चोखे चौपदे/हाथ और दान

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[ २१७ ]

हाथ और दान

दान जब तक फूल फल करता रहा।
पेड़ तब तक फूल फल पाता रहा॥
दान-रुचि जी में नहीं जिस के रही।
धन उसी के हाथ से जाता रहा॥

हित नमूना जो दिखाना है हमें।
जो चहें यह, सुख न सूना घर करें॥
तो बना दिल सब दिनों दूना रहे।
दान दोनों हाथ दसगूना करें॥

किस तरह तो छूटते धब्बे बुरे।
जो मिली होती भली सोती नही॥
तो न पाता हाथ का धुल पाप-मल।
दान-जल-धारा अगर धोती नहीं॥

पड़ गये पाप की तरंगों में।
नेक करतूत नाव को खोते॥
जो न पतवार दान के पाते।
लापता हाथ हो गये होते॥

[ २१८ ]

हाथ और कमल

है न वह रंग औ न है वह बू।
और वेसा नहीं बिमलपन है॥
वे भले ही रहें कमल बनते।
पर कहाँ हाथ में कमलपन है॥

कब सका लिख, सका बसन कब सी।
कब सका वह कभी कमा पैसा॥
हाथ तुझ में कमाल है जैसा।
क्या कमल में कमाल है वैसा?

दाम की कैसी कमी तेरे लिये।
हाथ तू तो है कमल जाता कहा॥
मानते है माननेवाले यही।
कब कमल आसन न कमला का रहा॥

हैं हमें भेद कम नही मिलते।
गो उन्हें हैं समान कह लेते॥
फूल करके कमल महँक देंगे।
फूल कर हाथ है कुफल देते॥

[ २१९ ]

हैं खिले मुँह सभी उन्ही जैसे।
है उन्हीं के समान नयन नवल॥
हाथ ऐसे सुहावने न लगे।
कम लगे है लुभावने न कमल॥

जब सदा जोड़ते रहे नाता।
तब उसे तोड़ते रहे कैसे॥
क्या कमल के लिये ललाये तब।
हाथ जब आप हैं कमल जैसे॥

हाथ और फूल

देखते उस की फबन जो आँख पा।
तो कभी हित से नही मुँह मोड़ते॥
धूल मे तुम हाथ क्यों मिलते नही।
भूल है जो फूल को हो तोड़ते॥

जो खले, दुख किसी तरह का दे।
कब किसे ढंग वह सुहाता है॥
क्यों न ले तोड़ फूल फूले वह।
हाथ को फूलना सताता है॥

[ २२० ]

क्यों लग पूछने-किसी बद ने।
नेक को बेतरह लताड़ा क्या॥
हाथ है फूल पर सितम ढाता।
फूल ने हाथ का बिगाड़ा क्या॥

कब रहा नोचता न कोमल दल।
कब न कर फलबिहीन कल पाया॥
हाथ-खल इन अबोल फूलों पर।
मल मसल कब नही बला लाया॥

फूल सा सुन्दर फबीला औ फलद।
क्यों बँधे छिद बिध गये पामाल हो॥
आग-माला के बनाने मे लगे।
हाथ-माली क्यों न मालामाल हो॥

वह तुझे भी निहाल करता है।
और तू क्या व तेरी नीयत क्या॥
फूल में ही मुलायमीयत है।
हाथ तेरी मुलायमीयत क्या॥

[ २२१ ]

फूल रस रूप गंध पर रीझे।
किस तरह से सितम सकेगा थम॥
क्यों समझ तू सका न कोमलपन।
हाथ क्या यह कमीनपन है कम॥

आँख है रूप रग पर रीझी।
कम महँक पा हुई न नाक मगन॥
हाथ तुझ मे कभी नहीं है कम।
मोह ले जो न फूल कोमलपन॥

हाथ तुम बचते कि वे मैले न हों।
तोड़ते तो पीर हो जाती कही॥
जो लगी होती न लत की छूत तो।
तुम अछूते फूल छूते ही नहीं।

लाल लाल हथेलियाँ हैं पास ही।
जो कमल-दल से नहीं हैं कम भली॥
हाथ तुम फैलो न फूलों के लिये।
उँगलियों क्या है न चम्पे की कली॥

[ २२२ ]

हाथ मत लोढ़ो मलो नोवो उन्हें।
है बुरा जो फूल की रंगत खली॥
इस जगत का ही निराला रग है।
है तुमारी ही नही रंगत भली॥

हाथ और फल

डालियों से अलग न होने दो।
डोलने के लिये उन्हें छोड़ो॥
है भले लग रहे हरे दल में।
हाथ फल तोड़ कर न जी तोड़ो॥

है समय सुख दुख बना सब के लिये।
औगुनों पर है भले अड़ते नही॥
पाप होगा हाथ मत तोड़ो उन्हें।
क्या पके फल आप चू पड़ते नहीं॥

सोच लो है कौन हितकारी, भला।
कौन है पापी, बुरा, बेपीर, खल॥
तुम रहे ढेले फलों पर फेंकते।
पर बनाते फल रहे तुम को सफल॥

[ २२३ ]

तोड़ कर फल को कतरता क्यों रहा।
खा नही सकता उसे जब आप तू॥
मत पराये के लिये बेपीर बन।
हाथ पापी लौं करे क्यों पाप तू॥

हाथ उन पर किस लिये तुम उठ गये।
और उन को पीटने तुम क्यों चले॥
फूल सब है फूलते हित के लिये।
है भले ही के लिये सब फल फले॥

हाथ और तलवार
खेलने पर के भरोसे क्या लगे।
किस लिये हो भेद अपना खोलते॥
तोल तुम ने क्यों न अपने को लिया।
हाथ तुम तलवार क्या हो तोलते॥

हाथ में तो तमकनत कम है नहीं।
पर गई बेकारियाँ बेकार कर॥
ताब तो है वार करने की नहीं।
वार जाते हैं मगर तलवार पर॥

[ २२४ ]

जो रसातल जाति को है भेजते।
क्यों न उन की आँख को पट्टी खुले॥
जो कि सहलाते सदा तलवा रहे।
हाथ क्यों तलवार ले उन पर तुले॥

जब समय पर जाय बन बेजान तन।
ताब हाथों में न जब हो वार की॥
तल बिचल हो जाँय जब तिल आँख के।
क्या करेगी धार तब तलवार की॥

वह कहाँ पर क्या सकेगी कर नहीं।
साहसी या सूरमा के साथ से॥
है हिला देती कलेजे बेहिले।
चल गये तलवार हलके हाथ से॥

सब बड़े से बड़े लड़ाकों को।
हैं दिये बेध बैध बरछी ले॥
फेर तलवार फेर में डाला।
कर सके क्या न हाथ फुरतीले॥