चोखे चौपदे/कोर कसर

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[ २३३ ]

कोर कसर

जी की कचट

ब्योंत करते ही बरस बीते बहुत।
कर थके लाखों जतन जप जोग तप॥
सब दिनों काया बनी जिस से रहे।
हाथ आया वह नहीं काया कलप॥

किस तरह हम मरम कहें अपना।
कक न काँटे करम रहा बोता॥
तब रहे क्यों भरम धरम क्यों हो।
हाथ ही जब गरम नहीं होता॥

आज तक हम बने कहाँ वैसे।
बन गये लोग बन गये जैसे॥
जब न सरगरमियाँ मिलींं हम को।
कर सकेंं हाथ तब गरम कैसे॥

[ २३४ ]

रह गया जो धन नहीं तो मत रहो।
है हमारी नेकियों को हर रही॥
क्या कहें हम तँगदिल तो थे नहीं।
तंग तगी हाथ की है कर रही॥

पा सका एक भी नही मोती।
पड़ गया सिंधु आग के छल में॥
तो जले भाग को न क्यों कोसें।
जाय जल हाथ जो गये जल में॥

मान मन सब मनचलापन मरतबे।
मन मरे कैसे भला खोता नहीं॥
क्यों न वह फँसता दुखों के दाम में।
दाम जिस के हाथ में होता नहीं॥

बढ़ गई बेबसी बुढ़ापा की।
चल बसा चैन, सुख हुआ सपना॥
दूसरे हाथ में रहें कैसे।
हाथ मे हाथ है नहीं अपना॥

[ २३५ ]

आँख पुर नेह से रही जिस की।
अब नहीं नेह है उसी तिल में॥
खोलता गाँठ जो रहा दिल की।
पड़ गई गॉठ अब उसी दिल में॥

फूल हम होवें मगर कुछ भल से।
दूसरों की ऑख में काँटे जँचे॥
क्यों बचाये बच सकेगी आबरू।
जी बचायें जो बचाने से बचे॥

ठीक था ठीक ठीक जल जाता।
जो सका देख और का न भला॥
रंज है देख दसर्स का हित।
जी हमारा जला मगर न जला॥

कर सकें हम बराबरी कैसे।
है हमे रंगतें मिली फीकी॥
हम कसर हैं निकालते जी से।
वे कसर हैं निकालते जी की॥

[ २३६ ]

उलझनों में रहे न वह उलझा।
कुछ न कुछ दुख सदा लगा न रहे॥
नित न टाँगे रहे उसे चिन्ता।
जी बिना ही टॅगे टॅमा न रहे॥

बात अपने भाग की हम क्या कहें।
हम कहाँ तक जी करें अपना कड़ा॥
फट गया जी फाट में हम को मिला।
बॅट गया जी बाँट में मेरे पड़ा॥

देखये चेहरा उतिर मेरा गया।
हैं कलेजे में उतरते दुख नये॥
फेर में हम है उतरने के पड़े।
आँख से उतरे उतर जी से गये॥

है बखेड़े सैकड़ों पीछे पड़े।
है बुरा काँटा जिगर में गड़ गया॥
फँस गये हैं उलझनों के जाल में।
है बड़े जंजाल में जी पड़ गया॥

[ २३७ ]

सूझ बाले उसे रहे रँगते।
रग उतस न सूझ का चोखा॥
पड़ बृथा धूम धाम धोखे में।
पेट को कब दिया नहीं धोखा॥

रोग की आँच जब लगी लगने।
तब भला वह नही खले कैसे॥
जल रहा पेट जब किसी का है।
आग उस में न तब बले कैसे॥

हैं लगाती न ठेस किस दिल को।
टेकियों की ठसक भरी टेकें॥
है कपट काट छाँट कब अच्छी।
पेट को काट कर कहाँ फेंकें॥

