जमसेदजी नसरवानजी ताता का जीवन चरित्र/२—अभ्युदय

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जमसेदजी नसरवानजी ताता का जीवन चरित्र  (1918) 
द्वारा मन्नन द्विवेदी 'गजपुरी'

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दूसरा अध्याय।


अभ्युदय।

पहले अध्यायमें आपने इम्प्रेस मिल और स्वदेशी मिलकी उन्नति देखी। उनके साथ साथ आपने ताता महोदय के परमोच्च विचार, अद्भुत संगठन शक्तिका भी अवलोकन किया। एक जन्म क्या, कई जन्मों में भी इतने बड़े बड़े काम होजायं तब भी बहुत हे, लेकिन ताता महोदयके आदर्शजीवन नाटकमें ये दो कारखाने प्रस्तावना मात्र थे। लोहेका कारखाना, बिजली घर तथा रिसर्च इन्स्टीट्‌यूट उस महापुरुषके महानाटकके तीन मनोरंजक और शिक्षाप्रद अंक थे। इनमेंसे कुछ दृश्य आरंभ होगये थे लेकिन कुछके अभी परदे भी नहीं उठ पाये थे, कि क्रूरकालने अंतिम ड्रापसीन समाप्त कर दिया। विचित्र वियोगांत नाटकका खेल दिखाकर ताता महोदय चले गये।

इस अध्यायमें लोहे और बिजलीके कारखानोंके वर्णन किये जायंगे। पहले लोहेके कारखानेके बारेमें लिखा जायगा। ताता महोदय बहुत दिनोंसे सोच रहे थे कि किस तरह लोहेका वृहद् व्यापार इस देशमें किया जाय। विदेशोंसे लोहा मंगाकर [ २१ ] बेचनेवाले तो बहुतसे थे लेकिन देशमें खानोंसे लोहा निकालने की हिम्मत करनेवाले बहुत थोड़े थे। काम उठानेके पहले आपने इस बातकी तहकीकात की कि इस देश में लोहेकी खाने है या नहीं। अपने खर्चसे आपने बड़े बड़े विद्वानोंको तैनात किया, उनसे जांच करवाई और रिपोर्ट तैयार हुई। पता चला कि मोरभंजमें बहुत लोहा निकलनेकी संभावना है। मोरभंज बंगालकी एक उन्नतशील रियासत है। रयासतसे सहायताका वचन मिला। बंगाल नागपुर रेलवेने भाड़ा कम कर देनेका वादा किया। भारत सरकारने प्रतिवर्ष २० हज़ार टन साल खरीदनेकी जिम्मेदारी ली। सन् १९०७ ई॰ में २ करोड़ ३१ लाख रुपयोंकी पूंजीसे "ताता आइरन ऐण्ड स्टील कंपनी" की स्थापना हुई। दुःखकी बात है कि ताता महोदयके जीवनमें कंपनी कायम न होसकी। लेकिन उनके सुयोग्य पुत्रोंने आपके उद्देश्यों की पूर्तिकर पितृभक्तिका अच्छा परिचय दिया।

कम्पनीकी स्थापना होते होते रुपया इकट्ठा होने लगा। काम धूम धामसे चल निकला। रिपोर्टसे पता चलता है कि लगभग १५ हजार आदमी इस कारखानेमें काम करते हैं। देशके सिवाय इस कारखानेका माल विदेशों में दूर दूर तक जाता है। जापान भी इस कारखानेका ग्राहक है यह इस देशके लिये गर्वकी बात है। स्काटलैंड, इटली और फिलीपाइनने भी यहांसे माल खरीदा। हिन्दुस्तानी रेलवे कंपनियोंमें अधिकांशने अपने सामान ताता कारखानेसे मोल लिये हैं। सन् १९१३-१४ ई॰ में २३ लाखका [ २२ ] मुनाफा हुआ। सन् १९१४ और १९१५ ई॰ में २४ लाख ८३ हजारका मुनाफा हुआ। इस तरह ताता महोदयने एक बड़े भारी नये कामको न सिर्फ उठाया बल्कि उसे इतनी जल्दी और इस खूबीके साथ चलाया कि कारखाना स्थायी होगया, हजारों गरीब मजदूरे पलने लगे, न केवल देशका रुपया वाहर जानेसे बचा बल्कि बाहरसे रुपया आने लगा। उद्योगी, चतुर, विचारवान, सदाचारी, साहसी, सत्यप्रिय, धीर, सहृदय, अनुभवी, शिक्षित, देशकालज्ञ, अर्थशास्त्रका ज्ञाता देशभक्त क्या नहीं कर सकता है।

