चन्द्रगुप्त मौर्य्य/प्रथम अंक/३

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चन्द्रगुप्त मौर्य्य  (1932) 
द्वारा जयशंकर प्रसाद
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पाटलिपुत्र में एक भग्नकुटीर

चाणक्य—(प्रवेश करके)—झोपड़ी ही तो थीं, पिताजी यहीं मुझे गोद में बिठा कर राज-मन्दिर का सुख अनुभव करते थें। ब्राह्मण थें, ऋत और अमृत जीविका से सन्तुष्ट थें, पर वे भी न रहें! कहाँ गये? कोई नहीं जानता। मुझे भी कोई नहीं पहचानता। यही तो मगध का राष्ट्र है। प्रजा की खोज है किसे? वृद्ध दरिद्र ब्राह्मण कहीं ठोकरें खाता होगा या कहीं मर गया होगा!

[एक प्रतिवेशी का प्रवेश]

प्रतिवेशी—(देखकर)—कौन हो जी तुम? इधर के घरो को बड़ी देर से क्या घूर रहे हो?

चाणक्य—ये घर हैं, जिन्हें पशु की खोह कहने में भी संकोच होता है? यहाँ कोई स्वर्ण-रत्नो का ढेर नहीं, जो लूटने का भय हो।

प्रतिवेशी—युवक, क्या तुम किसी को खोज रहे हो?

चाणक्य—हाँ, खोज रहा हूँ, यहीं झोपड़ी में रहनेवाले वृद्ध ब्राह्मण चणक को। आजकल वे कहाँ हैं, बता सकते हो?

प्रतिवेशी--(सोचकर)—ओहो, कई बरस हुए, वह तो राजा की आज्ञा से निर्वासित कर दिया गया है। (हँसकर)—वह ब्राह्मण भी बड़ा हठी था। उसने राजा नन्द के विरुद्ध प्रचार करना आरम्भ किया था। सो भी क्यों, एक मन्त्री शकटार के लिए। उसने सुना कि राजा ने शकटार का बन्दीगृह में वध करवा डाला। ब्राह्मण ने नगर में इस अन्याय के विरुद्ध आतंक फैलाया। सबसे कहने लगा कि—"यह महापद्म का जारज पुत्र नन्द—महापद्म का हत्याकारी नन्द—मगध में राक्षसी राज्य कर रहा है। नागरिको, सावधान!

चाणक्य—अच्छा, तब क्या हुआ?

प्रतिवेशी—वह पकड़ा गया। सो भी कब, जब एक दिन अहेर की [ ६७ ]यात्रा करते हुए नन्द के लिए राजपथ में मुक्तकंठ से नागरिकों ने अनादर के वाक्य कहें। नन्द ने ब्राह्मण को समझाया। यह भी कहा कि तेरा मित्र शकटार बन्दी है, मारा नहीं गया। पर वह बड़ा हठी था; उसने न माना, न ही माना। नन्द ने भी चिढ़ कर उसका ब्राह्मस्व बौद्ध-विहार में दे दिया और उसे मगध से निर्वासित कर दिया। यही तो उसकी झोपड़ी है।

[जाता है]

चाणक्य—(उसे बुलाकर)—अच्छा एक बात और बताओ।

प्रति॰—क्या पूछते हो जी, तुम इतना जान लो कि नन्द को ब्राह्मणों से घोर शत्रुता है और वह बौद्धधर्मानुयायी हो गया है।

चाणक्य—होने दो; परन्तु यह तो बताओ—शकटार का कुटुम्ब कहाँ है?

प्रति॰—कैसे मनुष्य हो? अरे राज-कोपानल में वे सब जल मरे। इतनी-सी बात के लिए मुझे लौटाया था—छि!

[जाना चाहता है]

चाणक्य—हे भगवान्! एक बात दया करके और बता दो—शकटार की कन्या सुवासिनी कहाँ है?

प्रति॰—(जोर से हंसता है)—युवक! वह बौद्ध-विहार में चली गई थी, परन्तु वहाँ भी न रह सकी। पहले तो अभिनय करती फिरती थी, आजकल कहाँ है, नहीं जानता।

[जाता है]

चाणक्य—पिता का पता नहीं; झोपड़ी भी न रह गई। सुवासिनी अभिनेत्री हो गई—सम्भवतः पेट की ज्वाला से। एक साथ दो-दो कुटुम्बों का सर्वनाश और कुसुमपुर फूलो की सेज में ऊँघ रहा है। क्या इसीलिए राष्ट्र की शीतल छाया का संगठन मनुष्य ने किया था! मगध! मगध! सावधान! इतना अत्याचार! सहना असम्भव है। तुझे उलट दूँगा! नया बनाऊँगा, नहीं तो नाश ही करूँगा!—(ठहरकर)—एक बार [ ६८ ]चलूँ, नन्द से कहूँ। नहीं, परन्तु मेरी भूमि, मेरी वृत्ति, वही मिल जाय, मैं शास्त्र-व्यवसायी न रहूँगा, मैं कृषक बनूँगा। मुझे राष्ट्र की भलाई-बुराई से क्या। तो चलूँ।—(देखकर)—यह एक लकड़ी का स्तम्भ अभी उसी झोपड़ा का खड़ा है, इसके साथ मेरे बाल्यकाल की सहस्रों भाँवरियाँ लिपटी हुई हैं, जिन पर मेरी धवल मधुर हँसी का आवरण; चढ़ा रहता था! शैशव की स्निग्ध स्मृति! विलीन हो जा!

[खम्भा खींच कर गिराता हुआ चला जाता है]