ज्ञानयोग/५. माया और ईश्वरधारणा का क्रमविकास
५. माया और ईश्वरधारणा
का
क्रमविकास
हमने देखा कि अद्वैत वेदान्त की एक मूलभित्ति स्वरूप माया-
वाद अस्पष्ट रूप से संहिताओ में भी देखा जाता है, और उपनिषदो
में जिन तत्वों को खूब परिस्फुट रूप मिल गया है वे सभी संहिताओ
में अस्पष्ट रूप से किसी न किसी आकार में विद्यमान है। आप में से
बहुत से लोग अब मायावाद के तत्व को सम्पूर्ण रूप से समझ गये
होंगे या समझ सकेगे; प्रायः लोग भ्रान्तिवशतः माया को 'भ्रम'
कह कर व्याख्या करते हैं, अतएव वे जब जगत् को माया कह कर
पुकारते है तब उसे भी भ्रम ही कह कर व्याख्या करनी पड़ेगी।
माया को 'भ्रम' के अर्थ में लेना ठीक नहीं है। माया कोई विशेष
मत नहीं है, वह तो केवल विश्वब्रह्माण्ड के स्वरूप का वर्णन मात्र
है। उसी माया को समझने के लिये हमे संहिता तक जाना पड़ेगा
और प्रथम माया का क्या अर्थ था, उसके सम्बन्ध में क्या धारणा थी
यह भी देखना पड़ेगा। हम देख चुके हैं, लोगों में देवताओ का
ज्ञान किस रूप में आया। हमे समझना होगा कि ये देवता पहले
केवल शक्तिशाली पुरुष मात्र थे। आप लोगों में से बहुत से यह पढ-
कर कि ग्रीक, हिब्रू, पारसी अथवा अन्य जातियों के प्राचीन शास्त्रों में
देवता लोग हमारी दृष्टि में जो सब कार्य अत्यन्त घृणित है वे करते थे,
भयभीत हो जाते है; किन्तु हम एक दम भूल जाते हैं कि हम लोग उन्नीसवी शताब्दी के हैं और देवता अनेक सहस्र वर्ष पहले के जीव थे; और हम यह भी भूल जाते हैं कि इन सब देवताओं के उपासक लोग उनके चरित्र मे कुछ भी असंगत देख नहीं पाते थे और वे जिस प्रकार से उन देवताओ का वर्णन करते थे उससे उन्हें कुछ भी भय नहीं होता था, कारण वे सब देवता उन्ही के समान थे। हम लोगो को आजीवन यह बात सीखनी होगी कि प्रत्येक व्यक्ति के बारे मे उसी के आदर्शो के अनुसार विचार करना होगा, दूसरो के आदर्शो के अनुसार नहीं। ऐसा न करके हम दूसरों को अपने आदर्शो की दृष्टि से देखते है। यह ठीक नहीं। हमारे आसपास रहने वाले सभी लोगो के साथ व्यवहार करने मे हम सदा यही भूल करते है, और मेरे मतानुसार, दूसरों के साथ हमारा जो कुछ भी वाद-विवाद होता है वह सब इसी एक कारण से होता है कि हम दूसरो के देवता को अपने देवता के द्वारा, दूसरों के आदर्शों को अपने आदर्शो के द्वारा और दूसरो के उद्देश्य को अपने उद्देश्य के द्वारा विचार करने की चेष्टा करते है। विशेष विशेष अवस्थाओ में हो सकता है कि मैं कोई विशेष कार्य करूॅ, और जब मै देखता हूॅ कि अन्य व्यक्ति वही कार्य कर रहा है तो मै सोच लेता हूॅ कि उसका भी वही उद्देश्य है; मेरे मन में यह बात एक बार भी नहीं उठती कि यद्यपि फल एक हो सकता है तथापि भिन्न भिन्न सहस्रो कारण वही एक फल उत्पन्न कर सकते है। मैं जिस कारण से उस कार्य को करने मे प्रवृत्त होता हूॅ, अन्य सब लोग उसी कार्य को अन्य उद्देश्यों से कर सकते है। अतएव इन सब प्राचीन धर्मों के ऊपर विचार करते समय हम जिस भाव से दूसरो के सम्बन्ध मे सोचते है वैसा न करें
वरञ्च हम अपने को प्राचीन समय के लोगों की स्थिति में रख कर विचार करे।
ओल्ड टेस्टामेण्ट (Old Testament) में निष्ठुर जिहोवा के वर्णन से बहुत से लोग भयभीत हो उठते हैं, परन्तु क्यों? लोगों को यह कल्पना करने का क्या अधिकार है कि प्राचीन यहूदियों का जिहोवा हमारी कल्पना के ईश्वर के समान होगा? और हमे यह भी न भूलना चाहिये कि हमारे बाद जो लोग आयेगे वे जिस तरह प्राचीन धर्म या ईश्वर की धारणा के ऊपर हॅसते है उसी तरह वे हमारे धर्म अथवा ईश्वर की धारणा के ऊपर हॅसेगे। यह सब होने पर भी इन सब विभिन्न ईश्वर सम्बन्धी धारणाओं का संयोग करने वाला एक स्वर्णसूत्र है और वेदान्त का उद्देश्य है इस सूत्र का आविष्कार करना। भगवान् कृष्ण ने कहा है--"भिन्न भिन्न मणियाॅ जिस प्रकार एक सूत्र में गुॅथी हुई रहती हैं उसी प्रकार इन सब विभिन्न भावों के भीतर भी एक सूत्र रहता है।" और आज कल की धारणाओं के अनुसार यह कितना ही वीभत्स, भयानक अथवा अरुचिकर क्यों न मालूम पड़े, वेदान्त का कर्तव्य इन सभी धारणाओं तथा सभी वर्तमान धारणाओं के भीतर इस संयोगसूत्र का आविष्कार करना है। प्राचीन काल की अवस्था को लेकर विचार करने पर वे विचार अधिक संगत मालूम पडते है और ऐसा लगता है कि हमारी सभी धारणाओं से अधिक वीभत्स वे नहीं थीं। उनकी वीभत्सता हमारे सामने तभी प्रकाशित होती है जब हम उस प्राचीन समाज की अवस्था और लोगों के नैतिक भाव को, जिनके भीतर इन सब देवताओं का भाव विकसित हुआ था, उनसे पृथक करके देखते हैं। कारण, प्राचीन काल
