जमसेदजी नसरवानजी ताता का जीवन चरित्र/३—देशभक्ति और परोपकार

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जमसेदजी नसरवानजी ताता का जीवन चरित्र  (1918) 
द्वारा मन्नन द्विवेदी 'गजपुरी'
[ २९ ]

तीसरा अध्याय।


देशभक्ति और परोपकार।

इसमें संदेह नहीं कि मिस्टर ताताके जीवनका महत्व इस बातमें है कि उन्होंने करोड़ों रुपये अपने बाहुबलसे उत्पन्न किये और ऐसे ढंगसे उत्पन्न किये जिसमें अपने देश और देशवासियो का बड़ा उपकार हुआ। लेकिन इससे भी बढ़कर आपकी बड़ाई इस बातमें थी कि आपने मिहनतका कमाया हुआ धन परोपकार और जाति सेवामें लगाया। जहां व्यवसायमें आपने पानीसे रुपये पैदा किये, वहाँ देश सेवाके काममें आपने रुपये को पानीकी तरह बहाया।

आपका सबसे पहला परोपकारका काम आपका शिक्षा फंड है। इस देश में प्राचीनकालमें शिक्षा मुफ्त होती थी। विद्या बेचना पापही नहीं घोर पाप समझा जाता था। विद्यादानसे बढ़कर कोई दान नहीं समझा जाता था, क्योंकि विद्या धनसे बढ़कर कोई धन नहीं माना जाता था। विद्योपार्जनका महत्व तब खूब समझा जाता था। इसीलिये विद्यालयोंके लिये बाहरी टीम टामकी आवश्यकता न थी। अब मामूली देहाती मदरसेके लिये डेढ़ हजारकी इमारत चाहिये, पचास साठ हजारका ठिकाना हो तो ऐंग्लो मिडिल स्कूल चलै, कई लाखमें हाई स्कूलका [ ३० ] हिसाब बैठता है, दस बीस लाखके फंड बिना कालेजका नाम ही लेना पाप है, अगर विश्वविद्यालय खोलना है तो कई करोड़ रुपये भीख मांगने पड़ेंगे। तिसपर भी पढ़ाई न तो अपनी मातृ भाषामें और ने अपनी मातृभूमिकी सेवा सिखानेवाली। विद्यारंभ करने पर पहले दरजेकी पहली किताबके पहले पाठके दो वाक्य रत्न मुझे अब तक याद हैं। उनमेंसे एक तो था "अंगरेज बड़े बहादुर होते हैं" और दूसरा था "गदहा बड़ा गरीब जानवर है।" हाई स्कूलके सबसे बड़े दरजेमें पहुंचकर मैंने पढ़ा था-"Codes of Manu are simple and rude but not cruel." मनुके कानून सादे और रूखे हैं लेकिन बेरहम नहीं हैं! कालेज क्लासोंमें शेक्सपियरके डाइन और भूत प्रेतोंकी शिक्षा बड़ी गंभीरतासे दी जाती है। अंतमें जीवनके २४ या २५ वर्ष समाप्त करके किसी तरह डिप्लोमा मिलता है। जब बैठकर सोचते हैं तो हृदय हताश होजाता है। इसमें सीखा क्या? क्या वेदोंके तत्वोंको कुछ भी समझ पाया, पुराणों के महत्वका नाम मात्रको भी ज्ञान हुआ, षड् दर्शनों में क्या एकके भी दर्शन हुए, आवागमन और कर्मके सिद्धांतोंसे क्या कुछ परिचय हुआ, आध्यात्मिक शिक्षा कितनी मिली और जीवात्मा परमात्माके रूपका दर्शन हुआ या नहीं, गार्हस्थ्य जीवन में प्रवेश करनेके पहले उपयुक्त शारीरिक बल प्राप्त किया या नहीं, कृषी विद्या के किसी नये आविष्कार द्वारा क्या हमने देश के कारकों को कुछ लाभ पहुंचाया, कारीगरोके किसी रहस्यको समझकर क्या देशके व्यवसायको [ ३१ ] हमने समुन्नत किया, सदाचारके किसी उच्च आदर्शको क्या हमने देशके बच्चोंके सामने रखा? सबके जवाबमें एक साथही नहीं कहना पड़ता है। फिर हमने किया क्या और सीखा क्या! हमने अपनी दुरुस्ती और मा बापके रुपयोंका नाश किया, सीखा सिगरेट पीना ओर अकड़बेगी चाल चलना।

