चोखे चौपदे/⁠मूठी

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चोखे चौपदे  (1924) 
द्वारा अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
[ १४७ ]

मूठी
वह भरी तो क्या जवाहिर से भरी।
जो नही हित-साधनाओं मे सधी॥
जब बॅधी वह बॉधने ही के लिये।
तब अगर मूठी बँधी तो क्या बॅधी॥

लाल मुँह कर तोड़ दे कर दाँत को।
साधने मे बैर के हो जब सधी॥
जब खुले पता, बँधे मूका, बनी।
तब खुली क्या और क्या मूठी बँधी॥

हाथ

बीज बोते रहे बुराई के।
जो बदी के बने रहे बम्बे।।
जो उन्हें देख दुख न लम्बे हों।
तो हुए हाथ क्या बहुत लम्बे॥

[ १४८ ]

घिर गये पर जब निकल पाये नही।
तब रहे क्या दूसरो को घेरते॥
आप ही जब फेर में वे है पड़े।
हाथ तब तलवार क्या है फेरते॥

खोल दिल पर-धन लुटाता है सभी।
कौन निज धन दान दे यश ले सका॥
वह भले ही फूल बरसाता रहे।
फूल कर के हाथ फूल न दे सका॥

मान उन को न चाहिये देना।
जो मिले मान फूल है जाते॥
जब न पाते रहे भले फल तो।
क्या रहे हाथ फूल बरसाते॥

खेलने मे बिगड़ बने सीधे।
फिर लगे बार बार लड़ने भी॥
वे रहे कम नही बने बिगड़े।
हाथ अब तो लगे उखड़ने भी॥

[ १४९ ]

देस-हित-राह पर चले चमका।
जम इसी से न पॉव पाया है॥
जातिहित पर जमे जमे तो क्यों।
हाथ मे तो दही जमाया है॥

तन पहन कर जिसे बिमल बनता।
चाहिये था कि वह बसन बुनते॥
जब बिछे फूल चुन नही पाये।
हाथ तब फूल क्या रहे चुनते॥

काम जब देते न गजरों का रहे।
जब कि काटों की तरह गड़ते रहे॥
जब भले बन थे भला करते नही॥
तब गले में हाथ क्या पड़ते रहे।

है खिला कौर पोंछता ऑसू।
ले बलायें उबार लेता है॥
दूसरे अग हो दुखी भर लें।
साथ तो एक हाथ देता है॥

[ १५० ]

लाख उस के साथ उस को प्यार हो।
मन रुची किस काल होनी ने न की॥
कौन चारा हाथ बेचारा करे।
जो न पहुँचा तक पहुँच पहुँची सकी॥

क्या मिला बरबाद करके और को।
क्यों लगा दुखबेलि सुख खोते रहे॥
हाथ तो हो तुम बुरे से भी बुरे।
जो बुराई बीज ही बोते रहे॥

हाथ! सच्ची बीरता तो है यही।
सब किसी के साथ हित हो प्यार हो ॥
बोर बनते हो बनो तो बीर तुम।
क्यों चलाते तोर औ तलवार हो॥

हाथ देखो बने न बद उँगली।
वह बदी से रहे सदैव बरी॥
कुछ कसर कोर है नही किस मे।
हो बुराई न पोर पोर भरी॥

[ १५१ ]

हाथ कोई काम तू ऐसा न कर।
आबरू पर जाय जिस से ओस पड़॥
तब करेंगे क्यों न ठट्ठा लोग जब।
जाय गट्टे के लिये गट्टा पकड़॥

हो कलाई में जड़ाऊ चूड़ियाँ।
हाथ तो भी तुम न होगे जौहरी॥
उँगलियों में हों अमोल अँगूठियाँ।
मूठियाँ मणि मोतियों से हों भरी॥

दान के ही जो रहे लाले पड़े।
जो उखेड़े ही किये मुरदे गड़े॥
हाथ तब तुम क्या बड़े सुन्दर बने।
क्या रहे पहने कड़े मणियों-जड़े॥

जो लुभाता कौड़ियालापन रहा।
हाथ तुम को फैलना ही जब पड़ा॥
क्या किया कंगन रुपहला तब पहन।
तब सुनहला किस लिये पहना कड़ा॥

[ १५२ ]

ढोंग रचते क्या भलाई का रहे।
जब बुराई का बिछाते जाल थे॥
किस लिये माला रहे थे फेरते।
जब मलों से हाथ मालामाल थे॥

वह सका दुख न जान छिकने का।
जो गया है कही नही छेंका॥
क्यों कलेजा न काढ़ वह लेवे।
हाथ है आप बे-कलेजे का॥

पीसते क्यों किसी पिसे को हो।
और की सोर क्यों रहे खनते॥
है न अच्छा कठोरपन होता।
हाथ तुम हो कठोर क्यों बनते॥

चाहिये था बुरी तरह होना।
बेतरह ढाहते सितम जब हो॥
लाल मुँह जब हुए तमाचों से।
हाथ तुम लाल लाल क्या तब हो॥

[ १५३ ]

हाथ को काम तो चलाना था।
क्यों न फिर ढग-बीज वे बोते॥
क्या करे रह भरम न सकता था।
है इसी से नरम गरम होते॥

हाथ लो मनमानतो मेंहदी लगा।
या बनो मल रग कोई गाल सा॥
पर तमाचे मार मत हो लाल तुम।
लाल होने की अगर है लालसा॥

जाय छीनी मान की थाली तुरत।
औ उसे अपमान की डाली मिले॥
रख सकी जो जाति मुख-लाली नही।
धूल मे तो हाथ की लाली मिले॥

छाती

नाम को जिन में भलाई है नही।
बन सकेगे वे भले कैसे बके॥
कह सकेंगे हम नरम कैसे उसे।
जो नरम छाती न नरमी रख सके॥

[ १५४ ]

जो रही चूर रगरलियों में।
जो सदा थी उमग में माती॥
आज भरपूर चोट खा खा कर।
हो गई चूर चूर वह छाती॥

पेट

कुछ बड़ाई अगर नहीं रखते।
हो सके कुछ न तो बड़े ही कर॥
दुख कड़ाई किसे नही देती।
देख लो पेट तुम कड़े हो कर॥

तू न करता अगर सितम होता।
तो बड़े चैन से बसर होती॥
तो न हम बैठते पकड़ कर सर।
पेट तुझ मे न जो कसर होती॥

हो गरम जब हमें सताता है।
हो नरम जब रहा भरम खोता॥
पेट! तो दे बता मरम इस का।
क्यों रहा तू नरम गरम होता॥