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चोखे चौपदे/गागर में सागर

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चोखे चौपदे
अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

वाकरगंज, पटना: खड्गविलास प्रेस, पृष्ठ १ से – १४ तक

 

चो खे चौ प दे
गागर में सागर
देवदेव

चौपदे

जो किसी के भी नहीं बाँधे बँधे ।
प्रेमबंधन से गये वे ही कसे॥
तीन लोकों में नही जो बस सके।
प्यारवाली आँख में वे ही बसे ॥

पत्तियों तक को भला कैसे न तब।
कर बहुत ही प्यार चाहत चूमती ॥
साँवली सूरत तुम्हारी साँवले।
जब हमारी आँख में है घूमती॥

हरि भला आँख में रमे कैसे।
जब कि उस में बसा रहा सोना ।
क्या खुली आँख श्री लगी लौ क्या ।
लग गया जबकि आँख का टोना ॥

मंदिरों मसजिदों कि गिरजने में ।
खोनने हम कहाँ कहाँ जावें ॥
आप फेले हुए जहाँ में है।
हम कहाँ तक निगाह फैलावें ॥

जान तेरा सके न चौड़ापन ।
क्या करेंगे विचार हो चौड़े।
है जहाँ पर न दोड़ मन की भी।
वाँ बिचारी निमाह क्या दौड़े ॥

भौं सिकोड़ी बके झके; बहके।
बन बिगड़ लड़ पड़े अड़े अकड़े ॥
लोक के माथ सामने तेरे।
कान हम ने कभी नहीं पकड़े ॥

हो कहाँ पर नही झलक जाते।
पर हमे तो दरस: हुआ सपना ॥
कब हुआ सामना नही, पर हम।
कर सके सामने मे, मुंह अपना ॥

जो अँधेस है भरी जी में उसे ।
हम अँधेरे में पड़े खोते नही ॥
उस जगत की जोत की भी जोत के।
नोतवाले नख अगर होते नहीं ॥

लोक को निज नई कला दिखला ।
पा निराली दमक दमकता है ॥
दूज का चन्द्रमा नहीं है यह ।
पद चमकदार नख चमकता है ॥

कर अजब आसमान की रगत ।
ए सितारे न रंग लाते है ॥
अनगिनत हाथ-पाँव वाले के ।
नख, जगा जोत जममगाते है ॥

हैं चमकदार गोलियां तारे।
और खिली चाँदनी बिछौना है॥
उस बहुत ही बड़े खेलाड़ी के।
हाथ का चन्दमा खेलौना है॥

भेद वह जो कि भेद खो देवे।
जान पाया न तान कर सूते ॥
नाथ वह जो सनाथ करता है।
हाथ आया न हाथ के बूते ॥

सब दिनों पेट पाल पाल पले।
मोहता मोह का रहा मेवा ॥
है पके बाल पाप के पीछे।
आप के पाँव की न की सेवा ॥

जो निराले बड़े रसीले है।
पा सके फूल फूल फल वे हम ॥
चाह है यह ललक ललक देखें।
लाल, के लाल लाल तलवे हम ॥

हो भले, हो सब तरह के सुख हमें।
एक भी साँसत न दुख में पड़ सहें ॥
चाह है, लाली बनी मुँह की रहे।
लाल तलकों से लगी आँखे रहें ॥

मा की ममता



भूल कर देह गेह की सब सुध।
मा रही नेह मे सदा माती ॥
जान को वार कर जिलाती है।
पालती है पिला पिला छाती ॥

देख कर लाल को किलक हँसने।
लख ललक बार बार ललचाई ॥
कौन मा भर गई न प्यारों से।
कौन छाती भला न भर आई ॥

मा कलेजे में बही जैसी कि वह।
प्यार की धारा कहाँ वैसी बही ॥
कौन हित-माती हमें ऐसी मिली।
दूध से किस की भरी छाती रही ॥

नौ महीने पेट में, सह साँसतें।
रख जतन से कौन तन-थाती सकी ॥
माह मे माती हुई मा के सिवा।
कौन मुंह में दे कभी छाती सकी ॥

प्यार मा के समान है किस का।
हैं कढ़ी धार किस हृदय-तल से ॥
छातियों मिस हमे दिये किस ने।
दूध के दो भरे हुए कूलसे ॥

दृध छाती में भरा, भर बह चला।
आँख बालक ओर मा की जब फिरी ॥
गंगधारा शभु के शिर से बही।
दूध की धारा किसी गिरि से गिरी ॥

एक मा मे कमाल ऐसा है।
कुंभ को कर दिया कमल जिस ने ॥
रस भरे फल हमें कहाँ न मिले ।
फल दिये दूध से भरे किस न ॥

किस तरह मा के कमालों को कहें।
छू उसे हित-पेड़ रहता है हरा ॥
है पनपता प्यार तन की छांह में।
दूध से है छेद 'छाती का भरा ॥

देख कर अपने लड़ैते लाल को।
कब नही मुखड़ा रहा मा का खिला ॥
प्यार से छाती उछलती ही रही।
दूध छाती में छलकता ही मिला ॥

कौन बेले पर नहीं बनता हितू।
भाव अलबेले कहाँ ऐसे मिले ॥
एक मा के दिल सिवा है कौन दिल।
जाय जो छिल, पूत का तलवा छिले ॥

कवि

कबि अनूठे कलाम के बल से।
हैं बड़ा ही कमाल कर देते ॥
बेधने के लिये कलेजों को।
है कलेजा निकाल धर देते ॥

