तुलसी चौरा/११

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तुलसी चौरा  (1988) 
द्वारा ना॰ पार्थसारथी, अनुवादक डॉ॰ सुमित अय्यर

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पूर्णता है।'

'पर कितना खूबसूरत विरोधाभास है, बाऊ। एक ओर जब ओसारे पर पान चबाते, ताश के पत्ते खेलते सीमावय्यर को देखता हूँ, और दूसरी ओर इनके बारे में सोचता हूँ तो लगता है, ज्ञानू का जाति से कोई सम्बन्ध नहीं है न?' रवि ने पूछा। शर्मा ने कोई उत्तर नहीं दिया। उन्होंने उत्तर भले ही न दिया हो, पर वे उसके बारे में लगातार सोच रहे हैं, वह यह जानता है। वह सोच रहा था, बाऊ उसकी इस बात को कहेंगे, पर बाऊ जी की चुप्पी उसे सन्तोषजनक लगी।

XXX
 

घर लौटते ही, सीमावय्यर के प्रचार का परिणाम भी उन्होंने देख लिया। अग्रहारम के तीन चार सम्माननीय व्यक्ति उनकी प्रतीक्षा में खड़े थे। शर्मा जी ने उनका स्वागत किया और ओसारे पर ही बैठ गए। रवि और कमली भीतर चले गये।

आगंतुकों के चेहरे देखकर ही शर्मा जी उनका मकसद भाप गये।

भजन मंडली के पद्यनाभ अय्यर, वेद धर्म सभा के सचिव हरि- हर गनुपाड़ी, कर्णम मातृभूतम, और जमींदार स्वामीनाथ―भी आये थे। बात की शुरूआत हरिहर गनपाड़ी ने की, 'जब यह सार्वजनिक सम्पत्ति है, तो मठ से जुड़े चार लोगों से सलाह लेनी चाहिये थी। अग्रहारम का ही कोई तैयार हो जाता। पहले उनसे पूछ लेना चाहिये था आपको।'

शर्मा जी ने धैर्य के साथ इसका उत्तर दिया। पर किसी ने भी उनकी बात पर ध्यान नहीं दिया।

'आप टेंडर मँगवा लेते। बोलियाँँ लगती और अच्छा किराया मिल जाता। एक नास्तिक को नहीं मिलनी चाहिये थी।'

'श्रीमठ को मैंने लिखा था। उन्होंने तो सिर्फ इस बात पर जोर दिया था कि किराया समय पर मिल जाये। पार्टी को नेक और ईमान[ ११० ]
दार होना चाहिये बस! यही वे चाहते थे।'

'तो यह नास्तिक बनिया आपको ईमानदार लगा, क्यों?'

'कोई क्या है, इससे मुझे कुछ लेना देना नहीं। वह कैसे है, मुझे यही देखना है।'

'यही तो हम भी आपसे पूछ रहे हैं। यानी कि आप जानते हैं वे कैसे हैं। और जानबूझकर यह किया गया है।'

विवाद बढ़ने लगा। शर्मा जी समझ गए यह सारी आग सीमा- वय्यर की लगायी है। जाते-जाते शर्मा जी को भला बुरा कह गए।

दोपहर शर्मा जी किसी काम से भूमिनाथपुरम गए थे। बसँती आयी थी। हफ्ते भर में उसे बंबई जाना था। कमली ने उससे सुझाब माँगे। कामाक्षी की तरह लांग वाली धोती पहननी भी सीखी।

रवि घर पर नहीं था, इसलिए जी खोलकर बातें करने का अवसर हाथ लग गया। हालांकि कमली ने भारतीय रीति रिवाजों, नियमों, अनुष्ठानों के बारे में काफी जानकारी थी, पर कुछ छोटी-छोटी शकाएँ बनी रहीं।