थपेड़े
पेटुओं को कभी टटोलो मत।
कब गई बाँझ गाय दुह देखी॥
जो कि मुँह देख जी रहे हैं, वे।
बान कैसे कहें न मुँहदेखी॥

[ २३८ ]

आज सीटी पटाक बन्द हुई।
वे सटकते रहे बहुत वैसे॥
बात ही जब कि रह नही पाई।
बात मुँह से निकल सके कैसे॥

कब भला लोहा उन्हो ने है लिया।
मारतों के सामने वे अड़ चुके॥
दाब लेंगे दूब दाँतों के तले।
काम है मुँहदूबरों से पड़ चुके॥

किस तरह छूटते न तब छक्के।
जब कि तू छूट में रहा माता॥
जब कि मुँहतोड़ पा जवाब गये।
तब भला क्यों न टूट मुँह जाता॥

दूसरों से बैठती जिस की नही।
किस लिये वह प्यार जतलाता नही॥
मुँह खुला जिसका न औरों के लिये।
दाँत उस का बैठ क्यों जाता नहीं॥

[ २३९ ]

हम समझते थे कि हैं कुछ आप भी।
किस लिये बेकार गट्टे हो गये॥
देख कर मुझ को खटाई में पड़ा
आप के क्यों दाँत खट्टे हो गये

कौड़ियों को हो पकड़ते दाँत से।
चाहिये ऐसा न जाना बन तुम्हें॥
छोड़ देगा कौड़ियों का ही बना।
यह तुमारा कौड़ियालापन तुम्हें॥

दैव का दान जो न देख सके।
आँख तो क्यों न मूंद लेते हो॥
और के दूध पूत दौलत पर।
दांत क्यों बार बार देते हो॥

हैं किसे चार हाथ पाँव यहां।
क्यों कमाई ना कर दिखाते हो॥
दूसरों की अटूट संपत पर।
दत क्यों बेतरह लगाते हो॥

[ २४० ]

रोटियों के अगर पड़े लाले।
हैं अगर आस पास दुख घिरते॥
क्यों नहीं तो निकाल जी देते।
दाँत क्या है निकालते फिरते॥

छोन धन, मान मूस कर जिस ने।
देह का माँस नोच कर खाया॥
चूस लो उस चुड़ैल का लोहू।
होंठ को चूस चूस क्या पाया॥

सुध भला किस तरह हमें होवे।
है लड़कपन अभी नही छूटा॥
कुछ कहें तो भला कहें कैसे।
कठ भी आज तक नहीं फूटा॥

पोंछने के लिये बहे आँसू।
जो बहुत दुख भरे गये पाये॥
पूँछ हैं तो उठी उठी मूछें।
जो उठावे न हाथ उठ पाये॥

[ २४१ ]

जो कभी मुँह मोड़ पाता ही नहीं।
क्यों उसी से आप हैं मुँह मोड़ते॥
सब दिनों जो जोड़ता है हाथ ही।
आप उस का हाथ क्यों हैं तोड़ते॥

बेकलेजे के बने तब क्यों न हम।
बाल बिखरे देख कर जो जी टॅगे॥
या किसी की लट लटकती देख कर।
लोटने जो साँप छाती पर लगे॥

बाँह बल ही व बाल है जिन को।
जो भले ढंग में नहीं ढलते॥
जो बने काल काल के भी हैं।
क्यों न छाती निकाल वे चलते॥

जो रही पूत-प्रेम में भाती।
क्यों वही काम की बने थाती॥
क्या खुलीं जो रही खुली आँखें।
देख कर अधखुली खुली छाती॥

[ २४२ ]

जाति का दिल हो अगर काला हुआ।
रग काला किस तरह तो छूटता॥
फूट जाये आँख जो है फूटती।
टूट जाये दिल अगर है टूटता॥

रोटियां छीन छीन औरों की।
क्यों बड़े चाव साथ है चखता॥
मिल सका पेट क्या तुझी को है।
दूसरा पेट क्या नही रखता॥