आर्थिक लाभकी यह दशा है कि घरवालोंसे ५७) मासिक खाकर बी॰ ए॰ पासको अगर ५०) की नौकरी मिल जाती है तो गनीमत समझते हैं। इतनेमें क्या खायं, क्या अपनी पोशाक और शौकीनीमें खर्च करैं, क्या माता पिताके चरणों पर अर्पण करैं, बड़े भाईकी विधवा और अनाथ बच्चोंकोक्या सहायता दें, स्त्रीके लिये कितनेमें क्या गहना बनवावैं, पुत्रको शिक्षाके लिये कितने माहवारमें काम चलैगा, समाचार पत्र और पत्रिकाओंके साल पूरे हो गये हैं, उनके वैल्यूपेबुल डाकखाने में पड़े हैं, अपनी बनाई तीन चार पुस्तकें पड़ी हुई हैं उनके छपानेके लिये भी थोड़ा धन जोड़ना होगा, जिन जिन सभा सोसाइटियोंके मेम्बर हैं उनके मुलायम तकाजे कई आ चुके हैं अब चंदा न जानेपर सभा भवन में नाम टांगकर नादिहंदोंकी फिहरिस्तमें भरती करके हम पदच्युत कर दिये जायंगे, इधर हैदराबादकी बाढ़में कुछ भेजना है, गुजरातके दुकाल और बंगालके दुर्भिक्षमें कुछ न कुछ भेजना ही पड़ेगा, इधर नये डी॰ ए॰ बी॰ कालेजकी अपील छपी है उसमें हाथ बटाना धार्मिक कर्तव्य है, गांवमें जो सरस्वती सदन खोला है उसमें अभी सौ से कम पुस्तकें हैं, अपनी अछूत [ ३२ ] पाठशाला भी बड़ी हीनावस्थामें है, तब तक कितने ही नवयुवक हिन्दू-युनिवर्सिटीका चंदा मांगनेके लिये पंहुच गये, इधर युद्धऋणमें जी खोलकर देना अपना सबसे प्रथम कर्तव्य है। रुपये पचास और झगड़े इतने। कभी कभी सोचते हैं, कि कहांसे जान लेनेवाली नाम मात्रकी उच्च शिक्षाके पचड़ेमें पड़े। अगर अपने खेतोंको मिहनत करके जोतते तो क्या वे कुछ फल नहीं देते। परती जमीनमें अगर छोटा मोटा बाग लगा देते तो उसीमें कितना मिलता, गांवमें अगर किरानेकी दूकान खोलदेते तो भी खासी आमदनी होती, तीन चार गाय भैंस पाल लेते तो फिर दूध दही भी खाने को मिलता और नकद रुपये भी मिलते। अगर नौकरी ही करनी थो तो इस तरह अंगरेजी पढ़ कर हरलोक परलोक बिगाड़नेसे क्या काम निकला? मुदर्रिसी कर ली होती तो कितना आनंद होता! हाथमें छड़ी लेकर कुर्सीपर डट जाते। अगर मुमकिन होता तो छोटी सी घड़ी ताख पर टिकटिकाती रहती। अब सरकारी स्कूलोंमें तनख्वाह भी माहवारसे कम नहीं है, अगर अपने गांवका मदरसा मिल जाता तो फिर कहना ही क्या था। अगर दूर भी फेंके जायंगे तब भी ईश्वर ने शरीरमें ताकत दी है। हाथमें जूते लेकर दिनमें २० कोस चला जाना कठिन नहीं हैं। अगर मदरसेके साथ डाकखाना या मवेशीखाना मिल गया तो फिर पूछना ही क्या है। अगर हिसाब कमजोर होनेकी वजहसे मिडिल न भी पास कर सकते तोभी वैक्सीनेटरी कहां जाती। मेरे ख्यालमें इसके मुका [ ३३ ] बिलेकी दूसरी कोई नौकरी नहीं है। आपही बतलायें कि और किस नौकरी में छः महीने काम करके १२ महीनेकी तनख्वाह मिलती है। कभी कभी हम सोचते हैं कि शायद विलायत हो आने पर काम चलै। इसलिये समुद्र यात्राकी जाती है। इस विदेश यात्राके श्री गणेशके साथ पहला काम जो हम करते हैं वह भेष बदलना है। हिन्दुस्थान में मरदानगी की मुख्य शोभा मूछें हैं। सबसे पहले उन्हीं पर हाथ साफ होता है। अपनी कौमी पोशाकोंका भी अलविदा हुआ, शकल देखकर न आप हमको रामकी संतान कह सकते हैं और न सुग्रीव और जामवंत के वंशज। जहाज पर पैर रखनेके पहलेही दिन भोजनका प्रश्न उठता हैं। कहां तो अपनी सालीकी भी बनाई हुई, दूध की मांडी हुई घीकी पूड़ी नहीं खाते थे कहां अब विधर्मियों के हाथके हाड़ मांस शोणित संयुक्त भोजनका भोग लगाना पड़ता है। अगर सभ्यताके रोबमें आगये तो सभी कुछ उदरस्थ कर गये। लेकिन धर्मका कुछ ध्यान हुआ तो निरामिष भोज्यकी आज्ञा हुई। लेकिन क्या उस पवित्र भोजनागारमें कोई भी वस्तु मांसके संसर्गसे बची है। चावलके दाने दानेमें, आलूके टुकड़े टुकड़ेमें चरबी वैसेही अप्रत्यक्ष रूपसे मिली हुई है, जैसे दूधमे घी, जैसे तिलमें तेल, जैसे गुसाईं तुलसीदासकी कवितामे भगवद्भक्ति। अदन बंदरगाह पहुंचते पहुंचते हमारे जातीय धर्मको काफी धक्का लग चुकता है और हम उपर्युक्त भ्रष्ट जीवनमें अभ्यस्त हो जाते हैं। युरोप निवासके समय तो हम [ ३४ ] मालूम नहीं क्या क्या खाडालते हैं, मालूम नहीं अपनी आर्य्य सभ्यता और आर्य्य सदाचारको किस दरजे तक गिराते हैं।