बसँती से उनका निवारण कर लिया। एक प्रश्न बेह्द निजी था। बसँती ने उसे सविस्तार साफ-साफ समझा दिया। 'ऐसे दिनों के लिए पिछवाड़े में एक कमरा है। वहीं रहनो पड़ता है। ढेर सारी किताबें रख लेना। पढ़ती रहना। तीन दिनों की जेल समझ लो।'

कमली कामाक्षी को पूरी तरह से संतुष्ट करना चाहती थी। सँझवाती वाली घटना, फिर रवि के पिता का उसे सलाह देने की बात बसंती से उसने कुछ भी नहीं छिपाया।

'अंगर बहुत परेशानी हो, तो मेरे घर चली जाना। बाऊ जी से कह जाऊँगी।' पर कमली नहीं मानी।

'देखेंगे! मुझे लगता है, इसकी जरूरत नहीं रहेगी।' कमली ने निर्णयात्मक स्वर में कहा। [ १११ ]'तुम उन तीन दिनों के लिये पारू को स्कूल में छुट्टी दिलवा देना। कौड़ियाँ खेल लेगी तुम्हारे साथ।'

'अरे, तो क्या समझती है? मुझे अकेले में डर लगेगा।' कमली ने पूछा! उसकी इच्छा के अनुसार ही उस दिन शाम भूमिनाथपुरम के शिव मंदिर ले गयी। और एक विदेशी युवती को भारतीय परिधान में, पूजन सामग्री लेकर चलते देख लोग ठिठक गये। बसंती ने कमली को मंदिर की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से परिचित करा दिया।

बसंती के साथ वह गर्भ गृह के समीप गयी। शर्मा जी के परिवार कुशल मंगल की कामना करती रही।

भूमिनाथपुरम का भव्य शिव मंदिर उसका कलात्मक सौन्दर्य और शिल्प उसे बेहद भाया।

लौटते में कमली ने बसँती से गद्गद स्वर में कहा, 'तुम लोगों के प्राचीन मंदिर कला के भंडार हैं। पर तुम्हारे यहाँ की युवा पीढ़ी तो अब सिनेमा थियेटरों में भक्ति भाव से जाने लगी है। मंदिर जाना कौन पसंद करता है? वहीं सिगरेट के धुएँ में उनकी पूजा अर्चना चलती है।'

'ठोक कहती हो, तुम। यहाँ मंदिरों से अधिक भीड़ टूरिंग थियेटरों में मिलेगी।'

'मैक्समूलर के जमाने से पश्चिमी देशों में पूर्व को सभ्यता और संस्कृति के प्रति एक आकर्षण उत्पन्न हो गया था। मैक्समूलर ने आक्सफोर्ड में वेद और उपनिषदों का अनुवाद कर उन्हें प्रकाशित करने का काम शुरू किया, तब से ही पश्चिम ने पूर्व की ओर देखना प्रारम्भ कर दिया। और तबसे यह भी होने लगा―कि तुम लोगों ने पश्चिम की ओर आँखें फाड़कर देखना शुरू किया और वहाँ की भौतिकवादी उपभोक्ता संस्कृति को अपनाना शुरू किया।'

सच कहती हो। आज भारत भौतिकवादी हो गया है।

स्वतंत्र भारत की सबसे बड़ी गरीबी इसकी सांस्कृतिक गरीबी [ ११२ ]
है। भूख से अधिक यह सांस्कृतिक गरीबी खतरनाक है।

'हाँ, संस्कृति और आध्यात्म की गरीबी सचमुष में भयंकर हैं। एक देश को पतन के गर्त तक ले जाने वाला है.......।'

लौटते में वार्तालाप चल रहा था। बसंती में महसूस किया कि कमली एक हिंदू युवती की तरह रहना चाहती है। उस तरह दिखने और रहने की उसकी ललक को बसंती समझ गयी।

'हम लोग तो जन्म से हिंदू हैं। पर बाहर से आने वाले लोगों को हिंदू धर्म इतना आकर्षित करता है―यह सचमुच आश्चर्यजनक है।'