की सामाजिक अवस्था आजकल नहीं है। जिस प्रकार प्राचीन यहूदी आज के तीक्ष्णबुद्धि यहूदी में परिणत हो गया है, जिस प्रकार प्राचीन आर्य आज के बुद्धिमान हिन्दू मे परिणत हो गया है उसी प्रकार जिहोवा की और देवताओं की भी क्रमोन्नति हुई है। हम इतनी ही भूल करते है कि हम उपासक की क्रमोन्नति तो स्वीकार करते हैं, परन्तु ईश्वर की नहीं। उपासकों की उन्नति के नाम पर हम उनकी जो प्रशंसा करते है उसे भी ईश्वर को हम देना नहीं चाहते। तात्पर्य यह कि हम तुम जिस प्रकार किसी विशेष भाव के प्रकाशक होने के कारण उस भाव की उन्नति के साथ साथ उन्नत होते है, उसी प्रकार देवता भी विशेष विशेष भाव के द्योतक होने के कारण भाव की उन्नति के साथ साथ उन्नत होते है। आप शायद यही आश्चर्य करेगे कि देवता और ईश्वर की भी कही उन्नति होती है? तो हम भी कह सकते हैं कि मनुष्य की भी उन्नति होती है क्या? आगे चलकर हम देखेंगे कि इस मनुष्य के भीतर जो प्रकृत मनुष्य है वह अचल, अपरिणामी, शुद्ध और नित्यमुक्त है। जिस प्रकार यह मनुष्य उस वास्तविक मनुष्य की छाया मात्र है उसी प्रकार हमारी ईश्वर-धारणाएँ केवल हमारे मन की सृष्टि है--वे उसी प्रकृत ईश्वर का आंशिक प्रकाश, आभास मात्र है। इस समस्त आंशिक प्रकाश के पीछे प्रकृत ईश्वर है और वह नित्य शुद्ध, अपरिणामी है। किन्तु यह सब आंशिक प्रकाश सर्वदा ही परिणामशील है--वे उनके अन्तरालस्थ सत्य की क्रमाभिव्यक्ति मात्र है; वही सत्य जब अधिक परिमाण मे अभिव्यक्त होता है तब उसे उन्नति और जब उसका अधिकांश आवृत या अनभिव्यक्त रहता है तब उसे अवनति कहते हैं। इसी प्रकार जैसे हमारी उन्नति होती है वैसे ही देवताओ की भी होती है।
सीधे ढंग से कहे तो जिस प्रकार हमारी उन्नति होती है, जिस प्रकार हमारा स्वरूप प्रकाशित होता है उसी प्रकार देवता भी अपना स्वरूप प्रकाशित करते रहते हैं।
अब हम मायावाद को समझ सकेगे। संसार के सभी धर्मों ने
इस प्रश्न को उठाया है--संसार मे इतना असामञ्जस्य क्यों है?
संसार मे इतना अशुभ क्यों है! किन्तु हम धर्मभाव के प्रथम आविर्भाव के समय इस प्रश्न को उठते नही देखते; इसका कारण यह है कि शायद आदि मनुष्य को जगत् का असामञ्जस्य दिखाई नहीं पड़ता था, उसके चारों ओर कोई असामञ्जस्य नही था, किसी प्रकार का मतविरोध नही था, भले बुरे की कोई प्रतिद्वन्द्विता नहीं थी। केवल उसके हृदय में दो वस्तुओ का संग्राम हो रहा था। एक कहती थी--यह करो, और दूसरी उसी को करने का निषेध करती थी। प्राथमिक मनुष्य भावनाओं के दास थे। उनके मन मे जो आता था वे वही करते थे। वे इन भावनाओं के सम्बन्ध मे विचार करने तथा उनका संयम करने की चेष्टा बिलकुल ही नहीं करते थे। इन सब देवताओं के सम्बन्ध मे भी यही बात है। ये लोग भी उपस्थित प्रवृत्तियों के आधीन थे। इन्द्र आये और उन्होंने दैत्यबल को छिन्न भिन्न कर दिया। जिहोवा किसी के प्रति सन्तुष्ट थे तो किसी से रुष्ट थे, क्यो, यह कोई भी नहीं जानता था, जानना भी नही चाहता था। इसका कारण, उस समय अनुसन्धान की प्रवृत्ति ही लोगो मे नहीं जागी थी, इसलिये वे जो कुछ भी करते थे वही ठीक था। उस समय भले बुरे की कोई धारणा ही नहीं थी। हम जिन्हे बुरा कहते हैं ऐसे बहुत से कार्य देवता लोग करते थे; हम वेदो मे
देखते है, इन्द्र तथा अन्य देवता अनेक बुरे कार्य करते थे, किन्तु इन्द्र के उपासकों की दृष्टि मे पाप या बुरा काम कुछ भी नहीं था, इसलिये वे इस सम्बन्ध में कोई प्रश्न नही करते थे।
