चन्द्रगुप्त मौर्य्य/प्रथम अंक/४

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चन्द्रगुप्त मौर्य्य  (1932) 
द्वारा जयशंकर प्रसाद
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कुसुमपुर के सरस्वती-मन्दिर के उपवन का पथ

राक्षस—सुवासिनी! हठ न करो।

सुवा॰—नहीं, उस ब्राह्मण को दण्ड दिये बिना सुवासिनी जी नहीं सकती अमात्य, तुमको करना होगा। मैं बौद्धस्तूप की पूजा करके आ रही थी, उसने व्यंग किया और वह बड़ा कठोर था, राक्षस! उसने कहा—'वेश्याओं के लिए भी एक धर्म की आवश्यकता थीं, चलो अच्छा ही हुआ। ऐसे धर्म के अनुगत पतितों की भी कमी नहीं।'

राक्षस—यह उसका अन्याय था।

सुवा॰—परन्तु अन्याय का प्रतिकार भी है। नहीं तो मैं समझूँगी कि तुम भी वैसे ही एक कठोर ब्राह्मण हो।

राक्षस—मैं वैसा हूँ कि नहीं, यह पीछे मालूम होगा। परन्तु सुवासिनी, मैं स्वयं हृदय से बौद्धमत का समर्थक हूँ; केवल उसकी दार्शनिक सीमा तक—इतना ही कि संसार दुखमय है।

सुवा॰—इसके बाद?

राक्षस—मैं इस क्षणिक जीवन की घड़ियो को सुखी बनाने का पक्षपाती हूँ। और तुम जानती हो कि मैंने ब्याह नहीं किया; परन्तु भिक्षु भी न बन सका।

सुवा॰—तब आज से मेरे कारण तुमको राजचक्र में बौद्धमत का समर्थन करना होगा।

राक्षस—मैं प्रस्तुत हूँ।

सुवा॰—फिर लो मैं तुम्हारी हूँ। मुझे विश्वास है कि दुराचारी सदाचार के द्वारा शुद्ध हो सकता है, और बौद्धमत इसका समर्थन करता है, सबको शरण देता है। हम दोनो उपासक होकर सुखी बनेंगे।

राक्षस—इतना बड़ा सुख-स्वप्न का जाल आँखो में न फैलाओ। [ ७० ]

सुवा॰—नहीं प्रिय! मैं तुम्हारी अनुचरी हूँ। मैं नन्द की विलास-लीला का क्षुद्र उपकरण बनकर नहीं रहना चाहती।

[जाती है]

राक्षस—एक परदा उठ रहा है, या गिर रहा है, समझ में नही आता—(आंख मीचकर)—सुवासिनी! कुसुमपुर का स्वर्गीय कुसुम मैं हस्तगत कर लूँ? नहीं, राजकोप होगा! परन्तु जीवन वृथा है। मेरी विद्या, मेरा परिष्कृत विचार सब व्यर्थ है। सुवासिनी एक लालसा है, एक प्यास है। वह अमृत है, उसे पाने के लिए सौ बार मरूँगा।

[नेपथ्य से—हटो, मार्ग छोड़ दो]

राक्षस—कोई राजकुल की सवारी है? तो चलूँ।

[जाता है]

[रक्षियों के साथ शिविका पर राजकुमारी कल्याणी का प्रवेश]

कल्याणी(शिविका से उतरती हुई लीला से)—शिविका उद्यान के बाहर ले जाने के लिए कहो और रक्षी लोग भी वहीं ठहरें।

[शिविका ले कर रक्षक जाते हैं]

कल्याणी—(देखकर)—आज सरस्वती-मन्दिर में कोई समाज हैं क्या? जा तो नीला देख आ।

[नीला जाती है]

लीला—राजकुमारी, चलियें इस श्वेत शिला पर बैठियें। यहाँ अशोक की छाया बड़ी मनोहर है। अभी तीसरे पहर का सूर्य कोमल होने पर भी स्पृहणीय नहीं।

कल्याणी—चल।

[दोनो जाकर बैठती हैं, नीला आती है]

नीला—राजकुमारी, आज तक्षशिला से लौटे हुए स्नातक लोग सरस्वती-दर्शन के लिए आये हैं।

कल्याणी—क्या सब लौट आये हैं?