ताता महोदयकी दूसरी स्कीम बहुत बड़ी और औद्योगिक संसारको काया पलट करनेवाली थी। परमात्माने पंच तत्वोको प्राणियोंके कल्याणके लिये बनाया है। लेकिन कादर, मूर्ख और अशिक्षित, प्रकृति के भिन्न २ स्वरूपोंको देखकर कभी प्रसन्न होते हैं, कभी अचंभेमें आते हैं, कभी व्याकुल होते हैं और कभी डरते हैं। लेकिन विद्वान् और वैज्ञानिक लोग पुरुषका प्रकृति पर महत्व दिखाते हुए तत्वोंको पददलित करके, उनको अपने आधीन करके, अपना, अपने देश और संसारका कल्याण करते हैं। हवाके जोरदार झोकोंसे ग्रामीणोंके छप्पर उड़ जाते हैं, आग उड़कर उनकी फूलकी राममडैयाको भस्म कर देती है, अतिवृष्टिसे उनके खेत बह जाते हैं, मवेशी मर जाते हैं और उनके अपने प्राण भी संकट में रहते हैं। बिजली चमकी नहीं कि हम भागकर घरमें छिप जाते हैं। संस्कृत पाठशालाओं में अनध्याय [ २३ ] कर दी जाती है। हमारी तो यह दशा है और विज्ञान विशारद विदेशी वायुसे विंड मिल (हवासे चलने वाले कारखाने) चलाते हैं और अग्नि देवतासे रेल, पुतलीघर और क्या क्या नहीं चलाते।

समयने बतला दिया है कि अपने धार्मिक महत्वकी रक्षा करते हुए, अपने वेद और उपनिषदोंका अध्ययन करते हुए भी हमको उन आडम्बरोंको, उन अंधविश्वासोंको छोड़ना पड़ेगा जो हमारे पूर्वजोंके चलाये नहीं हैं और जो पद पद पर हमको अपमानित और पीड़ित करने के लिये तैयार हैं। कर्मवीर होना होगा, मातृभूमिकी रक्षाके लिये पाश्चात्य लोगोंका शिष्य बनना पड़ेगा। बहुतसी बातों में उनको अपना आदर्श मानना पड़ैगा। महाराज सयाजीराव गायकवाड़ने बहुत ठीक कहा है कि हमको पाश्चात्य देशोंसे साइस सोखना चाहिये और उनकी फिलासफी सिखलानी चाहिये। विद्वान् और देशभक्त बड़ौदानरेशने दो लाइनों में नव्यभारतके आदर्श बड़ी खूबीसे दिखला दिये हैं।

इसमें संदेह नहीं कि पाश्चात्य देश और हमारा पड़ोसी बंधु जापान जरूरतसे ज्यादा धनकी ममतामें पड़े हुए हैं। वे हमसे कहीं बढ़कर शक्तिशाली हैं, इसलिये अधिक कहते डर लगता है, लेकिन इतना तो कहनाही पड़ैगा कि वे इस तरह धन और शक्तिके पीछे पड़कर पाप करते हैं। उनकी लोलुपता का परिणाम बड़ाही भयंकर होरहा है। वे अपनी विषय वासना से अपने देशवासियोमें अधिकांशको दुखी बनाते हुए अपना कोढ़का रोग और देशामें भी फेलाते है। [ २४ ]अंगरेजी समाजका शूद्रवर्ण कितना गिरा हुआ है और क्या यम यातना भोग रहा है, उसका चित्र देखकर कहना पड़ता है कि पुराणों में जिन नरकोंका वर्णन है वे इन अंगरेज दुखियों के घरोंसे कहीं अच्छे होंगे। वर्तमान युरोपीय महाभारत भी अभिमान और लोभका परिणाम है।