नैतिक भाव की उन्नति के साथ साथ मनुष्य के मन में एक युद्ध प्रारम्भ हुआ; मनुष्य के अन्दर मानों एक नई इन्द्रिय का आवि र्भाव हुआ। भिन्न भिन्न भाषाओं और भिन्न भिन्न जातियो ने इसको भिन्न भिन्न नाम दिये; कोई कहते है यह ईश्वरी वाणी है, कोई कहते हैं वह पहले की शिक्षा का फल है। जो भी हो, उसने प्रवृत्तियो को दमन करने वाली शक्ति के रूप में काम किया। हमारे मन की एक प्रवृत्ति कहती है, यह काम करो, दूसरी कहती है, मत करो। हमारे भीतर कितनी ही प्रवृत्तियाॅ है जो इन्द्रियों के द्वारा बाहर जाने की चेष्टा करती रहती है। और उनके पीछे चाहे कितना ही क्षीण क्यो न हो, और एक स्वर कहता है--बाहर मत जाना। इन दो बातो के संस्कृत नाम है प्रवृत्ति और निवृत्ति। प्रवृत्ति ही हमारे सभी कर्मों का मूल है। निवृत्ति से धर्म की उत्पत्ति है। धर्म आरम्भ होता है--इस "मत करना" से; आध्यात्मिकता भी इस "मत करना" से ही आरम्भ होती है। जहाॅ यह "मत करना" नहीं है वहाँ धर्म का आरम्भ ही नही हुआ ऐसा समझो। यह जो "मत करना" है, यहीं निवृत्ति का भाव आगया। और निरन्तर युद्ध मे रत पाशवीप्रकृति देवताओ के बावजूद भी मनुष्य की धारणा उन्नत होने लगी।
अब मनुष्य के हृदय मे प्रेम ने प्रवेश किया। अवश्य ही इसकी मात्रा बहुत थोड़ी थी और आज भी यह मात्रा
अधिक बढी नहीं है। पहले पहल यह प्रेम जाति तक सीमित रहा। ये सब देवता केवल अपने सम्प्रदाय मात्र से प्रेम करते थे। प्रत्येक देवता एक जातीय देवमात्र था, केवल उसी जाति विशेष का रक्षक मात्र था। और जिस प्रकार भिन्न भिन्न देशों के विभिन्न वशीय लोग अपने को उस एक विशेष पुरुष का वंशज कहते है जो उस वश के प्रतिष्ठाता होते हैं, उसी प्रकार कभी कभी किसी जाति के लोग अपने के एक देवता का वशधर समझते थे। प्राचीन काल में अनेक जातियाॅ थीं और आज भी हैं जो अपने को चन्द्रवंशी या सूर्यवंशी कहती हैं। सस्कृत के प्राचीन ग्रन्थो मे आपने बड़े बड़े सूर्यवशी वीर सम्राटो की कथाये पढ़ी होगी। ये लोग पहले चन्द्रसूर्य के उपासक थे; बाद मे ये अपने को चन्द्र और सूर्य का वंशज कहने लगे। अतः जब यह जातीय भाव आने लगा तब किंचित् प्रेम जागा, परस्पर एक दूसरे के प्रति एक कर्तव्य-भाव भी आया और कुछ सामाजिक शृंखला की उत्पत्ति हुई; और इसी के साथ साथ यह भावना भी आने लगी कि हम एक दूसरे का दोष सहन या क्षमा बिना किये कैसे एक साथ रह सकेगे? मनुष्य किस प्रकार अन्ततः कभी न कभी अपनी प्रवृत्तियो का बिना संयम किये दूसरो के साथ, यहाॅ तक कि एक व्यक्ति के साथ भी रह सकता है? यह असम्भव है। इसी प्रकार संयम की भावना आयी। इसी सयम की भावना में सम्पूर्ण समाज गुॅथा हुआ है, और हम जानते हैं कि जो नर-नारी इस सहिष्णुता या क्षमा रूपी शिक्षा से रहित है वे अत्यन्त कष्ट में जीवन बिता रहे हैं।
अतएव जब इस प्रकार धर्म का भाव आया तब मनुष्य के मन
मे एक उच्चतर अपेक्षाकृत अधिक नीतिसगत भाव का आभास
आया। तब वे अपने उन्हीं प्राचीन देवताओं में—चञ्चल, लड़ाकू,
शराबी, गोमांसाहारी देवताओं में—जिनको जले मांस की गन्ध से और
तीव्र सुरा की आहुति से ही परम आनन्द होता था―कुछ असंगति
देखने लगे। दृष्टान्त स्वरूप देखिये―वेद में वर्णन आता है कि कभी
कभी इन्द्र इतना मद्यपान कर लेता था कि वह बेहोश होकर गिर
पड़ता था और अण्ड बण्ड बकने लगता था। इस प्रकार के देवताओं
में लोगों का विश्वास स्थापित रखना अब असम्भव हो गया। तब
सभी के उद्देश्यों की खोज आरम्भ हो गई थी और देवताओं के कार्यों
के उद्देश्य भी पूछे जाने लगे। अमुक देवता के अमुक कार्य
का क्या उद्देश्य है? कोई उद्देश्य नहीं मिला। अतएव लोगो
ने उन सब देवताओं का त्याग कर दिया, अथवा वे देवताओ
के विषय में और भी उच्च धारणाये बनाने लगे। उन्होने
देवताओं के उन सब गुणों तथा कार्यों को, जिन्हे वे समझ सकते
थे या अच्छा समझते थे, एकत्रित किया और जिन कार्यों को उन्होने
अच्छा नहीं समझा अथवा समझा ही नहीं, उन्हे भी अलग कर दिया;
