तुलसी चौरा/१२

विकिस्रोत से
तुलसी चौरा  (1988) 
द्वारा ना॰ पार्थसारथी, अनुवादक डॉ॰ सुमित अय्यर

[ ११९ ]
कमली को पहले से ज्यादा समझ रहा हूँ। परसों मुझसे संस्कृत पढ़ रही थी, तो ‘वागार्थविव....’ वाले श्लोक का अर्थ समझते हुए पता है उसने क्या किया? सौन्दर्य लहरी का वह श्लोक याद दिला दिया। जैसे ज्योति स्वरूप सूर्य को दीप की आरती की जाए, जैसे चन्द्रकांतमणि से चन्द्र को अर्घ्य दिया जाए, जैसे समुद्र के ही जल से एक समुद्र को स्नान करवाया जाये उसी तरह तुम्हारे ही शब्दों से तुम्हारी ही अर्चना करता हूँ।’ मैं तो चकित रह गया। मैं गुरु हूँ या वह, मेरी समझ में नहीं आया।

मैंने तो वागर्थ की तरह एक दूसरे से जुड़े हुए शिव और पार्वती की वंदना का श्लोक उसे समझाया था। तब से वह हर श्लोक के साथ इसे जोड़कर देखने लगी है वे तुलनात्मक अध्ययन तो पश्चिम का एक प्रमुख उपकरण है।

‘उसका चिन्तन बहुत गहन है, रवि।’

रवि का मन खुशी से भर गया।

उसी सप्ताह के अंत में, बाऊ से अनुमति लेकर, कमली को चार दिनों वाले विवाहोत्सवों में ले गया। होम, औपासना, काशी यात्रा, झूला, अंरुधती दर्शन, सप्तपदी, कमली एक-एक अंश को कैमरे में कैद कर रही थी। रवि एक-एक का अर्थ समझा रहा था। विवाह के गीतों को उसने कैसेट में रिकार्ड किया। उसे यह पारंपरिक विवाह बहुत अच्छा लगा।

कमली ने विवाह में बहुत रुचि ली। पांचवे दिन लौटी तो उसने एक विचित्र अनुरोध सामने रखा।

XXX
 

‘तुम विदेशी हो। लोग समझते हैं कि तुम मजे के लिए यह सब करती हो। हमारे यहाँ विवाहित महिलाएँ ही लांग वाली धोती पहनती हैं।’ रवि ने कहा! कमली ने ऐसे ही वक्त में अपनी इच्छा जाहिर की। [ १२० ]'ऐसा मत कहिए। मैं आपके धर्म, आपके आचार-विचार नियम- अनुष्ठानों को मजे के लिए नहीं, पूरी श्रद्धा के साथ देखती हूँ, अपनाना चाहती हूँ। यदि मेरे इस एप्रोच में कहीं गलती हो तो मुझे रोकिये। लोगों के उपहास का पात्र मत बनाइए। आपकी प्रेमिका से मुझे शास्त्रसम्मान पत्नी का दरजा दीजिए। मैं चाहती हूँ, कि हमारा विवाह भी चार दिनों का हो।

'मैं जानता था, कि तुम्हारी इच्छा कुछ इसी तरह की होगी। पर मुझे इसमें कोई आपत्ति नहीं तुम्हारे कहने के पहले ही मैंने बाऊ से कह दिया है। पर इन भारतीयों की एक कमजोरी मैं तुम्हें बता वेना चाहता हूँ। हम लोग फूप्स के ढेर में सोये कुत्तों की तरह न तो खुद उसका सुख लेते हैं, न दूसरों को लेने देते हैं।'

सौ साल पहले जब मैक्समूलर ने वेद और उपनिषदों को प्रकाशित करना शुरू किया तो बजाय यह सोचने के कि एक विदेशी हमारी परंपरा की रक्षा में सक्रिय हैं, लोगों ने आपत्तियों की कि एक म्लेच्छ वेदों का प्रकाशन किस अधिकार से कर रहा है। स्वामी विवेकानन्द और रविन्द्र नाथ ठाकुर ने ही सैक्समूलर की प्रशंसा की थी।

'हो सकता है। पर मुझे लगता है, यहाँ भी परिवर्तन हुआ है।'

रवि ने आश्वासन दिया कि कुछ दिनों बाद वह फिर बाऊ से बात करेगा।

बसंती के चले जाने के बाद कमली के लिए ऐसा कोई नहीं था जिससे जी खोलकर बातें करती। कामाक्षी की घृणा और विरोध के बावजूद उन्हें अपना गुरु ही मानती रही। कई बातें सीख ली। घर में बीच-बीच में छिटपुट घटनाएँ भी घटीं, पर रवि और शर्मा जी इस बात के लिए सतर्क रहते थे कि कमली का मन न दुखे।

