चोखे चौपदे/ केसर की क्यारी

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[ २७ ]

केसर की क्यारी
अनूठी बातें


जो बहुत बनते हैं उन के पास से।
चाह होती है कि कब कैसे टलें ॥
ओ मिले जी खोल कर, उन के यहाँ ।
चाहता है जो कि सिर के बल चले ॥

[ २८ ]

भूल जावे कभी न अपनापन।
जान दे पर न मान को दे, खो ॥
लोग जिस आँख से तुम्हें देखे।
तुम उसी आँख से उन्हें देखो ॥

और को खोट देखती बेला।
टकटकी लोग बाँध देते है ॥
पर कसर देखते समय अपनी।
बेतरह आँख मूंद लेते है ॥

फिर कभी खुलने न पाई माँद वे।
इस तरह मन के मसोसों से दुई ॥
मूँदते ही मूंदते मुख और का।
मदभरी आँखे बहुत लो मुंद गई ॥

छोड़ संजीदगी सजे कूँचे।
बन गये जब लोहार की कूँची ॥
तो बचा रह सका न ऊँचापन ।
आँख भी रह सकी नही ऊँची ॥

[ २९ ]

कौन बातें बना सका अपनी ।
बात बेढंग बढ़ा बढ़ा कर के ॥
आँख पर चढ़ गया न कौन भला ।
आँख अपनी चढ़ा चढ़ा कर के ॥

बात सुन कर सिखावनों डूबी ।
जो कि है ठीक राह बतलाती ॥
जब नही सूझ बूझ रग चढ़ा ।
तब भला आँख क्यों न चढ़ जाती ॥

तुम भली चाल सीख लो चलना ।
औ भलाई करो भले जो हो ॥
धूल मे मत बटा करो रस्सी ।
आँख में धूल डालते क्यों हो ॥

ठीक वैसा न मान ले उस को ।
जो कि जैसे लिवास मे दीखे ॥
जी अगर है टटोल लेना तो ।
देखना आँख खोल कर सीखे ॥

[ ३० ]

चाह जो यह है कि हाथों से पले ।
पेड़ पौधों से अनूठे फल चखें ॥
तो जिले है प्रॉख मे रखते सदा ।
चाहिये हम आँख भी उस पर रखे ॥

जो न चित का नित बना चाकर रहा ।
बात चितवन के नहीं जिस पर चले ॥
है जिसे पैसा नचा पाता नहीं ।
आ सका ऐसा न आँखों के तले ॥

किस तरह से सॅमल सकेंगे वे ।
अपने को जो नही सँभालेंगे ॥
क्यों न खो देंगे आँख का तिल वे ।
आँख का तेल जो निकालेगे ॥

सघ सकेगा काम तब कैसे भला ।
हम करेंगे साधने मे जब कसर ॥
काम आयेंगी नही चालाकियाँ ।
जब करेंगे काम आँखें बद कर ॥

[ ३१ ]


जब कि चालाको न चालाकी रही ।
ओख उस पर तब न क्यों दी जायगी ॥
लोग उँगली क्यों उठायेंगे न तब ।
जब कि उँगली आँख में की जायगी ॥

है खटकती किसे नही दुनिया ।
लग सके कब खुटाइयों के पते ॥
तब परखते अगर परख वाली ।
आँख के सामने उसे रखते ॥

क्यों कहें क्गालपन को भी कभी ।
हैं खुली आँखें हमारी जाँचती ॥
सामने जो वे न नाचे ऑख के ।
भूख से है आँख जिन की नाचती ॥

खिल उठे देख चापलूसों को।
देख बेलौस को कुढ़े कांखें ॥
क्यों भला हम बिगड़ न जायेंगे।
जब हमारी बिगड़ गई आँखें ॥

[ ३२ ]


है जिसे सूझ ही नहीं उस को ।
क्या करेंगे उधार कर आँखें ॥
है प्रसरता जहां अंधेरा वां।
क्या करेंगे पसार कर आँखे ॥

कब जाओ न" उलझनों मे पड़ ।
जगलों को खंगाल कर देखो ॥
डाल दो हाथ पॉव मत अपना ।
आँख मे श्रॉख डाल कर देखो ॥

ताक मे रात रात भर न रहे।
सूइयां डालने से मुंह मोड़ें ॥
और को ऑख फोड़ देने को ।
आँख अपनी कभी न हम फोड़े ॥

तब टले तो हम कही से क्या टले ।
डाँट बतला कर अगर टाला गया ॥
तो लगेगी हाथ मलने आबरू ।
हाथ गरदन पर अगर डाला गया ॥

[ ३३ ]


है सदा काम ढग से निकला ।
काम बेढंगपन न देगा कर ॥
चाह रख कर किसी भलाई की ।
क्यों भला हो सवार गरदन पर ॥