इतना जानते हुए भी हमारे विद्वाननेता और देशहितैषी लोग क्यों आपको विलायत जानेकी अनुमति देते हैं। इसका कारण यह है कि विलायती जीवन जहां हमारे धार्मिक आदर्शों को धक्का पहुंचाता है वहां विलायत यात्रा हमारी राजनैतिक कठिनाइयोंको-यदि हम समझसे काम लें तो हल करती है। जैसे वैद्य अवसर पड़ने पर शोधन करके दवामें उचित मात्रासे विषका प्रयोग कर रोगीका कल्याण करता है, वैसे ही केवल सुधरे हुए और मर्यादाके भीतर रहनेवाले नव युवकोंको विलायत जाना चाहिये, ताकि वे बुराइयोंके शिकार बन अपने अमूल्य जीवन का नाशकर हमारे जातीय हितको हानि न पहुंचावैं। विद्वान, देश भक्त और दूरदर्शी ताताने सोचा कि गरीब लड़के प्रायः परिश्रमी और सदाचारी होते हैं। अगर उनका धनाभाव दूर कर उनको विदेशों में भेजा जाय तो वे बड़ा काम करेंगे।

इसी विचारसे आपने फंड कायम किया जिससे विदेश जानेवाले गरीब विद्यार्थियोंकी सहायताकी जाय। मैट्रिकुलेशन तथा उसके ऊपरकी परीक्षा पास किये हुए विद्यार्थों इसके लिये निवेदन कर सकते हैं। सिविल सर्विस, डाक्टरी, साहित्य और सांइस इत्यादि विषयोंके पढ़नेके लिये यह सहायता दी जाती है। फंडकी कमेटी सहायता प्राप्त विद्यार्थियोंके पठन पाठनकी निगरानी रखती है। काहिली या और किसी दुर्व्यसनमें पड़नेपर [ ३५ ] विद्यार्थीकी सहायता रोक दीजाती है और ४ फीसदी सूद जोड़ कर रुपया फौरन वापस करना पड़ता है। जब विद्यार्थी पास होकर रुपया कमाने लगता है, वादेके मुताबिक मै सूद उसको एक मुश्त या किश्तवार कर्जा अदा करना पड़ता है। सहायता पानेके लिये कमेटीके मंत्रीके नाम नवसारी बिल्डिंग्स, फोर्ट, बंबई के पते पर अप्रैलके महीनेमें दरख्वास्त भेजनी चाहिये।

इस फंडकी स्थापना सन् १८९२ ई॰ में हुई थी। पहले सिर्फ पारसी इससे फायदा उठा सकते थे लेकिन सन् १८९४-१८९५ ई॰ में नियम इतने उदार बनादिये गये कि हर एक हिन्दुस्थानी मदद लेसकता है। अब तक ३८ सज्जनोंने इससे फायदा उठाया है जिनमें २३ पारसी और १५ दूसरे लोग हैं। इनमे कुछ लोग सिविल सर्विसवाले हैं, कुछ डाक्टर, कुछ इंजीनियर और बाकी लोग दुसरे मुहकमों में हैं।