'तुम लोग सुधार और पुनर्जागरण के नाम पर एक पवित्र और पुरातन गंगा प्रवाह से निकल कर धूप सेंकना चाहते हो, पर हम लोग उस प्रवाह में डूबकर पवित्र होना चाहते हैं। हिंदू के रूप में जन्म लेने वाला पूर्ण हिंदू नहीं होता। जो हिंदुत्व को समझकर हिंदू की तरह रहना चाहता हो, वही पूर्ण हिन्दू है, हिंदू एक धर्म नहीं― जीवन की एक पद्धति है।'

'पर जो गंगा तक नहाने जाता है, वही तो भीगेगा।'

'गंगा, उत्तर में बहने वाली नदी ही नहीं बल्कि भारत में फैली हुई एक पावन भावना है। तुम्हारे यहाँ सांस्कृतिक एकता है। तुम्हारा इतिहास ही गवाह है कि देश के कई स्थानों में झीलों तालाबों में गंगा के जल को ही सबसे पहले लाया जाता है। हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तक कोई भी हिंदू मरता है तो मुँह में गंगा जल ही डाला जाता है।'

बसंती अपने ही इतिहास को दूसरों के मुँह से सुनकर पुलकित हो उठी।

बम्बई जाने से पहले कई शामें कमली और बसंती ने साथ बिताई। जी भर कर बातें की।

उसके बम्बई जाने के दूसरे या तीसरे सप्ताह ही, श्रीमठ से एक [ ११३ ]
तार आया और शर्मा जी कामाक्षी को लेकर यहाँ चले गए। लौटते में हफ्ता लग जाने की संभावना थी। कामाक्षी ने घर की जिम्मे- दारी पार्वती को सौंप दी थी। ज्यादातर पक्का खाना बैठक में ही बनाने की सख्त हिदायत भी।

शर्मा जी के जाने के दूसरे तीसरे दिन घर पर एक दुर्घटना हो गयी। जान बूझकर दुर्घटना की गयी थी। किसने की है यह भी साफ ही जाहिर था। पर यह व्यक्ति नहीं मिला? पिछवाड़े में बाग और गौशाला के बीच में पुआल का ढेर था। सुबह तीन बजे के लगभग किसी ने उसमें भाग लगा दी। मीनाक्षी दादी अपने घर के पिछवाड़े में आई, तो लपटें उठती देखी और चीख पुकार मचाने लगी। दादी में तो जब देखा तब तक देर हो चुकी थी। आग गौशाला तक पहुँच गई थी। घर के लोग सो रहे थे। जब तक ये लोग पहुँचे अड़ोस-पड़ोस के लोग बाल्टियों से आग बुझाने लग गए थे। पर आग इतनी आसानी से नहीं बुझ रही थी। गौशाला की छत गिर गई, इसलिए एकाध बछड़ों के अलावा शेष सब गायें दब गयीं। घर में धुआँ फैल गया। पिछवाड़े के दरवाजे और आंगन के बीच लगी तुलसी के पत्ते भी झुलस गए। यदि गौशाला की छत दबने के बजाय, एक किनारे ढहती तो तुलसी चौरा टूट चुका होता।

लोमबाग, कुएं से पानी निकाल-निकाल कर लपटें बुझाने की कोशिश करते रहे। पूरी कोशिश करते रहे कि गायों को निकाल लिया जाए। पर नहीं हो पाया। अंत में बाकी धरों की गौशालाओं को आग से बचाने का अभियान चलने लगा।

किसी से समाचार मिलते ही इरैमुडिमणि दस पन्द्रह आदमी लेकर भागते हुए चले आए। वे भी इस अभियान में शामिल हो गए।

सुबह तक आग काबू में आ चुकी थी। फूल का ढेर राख हो [ ११४ ]
चुका था। गौशाला की तीनों गाएँ झुलस कर खत्म हो गई थीं।