इस बीच कामाक्षी के मायके से, उसकी बूढ़ी मौसी मन्दिर के किसी उत्सव में भाग लेने आयी थी। उनका उद्देश्य वहाँ दसेक दिन ठहरने का था। बेहद कर्मकांडी महिला थीं। अपना काम स्वयं करतीं। [ १२१ ]कमली को देखकर तो उन्होंने घर में एक छोटे युद्ध की ही योजना बना डाली। 'यह क्या कर डाला कामू? हमारे कुल गोत्र में कहीं ऐसा भी हुआ है? मैं यहाँ कैसे रहूँगी री?'

'मैं क्या करु मौसी, मुझे भी नहीं पसन्द है। तुम इस ब्राह्मण महाराज से पूछ लो। देखें कुछ यात पल्ले पड़ती है या नहीं।'

कामाक्षी के अनुसार घर में शर्मा, रवि, पार्वती, कुमार, कमली को तरफ हैं।

अब तक अपना विरोध इसलिए वह प्रकट नहीं कर पाती थी पर मौसी के आगमन से उस नफारत को बाहर निकालने का रास्ता मिल गया। बुढ़िया ने एक-एक कर सबको भड़काना चाहा। पर किसी ने भी उसकी बातों पर ध्यान नहीं दिया।

अन्त में शर्मा से ही पूछ लिया।

'तुम शास्त्र जानते हो। ऐसा अनाचार किसलिए कर रहे हो? इस उम्र में यह सब भी झेलना लिखा है।'

'उससे कोई अनाचार नहीं होगा। वह हमसे भी अधिक इन बातों को मानती है, शर्मा जी बोले।

'यह कैसे हो सकता है?' बुढ़िया बुदबुदायी।

'न बने, तो कहीं और ठहर लें!' शर्मा जी कहना तो यही चाहते थे, पर चाहते थे कि बुढ़िया ही पहल कर ले।

'सोचती हूँ, शंकर सुब्बन के घर ठहर लूँ।'

'आप ऐसा चाहती हैं तो मैं कौन होता हूँ रोकने वाला।' शर्मा जी ने बातचीत बंद की पर कामाक्षी को गुस्सा आ गया।

'बीस साल से यहाँ ब्रह्मोत्सव में मौसी आती रही हैं। आपने उन्हें क्षण भर में नीचा दिखा दिया। क्यों हमारे मायके वालों आपको काटते हैं? बाहर वालों के लिये हमारे घर वालों को भगायेंगे?'

'मैं किसी को नहीं भगा रहा। वे खुद वहाँ रहना चाहती हैं। [ १२२ ]
तो इसमें मेरा क्या दोष! तो क्या तुम चाहती हो मैं पैर पड़कर उन्हें मनाऊँ?'

'वह गाँव जाकर मुझ पर थूकेंगी। ऐसे ही तुम्का फजीहत क्या कम हो रही है?'

शर्मा जी चुप रहे। शर्मा जी का दृढ़ विचार था कि एक सीमा तक मौन धारण करना घर के कलह को कम करने में सहायक होता है।

कमली को इस बात का पता न चले कि उसकी वजह से घर में कलह मच रहा है, इस स्थिति के प्रति वे सतर्क थे।

एक दिन रवि से ही लड़ बैठी कामाक्षी। 'सारे फसाद की जड़ तू ही है।'

'मैंने क्या किया है, अम्मा! अगर मौसी खुद ही गयी हैं, तो कौन क्या कर सकता है? कमली तो तुम्हें भगवान की तरह पूजती है। तुम उसे गालियाँ निकालती हो।'

'हाँ रे, एक यही तो रह गयी है, मुझे पूजने वाली! मैं तो यहाँ रात-दिन घुट रही हूँ। अब जाओ तुम………।'

'तो कहाँ जाऊँ? पेरिस?'

