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चोखे चौपदे/अन्योक्ति

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चोखे चौपदे
अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

वाकरगंज, पटना: खड्गविलास प्रेस, पृष्ठ ८४ से – ९३ तक

 

अन्योक्ति

बाल

बीर ऐसे दिखा पड़े न कही।
सब बड़े आनबान साथ कटे॥
जब रहे तो डटे रहे बढ़ कर।
बाल भर भी कभी न बाल हटे॥

तुच गये, खिच उठे, गिरे, टूटे।
और भख मार अन्त में सुलझे॥
कंघियों ने उन्हें बहुत झाड़ा।
क्या भला बाल को मिला उलझे॥

मैल अपना सके नहीं कर दूर।
और रूखे बने रहे सब काल॥
मुड़ गये जब कि वे सिधाई छोड़।
तो हुआ ठीक मुड़ गये जो बाल॥


है दुखाते बहुत, गले पड़ कर।
सब उन्हें हैं सियाहदिल पाते॥
है कमी भो नहीं कड़ाई मे।
किस लिये बाल फिर न झड़ जाते॥

वे कभी तो पड़े रहे सूखे।
औ कभी तेल से रहे तर भी॥
की किसी की नही परवा।
बाल ने बाल के बराबर भी॥

या बरसता रहा सुखों का मेह।
या अचानक पड़ा सुखों का काल।
धार से पा बहुत सुधार सुधार।
बन गये या गये बनाये बाल॥

निज जगह पर जमे रहे तो क्या।
क्या हुआ बार बार धुल निखरे॥
चल गये पर हवा बहुत थोड़ी।
जब कि ए बाल बेतरह बिखरे॥


धूल में मिल गया बड़प्पन सब।
था भला, थे जहां, वही झड़ते।
क्या यही चाहिये सिरों पर चढ़।
बाल हो पाँव पर गिरे पड़ते॥

किस तरह हम तुम्हें कहें सीधे।
जब कि हो ऑख में समा गड़ते।
हो न सुथरे न चीकने सुधरे।
जब कि हो बाल तुम उखड़ पड़ते॥

चोटी

जा समय के साथ चल पाते नही।
टल सकी टाले न उन की दुख-घड़ी॥
छीजती छॅटती उखड़ती क्यों नही।
जब कि चोटी तू रही पीछे पड़ी॥

निज बड़ों के सॅग बुरा बरताव कर।
है नहीं किस की हुई साँसत बड़ी॥
क्यों नही फटकार सहती बेतरह।
जब कि चोटी मूँड के पीछे पड़ी॥


सिर और पगड़ी

सिर! उछाली पगड़ियाँ तुम ने बहुत।
कान कितनों का करार यों ही दिया॥
लोग भारो कह भले ही लें तुम्हें।
पर तुमारा देख भारीपन लिया॥

सूझ के हाथ पॉव जो न चले।
जो बनी ही रही समझ लॅगड़ी॥
तो तुमारी न पत रहेगी सिर।
पॉव पर डालते फिरे पगड़ी॥

जब तुम्ही ने सब तरह से खो दिया।
तो बता दो काम क्या देती सई॥
सोच है पगड़ी उतरने का नहीं।
सिर! तुमारी तो उतर पत भी गई॥

देखता हू आजकल की लत बुरी।
सिर तुमारी खोपड़ी पर भी डटी॥
लाज पगड़ी की गॅवा, मरजाद तज।
जो तुमारी टोपियों से ही पटी॥


दो जने कोई बदल करके जिन्हे।
कर सके भायप रँगों मे रँग बसर॥
है तुमारे सारपन की ही सनद।
सिर तुमारी उन पगड़ियों का असर॥

सिर और सेहरा

सोच लो, जी मे समझ लो, सब दिनों।
यों लटकती है नही मोती-लड़ी॥
जव कि तुम पर सिरसजा सेहरा बॅधा।
मुॅह छिपाने की तुम्हे तब क्या पड़ी॥

ला न दे सुख मे कहीं दुख की घड़ी।
ढा न दें कोई सितम आँखें गड़ी॥
मौर बँधते ही इसी से सिर तुम्हें।
देखता हूॅ मुॅह छिपाने की पड़ी॥

अनसुहातो रगतें मुॅह की छिपा।
सिर! रहें रखतो तुम्हारी बरतरी॥
इस लिये ही हैं लटक उस पर पड़ी।
मौर की लड़ियां खिले फलों भरी॥