युद्धके बाद भारतका कर्तव्य होगा कि इन भलेमानस देशों को समझावै कि भाई, सोना चान्दी, हीरा जवाहिर, नील, कपड़े चमड़े तथा राज्य और व्यापारकी दूसरी बातें ऐसी नहीं हैं जिनके लिये नरमेध यज्ञ किया जाय, जिनके लिये रणगंगा बहाई जाय। धन और पौरुषकी रक्षा करो, लेकिन इतना संहार करके नहीं। जहां वर्तमान संसारके समृद्धिशाली देश दिन रात रुपये रुपयेका स्वप्न देख रहे हैं वहां भारत सर्वथा संतुष्ट होकर बैठा है। खानेकी फिक्र नहीं, कपड़ेकी परवाह नहीं। नतीजा यह हुआ कि आज खाने पहननेको भी न रह गया। 'ब्रह्मसत्य जगन्मिथ्या' का अनर्थ हमारे हृदयमें इतना अधिक समाया है कि निकालनेसे भी नहीं निकलता है। कृष्ण भगवानने स्वयं गीतामें कर्मयोगका महत्व बतलाया, स्वयं काम करते रहे, लेकिन भगवानकी शिक्षाका ठीक महत्व न समझकर हम स्वार्थको बिल्कुल भूल गये। प्रातःकाल जब हम अभी सोते रहते हैं संसारकी अनित्यताका गीत गाते हुए भिखारी हमको जगाता है, दिन भर परमार्थके पचड़ेमें पड़े रह कर "मोहिंसम कौन कुटिल खलकामी" गाते हुए हम रात्रिमें शयन करते हैं। [ २५ ] परमार्थ अच्छा है लेकिन स्वार्थके बिना परमार्थ हो कैसे सकता है।

ऐसी दशा में आवश्यकता थी कि पाश्चात्य देश हमको स्वार्थ सिखलावैं और हम उनको पारलौकिक विषयोंकी शिक्षा दें। ताता महोदयने पाश्चात्य देशोंसे उद्योग, धंधेकी बात सीखी। जलसे बिजली निकालकर रुपये पैदा करनेकी युक्ति और उसका व्यापार भारतके लिये बिल्कुल नई बात है। इस देश में एक खराब प्रथा यह चल गई है कि बेटा बापके चले हुए रास्तेको नहीं छोड़ेगा। नई बात और नये रोजगारको तलाश करना हम जानतेही नहीं हैं। यही कारण है कि एक एक व्यवसायमें बहुत से आदमी लगकर अपनी और दूसरोंकी हानि करते हैं। हमारे अधिकतर व्यवसाय ऐसे हैं जिनमें एक भाई दूसरे भाईका रुपया खींचकर अपनी जेबमें धरता है। ऐसे व्यवसायोंसे देश को कुछ भी फायदा नहीं होता है। ताता महोदयने जितने कारोबार उठाये अपने ढंगके वे सब नये थे, उन सबमें देशका उपकार था। बिजलीकी कम्पनी ताताजीके व्यवसायोंमें सबसे अधिक महत्वकी बात है और इस देशमें पहली चीज है। पहले लोगोंका ख्याल था कि संसारमें चीरापूंजीके बराबर पानी और किसी स्थानमें नहीं बरसता है। लेकिन अनुभवी लोगोंके विचारसे पश्चिमीय घाटपर्वतके मुकाबलेमें चीरापुंजीमें बारिश नहीं होती है। यह अगाध जल बहकर अरब सागरके खारे पानीमें मिल जाता था। कोई इसको काममें लानेवाला नहीं था और न [ २६ ] किसीने इस विषय पर गंभीरतासे विचार किया। विचार भी करता वही जिसमें पूर्ण विद्या, अच्छी सम्पत्ति, विशाल बुद्धि और अतुलनीय अनुभव हो। इस कामके लिये पहलेहीसे महापुरुष जमसेदजी नसरवानजी ताताका जन्म होचुका था।

इंजिनियर मिस्टर डेविड गाललिंगने पहले पहल मिस्टर ताताके चित्तमें यह विचार उत्पन्न किया। मरनेके तीस बरस पहलेसे मिस्टर ताता बराबर इस विषय पर सोचते रहे। लेकिन सन् १८९७ ई॰ तक सिर्फ विचारही विचार रहा। मिस्टर आर॰ बी॰ ज्वायनेर सी॰ आई॰ ई॰ ने जांच करके एक विचार पूर्ण रिपोर्ट तैयार की। दुःखकी बात है कि यह काम ताता महोदयकी जिन्दगीमें शुरू न किया जासका। लेकिन आपके सुयोग्य पुत्रोंने पिताकी अंतिम लालसा पूर्ण करनेके लिये कोई बात उठा न रखी। ऐसे मनस्वी और उद्योगी पुत्रोंकी देशभक्ति और कई पितृ व्रत की प्रतिज्ञा कैसे अपूर्ण रह सकती थी।