कामाक्षी चली गयी चुपचाप।

कमली की पढ़ाई निर्वाध चलती रही। ध्वनि वक्रोक्ति, ध्वन्यालोक के बारे में कमली शर्मा जी से पूछा करती। शर्मा जी उसकी रुचि और कुशाग्र बुद्धि पर मुग्ध होते।

'अब तो मैं भी भूलता जा रहा हूँ। अच्छा हुआ तुझे पढ़ाने के बहाने मुझे भी सब याद आ रहा है। महान विद्वानों ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि संस्कृत की यह दुर्दशा होगी।'

'कई यूरोपीय भाषाओं की जननी लैटिन का जो हाल हुआ है, वहीं भारत में संस्कृत का भी हुआ है। पुरातन लैटिन भाषा आज धार्मिक संस्थाओं, चौं तक की सीमित रह गयी है इसी तरह संस्कृत [ १२३ ]
भी। पर शोध विद्वानों का कहना है कि संस्कृत, ग्रीक और लैटिन में संस्कृत ही पुरातन भाषा है।'

लैटिन और संस्कृत की यह तुलना शर्मा जी को अच्छी लगी। कमली ने सविस्तार बताया कि किस तरह तीनों ही भाषाओं में अंक उच्चारण सामान है। शर्मा जी को आश्चर्य हुआ। अंग्रेजी के 'वन' को तमिल के 'ओन्स' से जोड़ दिया। रवि ने साल भर के लिए अमेरिकन सेंटर और ब्रीटिश काउन्सिल बाइब्रेरी की सदस्यता ले ली थी। वे लोग कभी पाँच दिन के लिए, कमी दस दिन के लिए मद्रास चले जाते।

ऐसे में शर्मा जी को घर काटने को दौड़ता। कमली और रवि जिन दिनों शंकरमंगलम में थे, एक बार इरैमुहिमणि ने कमली को अपने संगठन में आमंत्रित किया। एक गोष्ठी का आयोजन भी किया गया था। एक फ्रैंच युवती को तमिल में बोलते हुए सुनने के लिये काफी भीड़ इकट्ठी हो गयी थी।

इरैमुडिमणि ने कमली का परिचय देते हुए यह भी बताया कि वह शीघ्र ही शर्मा जी की बहू बनने वाली है। इस अंतर्राष्ट्रीय विवाह के लिये अपने संगठन की ओर से बधाई भी दी।

द्रविड़ परिवार की भाषाओं के बारे में कमली ने एक भाषण दिया। पंद्रह मिनट तक उसने तमिल में ही भाषण दिया। भीड़ आश्चर्यचकित रह गयी। कमली को हार पहनाने के उद्देश्य से महि- लाओं की भीड़ में किसी को आमंत्रित करना चाहा। पर महिलाओं में से कोई मंच तक आने को तैयार नहीं हुई।

अंत में क्षणभर सोचकर इरैमुडिमणि ने हार रवि को पकड़ाकर कहा, 'अब तो बेटा तुम ही पहना दो।' रवि ने भी हँसते हुए कमली को माला पहना दी। सीमावय्यर के प्रचार में अब घी पड़ गया था। इस घटना का उन्होंने खूब दुरुपयोग किया। इरैमुडिमणि और शर्मा दोनों के ऊपर एक साथ गुस्सा निकालने का अच्छा अवसर था, [ १२४ ]
यह! शंकरमंगलम में ही नहीं, आस-पास के गाँवों में भी अफवाह फैला दी।

दो दिन बाद शाम के वक्त रवि को पिछवाड़े में बुलाकर कामाक्षी ने जवाब तलब किया।

'क्यों रे, यह मैं क्या सुन रही हूँ। इरैमुडिमणि के यहाँ गोष्ठी में इतने लोगों के सामने तुमने शर्म ह्या छोड़कर उसे माला पहनायी थी।'

रवि को हँसी आ गयी। पर हँसता तो अम्मा का गुस्सा और भड़क जाता। यही सोचकर बोला, 'औरतों में कोई और तैयार ही नहीं हो रही थी, सो मुझे ही पहनाना पड़ा।'

'सांड सी उम्र हो गयी है। कोई किसी भी लड़की को दिखा कर कह दे, तो क्या माला पहना दोगे?'

'इसमें गलत क्या है, अम्मा?'

'तुमसे बातें करना तो फिजूल है।'

रवि वहाँ से खिसक गया।

इस घटना के दो-तीन दिन बाद दोपहर बारह बजे डाक से दो रजिस्ट्रियाँ मिलीं। एक शर्मा के नाम दूसरी कमली के नाम। शर्मा जी को आश्चर्य हुआ कमली को यहाँ कौन पत्र लिख सकता है?

