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चोखे चौपदे/तिलक

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चोखे चौपदे
अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

वाकरगंज, पटना: खड्गविलास प्रेस, पृष्ठ ९३ से – १०६ तक

 

की गई सॉसत धरम के नाम पर।
जी कड़ा कर कब तलक कोई सहे॥
किस लिये माथे किसी के पड़ गये।
जब तिलक तुम नित बिगड़ते ही रहे॥

हो धरम का रंग बहुत तुम पर चढ़ा।
हो भले ही तुम भलाई मे सने॥
पर तिलक जब है दुरगी ही बुरी।
तब भला क्या सोच बहुरंगी बने॥

नेक के सिर पर पड़ी कठिनाइयाँ।
नेकियों की ही लहर में है बही॥
तुम तिलक धुलते व पुँछते ही रहे।
पर तुमारी पूछ होती ही रही॥

लोग उतना ही बढ़ाते हैं तुम्हे।
रंग जितने ही बुरे हो चढ़ गये॥
पर तिलक इस बात को सोचो तुम्ही।
इस तरह तुम घट गये या बढ़ गये॥


किस लिये यो बॅधी लकीरों पर।
हो बिना ही हिले डुले अड़ते॥
है सिधाई नही तिलक तुम मे।
जब कि हो काट छाँट मे पड़ते॥

हो तिलक तुम रूप रॅग रखते बहुत।
है तुमारा भेद पा सकते न हम॥
रॅग किसी बहुरूपिये के रग मे।
हो किसी बहुरूपिये से तुम न कम॥

आँख

सूर को क्या अगर उगे सूरज।
क्या उसे जाय चाँदनी जो खिल॥
हम अँधेरा तिलोक में पाते।
आँख होते अगर न तेरे तिल॥

क्या हुआ चौकड़ी अगर भूले।
लख उछल कूद और छल करना॥
है छकाता छलॉग वालों को।
ऑख तेरा छलौंग का भरना॥

काम करती रही करोड़ों मे।
जब फबी आनबान साथ फबी॥
और की कोर ही रही दबती।
आँख तेरी कभी न कोर दबी॥

काजलों या कालिखों की छूत मे।
कम अछूतापन नही तेरा सना॥
धूल लेकर के अछूते पॉव की।
ऐ अछूती ऑख तू सुरमा बना॥

वह लुभाता है भला किस को नही।
थी भलाई भी उसी मे भर सकी॥
भूल भोलापन गई अपना अगर।
भूल भोली आँख ने तो कम न की॥

क्या करेगी दिखा नुकीलापन।
क्या हुआ जो रही रसों बोरी॥
सब भली करनियों करीनों से।
आँख की कोर जो रही कोरी॥

क्या कहें और के सभी दुखड़े।
खेल होते है और के लेखे॥
फूट जो है उसे बहुत भाती।
आँख तो आप फूट कर देखे॥

देख सीधे, सामने हो, फिर न जा।
मान जा, बेढंग चालें तू न चल॥
सोचले सब दिन किसी की कब चली।
एक तिल पर आँख मत इतना मचल॥

हम कहें कैसे कि उन में सूझ है।
जब न पर-दुख-आँसुओं में वे बहे॥
क्या उजाले से भरे हो कर किया।
आँख के तिल जब अँधेरे मे रहे॥

हो गईं सब बरौनियाँ उजली।
जोत का तार बेतरह टूटा॥
देख ऊबी न तू छटा बाँकी।
आँख तेरा न बॉकपन छूटा॥

एक दिन था कि हौसलों में डूब।
गूँधती प्यार-मोतियों का हार॥
अब लगातार रो रही है आँख।
टूटता है न आँसुओं का तार॥

बेबसी में पड़ बहुत दुख सह चुकी।
कर चुकी सुख को जला कर राख तू॥
अब उतार रही सही पत को न दे।
आँसुओं मे डूब उतरा आँख तू॥

मत मटक झूठमूठ रूठ न तू।
मत नमक घाव पर छिड़क हो नम॥
अब गया ऊब ऊधमों से जी।
ऊधमी आँख मत मचा ऊधम॥

जा चुका हे वार सरबस प्यार पर।
तू उसे तेवर बदल कर कर न सर॥
दे दिया जिस ने कि चित अपना तुझे।
आँख चितवन से उसे तू चित न कर॥

प्यार करने में कसर की जाय क्यों।
है न अच्छा जो रहे जी में कसर॥
कर सके जो लाड़ तो कर लाड़ तू।
ऐ लड़ाकी आँख लड़ लड़ कर न मर॥

कौन पानी है गॅवाना चाहता।
मछलियाँ पानी बिना जीतीं नहीं॥
प्यास पानी के बचाने को बढ़े।
आँख आँसू क्यों भला पीती नही॥

तू उसे भूल कर गुनी मत गुन।
जिस किसी को गुमान हो गुन का॥
जो कि हैं ताकते नही सीधे।
आँख! मुँह ताक मत कभी उन का॥

