चोखे चौपदे/दम

विकिस्रोत से
[ १२४ ]

दम

क्यों लिया यह न सोच पहले ही।
आप तुम बारहा बने यम हो॥
है खटकते तुम्हें किये अपने।
क्या अटकते इसी लिये दम हो॥



छींक

पड़ किसी की राह मे रोड़े गये।
औ गये कॉटे बिखर कितने कही॥
जो फला फूला हुआ कुम्हला गया।
यह भला था छीक आती ही नही॥

क्यों निकल आई लजाई क्यों नहीं।
क्यों सगे पर यो बिपद ढाती रही॥
तब भला था, थी जहाँ, रहती वही।
छीक जब तू नाक कटवाती रही॥

[ १२५ ]

राह खोटी कर किसी की चाह को।
मत अनाड़ी हाथ की दे गेद कर॥
छरछराहट को बढ़ाती आन तू।
छीक! छाती में किसी मत छेद कर॥

मूँछ

तो न वह करतूत करतूत ही।
जो अँधेरे में न उॅजियाली रखे॥
तो निराली बात उस में क्या रही।
जो न काली मूॅछ मुॅह लाली रखे॥

दाढ़ी

बेबसी तो है इसी का नाम ही।
पड़ पराये हाथ में है छँट रही॥
फ्रेंच कट क्या सैकड़ों कट में पड़ी।
आज कितनी दाढ़ियाँ है कट रही॥

[ १२६ ]

जब रहा पास कुछ न बल-बूता।
जब न थी रोक थाम कर पाती॥
जब उखड़ती रही उखाड़े से।
क्यों न दाढ़ी उखाड़ ली जाती॥

बाढ़ जो डाल गाढ़ मे देवे।
तो भला किस लिये बढ़ी दाढ़ी॥
जो चढ़ी आँख पर किसी की तो।
क्यों चढ़ाई गई चढ़ी दाढ़ी॥

गला

तब खिले फूल से सजा क्या था।
तब भला क्या रहा सुगध भरा॥
तब दिलों को रहा लुभाता क्या।
जब किसी के गले पड़ा गजरा॥

वह तुमारा बड़ा रसीलापन।
सच कहो हो गया कहाॅ पर गुम॥
जो कभी काम के न फल लाये।
तो गला फूलते रहे क्या तुम॥

[ १२७ ]

बोल जब बन्द ही रहा बिल्कुल।
तब लगे जोड़बन्द क्यों बोले॥
जब कि वह खुल सका न पहले ही।
तब भला क्यों गला खुले खोले॥

तब भला किस तरह न फट जाता।
जब कि रस से न रह गया नाता॥
आज जब वह बहुत रहा चलता।
तब भला क्यों गला न पड़ जाता॥

बारहा बन्द हो बिगड़ जावे।
बैठ जावे, घुटे, फँसे, सूखे॥
पर गले की अजब मिठाई के।
कब न मीठे पसद थे भूखे॥

तब कहाॅ रह सका सुरीलापन।
जब कि सुर के लिये रहा भूखा॥
सोत रस का रहा बहाता क्या।
जब कि रस को गॅवा गला सूखा॥

[ १२८ ]

तो पिलाये तो पिलाये क्या भला।
जो उसे जल का पिलाना ही खला॥
तो खिलाये तो खिलाये क्या उसे।
जो खिलाये दाख दुखता है गला॥

हो सके किस तरह उपज अच्छी।
जब कि उपजा सकी नही क्यारी॥
तब उभारी न जा सकी बोली।
जब कभी हो गया गला भारी॥

जब कि वह पुर पीक से होता रहा।
जब रहे उस मे बुरे सुर भी अड़े॥
मोतियों की क्या पड़ी माला रही।
तब गले मे क्या रहे गजरे पड़े।

कंठ

जब भले सुर मिले नही उस में।
जब कि रस में रहा न वह पगता॥
तब पहन कर भले भले गहने।
कठ कैसे मला भला लगता॥

[ १२९ ]

जो निराला रग बू रखते रहे।
फूल ऐसे बाग मे कितने खिले॥
जो कि रस बरसा बहुत आला सके।
वे रसीले कंठ है कितने मिले॥

है भला ढंग ही भला होता।
क्यों बुरे ढंग यों सिखाते हो॥
क्या बुरी लीक है पसद तुम्हे।
कंठ तुम पीक क्यों दिखाते हो॥

पूजते लोग, रंग नीला जो।
पान की पीक लौ दिखा पाते॥
कंठ क्या बन गये कबूतर तुम।
था भला नीलकठ बन जाते॥

क्यों रहे गुमराह करते कौर को।
क्या नहीं गुमराह करना है मना॥
जब सुराहीपन नहीं तुझ में रहा।
कठ तब क्या तू सुराही सा बना॥

[ १३० ]

तब भला क्या उमड़ घुमड़ कर के।
मेघ तू है बरस बरस जाता॥
एक प्यासे हुए पपीहे का।
कंठ ही सीच जब नही पाता॥