अपने नाम आये पत्र को पढ़कर शर्मा जी न घबराये, न चौंके। इसकी अपेक्षा उन्होंने की थी।

पर कमली को अपना पत्र पढ़कर बेहद आश्चर्य हुआ। उसकी समझ में कुछ नहीं आया। ऐसा उसने क्या कर दिया है कि आरोप-पत्र रजिस्ट्री से उसे मिले।

पढ़ने के बाद रवि की ओर बढ़ा दिया।

रवि ने उसे पढ़ा, बाऊ का पत्र तो वह पढ़ ही चुका था। दोनों पत्रों का उद्देश्य एक था 'लोका समस्ता सुखिनो भवन्तु', 'सर्वे जना सुखिनो भवन्तु' से प्रार्थना समाप्त करने वाले अपने पड़ोसी को भी [ १२५ ]
सुखी नहीं देख पाते।

आस्तिक जनों की ओर से यह नोटिस भेजा गया था।

वकील के नोटिस में साफ वे ही आरोप लगाये गए थे। जो भास्तिक बुजुर्गों ने लगाए थे। नास्तिक को मठ की जमीन किराये पर उठाना तथा अनाचारी गैर धर्मावलंबियों को घर पर ठहराना।

कमली ने मंदिर में प्रवेश किया था जो आगम को अपवित्र करने वाली तथा आस्तिक जनों की भावनाओं से खिलवाड़ करने वाली सायास कोशिश थी। इसलिए कमली पर कानूनन् कार्यवाही करने की धमकी थी।

रवि ने कमली का पत्र बाऊ को पढ़ा दिया। पढ़ने के बाद दोनों ही पत्र शर्मा जी ने अपने पास रख लिए।

'तुम फिक्र मत करो बिटिया, मैं देख लूँगा।'

कमली के पत्र में मन्दिर को शुद्ध करने का मुआवजा दण्डस्वरूप उसे ही उठाने का आदेश दिया गया था। शर्मा जी समझ गए कि सीमावय्यर ने अपना आखिरी पासा फेंक दिया है। शर्मा जी को विश्वस्त सूत्रों से पता चल गया था। आगजनी वाली घटना में भी सीमावय्यर का ही हाथ था।

'मैं किसी वकील से मिल आऊँ।' रवि ते पूछा।

'नहीं, मैं फिर तुम्हें कहूँगा। वेणुकाका इसमें काफी जानकारी रखते हैं। उनसे पहले मिल लें।'

'ठीक है बाऊ।'

शर्मा जी वेणूकाका के धर चल दिये। उनके आगे बैलगाड़ी से सीमावय्यर जा रहे थे। उन्हें देखते ही सीमावय्यर ने इस तरह हाल चाल पूछा, जैसे इस बीच कुछ घटा ही नहीं।

शर्मा ने भी हँसते हुए प्रत्युत्तर दिया।

'आप बाहर थे, तब सुना आग लग गयी थी। समय ही खराब चल रहा है।' [ १२६ ]'............'

शर्मा जी को उनका इस तरह गाड़ी में चलते हुए सवाल करना और अपना उत्तर देते हुए चलना अच्छा नहीं लगा।

वे फिर मिलने की बात कहकर गाड़ी के आगे-आगे चलने लगे। एक बदमाश से बदमाश व्यक्ति भी किस तरह अपने को सीधा और नेक प्रदर्शित करना चाहता है। कई बार यह भी होता है कि बदमाश व्यक्ति अपने इस स्वांग में इतना दक्ष होता है, कि जो सचमुच नेक है वे भी झूठे पड़ने लगते हैं।

पता नहीं इस कमली का कैसा पूर्व जन्म का रिश्ता है, हिन्दू धर्म से। मन्दिर जाती है तो श्रद्धा पूर्वक। जबकि इसी संस्कृति में जन्में पने सीमावश्यर को ताश के पत्ते से फुर्सत नहीं मिलती। मन्दिर गये जाने कितने साल हो गए होंगे। पर जो श्रद्धा पूर्वक मन्दिर जाते हैं उन्हें नोटिस जरूर भिजवा देते हैं। इसी विरोधाभास पर ही शर्मा का मन क्षुब्ध होता है।

शर्मा जी जब पहुँचे, बेगुकाका कहीं जाने की तैयारी कर रहे थे।

'कहीं जा रहे हैं क्या! तो मैं फिर आता हूँ।'

'न, कोई जल्दी नहीं है डाकखाने तक जा रहा था। बाद में चला जाऊँगा।'

'हाथ में क्या है, कोई पत्र है क्या?'

शर्मा ने वह पत्र बढ़ा दिये।

'पढ़ लीजिए। मैं इसी के बारे में सलाह लेने आया था।'

'एक तो कमली के नाम है, शायद।'

'हाँ एक मेरे नाम है, एक उसके नाम।'

वेणुकाका ने पत्र पढ़े।

'तो बात यहाँ तक पहुँच गई? किसकी शरारत है यह सब फूस ढेर में आग लगाने पर भी छाती ठंडी नहीं हुई।' [ १२७ ]'अब ये तो आप जानते ही हैं। सीमावय्यर गुस्से में जाने क्या-क्या किये जा रहे हैं। गुस्सा तो मुझ पर है न, उस लड़की से कैसा विरोध?'