और इनमें से जो अच्छे कार्यों का समूह था उसे उन्होंने 'देव-देव'
नाम दिया। तब उनके उपास्य देवता केवल शक्ति के परिचायक
मात्र नहीं रहे, शक्ति से अधिक और भी कुछ उनके लिये आवश्यक
होगया। अब वे नीतिपरायण देवता हो गये; वे मनुष्यों से प्रेम करने
लगे, मनुष्यों का हित करने लगे। किन्तु देवता सम्बन्धी धारणा फिर
भी अक्षुण्ण रही। वे लोग देवता की नीतिपरायणता तथा शक्ति को
ही बढा सके। अब विश्व में वे एक देवता सर्वश्रेष्ठ नीतिपरायण तथा
एक प्रकार से सर्वशक्तिमान पुरुष माने जाने लगे। किन्तु यह जोड़-गाँठ कब तक चल सकती है? जिस प्रकार
जगत् के रहस्य की व्याख्या सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होती गई उसी प्रकार
यह रहस्य मानों और भी रहस्यमय होता गया। देवता अथवा ईश्वर
के गुण जिस प्रकार समयुक्तान्तर श्रेणी (Anthmetical progression) के नियम से बढ़ने लगे उसी प्रकार सन्देह भी समगुणितान्तर श्रेणी (Geometrical progression) के नियम से बढ़ने लगे। निष्ठुर जिहोवा के साथ जगत् का सामञ्जस्य स्थापित करने में जो कठिनता होती थी उससे अधिक कठिनता होने लगी ईश्वरसम्बन्धी नवीन धारणा के साथ जगत् का सामञ्जस्य स्थापित करने में। सर्वशक्तिमान और प्रेममय ईश्वर के राज्य में ऐसी पैशाचिक घटनाये क्यों घटती हैं? सुख की अपेक्षा दुःख इतना अधिक क्यों है? साधु भाव जितना है, असाधुभाव उससे अधिक क्यों है? जगत् में कुछ
भी खराबी नहीं है ऐसा समझ कर हम आँखे बन्द करके
बैठे रह सकते है; किन्तु इससे जगत् की वीभत्सता में तो कुछ
परिवर्तन होता नहीं। यदि इसे हम बहुत अच्छे शब्दों में कहे तो
कह सकते है कि यह जगत् टैण्टालस के नरक* के समान है;
उससे यह किसी अंश में उत्कृष्ट नहीं। प्रबल प्रवृत्तियों, इन्द्रियों
को चरितार्थ करने की सभी वासनायें विद्यमान हैं, परन्तु उनकी पूर्ति
करने का उपाय नहीं है। हमारी इच्छा के विरुद्ध हमारे अन्दर एक
*ग्रीक लोगों की एक पौराणिक कथा है कि टैण्टालस नामक राजा पाताल के एक तालाब में गिर गया था। तालाब का जल उसके होठों तक आता था, परन्तु जैसे ही वह अपनी प्यास बुझाने का प्रयत्न करता था वैसे ही जल कम हो जाता था। उसके सिर के ऊपर नाना प्रकार के फल लटकते थे, और जैसे ही वह इन्हें खाना चाहता था वे ग़ायब हो जाते थे। तरंग उठती है जो हमें आगे बढ़ने को बाध्य करती है, परन्तु जैसे ही हम एक पाँव आगे बढ़ाते हैं वैसे ही एक धक्का लगता है। हम सब टैण्टालस की भाँति इस जगत् में जीवित रहने को और मरने को मानो विधि-विधान से अभिशप्त हैं। पंचेन्द्रिय द्वारा सीमाबद्ध जगत् से अतीत आदर्श हमारे मस्तिष्क में आते है किन्तु बहुत सी चेष्टायें करने के बाद हम देखते है कि उन्हें हम कभी भी कार्य रूप में परिणत नहीं कर सकते। इसके विरुद्ध हम अपने आस पास की अवस्था की चक्की में पिस कर चूर चूर हो कर परमाणुओं में परिणत हो जाते है। और यदि हम आदर्शप्राप्ति की चेष्टा का परित्याग करके केवल सांसारिक भाव को लेकर रहने की चेष्टा करते हैं तो भी हमे पशुजीवन बिताना पड़ता है और हमारी अवनति हो जाती है। अतएव किसी ओर भी सुख नहीं है। जो लोग इस जगत् में जिस अवस्था में उत्पन्न हुए हैं उसी अवस्था में रहना चाहते है, तो उनके भाग्य में भी दुःख ही है। और जो लोग सत्य के लिये―इस पाशविक जीवन से कुछ उन्नत जीवन के लिये―प्राण देने को आगे बढ़ते हैं उन्हें सहन गुना दुःख होता है। यही वस्तुस्थिति है और इसकी कोई व्याख्या भी नहीं है, व्याख्या हो भी नहीं सकती। किन्तु वेदान्त इससे बाहर निकलने का मार्ग बतलाता है। याद रखिये कि ये सब बाते बोलते समय मुझे ऐसी अनेक बातें कहनी पड़ेंगी जिनसे आपको कुछ भय लगेगा। किन्तु जो कुछ मैं कह रहा हूँ उसे आपने याद रखा, भलीभाँति हजम किया और दिन रात चिन्तन किया तो यह आपके अन्दर बैठ जायगी, आपकी उन्नति करेगी और सत्य को समझने तथा सत्य में प्रतिष्ठित होने में आपको समर्थ करेगी। यह बात कोई मतविशेष नहीं है कि यह जगत् टैण्टालस का नरक है। यह एक सत्य है। हम जगत् के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं जानते, परन्तु हम यह भी नहीं कह सकते कि हम कुछ नहीं जानते। इस जगत्-शृंखला का अस्तित्व है यह हम नहीं कह सकते, और जब हम उसके सम्बन्ध में चिन्ता करने लगते है तब हम देखते है कि हम कुछ भी नहीं जानते। यह हमारे मस्तिष्क का पूर्ण भ्रम हो सकता है। शायद मैं केवल स्वप्न देख रहा हूँ। मैं स्वप्न देख रहा हूँ कि मैं आपसे बाते कर रहा हूँ और आप मेरी बात सुन रहे है। कोई भी इसके विरुद्ध प्रमाण नहीं दे सकता कि यह स्वप्न नहीं है। 