र॰—चिन्ता नहीं। कल्याणी के मागध सैनिक और क्षुद्रक अपनी बात में हैं। यवनों को इधर आ जाने दो। सिंहरण, थोड़ी-सी हिंस्रिकाओं पर मुझे साहसी वीर चाहिए।

सिंह॰—प्रस्तुत हैं। आज्ञा दीजिए।

चन्द्र॰—यवनों की जलसेना पर आक्रमण करना होगा। विजय के विचार से नहीं, केवल उलझाने के लिए और उनकी सामग्री नष्ट करने के लिए।

[सिंहरण संकेत करता है, नावें जाती है]

माल॰—तो मैं स्कन्धावार के पृष्ठ-भाग में अपने साधन रखती हूँ। एक क्षुद्र भाण्डार मेरे उपवन में भी रहेगा।

चन्द्र॰—(विचार करके)—अच्छी बात है।

[‌एक नाव तेज़ी से आती है, उसपर से अलका उतर पड़ती है]

[ १३१ ]

सिंह॰—(आश्चर्य से)—तुम कैसे अलका?

अलका—पर्वतेश्वर ने प्रतिज्ञा भंग की है, वह सैनिकों के साथ सिकन्दर की सहायता के लिए आया है। मालवों की नावें घूम रही थीं। मैं जान-बूझकर पर्वतेश्वर को छोड़कर वहीं पहुँच गई (हँसकर)—परन्तु मैं बन्दी आई हूँ!

चन्द्र॰—देवि! युद्धकाल है, नियमो को तो देखना ही पड़ेगा। मालविका! ले जाओ इन्हें उपवन में।

[मालविका और अलका का प्रस्थान]
मालव रक्षकों के साथ एक यवन का प्रवेश

यवन—मालव के सन्धि-विग्रहिक अमात्य से मिलना चाहता हूँ।

सिंह॰—तुम दूत हो?

यवन—हाँ!

सिंह॰—कहो, मैं यही हूँ।

यवन—देवपुत्र ने आज्ञा दी हैं कि मालव-नेता मुझसे आकर भेंट करे और मेरी जल-यात्रा की सुविधा का प्रबन्ध करें।

सिंह॰—सिकन्दर से मालवों की ऐसी कोई सन्धि नहीं हुई है, जिससे वे इस कार्य के लिए बाध्य हो। हाँ, भेंट करने के लिए मालव सदैव प्रस्तुत हैं—चाहे सन्धि-परिषद् में या रणभूमि में!

यवन—तो यही जाकर कह दूँ?

सिंह॰—हाँ, जाओ—(रक्षकों से)—इन्हें सीमा तक पहुँचा दो।

[यवन का रक्षकों के साथ प्रस्थान]

चन्द्रगुप्त—मालव, हम लोगों ने भयानक दायित्व उठाया हैं, इसका निर्वाह करना होगा।

सिंह॰—जीवन-मरण से खेलते हुए करेंगे वीरवर!

चन्द्र॰—परन्तु सुना तो, यवन लोग आर्य्यों की रणनीति से नहीं लड़ते। वे हमी लोगों के युद्ध हैं, जिनमें रणभूमि के पास ही कृषक स्वच्छन्दता से हल चलाता है। यवन आतंक फैलाना जानते है और [ १३२ ]उसे अपनी रणनीति का प्रधान अंग मानते हैं। निरीह साधारण प्रजा को लूटना, गाँवो को जलाना, उनके भीषण परन्तु साधारण कार्य्य हैं।

सिंह॰—युद्ध-सीमा के पार के लोगों को भिन्न दुर्गों में एकत्र होने की आज्ञा प्रचारित हो गई है। जो होगा, देखा जायगा।

चन्द्र॰—पर एक बात सदैव ध्यान में रखनी होगी।

सिंह॰—क्या?

चन्द्र०—यही, कि हमे आक्रमणकारी यवनों को यहाँ से हटाना है, और उन्हें जिस प्रकार हो, भारतीय सीमा के बाहर करना है। इसलिए शत्रु की नीति से युद्ध करना होगा।

सिंह॰—सेनापति की सब आज्ञाएँ मानी जायँगी, चलिये!

[सब का प्रस्थान‌]