'तो अब क्या करने का इरादा है?'

'वस, वही तो सलाह लेने आया हूँ।'

'अच्छा किया जो आ गए। इसका कोई जवाब मत देना। इसे उठाकर कोने में फेंको।'

'पर यह तो वकील का नोटिस है, इसका जवाब तो देना होगः न।'

'पहले उन्हें कार्यवाही तो करने दो। फिर देखेंगे।'

'मैं इसका जवाब लिख देता हूँ कि मैंने धर्म के विरुद्ध कोई कार्य नहीं किया है और कमली भी लिख देगी कि वह पूरी श्रद्धा के साथ ही मन्दिर जाती है। यह ठीक नहीं रहेगा क्या?'

'यह तो टंटा मोल लेने के लिए भेजे गये नोटिस हैं। इनको इतनी सम्मान क्यों दिये जा रहे हो। तुम लोग जवाब दो या न दो कार्यवाही तो होनी ही है। तुम्हारे पत्र लिख देने भर से कुछ बदलना तो है नहीं पहले देखते हैं वे क्या कर रहे हैं, फिर करेंगे कुछ।'

'अब आप कह रहे हैं।' तो ठींक है।

'देखो यार, तुम साहस मत छोड़ो। इतने विद्वान हो, बस इन गीदड़ भभकियों में आ गये। यही तो कमी है तुममें। पहले तो आप रवि को यहाँ बुलवाने में हिचक रहे थे। तब मैंने ही आपको हिम्मत दिलाई थी न। अब भी मैं ही कह रहा हूँ, यहाँ तो अब हाल यह हो गया है कि जो डरपोक है पर नेक है, उसे डराओ, पर जो निडर बदमाश है, उससे डरो।'

'आप मेरे भीतर के सात्विक गुण को भय क्यों मान लेते हैं? मैं डरपोक नहीं हूँ। डरपोक होता तो इन दोनों को घर पर न ठहराना। मेरी बीबी ही मेरा विरोध कर रही है। डरपोक होता [ १२८ ]
तो नास्तिक को जमीन किराये पर नहीं देता। यह सही है अपने साहस का ढिंढोरा पीटता नहीं फिरता।'

वेणूकाका ने सिर उठाकर देखा।

'शाबाश, अब हुई न बाल। साहस के बिना ज्ञान का भला क्या मूल्य? वेद का गलत पाठ करने वाले की तुलना में सही दाढ़ी बनाने वाला नाई ही श्रेष्ठ है। भारती ने यही तो कहा है।'

शर्मा जी की बात सुनकर वेणुकाका को लगा, वे सचमुच उन्हें गलत समझ बैठे हैं। उनकी वेशभूषा या आचार व्यवहार भले ही पुरातन हो, पर वे मन से प्रगतिशील हैं।'

'अब इसका जबाब मत देना। शाम को रवि से कहना कमली को मन्दिर ले जाए।' सबकी बातें उन्होंने शर्मा जी के कान में कही।

'इससे क्या लाभ होगा?'

'क्यों नहीं होगा, इस रसीद ले लेना। इसे कल परसों पर भत टालना। आज ही निपटा लेना।

'ठीक है, तो चलूँ।' शर्मा उठ गये। वेणुंकाका ने शर्मा जी को उत्साह के साथ विदा कर दिया।

शाम शर्मा जी ने रवि को बुलाकर कहा, 'रवि आज कमली को मन्दिर लिया जाना वहाँ अर्द्ध मंडप के पास चंदे वाला बैठा होगा। पांच सौ रुपये कमली के हाथ से दिलवा देना और रसीद ले आना।'

'तो हुँडी में डलवा देंगे बाऊ। रसीद की क्या जरूरत?'

'नहीं रसीद चाहिए, कमली के नाम की। ले आना।'

रवि कमली को लेकर मन्दिर गया। हिन्दू स्त्री की तरह कमली हाथों में पूजा की सामग्री लेकर उसके साथ मन्दिर हो आयी।

X XX
 

एक स्त्री और पुरुष बिना किसी रिस्ते के साथ-साथ रहने लगें इसे शंकरमंगलम जैसा। भारतीय गाँव बहुत दिनों तक नहीं पचा सकता। जिस पर वह विदेशी युवती हो तो फिर अफवाहों की तो कोई सीमा