इसके बाद भी ताता महोदयने अनेक परोपकारके काम किये। वैसे तो इनका प्रत्येक कल कारखाना, इनका हर एक उद्योग, देशभक्ति और परोपकारके भावसे प्रेरित थे, लेकिन इनकी देश भक्तिका अतुलनीय काम था इनका रिसर्च इन्स्टीट्यूट। शिक्षा फंडके संबंधमें आपने देखा है कि किस तरह ताताजीने होनहार नवयुवकोंको विलायत भेजकर देशहित किया है। अनुभवी ताताने सोचा कि इस गरीब देश में बहुत थोड़े युवक सहायता पानेपर भी विलायत जा सकते हैं। तिसपर बिरादरीका झगड़ा और विद्यार्थियोंके खुद बिगड़ जानेका डर। इन सब बातोंको [ ३६ ] सोच विचार कर आपने एक ऐसे विद्यालयके खोलनेका विचार किया जहां थोड़े खर्च घर रहते हुए विद्यार्थी वे बातें सीखजायं जिनके लिये हजारों मील दूर जाकर अपना तन, मन, धन खर्च कर अनजान होनेकी वजहसे इधर उधर ठोकरें खाकर अपमानित और निरुत्साहित होते हैं। विद्यालयकी स्थापना पर विचार करनेके लिये बड़े बड़े विद्वानोंकी एक कमेटी बनाई गई। कमेटीके मंत्री मिस्टर वरजोरजी पादशा पाश्चात्य युनिवर्सीिटेयोंके देखने के लिये तैनात किये गये। तखमीना किया गया कि ३० लाख रुपयों में काम शुरू हो सकता है।

सन् १८९८ ई॰ में स्कीम लार्ड कर्जन साहबके सामने पेश हुई। सबसे पहले स्थानका झगड़ा तै करना था। ताताजी बंबईको पसंद करते थे और कितने अन्य लोग कई दूसरे स्थानोंको पसंद करते थे। अंतमें मदरास सूबेका बंगलोर स्थान पसंद हुआ। इसके बाद मैसूर राज्यकी सहायताके लिये लिखा पढ़ी को गई। कमेटीने रातदिन जी जानसे कोशिशकी, लेकिन बहुत दिनोंतक लार्ड कर्जन महोदयकी कृपासे काम शुरू न हो सका।

कई सालके बाद महाराज मैसूरने ५ लाखका दान किया। इसके अलावे मैसूर राज्यने ३७१ एकड़ जमीन भी दी। इसके लिये राज्यके दीवान भारतमाताके सपूत सर शेषाद्रि ऐयरकी जितनी प्रशंसाकी जाय थोड़ी है। हर्षकी बात है कि अंगरेजी सरकारने भी ४ लाख रुपये देकर अपनी उदारता दिखलाई। मैसूरने दस बरसके लिये ३० हजार रुपये सालाना मंजूर किया [ ३७ ] और बादमें हमेशाके लिये ५० हजार रुपये साल कर दिये गये। भारत सरकारले भी ३० हजार रुपये साल मंजूर किये। अब आशा थी कि काम बहुत जल्द शुरू होजायगा। लेकिन ताता महोदयकी अकाल मृत्युने कुछ दिनों के लिये रुकावट डाल दी। साधारण अवस्थामें तो कामही छोड़ दिया गया होता लेकिन ताताजीके सुयोग्य लड़के और कमेटीके सदस्य कमजोर आत्मा के आदमी नहीं थे। इसलिये स्कीम फिरसे हाथमें ली गई। इमारतें करीब करीब सब तैयार होगई। पढ़ाई भी शुरू होगई। ग्रैजुयेट होने के बादकी उच्च विज्ञान शिक्षासे हमारे युवक लाभ उठा रहे हैं। परमात्मा इस संस्थाकी दिन दिन उन्नति करै।