पाजियों के जब बने साथी रहे।
जब बुरों के काम भी तुम से सधे॥
क्या हुआ सिरमौर तो सब के बने।
क्या हुआ सिर! मौर सोने का बँधे॥

सिर और पाँव

जो बड़े हैं भार जिन पर है बहुत।
वे नही है मान के भूखे निरे॥
है न तन के बीच अगों की कमी।
पर गिरे जब पॉव पर तब सिर गिरे॥

लोग पर के सामने नवते मिले।
पर न ये कब निज सगों से, जी फिरे॥
दूसरों के पॉव पर गिरते रहे।
पर भला निज पाँव पर कब सिर गिरे॥

तोड़ सोने को न लोहा बढ़ सका।
मोल सोने का गया टूटे न गिर॥
पाँव ने सिर को अगर दी ठोकरे।
तो हुआ ऊँचा न वह, नीचा न सिर॥


सिर
क्या हुआ पा मये जगह ऊॅची।
जो समझ औ विचार कर न चले॥
सिर! अगर तुम पड़े कुचालों मे।
तो हुआ ठीक जो गये कुचले॥

जो कि ताबे बने रहे सब दिन।
वे सँभल लग गये दिखाने बल॥
हाथ क्या, उॅगलियां दखाती हैं।
सिर मिला यह तुम्हें दबे का फल॥

सोच कर उस की दसा जी हिल गया।
जो कि मुॅह के बल गिरा ऊॅचे गये॥
जब बुरे कॅचे तुम्हें रुचते रहे।
सिर! तभी तुम बतरह कूॅचे गये॥

पा जिन्हें धरती उधरती ही रही।
लोग जिन के अवतरे उबरे तरे॥
सिर! गिरे तुम जो न उन के पॉव पर।
तो बने नर-देह के क्या सिरधरे॥


है जिसे प्रभु की कला सब थल मिली।
पत्तियों में, पेड़ में, फल फूल में॥
ली नहीं जो धूल उन के पाँव की।
सिर! पड़े तो तुम बड़ी ही भूल मे॥

बात वह भूले न रुचनी चाहिये।
जो कि तुम को बेतरह नीचा करे॥
सिर! तुम्हीं सिरमौर के सिरमौर हो।
औ तुम्ही हो सिरधरों के सिरधरे॥

दे जनम निज गोद मे पाला जिन्हें।
क्या पले थे वे कटाने के लिये॥
खेद है सुख चाह बेदी पर खुले।
सिर ! बहुत से बाल तू ने बलि दिये॥

बाल मे सारे फुलेलों के मले।
सब सराहे फूल चोटी मे लसे॥
सिर! सुबासित हो सकोगे किस तरह।
जब बुरी रुचि-बास से तुम हो बसे॥


कब नही उसकी चली, कुल ब्योंत ही।
सब दिनों जिस की बनी बाँदी रही॥
माँग पूरी की गई है कब नही।
सिर! तुमारी कर्ब नहीं चॉदी रही॥

सिर! छिपाये छिप न असलीयत सकी।
बज सके न सदा बनावट के डगे॥
सब दिनों काले बने कब रह सके।
बाल उजले बार कितने ही रँगे॥

छोड़ रगीनी सुधर सादे बनो।
यह सुझा कर बीज हित का बो चले॥
चोचले करते रहोगे कब तलक।
सिर! तुमारे बाल उजले हो चले॥

माथा

छूट पाये दॉव-पेचों से नही।
औ पकड़ भी है नही जाती सही॥
हम तुम्हे माथा पटकते ही रहे।
पर हमारी पीठ ही लगती रही॥

चाहिये था पसीजना जिन पर।
लोग उन पर पसीज क्यों पाते॥
जब कि माथा पसीज कर के तुम।
हो पसीने पसीने हो जाते॥




तिलक

हो भले देते बुरे का साथ हो।
भूल कर भी तुम तिलक खुलते नही॥
किस लिये लोभी न टुम से काम लें।
तुम लहर से लोभ की धुलते नही॥

हो भलाई के लिये ही जब बने।
तब तिलक तुम क्यों बुराई पर तुले॥
भेद छलियों के खुले तुम से न जब।
भाल पर तब तुम खुले तो क्या खुले॥

क्यों नहीं तुम बिगड़ गये उन से।
जो तुम्हें नित बिगाड़ पाते है॥
किस लिये हाथ से बने उन के।
जो तिलक नित तुम्हें बनाते हैं॥