'मेरा मस्तिष्क' यह भी तो एक स्वप्न हो सकता है, और वास्तविक बात यह है कि अपना मस्तिष्क देखा किसने है? वह तो हमने केवल मान लिया है। सभी विषयों के सम्बन्ध में यही बात है। शरीर हमारा है यह भी तो हम मान ही लेते है, और यह भी नहीं कह सकते कि हम नहीं जानते। ज्ञान और अज्ञान के बीच की यह अवस्था, यह रहस्यमय पहेली, यह सत्य और मिथ्या का मिश्रण―कहाँ जाकर इनका मिलन हुआ कौन जानता है? हम स्वप्न में विचरण कर रहे है―अर्ध निद्रित,अर्ध जाग्रत―जीवनभर एक पहेली में आबद्ध, यही हममे से प्रत्येक की दशा है! सभी प्रकार के इन्द्रियज्ञान की यह दशा है। सब दर्शनों की, विज्ञान की, सब प्रकार के मानवीय ज्ञान की―जिनको लेकर हमे इतना अहङ्कार है उन सबकी भी यही दशा है―यही परिणाम है; यही ब्रह्माण्ड है।
चाहे पदार्थ कहो, या भूत कहो, मन कहो या आत्मा कहो, वात एक ही है―हम यह नहीं कह सकते कि ये सब है और यह भी नहीं कह सकते कि ये सब नहीं है। हम उन सबको एक भी नहीं कह सकते, अनेक भी नहीं कह सकते। यह प्रकाश और अन्धकार का खेल―यह नाना प्रकार की दुर्बलता―अविविक्त, अपृथक, अविभाज्य― सदा ही रही है, इसमे सभी घटनाये कभी सत्य मालूम होती हैं, कभी मिथ्या। कभी लगता है कि हम जाग्रत है, कभी लगता है सोये हुये है। यही माया है और यही वस्तुस्थिति है। इसी माया में हमारा जन्म हुआ है, इसी में हम जीवित हैं; इसी में हम चिन्ता करते हैं, इसी में हम स्वप्न देखते हैं। इसी माया में हम दार्शनिक है, इसी में साधु है; यही नहीं, हम इसी माया में कभी दानव और कभी देवता हो जाते है। चिन्ता के रथ पर चढ़ कर चाहे कितनी ही दूर क्यों न जाओ, अपनी धारणा को ऊँचे से ऊँचा बनाओ, उसे अनन्त या जो इच्छा हो नाम दो, फिर भी यह सब माया के ही भीतर है। इसके विपरीत हो ही नहीं सकता; और मनुष्य का समस्त ज्ञान―केवल इसी माया के साधारण भाव का आविष्कार करना, उसका वास्तविक रूप जानना है। यह माया नामरूप का कार्य है। जिस किसी वस्तु की आकृति है, जो कुछ भी तुम्हारे मन में किसी प्रकार के भाव का उद्दीपन करने वाला है, वही माया के अन्तर्गत है। जर्मन दार्शनिक भी कहते हैं―सभी कुछ देशकालनिमित्त के अधीन है, और यही माया है।
अब हम फिर उस ईश्वर-धारणा के सम्बन्ध में क्या हुआ इस पर विचार करेंगे। इसके पहले संसार की अवस्था का जो चित्र खीचा गया है उससे सहज ही समझ में आजाता है कि पूर्वोक्त ईश्वर की धारणा हो ही नहीं सकती―अर्थात् उन एक ईश्वर की जो अनंत काल से हमें प्यार कर रहे है (प्यार हमारी धारणा के अनुसार)― उन
८ एक अनंत सर्वशक्तिमान और निःस्वार्थ पुरुष की जो इस विश्व का शासन कर रहे है। इस सगुण ईश्वर की धारणा के विरुद्ध खड़े होने के लिये कवि का साहस आवश्यक है। कवि पूछता है―तुम्हारा न्यायशील दयालु ईश्वर कहाँ है? वह मनुष्य है अथवा पशु? क्या वह अपनी लाखों सन्तान का विनाश नहीं देखता? कारण, ऐसा कौन है जो एक क्षण भी दूसरे की हिंसा किये बिना जीवन धारण कर सकता है? क्या आप सहस्रों जीवनों का संहार किये बिना एक सॉस भी ले सकते है? लाखों जीव मर रहे है, इसी से आप जीवित हैं। आपके जीवन का प्रति क्षण, प्रत्येक निःश्वास जो आप लेते है वह सहस्रों जीवों की मृत्युस्वरूप है और आपकी प्रत्येक गति लाखों जीवों की मृत्युस्त्ररूप है। वे क्यों मरे? इस सम्बन्ध में एक अति प्राचीन अयुक्तिपूर्ण दलील दी जाती है कि―"वे तो अति नीच जीव है।" मान लो कि यह बात ठीक है, किन्तु यह तो एक टेढा प्रश्न है जिसका निश्चय करना ही कठिन है। कौन कह सकता है कि चींटी मनुष्य से श्रेष्ठ है अथवा मनुष्य चींटी से? कौन कह सकता है कि यह ठीक है या वह ठीक है? मनुष्य घर बना सकता है, यन्त्र बना सकता है, इसलिये वही श्रेष्ठ है। परन्तु हम इसी तरह यह भी तो कह सकते हैं कि चींटी घर नहीं बना सकती, यन्त्र नहीं बना सकती इसीलिये वह श्रेष्ठ है। जिस प्रकार इस पक्ष में कोई युक्ति नहीं है उसी प्रकार उस पक्ष में भी कोई युक्ति नहीं है।