सन् १९११ ई॰ में इमारतकी नींव पड़ी और आशा की जाती थी कि सन १९१४ ई॰ तक बिजली तैयार होने लगेगी। इतने बड़े काममें कुछ देर होही जाती है, इसलिये धाराप्रवाह खोलनेका उत्सव तारीख २ फरवरी सन् १९१५ ई॰ में हुआ। पहले मालूम होता था कि कम्पनीकी पूंजीके लिये काफ़ी रुपया नहीं मिलेगा। लेकिन हिन्दुस्तानके भीतरही आनन फानन में २ करोड़ रुपये इकट्ठे हो गये। हर्षकी बात है कि देशी रजवाड़ोंने भी इसमें अच्छी आर्थिक सहायता दी। पानी इकट्ठा करनेका [ २७ ] इतना बड़ा कारोबार शायद दुनियां में दूसरा नहीं है। इस कारखानेमें पीपेसे इतना पानी निकलता है जितना टेम्स नदीमें ७ महीनों में बहता है।

इसमें संदेह नहीं कि इस कारखानेमें हिस्सेदारोंको बहुत अच्छा मुनाफा होगा। लेकिन महज मुनाफेके ख्यालसे न तो ताताने इस कामको उठाया और न बड़े बड़े रजवाड़ोंने रुपये दिये। इन सब लोगोंका मुख्य प्रयोजन था देशोद्धार, बंबईके कारखानोंकी बिजलीकी ताकत देकर उनकी तरक्की करना और इस तरह लैंकशायरके मुकाबिलेमें कामयाब रहना। इसके अलावे बंबईको एक फायदा और है। धूएंके स्थानमें बिजली व्यवहार करनेसे शहरकी तंदुरुस्ती भी ठीक रहेगी। पीनेके लिये अच्छा पानी मिल जायगा और ३० या ४० हजार एकड़ जमीन सींचकर तरकारी और फल पैदा किये जासकते हैं। एकही काममें एक साथ इतने अधिक फायदे बहुत कम देखे गये हैं लेकिन ताता हाइड्रो एलेक्ट्रिक पावरसप्लाई कंपनीने ऐसा कर दिखलाया।

हर्षकी बात यह है कि इस कार्य्यको न सिर्फएक हिन्दुस्तानी सज्जनने उठाया बल्कि कम्पनीकी पूंजी भी हिन्दुस्तानियोंसे मिली है और डिरेक्टर लोग सबके सब हिन्दुस्तानी हैं। ताताजीके सुयोग्य पुत्र सर दोराब ताताने कारखाना खोलते वक्त अपने व्याख्यानमें इस बातको गर्वके साथ दिखलाया था कारखाने में कई काम साथ साथ किये जाते हैं। वर्षाका पानी [ २८ ] पश्चिमी घाटपहाड़पर जमा किया जाता है। वहांसे पहाड़के नीचे उतारा जाता है। पानीसे बिजली निकाली और बंबई पहुंचाई जाती है। वहां पहुंचने पर विद्युतदेवसे मजदूरोंका काम लिया जाता है। पानी तीन झीलोंमें इकट्ठा होता है। कुल १ लाख २० हजार घोड़ेकी ताकत (Horse Power) तैयार होती है। ३७ कारखानोंने कुल ५० हजार ताकतका ठीका लिया है। आशा है कि दूसरे कारखाने भी इस उद्योगसे लाभ उठावैंगे। कम्पनीके काममें सब तरहसे सफलता होरही है। सन् १९१६ ई॰ की पहली छमाहीमें खास हिस्सों पर ५ फीसदी मुनाफा दिया गया था। इतने बड़े काममें, इतनी जल्दी इतनी सफलता प्राप्त करना साधारण आदमियोंका काम नहीं है। यह सफलता देख कर निश्चय होता है कि भारतकी कला कारीगरीके उद्धारका यह महान् यत्न सफल होगा। परमात्मा दिन दिन इसकी उन्नति करें।