बेहयाई, बहॅक, बनावट ने ।
कस किसे नहि दिया शिकजे में ॥
हित-ललक से भरी लगावट ने ।
कर लिया है किसे न पजे मे ॥

फल बहुत ही दूर, छाया कुछ नहीं ।
क्यों भला हम इस तरह के ताड़ हो ॥
आदमी हो और हो हित से भरे ।
क्यों न मूठी भर हमारे हाड़ हो ॥

काम आये, लोक के हित मे लगे ।
ठीक पानी की तरह दुख में बहे ॥
धन रहा पर-हाथ में तो क्या रहा ।
रह सके तो हाथ में अपने रहे ॥

[ ३४ ]


बीनना, सीना, परोना, कातना ।
गूंधना, लिखना न आता है कहे ॥
काम की यह बात है, हर काम मे ।
बैठता है हाथै बैठाते रहे।

जाय जिल से कुल कसर जी की निकल ।
बोलनेवाले बचन वे बोल दे ॥
खोलनेवाले अगर खोले खुले ।
तो किवाड़े छातियों के खोल दे ॥

दूसरा कोई अधम वेसा नही।।
पाप जिस से हैं कराती पूरियाँ।
वे पतित है पेट पापी के लिये।
छातियों में भोंक दे जो छूरियाँ।

रह सका काम का सुखी सुन्दर ।
कौन सा अग दुख अंगेजे पर ॥
भूल है जल गरम अगर छिड़कें ।
फूल जैसे नरम कलेजे पर ॥

[ ३५ ]


इस जगत का जीव वह है ही नहीं ।
लुट गये धन जी लटा जिस का नही ॥
हाथ की पूंजी गँवा, पड़ टूट में ।
है कलेजा टूटता किस का नहीं ॥

बेतरह बेध बेध क्यों देवे ।
भेद है जीभ और नेजे मे ॥
बात से छेद छेद कर के क्यों ।
छेद कर दे किसी कलेजे में ॥

पढ़ गये हाथ आ गया पारस ।
कढ़ गये गुन गया अँगेजा है ॥
चढ़ गये चाव चित गया चढ़ बढ़ ।
बढ़ गये बढ़ गया कलेजा है ॥

मिल न पाया मान मनमानी हुई ।
मोतियों के चूर का चूना हुआ ॥
दिलचलों के सामने बन दिलचले ।
दून की ले दिल अगर दूना हुआ ॥

[ ३६ ]


रंग उस का बहुत निराला है ।
हम न उस रग को बदल देखें ॥
फूल से वह कही मुलायम है ।
चाहिये दिल न मल मसल देवें ॥

हम उसे ठीक ठीक ही रक्खे ।
औ उसे ठीक राह बतलावें ॥
चाहिये दिल उड़ा उड़ा न फिरे ।
दिल पकड़ लें अगर पकड़ पावें ॥

प्रभु महक से है उसी के रीझते ।
पी उसी का रस रसिक भौंरे जिये ॥
चार फल केवल उसी से मिल सके ।
तोड़ते दिल-फूल को है किस लिये ॥

है निराली प्रभु-कला जिस में बसी ।
वह निराला आइना है फूटता ॥
टूटती है प्यार की अनमोल कल ।
तोड़ने से दिल श्रगर है टूटता ॥

[ ३७ ]


जीभ को कस में रखें, काया कसें ।
क्यों लहू कर के किसी का सुख लहे ॥
मारना जी का बहुत ही है बुरा ।
जी न मारे मारत जी को रहे ॥

काम करते है मफर कर किस लिये ।
इस मकर से प्यार प्यारा है कहो ॥
क्यों हमारा जी गिना जी जायगा ।
हम अगर जी को समझते जी नही ॥

बात बनती नही बचन से ही ।
काम सध कब सका सदा धन से ॥
मानते क्यों न मानने वाले ।
वे मनाये गये नही मन से ॥

क्या बचन मीठे नहीं हम बोलते ।
क्या हमारे पास सुन्दर तन नहीं ॥
पर भला कैसे रिझायें हम उसे ।
रीम जिस का रीझ पाता मन नही ॥

[ ३८ ]


बिष-बटी होवे न क्यों हीरे जड़ी ।
जान उस को खा, गई खोई नहीं ॥
हाथ जो आ जाय सोने की छुरी ।
पेट तो है मारता कोई नहीं ॥

है कुदिन मे किसे मिले मेवे ।
जो मिले, आँख मूंद कर खा ले ॥
भूख मे साग पात क्यों देखे ।
जो सके डाल पेट मे डाले ॥

चाहिये सारे बखेड़े दूर कर ।
बात आपस की बिठाने को उठे ॥
आँख उठती दीन दुखियों पर रहे ।
पॉव गिरतों के उठाने को उठे ॥

भक्ति अधी भली नही होती ।
भाव होते भले नहीं लूंजे ॥
है अगर पॉव पूजना ही तो ।
पूजने जोग पाँव ही पूजे ॥