अच्छा, मान लिया कि वे अति क्षुद्र जीव हैं, फिर भी वे मरे क्यों? उनके क्षुद्र होने से ही तो उनका बचना और भी आवश्यक है। वे क्यों न बचें? उनका जीवन अधिकतर इन्द्रियों में आबद्ध है अतः वे हमारी तुम्हारी अपेक्षा सहस्रगुना दुःख-सुख का बोध करते हैं। कुत्ता या व्याघ्र जिस स्फूर्ति और लगन के साथ भोजन करते हैं उस तरह कौन मनुष्य कर सकता है? इसका कारण है कि हमारी समस्त कार्यों की प्रवृत्ति इन्द्रियो में नहीं है, बुद्धि में है, आत्मा में है। किन्तु कुत्ते की इन्द्रियों में ही प्राण पड़े रहते है, वह इन्द्रियसुख के- लिये उन्मत्त हो जाता है, वह जितने आनन्द के साथ इन्द्रियसुख का उपभोग करता है, मनुष्य उतना नहीं कर सकता; और जैसा उसका यह सुख है उसी परिमाण में उसका दुःख भी है।
जितना सुख है उतना ही दुःख है। यदि मनुष्येतर प्राणी इतनी तीव्रता से सुख की अनुभूति करते हैं तो यह भी सत्य है कि उनके दुःख की अनुभूति भी उतनी ही अधिक तीव्र होगी―मनुष्य की अपेक्षा सहस्त्रगुनी तीव्र होगी, परन्तु फिर भी उन्हे मरना होगा! तो फिर मरने में भी उन्हे मनुष्य की अपेक्षा सहस्त्रगुना कष्ट होगा। फिर भी हमे उनके कष्ट की चिन्ता न करते हुये उन्हें मारना पड़ता है। यही तो माया है और यदि हम मान ले कि ईश्वर हमारी ही तरह का एक व्यक्ति है (सगुण) जिसने यह सृष्टि रची है तो ये सब सिद्धान्त और व्याख्यायें जो यह सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं कि बुराई में ही भलाई छिपी रहती है, ये सब पर्याप्त नहीं हैं। उपकार चाहे सैकड़ो हो किन्तु अपकारों से उपकार क्यों होंगे? इस सिद्धान्त के अनुसार मैं यदि अपनी इन्द्रियों के सुख के लिये दूसरों का गला काटूँ तो कोई बुराई नहीं है। अतएव यह युक्ति ठीक नहीं मालूम होती। बुराई में से भलाई क्यो निकलेगी? इस प्रश्न का उत्तर देना होगा। किन्तु इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं है, यह बात भारतीय दर्शन को माननी पड़ी। वेदान्त अन्य सभी धर्मों और सम्प्रदायों की अपेक्षा अधिक साहस के साथ सत्य का अन्वेषण करने में अग्रसर हुआ है। वेदान्त ने बीच में ही किसी जगह पहुँच कर अपने अनुसन्धान को स्थगित नहीं किया, और उसको अग्रसर होने में एक सुविधा भी प्राप्त थी। वह यह कि वेदान्त धर्म के विकास के समय पुरोहित सम्प्रदाय ने सत्यान्वेपियो का मुख बन्द करने की चेष्टा नहीं की। धर्म में पूर्ण स्वाधीनता थी। उन लोगों की संकीर्णता थी सामाजिक प्रणाली में। यहाँ (इंग्लैण्ड में) समाज खूब स्वाधीन है। भारतवर्ष में सामाजिक स्वाधीनता नहीं थी किन्तु धार्मिक स्वाधीनता थी। इस देश में कोई चाहे जैसी पोशाक पहने अथवा जो इच्छा हो करे, उससे कोई कुछ न कहेगा; किन्तु चर्च में यदि कोई एक दिन भी न जाय तो तरह तरह की बाते उठ खड़ी होती है। सत्य की चिन्ता करते समय उसे हजार बार सोचना पड़ेगा कि समाज क्या कहता है। दूसरी ओर भारतवर्ष में यदि कोई इतर जाति के हाथ का खाना खा लेता है तो तुरन्त ही समाज उसे जातिच्युत कर देता है। पूर्व पुरुष जैसी पोशाक पहनते थे उससे ज़रा भी पृथक पोशाक पहनते ही बस, उसका सर्वनाश हो जाता है। मैने यहाँ तक सुना है कि एक व्यक्ति प्रथम बार रेलगाड़ी देखने गया था, इसीलिये जातिच्युत कर दिया गया! मान लो कि यह घटना सत्य नहीं है, किन्तु यह सच है कि हमारे समाज की यही गति है। किन्तु धर्म के विषय में देखता हूँ कि―नास्तिक, बौद्ध, जड़वादी―सभी प्रकार के धर्म, सभी प्रकार के मतमतान्तर, अद्भुत अद्भुत और बड़े बड़े भयानक मतो का प्रचार हो रहा है, शिक्षा भी हो रही है; अधिक क्या, देवमन्दिरो के द्वार पर ही ब्राह्मण लोग जड़वादियों की देवनिन्दा को सुनते सहते हैं! यह बात उनके धर्म की उदारता और महत्व की ही परिचायक है।