नीला—यह तो न जान सकी। [ ७१ ]

कल्याणी—अच्छा, तू भी बैठ। देख, कैसी सुन्दर माधवी लता फैल रही है। महाराज के उद्यान में भी लताएँ ऐसी हरी-भरी नहीं, जैसे राज-आतंक से वे भी डरी हुई हो। सच नीला, मैं देखती हूँ कि महाराज से कोई स्नेह नहीं करता, डरते भले ही हो।

नीला—सखी, मुझ पर उनका कन्या-सा ही स्नेह हैं, परन्तु मुझे डर लगता है।

कल्याणी—मुझे इसका बड़ा दुःख है। देखती हूँ कि समस्त प्रजा उनसे त्रस्त और भयभीत रहती हैं, प्रचण्ड शासन करने के कारण उनका बड़ा दुर्नाम हैं।

नीला—परन्तु इसका उपाय क्या है? देख लीला, वे दो कौन इधर आ रहे हैं। चल, हम लोग छिप जायँ।

[सब कुंज में चली जाती है। दो ब्रह्मचारियों का प्रवेश]

एक ब्रह्म॰—धर्म्मपालित, मगध को उन्माद हो गया है। वह जनसाधारण के अधिकार अत्याचारियों के हाथ में देकर विलासिता का स्वप्न देख रहा है। तुम तो गए नहीं, मैं अभी उत्तरापथ से आ रहा हूँ। गणतन्त्रो में सब प्रजा वन्यवीरुध के समान स्वच्छन्द फल-फूल रही हैं। इधर उन्मत्त मगध, साम्राज्य की कल्पना में निमग्न है।

दूसरा—स्नातक, तुम ठीक कह रहे हो। महापद्म का जारज-पुत्र नन्द केवल शस्त्र-बल और कूटनीति के द्वारा सदाचारो के शिर पर ताण्डव-नृत्य कर रहा है। वह सिद्धान्त-विहीन नृशंस, कभी बौद्धो का पक्षपाती, कभी वैदिको का अनुयायी बनकर दोनों में भेदनीति चलाकर बल-सञ्चय करता रहता है। मूर्ख जनता धर्म की ओट में नचाई जा रही हैं। परन्तु तुम देश-विदेश देखकर आएँ हो, आज मेरे घर पर तुम्हारा निमन्त्रण हैं, वहाँ सब को तुम्हारी यात्रा का विवरण सुनने का अवसर मिलेगा।

पहिला—चलो। (दोनों जाते हैं, कल्याणी बाहर आती है।)

कल्याणी—सुन कर हृदय की गति रुकने लगती है। इतना कदर्थित [ ७२ ]राजपद! जिसे साधारण नागरिक भी घृणा की दृष्टि से देखता हैं—कितने मूल्य का है लीला?

(नेपथ्य से) भागो भागो! यह राजा का अहेरी चीता पिंजरे से निकल भागा है, भागो, भागो!

[तीनों डरती हुई कुञ्ज में छिपने लगती हैं। चीता आता है। दूर से तीर आकर उसका शिर भेद कर निकल जाता है। धनुष लिये हुए चन्द्रगुप्त का प्रवेश]

चन्द्र॰—कौन यहाँ है? किधर से स्त्रियों का क्रन्दन सुनाई पड़ा था!—(देखकर)—अरे, यहाँ तो तीन सुकुमारियाँ हैं! भद्रे, पशु ने कुछ चोट तो नही पहुँचाई?

लीला—साधु! वीर! राजकुमारी की प्राण-रक्षा के लिए तुम्हें अवश्य पुरस्कार मिलेगा!

चन्द्र॰—कौन राजकुमारी, कल्याणी देवी?

लीला—हाँ, यही न हैं? भय से मुख विवर्ण हो गया है।

चन्द्र॰—राजकुमारी, मौर्य्य-सेनापति का पुत्र चन्द्रगुप्त प्रणाम करता है।

कल्याणी—(स्वस्थ होकर, सलज्ज)—नमस्कार, चन्द्रगुप्त, मैं कृतज्ञ हुई। तुम भी स्नातक होकर लौटे हो?

चन्द्र॰—हाँ देवि, तक्षशिला में पाँच वर्ष रहने के कारण यहाँ के लोगों को पहचानने में विलम्ब होता है। जिन्हें किशोर छोड़ कर गया था, अब वे तरुण दिखाई पड़ते हैं। मैं अपने कई बाल-सहचरों को भी पहचान न सका!

कल्याणी—परन्तु मुझे आशा थी कि तुम मुझे न भूल जाओगे।

चन्द्र॰—देवि, यह अनुचर सेवा के उपयुक्त अवसर पर ही पहुँचा। चलिए, शिविका तक पहुँचा दूँ। (सब जाते है)