रवि को बहुत दुःख हुआ। एक तो बाऊ भी इस वक्त घर से बाहर हैं। पर वह अच्छी तरह समझ गया कि यह जानबूझकर की गयी साजिश है। वेणुकाका समेत अधिकांश लोगों की राय थी कि यह कर्मों का फल है। जाने ईश्वर किस बात पर नाराज हो गये हैं।'

पर इरैमुडिमणि चीखे, 'आदमी जानबूझकर किसी का अहित करे, और लोग भाग्य पर उसका भार डाल देते हैं। हिम्मत हो तो उसे पकड़िये जिसने यह हरकत की है। वरना चूड़ियाँ पहन डालिए।'

रवि और इरैमुडिमणि का संदेह सीमावय्यर पर था। सुबह सीमा- वय्यर भी सबके साथ आकर बैठ गए। 'पता नहीं क्या अनर्थ हो गया वरना ब्राह्मण के घर गाय और तुलसी झुलस जाए? यह कैसे संभव है।' उनके इस वाक्य में जो शरारत थी उससे उनकी आगे की कार्यवाही स्पष्ट हो गई। रवि ने उनसे सीधे मुँह बात नहीं की। वे खुद आए, स्यापा मचाया और लौट गए। लगा, अपने को बचाने के लिए यह हरकत उन्होंने की है।

रवि ने जो सोचा था, वही हुआ। सीमावय्यर ने पूरे अग्रहारम् में ढिंढोरा पिटवा दिया कि शर्मा जी ने एक नास्तिक को मठ की जमीन किराये पर दी। घर पर अनाचारी लोगों को बिठा रखा है। ईश्वर भला कैसे सहे इसे? बस आग लग गयी। कुछ लोग उनके बहकावे में आए भी।

कमली, कामाक्षी के जाने के बाद रोज सुबह नहा धोकर, लांग वाली धोती पहनकर, गो पुजन और तुलसी पूजा करती आ रही थी। आग लग जाने के बाद उसे तो कुछ नहीं सूझा। तुलसी के पत्ते ऊपर झुलस गए थे, पर जड़ें हरी थीं। उसने तो उस दिन भी वाकायदे पूजा की।

इस दुर्घटना के तीसरे दिन शर्मा जी और कामाक्षी लौट आए। शर्मा जी क्षणांश के लिए विचलित हुए। फिर जल्दी सहज हो गए। [ ११५ ]
बाऊ जी की इस हरकत पर रवि को एक पौराणिक घटना याद आ गयी। एक बार राजर्षि जनक अपने अन्य विद्वानों के साथ एक सुरम्य स्थान पर चर्चा में लीन थे। उन्हें तो दीन दुनिया का होश भी नहीं था। बस ज्ञान के अथाह सागर में गोता लगा रहे थे। तभी कोई भागा आया और बोला, 'मिथिला में आग लगी है राजर्षि जनक शांत रहे, और बोले, मैंने तो मिथिला में कोई ऐसी चीज नहीं छोड़ी है। जो बाद में मिल नहीं सके। यह घटना राजर्षि जनक का वीतरागी स्वभाव और ज्ञान के प्रति उनकी अटूट आस्था का ही उदाहरण है।'

उस दिन बाऊजी उसी जनक की तरह लगे।

XXX
 

बाऊ को दुख हुआ होगा, पर पानी की लकीर की तरह सब कुछ मिट गया। लोगों की बातें भी उन्होंने सुनी, पर कुछ नहीं बोले। भूमिनाथपुरम के अपने किसी परिचित को दूसरी गाय भिजवाने को कहला भेजा।

पर अम्मा का व्यवहार ठीक विपरीत था। लोगों की बातें उसने भी सुनी थी।

दादी ने ही उन्हें बताया था कि मठ की जमीन नास्तिक को दी गयी है और घर पर अनाचारी लोगों से पूजा पाठ करवाया गया है। ईश्वर की आँखें क्या फूट गयी हैं, वह तो देखता है। पर कामाक्षी को पार्वती से पता चल गया कि उसकी अनुपस्थिति में सारा पूजा पाठ कमली ने किया था।