भगवान बुद्ध ने वृद्धावस्था में शरीरत्याग किया था। मेरे एक अमेरिकन वैज्ञानिक मित्र बुद्धदेव का चरित्र पढ़कर बड़े प्रसन्न होते थे किन्तु बुद्धदेव की मृत्यु उन्हे अच्छी नहीं लगती थी, कारण, कि उन्हे क्राँस पर नहीं लटकाया गया था। कितनी भ्रमात्मक धारणा है! बड़ा आदमी होने से ही हत्या किया जाना आवश्यक माना जाता है। भारतवर्ष में इस प्रकार की धारणा प्रचलित नहीं थी। बुद्धदेव ने भारतीय देवताओं तथा जगत् का शासन करने वाले ईश्वर तक को अस्वीकार करते हुये भारतवर्ष भर का भ्रमण किया किन्तु तथापि वे वृद्धावस्था तक जीवित रहे थे। वे पचासी वर्ष की अवस्था तक जीवित रहे और देश के आधे भाग में उन्होने अपने धर्म का प्रचार कर लिया था।
चार्वाकों ने भी बड़े बड़े भयानक मतों का प्रचार किया था―उन्नीसवी शताब्दी में भी लोग इस प्रकार खुल्लमखुल्ला जड़वाद का प्रचार करने का साहस नहीं करते। ये चार्वाक लोग मन्दिरों और नगरो में प्रचार करते फिरते थे कि धर्म मिथ्या है, वह केवल पुरोहितो की स्वार्थपूर्ति का एक उपाय मात्र है, वेद केवल धूर्त निशाचरों की रचना है―ईश्वर भी नहीं है, आत्मा भी नहीं है। यदि आत्मा है तो स्त्री-पुत्र आदि के प्रेम से आकृष्ट होकर लौट क्यों नहीं आता? इन लोगों की यह धारणा थी कि यदि आत्मा होता तो मृत्यु के बाद भी प्रेम आदि भावना उसको रहती और वह खूब अच्छा खाना, अच्छा पहनना चाहता। ऐसा होने पर भी किसी ने चावाको के ऊपर अत्याचार नहीं किया। धर्म के विषय में हमारे यहाँ स्वाधीनता थी, अतएव आज भी धर्म के विषय में हमारे भीतर महाशक्ति विराजित है। आप लोगो ने सामाजिक स्वतन्त्रता ली थी, इसीलिये आपकी सामाजिक प्रणाली इतनी सुन्दर है। हमने सामाजिक बातो में बिल्कुल स्वतन्त्रता नहीं दी, इसलिये हमारे समाज में सङ्कीर्णता है। आपके देश में धार्मिक स्वतन्त्रता नहीं दी गई; धर्म के विषय में प्रचलित मत का उल्लंघन करते ही बन्दूक उठ जाती थीं! उसी का फल यह है कि योरप में धार्मिक भाव इतना सङ्कीर्ण है। भारतवर्ष में सामाजिक श्रृंखला को खोलना होगा और योरप में धार्मिक श्रृंखला को तोड़ना पड़ेगा। तभी उन्नति होगी। यदि हम लोग इस आध्यात्मिक, नैतिक या सामाजिक उन्नति के भीतर जो एकत्व है उसको समझ सके, यदि हम जानले कि वे सब एक ही पदार्थ के विभिन्न विकास मात्र है, तो धर्म हमारे समाज के भीतर प्रवेश करेगा, हमारे जीवन का प्रति मुहूर्त धर्म भाव से पूर्ण हो जायगा। धर्म हमारे जीवन के प्रत्येक कार्य में प्रवेश करेगा, धर्म नाम से जो कुछ भी है वह सब हमारे जीवन में अपने प्रभाव का विस्तार करेगा। वेदान्त के प्रकाश में आप समझगे कि समस्त विज्ञान केवल धर्म का ही विभिन्न विकास मात्र है; जगत् की सभी वस्तुये इसी प्रकार हैं।
तो हमने देखा कि स्वाधीनता होने के कारण ही योरप में यह विज्ञान की उत्पत्ति और उन्नति हुई है; और हम देखते हैं कि कितने आश्चर्य की बात है कि सभी समाजों में दो विभिन्न दल देखे जाते हैं। एक संहार करने वाला, दूसरा संगठन करने वाला। मान लो कि समाज में दोष है और एक दल उठकर गाली गलौज करने लगा। बहुत दिन तक ये लोग केवल कट्टरपन्थी रहे। सभी देशों और समाजों में ये लोग देखे जाते हैं, और स्त्रियाँ तो अधिकांश इस चीत्कार में योग दिया करती है, कारण वे स्वभाव से भावुक होती है। जो व्यक्ति खड़े होकर किसी विषय के विरुद्ध लेक्चरबाजी करेगा उसके दल की वृद्धि होगी ही। तोड़ना सहज होता है, पागल आदमी जो चाहे तोड़ फोड़ सकता है, किन्तु किसी वस्तु का बनाना उसके लिये कठिन है।