आँसू

तुम पड़ो टूट लूट लेतों पर।
क्यों सगों पर निढाल होते हो॥
दो पला, आग के बगूलों को।
ऑसुओ गाल क्यों भिंगोते हो॥

आँसुओ और को दिखा नीचा।
लोग पूजे कभी न जाते थे॥
क्यों गॅवाते न तुम भरम उन का।
जो तुम्हें आँख से गिराते थे॥

हो बहुत सुथरे बिमल जलबूँद से।
मत बदल कर रंग काजल में सनो॥
पा निराले मोतियों की सी दमक।
आँसुओ काले-कलूटे मत बनो॥

था भला आँसुओ वही सहते।
जो भली राह में पड़े सहना॥
चाहिये था कि ऑख से बहते।
है बुरी बात नाक से बहना॥

नाक

हो उसे मल से भरा रखते न कम।
यह तुमारी है बड़ी ही नटखटी॥
तो न बेड़ा पार होगा और से।
नाक पूरे से न जो पूरी पटी॥

जो भरे को ही रहे भरते सदा।
वे बहुत भरमे छके बेढँग ढहे॥
नाक तुम को क्यों किसी ने मल दिया।
जब कि मालामाल मल से तुम रहे॥

तू सुधर परवाह कुछ मल की न कर।
पाप के तुझ को नहीं कूरे मिले॥
लोग उबरे एक पूरे के मिले।
हैं तुझे तो नाक दो पुरे मिले॥

वह कतर दी गई सितम करके।
पर न सहमी न तो हिली डोली॥
नाक तो बोलती बहुत ही थी।
बेबसी देख कुछ नहीं बोली॥

दुख बड़े जिस के लिये सहने पड़ें।
दें किसी को भी न वे गहने दई॥
तब अगर बेसर मिली तो क्या मिली।
नाक जब तू बेतरह बेधी गई॥

और के हित है कतर देते तुझे।
और वह फल को कुतुर करके खिली॥
ठोर सूगे की तुझे कैसे कहें।
नाक जब न कठोर उतनी तू मिली॥

जो न उसके ढकोसले होते।
तो कभी तू न छिद गई होती॥
मान ले बात, कर न मनमानी।
मत पहन नाक मान हित मोती॥

सूंघने का कमाल होते भी।
काम अपने न कर सके पूरे॥
बस कुसँग में सुबास से न बसे।
नाक के मल भरे हुए पूरे॥

ताल में क्यों भरा न हो कीचड़।
पर वहीं है कमल-कली खिलती॥
नाक कब त रही न मलवाली।
है तुम्हीं से मगर महँक मिलती॥


कान
दासपन के चिन्ह से जो सज सका।
क्यों नहीं तन बिन गया वह नीच तन॥
कान! तेरी भूल को हम क्या कहें।
बोलबाला कब रहा बाला पहन॥

धूल में सारी सजावट वह मिले।
दूसरा जिस से सदा दुख ही सहे॥
और पर बिजली गिराने के लिये।
कान तुम बिजली पहनते क्या रहे॥

बात सच है कि खोट से न बचा।
पर किसी से उसे कसर कब थी॥
सब भला क्यों न वह मुकुत पाता।
कान की लौ सदा लगी जब थी॥

जब मसलता दूसरों का जी रहा।
आँख में तुझ से न जब आई तरी॥
दे सकेंगी बरतरी तुझ को न तब।
कान तेरी बालियाँ मोती भरी॥

भीतरी मैल जब निकल न सका।
तब तुम्हें क्यों भला जहान गुने॥
बान छूटी न जब बनावट की।
तब हुआ कान क्या पुरान सुने॥

किस लिये तब न तू लटक जाता।
जब भली लग गई तुझे लोरकी॥
छोड़ तरकीब से बने गहने।
गिर गया कान तू पहन तरकी॥

तग उतना ही करेगी वह हमें।
चाह जितनी ही बनायेंगे बड़ी॥
कान क्यों हैं फूल खोंसे जा रहे।
क्या नहीं कनफूल से पूरी पड़ी॥

जब किसी भांत बन सकी न रतन।
तेल की बूँद तब पड़ी चू क्या॥
जब न उपजा सपूत मोती सा।
कान तब सीप सा बना तू क्या॥

राग से, तान से, अलापों से।
बह न सकता अजीब रस-सोता॥
रीझता कौन सुन, रसीले सुर।
कान तुझ सा रसिक न जो होता।

तो मिला वह अजीब रस न तुझे।
पी जिसे जीव को हुई सेरी॥
लौ-लगों का कलाम सुनने मे।
कान जो लौ लगी नहीं तेरी॥




गाल

वह लुनाई धूल में तेरी मिले।
दूसरों पर जो बिपद ढाती रहे॥
गाल तेरी वह गोराई जाय जल।
जो बलायें और पर लाती रहे॥

तो गई धूल मैं लुनाई मिल।
औ दुआ सब सुडौलपन सपना॥
पीक से बार बार भर भर कर।
गाल जब तू उगालदान बना॥