इसे किसने कह दिया। उनके यहाँ तो कुल्ला किए बगैर कॉफी पी जाती है। न आचार, न नियम, न अनुष्ठान। इसलिए तो यह सब गत हुई है। इस घर में मेरी सुनता कौन है। यहाँ तो पीढ़ियों से गो- पूजन, तुलसी पूजन चला आ रहा है। घर की सम्पन्नता तो इसी पूजा का फल है। एक फिरंगिन में पूजा पाठ की कौन सी योग्यता है? [ ११६ ]
आने दो उन्हें। मैं छोड़ूँगी नहीं। इनसे साफ साफ कह दूँगी।

'अम्मा कमली तो तुम्हारी ही तरह नहा धोकर यह सब किया करती थी।' पार्वती ने उसका पक्ष लिया।

'चुप कर! तेरे प्रमाण पत्र की कोई जरूरत नहीं, समझी। कामाक्षी ने उसे झिड़क दिया।

पार्वती को अम्मा का गुस्सा नहीं जँचा। अम्मा कमली पर बे- वजह नाराज हो रही हैं।

दस पंद्रह दिनों में ही, तुलसी में नयी कोपलें फूटने लगीं। भूमि- नाथपुरम से आयी नयी गाय और बचे हुप बछड़े एस्वेस्टस की छत के नीचे आराम से जुगाली कर रहे थे। पर इन तमाम बातों के बीच कमली की ही आलोचना हुई।

बाहर वालों ने तो इस कांड का जिम्मेदार उसे ठहराया ही। घर पर कामाक्षी ने भी कभी खुल कर, कभी प्राकारान्तर से यही खरी खोटी सुनाई। शर्मा से खूब झगड़ी। पर वे टस से मस नहीं हुए। कमला की विनम्रता, उसका शील, हिन्दू धर्म के प्रति उसकी आस्था और इस धर्म में घुल जाने की उसकी तत्परता―शर्मा जी को बहुत अच्छा लगा था। अपनी ही संस्कृति को अंधविश्वास समझकर भूलते जा रहे भारतीयों के सामने, विज्ञान और तकनीक में विकसित देश से आयी वह युवती इसकी विनम्रता, इसका स्वभाव उन्हें बेहतर लगा था।

शर्मा जी ने कमली के गोपूजन, तुलसी पूजन, दुर्गा सप्तशती पाठ को एक मनोरंजन या अलोचना की दृष्टि से नहीं देखा। उसमें निहित उसको अंतरंग शुद्धि को वे समझ सके। जो आदमी की भीतरी शुद्धि को नहीं समझ पाता, वह कतई सत्य मानने योग्य नहीं, यह उनकी मान्यता रही।

कमली सुबह योगासन करती है, यह वें जानते हैं। एक दिन बनियाइन और पैंट पहने वह शीर्षासन में लीन थी, तो कामाक्षी ने [ ११७ ]
उसे देख लिया। लपक्रती हुई नीचे गयी और बगीचे में पूजा के लिए फूल चुन रहे शर्मा जी के पास गयी और बोली, 'देखिए, आपको यह सब अच्छा लगता है क्या? इस उम्र में आधे कपड़े पहने उल्टी खड़ी है।'

शर्मा जी मुस्कुराप 'वह योगासन कर रही है। तुम्हें अच्छा न लगे, तो मत देखो।'

शंकरमगंलम में दासियों का एक मोहल्ला है। उस मोहल्ले में शिवराज नहुबनार नाम के एक नृत्य गुरु थे। कमली भरतनाट्यम और कर्नाटक संगीत सीखना चाहती थी। लिहाजा रवि ने उस मोहल्ले के एक भागवतर और शिवराज नहुबनार को घर आकर प्रशिक्षण देने को राजी करवा लिया था। सप्ताह के तीन दिन संगीत, तीन दिन नृत्य और एक दिन शर्मा जी से संस्कृत।