गाना गला कंठ

हो सके हम सुखी नही अब भी।
आप का मेघराज आना सुन॥
ऑख से आज ढल पड़ा आँसू।
मल गया दिल मलार गाना सुन॥

बेसुरी तब बनी न क्यों बसी।
बीन का तार तब न क्यों टूटा॥
तब रही क्या सरगियाॅ बजती।
आज सस्ते अगर गला छूटा॥

बोल का मोल जान कर के भी।
कठ के साथ क्यों नही तुलती॥
जब नही ठीक ठीक बोल सकी।
ढोल की पोल क्यों न तब खुलती॥

[ १३१ ]


कठ की खींच तान में पड़ कर।
हो गया बन्द बोल का भी दम॥
तग होता रहा बहुत तबला।
दग होता रहा मृदग न कम॥

हथेली

क्या कहे हम और, हम ने आज ही।
आँख से मेहदी लगाई देख ली॥
जब ललाई और लाली के लिये।
तब हथेलो की ललाई देख ली॥

कर रही है लालसायें प्यार की।
क्या लुनाई के लिये अठखेलियाँ॥
या किसी दिल के लहू से लाल बन।
हो गई हैं लाल लाल हथेलियाॅ॥

[ १३२ ]

उँगली

काम जैसे पसद है जिस को।
फल मिलेंगे उसे न क्यों वैसे॥
हैं अगर काट कूट मे रहती।
तो कटेंगी न उँगलियाँ कैसे॥

हाथ का तो प्यार सब के साथ है।
काम उस को है सबों से हर घड़ी॥
है छोटाई या बड़ाई को न सुध।
हो भले ही उँगलियों छोटी बड़ी॥

जी करे तो लाल होने के लिये।
लोभ में पड़ पड़ लहू मे वे सनें॥
क्यों कहे फलियाँ उन्हे छबि-बलि की।
उँगलियां कलियाँ न चंपे की बनें॥

दुख हुआ तो हुआ, यही सुख है।
हाथ से जो बिपत्ति के छूटी॥
तब भला टूट में पड़ी क्या वे।
टूट कर जो न उँगलियाँ टूटी॥

[ १३३ ]

फेर मे क्यों लाल रंगों के पड़े।
क्यों अँगूठी पैन्ह ले हीरे जड़ी॥
है बड़ाई के लिये यह कम नहीं।
उँगलियों मे है बड़ी, उँगली बड़ी॥

कब न करतूत कर सकी छोटी।
वह दिखाते कला कभी न थकी॥
हो बड़ी और क्यों न हो मोटी।
कौन उँगली उठा पहाड़ सकी॥

क्यों न हो लाल बारहा उँगली।
लाल होगी कभी नही गोंटी॥
मिल सके किस तरह बड़ाई तब।
जब छुटाई मिले हुई छोटी॥

बन सकी वह नही बड़ी उँगली।
भाग का नीक भी नहीं चमका॥
मूठियां क्यों न वार दें हीरे।
क्यों न देवे अँगूठियाँ दमका॥

[ १३४ ]

पेन्ह ले तो पैन्ह ले छिगुनी उन्हे।
क्या करे उँगली बड़ी छल्ले पहन॥
तन बड़ाई के लिये छोटे सजे।
है बड़ा होना बड़ों का बड़प्पन॥

नाम पाता कौन है बेकाम रह।
क्यों बड़ी उँगली न बिगड़े इस तरह॥
पास जब बेनाम वाली के रही।
तब बनेगी नामवाली किस तरह॥

क्यों न हो छिगुनी बहुत छोटी मगर।
मान कितने काम कर वह ले सकी॥
ऐ बड़ी उँगली बता तू ही हमे।
काम क्या तेरी बड़ाई दे सकी॥

जब बने देती रहें सुख और को।
दूसरों के वास्ते दुख भी सहे॥
जब कभी छिड़के, न छिड़के गर्म जल।
उँगलियां चन्दन छिड़कती ही रहें॥

[ १३५ ]

चौकते मरजादवाले है नही।
देख उज्जबक कठ में कठा पड़ा॥
क्यों न छल्ले पैन्ह ले कानी कई।
कौन उँगली कान करती है खड़ा॥

जो किसी को खली, भली न लगी।
चाहिये चाल वह न जाय चली॥
जो गई तो गई किसो मुँह मे।
किस लिये आँख में गई उँगली॥

सोच उँगली तू ढले तो क्यों ढले।
जो बुरी रुचि में ढला वह जाय ढल॥
हैं दमकते तो दमकने दे उन्हें।
मोतियों से दाँत में मिस्सी न मल॥

डाल कर सुरमा भलाई की गई।
कब नहीं यह आँख दुखवाली रही॥
सोच उँगली तू न कर लाली गॅवा।
क्या हुआ कुछ काल जो काली रही॥