कुछ लोगोंका विचार है कि ताताजीने कलाकौशल और रोजगारको छोड़कर और किसी मार्गसे देशकी सेवा नहीं की है। भावानने गीतामें कहा है कि स्थिर चित्तसे एक लक्ष्य बना कर काम करना चाहिये। अनेक कामोंपर अपना मन डांवाडोल करनेवाला आदमी एक भी काम अच्छी तरह नहीं कर पाता है। इसी नियामानुसार ताताजीने कलाकौशल को अपना मुख्य उद्देश्य बना लिया। उस मुख्य कर्तव्य पालनके बाद जो समय बचता था उसको आप राजनीति तथा दूसरे कामों में लगाते थे। बजट, रेलवे इत्यादि आय व्यय संबंधी विषयोंका आपको बहुत अच्छा अनुभव था। टकसालके विषयमें सन् १८९२ ई॰ में जो आंदोलन हुआ था उसमें ताताजीने बड़ी योग्यता दिखलाई थी। [ ३८ ]सन् १९००-१९०१ में उन्होंने एक बंदोबस्त संबंधी विषय पर थानाके कलक्टरका बड़ी जोरसे प्रतिवाद किया था।

खेतीकी बाबत भी मिस्टर ताताको अच्छी वाकफियत थी। कई और रेशमकी कृषीमें तो आप बड़ेही होशियार थे। आपने रुईकी खेतीके सुधारनेका जो यत्न किया था वह पहले बतलाया जा चुका है। रेशमकी खेतीके लिये भी आपने लोगों को बहुत उत्साहित किया। आपने अपनी जापान यात्रामें जो अनुभव प्राप्त किये थे उनका प्रचार किया।

आपने खुद अपनी नवसारीकी वाटिकामें रेशमके कीड़े पाले थे।

आपने अपनी यात्रामें मालूम किया कि चीन और जापानकी खेती और सिंचाईके ढंग हमारे ढंगोंसे बहुत अच्छे हैं। वहांके किसान हमसे अधिक बुद्धिमान और मिहनती होते हैं। थोड़े खर्च में पुरानी रीति पर उन्होंने नयेसे नये वैज्ञानिक औजार बना डाले हैं। ताता चाहते थें कि उन सस्ते उपायोंका इस गरीब देशमें प्रचार हो लेकिन यहां कौन आपकी बात सुनता था!

टेंपरेंसके कामोंमें सदा आपकी सहानुभूति रहती थी। बंबई गवर्नमेंटकी आबकारी नीतिके विरोध करने में आपने माननीय वाचाजीका साथ दिया था।

हिन्दुस्तानकी गरीबीके बारे में आपकी वही राय थी जो स्वर्गीय पितामह दादा भाई नौरोजीकी थी। राजनैतिक मामलों [ ३९ ] में आपके विचार ऊंचे थे। और सबसे बढ़कर अच्छी बात तो यह थी कि आप उनके जाहिर करनेमें डरते नहीं थे। स्वर्गीय सर फिरोजशाह मेहता ताताके जीवनके अद्वितीय जानकार थे। ताताजीकी मूर्ति खोलनेके उत्सव पर मेहताजीने कहा था कि "यह गलत फहमी फैली हुई है कि ताताजी सार्वजनिक जीवन में भाग नहीं लेते थे और न देशकी राजनैतिक अवस्था, सहायता देते थे। दूसरा कोई आदमी ऐसा नहीं था जिसके राजनैतिक विचार ताताजीसे अधिक जोरदार हों। गोकि प्लैटफार्म पर खड़े होकर बोलनेके लिये आप राजी नहीं किये जा सके। लेकिन आपकी सहायता और सहानुभूति सदा मिलती रहती थी। आप बम्बे प्रेसिडेंसी एसोशियेशनके स्थापित करनेवाले मेंबरों में से थे। इतनाही नहीं, आपने अपने बूढे बापको भी उसमें शरीक होनेके लिये राजी कर लिया था। कांग्रेसके साथ सदा आपका प्रेम था और अकसर मौकों पर आपने धनसे उसकी सहायताकी थी। इसमें कोई अचंभेकी बात नहीं है कि आप ऐसा करते थे। ताज्जुब तो तब होता जब आप राजनीति से अलग रहते।"

राजनैतिक सुविधाओंके बिना औद्योगिक, सामाजिक तथा धार्मिक सुधार हो ही नहीं सकते हैं। जो नित्य काला और काफिर कहकर पुकारा जायगा उसका हताश ह्रदय न तो हौसलेसे कोई रोजगार कर सकता है, न उसका खिन्न चित्त किसी उच्च सामाजिक आदर्शको अपने सामने रख सकता है और न [ ४० ] उसका दुखी मन प्राणायाम ही कर सकता है। सुविधायें होनेसे चित्तकी अशांति मिटती है। अशांति मिटनेसे मन स्थिर होता है, जिससे इहलोक परलोक दोनों बनता है।