'उसे अगर इतना ही पागलपन है, तो वहीं जाकर सील लें। नृत्य, संगीत के नाम पर जाने कैसे-कैसे गवैये, नचाये घर चले आते हैं।' कामाक्षी तो लड़ बैठी। लिहाजा उनका आना बंद हो गया, कमली वहाँ जाने लगी।

शर्मा जी और रवि एक दिन घाट से लौट रहे थे, तो रवि को पहली बार उस बात का पता लगा।

'इस गांव के लोग बहुत दूषित प्रकृति के हैं। रवि! पता है, मुझे मठवालों ने तार देकर क्यों बुलवाया था। तुमने मुझसे नहीं पूछा अब तक, पर मैं तुम्हें अब बता रहा हूँ। तुम्हारे और कमली के यहाँ रहने और देशिकामणि को वह जगह किराये पर उठाने को लेकर किसी ने एक गुमनाम पत्र लिख दिया था और मुझे मठ के उत्तरदायित्व से मुक्त करने की सिफारिश की थी। उसका आरोप था कि मैं विदेशी युवती को घर पर अंडा, मांस-मछली बनवा कर खिलाता हूँ। नास्तिक को मठ की जमीन देकर आस्तिकों के लिए परेशानियाँ खड़ी करता हूँ। सब सीमावय्यर का काम है। पर अच्छा हुआ वहाँ मठ के मैनेजर [ ११८ ]
ने इन आरोपों पर विश्वास नहीं किया। आचार्य का मेरे प्रति स्नेह और वात्सल्य कम नहीं हुआ। जब मैं वहाँ गया था तो अर्जेन्टाइना से एक युवती वहाँ आयी थी। ऋग्वेद पर आचार्य जी से चर्चा कर रही थी।

मैंने उन्हें बताया कि मैं आत्मा के साथ विश्वासघात नहीं किया है। श्रीमठ के आदेशों को मैंने हमेशा माना है। यदि आचार्यजी को सन्देह हो तो मैं मठ का कार्य छोड़ने को तैयार हूँ। मैंने जो भी किया मुझे इसमें लेशमात्र भी लालच नहीं है यह श्रीमठ का काम समझकर ही मैंने किया। मेरे बताने पर आचार्यजी को असली बात का पता लगा।

बोले, ‘तुम पर पूरा विश्वास है। तुम ही मठ का सारा कार्य भार देखोगे!’ गुमनाम पत्र की वजह से तुम्हें यहाँ बुलवा लिया और स्पष्टीकरण भी तुमसे मांगा। इसे अन्यथा मत लेना। मुझे तब कहीं जाकर तसल्ली हुईं। कामू के साथ जब आचार्यजी से मिलने गया तब ये बातें नहीं हुईं। फिर अकेले में बातें हुईं। तुम्हारी माँ को ये बातें नहीं मालूम हैं। पता चल जाए तो बस, कमली पर ऐसे ही बरसा करती है। फिर तो खदेड़ ही देगी।’

रवि को पहली बार अपनी वजह से बाऊ को होने वाली परेशानियों का एहसास हुआ।

‘पता नहीं लोगों को इन बेकार के झगड़ों में क्या मजा आता है। अब तो यूरोप में इससे भी अधिक शाकाहारी होने लगे हैं। कमली तो मुझसे मिलने के बाद पूरी तरह शाकाहारी बन चुकी है। अब तो शाकाहारी खानों को हेल्थ फूड कहा जाता है। अब तो सभ्यता का पुनर्जागरण इस रूप में हो रहा है, और यहाँ लोगों को इन फालतू बातों से फुर्सत नहीं।’ रवि ने कहा।

‘बुरा मत मानना। मैं तो तुम्हें सूचित भर करना चाहता था। रवि, मैं इन बातों से नहीं घबराता। मेरी सोचः बहुतः साफ होने लगी है।