हैं निराली निपट अछूती जो।
हैं वही सूझ काम में लाते ॥
कम नहीं है कमाल कबियों में।
है कलेजा निकाल दिखलाते ॥

क्यों न दिल खीच ले उपज पाला।
जो कि उपजी कमाल भी कुछ ले ॥
जिन पदों में छलक रहा है रस।
क्यो कलेजा न सुन उसे उछले ॥

भाव में डूब पा अनूठे पद ।
जिस समय है कबिन्द जी लड़ता ॥
हैं उमगें छलॉग सी भरती।
है कलेजा उछल उछल पड़ता ॥

तज उसे कौन है मला ऐसा ।
दिल कमल सा खिला मिला जिसका ॥
फूल मुंह से झड़े किसी कबि के।
है कलेजा न फूलता किस का ॥

भेद उस ने कौन से खोले नही।
कौन सी बाते नही उस ने कहीं ॥
दिल नहीं उस ने टटोले कौन से।
घुस गया कबि किस कलेजे में नही ॥

है जहां कोई पहुंच पाता नही ।
वह वहाँ आसन जमा है बैठता ॥
सूझ-मठ में पैठ बस रस-पैंठ मे।
किस कलेजे मे नही कवि पैठता ॥

जो रही किस का नहीं मन मोहती।
हाथ में किस वह अजब माला लसी ॥
छोड़ कबि बस कर दिखाने की कला।
है भला किस के कलेजे में बसी ॥

रस-रसिक पागल सलाने भाव का ।
कौन कवि सा है लुनाई का सगा ॥
लोक-हित-गजरा लगन-फूलों बना।
है रखा किस ने कलेजे से लगा ॥

बॉध सुन्दर भाव का सिर पर मुकुट।
वह भलाई के लिये है अवतरा ॥
कौन कवि सा हित-कमल का है भँवर।
प्यार से किस का कलेजा है भरा ॥

है रहा किस मे बसत सदा बना।
नित चली किस में मलय सी पौन है ॥
धार किस में सब रसों की है बही।
कवि-कलेजे सा कलेजा कौन है ॥

एक कवि छोड़ कौन है ऐसा।
प्रेम में मस्त मन रहा जिस का ॥
भाव में डूब धन , उमड़ते लौं।
है कलेजा उमड़ सका किस का ॥

फूल जिस से सदा रहा झड़ता।
मुंह वही श्राम है उगल लेता ॥
क्या अजब, कबि जला भुना कोई।
है कलेजा बला जला देता ॥

हाथ ऊंचा सदा रहा किस का।
हित सकल सुख सहज सहेजे में ॥
कबि करामात कर दिखाता है।
ढाल जल जल रहे कलेजे में ॥

है किसी के न पास रस इतने।
है रसायन बना बचन किस का ॥
कवि सिवा कौन लग लगा उस के।
है कलेजा सुलग रहा जिस का ॥

तो भला क्या कमाल है कबि में।
जो सका कर कमल न नेजे को ॥
गोद में प्यार है पला जिस की।
गोद देवे न उस कलेजे के ॥

चाँद को छोल चाँदनी को, मल।
रंग दे लाल, लाल रेजे में ॥
कबि कहा कर बदल कमल दल को।
छेद कर दे न छबि कलेजे में ॥

पैठ कर के प्यार जैसे पैठ मे।
दाम खोटी चाट का पाता रहा ॥
जो कभी चोटी चमोटी के लगे।
कवि-कलेजा चोट खा जाता रहा ॥

प्यार के पुतले

बात मीठी लुभावनी सुन सुन।
जो नही हो मिठाइयाँ देते ॥
तो खिले फूल से दुलारे का।
चाह से गाल चूम तो लेते ॥

हाथ उन पर भला उठायें क्यों।
जो कि हैं ठीक फूल ही जैसे ॥
पा सके तन गला गला जिन को।
गाल उन का भला मलें कैसे ॥

हैं लुभा लेती ललक पहल लिये।
हैं कमाल भरी अमोल पहेलियां ॥
लालसावाले निराले लाल के।
हाथ की ए लाल लाल हथेलियां ॥

तैरते हैं उमंग लहरों में।
चाव से खाड़ साथ लड़ लड़ के ॥
लाभ हैं ले रहे लड़कपन का।
हाथ औ पाँव फेंकते लड़के ॥

प्यार कर प्यार के खेलौने को।
कौन दिल में पुलक नहीं छाई ॥
देख भावों भरी भली सूरत ।
कौन छाती भला न भर आई ॥

चूम लें और ले बलायें लें।
लाम है लाड़ के अँमेजे में ॥
मनचले नौनिहाल हैं जितने।
हम उन्हें डाल लें कलेजे में ॥

ले सके जो, उसे न क्यों लेवे।
लाड़िला वह तमाम घर का है।
ठोक पर का अगर रहा पर का।
दूसरा कौन पीठ पर का है।

क्यों ललकती रहे न माँ-आँखें।
दल उसे लाल फूल का कह कह ॥
लाल है, है गुलाल की पुतली।
लाल की लाल लाल एड़ी यह ॥

प्यार से है प्यार की बाते भरी।
मा कलेजे के कमल जैसा खिले ॥
पाँव पॉव ठुमक ठुमुक घर मे चले।
लाल को हैं पाँव चन्दन के मिले ॥