सभी देशो में इस प्रकार के गन्दे विषयों के प्रतिवादी किसी न किसी रूप में पाये जाते है, और वे समझते हैं कि केवल गाली- गलौज से और दो को प्रकाश में लाकर ही वे लोगो का उपकार कर रहे है। उनको देखने से ऐसा लगता है कि वे कुछ उपकार कर रहे है, किन्तु वास्तव में वे अनिष्ट ही अधिक करते हैं। एक दिन में तो कोई काम नहीं होता। समाज एक ही दिन में तो बन नहीं गया, और परिवर्तन का अर्थ है, कारणो को दूर करना। मान लो कि बहुत से दोष है, किन्तु केवल गालीगलौज से तो कुछ होगा नही; हमें उनकी जड़ तक जाना पड़ेगा। पहले तो दोष का कारण क्या है यह जानना होगा, फिर उसे दूर करने से दोष स्वतः ही दूर हो जायगा। चिल्लाने से लाभ होने के स्थान पर हानि की ही अधिक सम्भावना है।
किन्तु पूर्ववर्णित दूसरे दल के हृदय में सहानुभूति थी। वे समझ गये थे कि दोषो को दूर करने के लिये उनके कारणों को देखना होगा। बड़े बड़े साधु महात्माओं का ही यह दल था। एक बात आपको याद रखना चाहिये कि जगत् के सभी बड़े बड़े आचार्य लोग कह गये हैं कि हम नाश करने नहीं आये, किन्तु पहले से जो कुछ है उसे पूर्ण करने आये है। प्रायः लोग आचार्यगण का यह महान् उद्देश्य न समझ कर ऐसा कहते हैं कि उन्होने साधारण मनुष्यों की भाँति अनुपयुक्त कार्य किये। इस समय भी बहुधा लोग कहते हैं कि वे लोग ( आचार्यगण ) जिसको सत्य समझते थे उसे प्रकट रूप से कहने का साहस नहीं करते थे और वे कुछ अंश में कायर थे। किन्तु यह बात नहीं है। ये सब एकदेशदर्शी लोग उन सब, महापुरुषो के हृदय के अनन्त प्रेम की शक्ति को नहीं समझते है। वे तो संसार के समस्त नर-नारियों को अपनी सन्तान के समान देखते थे। वे ही यथार्थ मातापिता है, वे ही यथार्थ देवता हैं, उनके हृदय में प्रत्येक के लिये अनन्त सहानुभूति और क्षमा थी―वे सदा ही सहने को और भमा करने को उद्यत रहते थे। वे जानते थे कि किस प्रकार मानव समाज संगठित हो सकता है; अतएव वे अत्यन्त धैर्य के साथ, अत्यन्त सहिष्णुता के साथ अपनी संजीवनी औषध का प्रयोग करने लगे। उन्होने किसी को गालियाँ नहीं दी, न भय दिखलाया किन्तु बड़े धैर्य के साथ लोगों को एक एक कदम रख कर मार्ग दिखलाया है। ये उपनिषदो के रचयिता थे। वे अच्छी तरह जानते थे कि ईश्वर सम्बन्धी प्राचीन धारणा अन्य सभी उन्नत नीति-संगत धारणा के साथ मेल नहीं खाती। वे पूरी तरह से जानते थे कि इन सब खण्डन करने वालों के भीतर ही अधिक सत्य है; वे पूरी तरह से जानते थे कि बौद्ध और नास्तिक लोग जो कुछ प्रचार करते हैं उसमें अनेक महान् सत्य हैं; किन्तु वे यह भी जानते थे कि जो लोग पहले के मतों से कोई सम्बन्ध न रख कर एक नया मत स्थापित करना चाहते है, जो लोग जिस सूत्र में माला गुँथी हुई है उसी को तोड़ना चाहते है, जो शून्य के ऊपर नूतन समाज का गठन करना चाहते है वे पूरी तरह से असफल होंगे।
हम कभी भी किसी नूतन वस्तु का निर्माण नहीं कर सकते, हम केवल पुरानी वस्तुओ का स्थान परिवर्तन कर सकते है। वीज ही वृक्ष के रूप में परिणत हो जाता है, अत: हमे धैर्य के साथ शान्तिपूर्वक लोगों की सत्य की खोज में लगी हुई शक्ति को ठीक तरह से चलाना होगा, और जो सत्य पहले ही से ज्ञात है उसी को पूर्ण रूप से जानना होगा। अतएव प्राचीन काल की इस ईश्वर सम्बन्धी धारणा को वर्तमान काल के लिए एकदम अनुपयुक्त कह कर उड़ाये बिना ही उन लोगो ने उसमे जो कुछ सत्य है उसका अन्वेषण आरम्भ किया; उसी का फल वेदान्त-दर्शन है। वे प्राचीन सभी देवताओं तथा जगत् के शासनकर्ता एक ईश्वर के भाव से भी उच्चतर भावों का आविष्कार करने लगे―इसी प्रकार उन्होने जो उच्चतम सत्य आविष्कृत किया उसी को निर्गुण पूर्णब्रह्म नाम से पुकारते हैं―इसी निर्गुण ब्रह्म की धारणा में उन्होंने जगत् के बीच में एक अखण्ड सत्ता को देख पाया।
"जिन्होंने इस बहुत्वपूर्ण जगत् में उस एक अखण्ड स्वरूप को देख पाया है, जो इस मर्त्य जगत् में उस एक अनन्त जीवन को देख पाते हैं, जो इस जड़ता तथा अज्ञान से पूर्ण जगत् में उसी एक स्वरूप को देख लेते हैं उन्हीं को चिरशान्ति मिलती है और किसी को नहीं।"
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