तुलसी चौरा/१५

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तुलसी चौरा  (1988) 
द्वारा ना॰ पार्थसारथी, अनुवादक डॉ॰ सुमित अय्यर

[ १४९ ]'तुम ही बताओ जिस विवाह के लिए लड़के की माँ राजी न हो, उसे बुलानें का क्या तुक?'

'आप को आना है, आपके आशीर्वाद के बिना कैसे कुछ हो सकता है।' 'मैं काहे आऊँगी। तुमने क्या समझ रखा है। मेरी कोई इज्जत नहीं है। इन्होंने इतना कुछ कर डाला पर मेरे कानों तक खबर नहीं होने दी। तिलक और मंडप का दिन भी सुना, तय कर लिया गया है। तुम किसे बना रही हो? मैं तो इस विवाह में आऊँगी ही नहीं। कोई किसी से ब्याह करे, मेरा क्या।'

काकी के इस क्रोध का दूसरा पक्ष भी बसंती को समझ में आ रहा था। रवि के प्रति उनका अगाध स्नेह, अपने एक बहुत प्रिय विषय के सन्दर्भ में काकी ने कितनी नफरत पाल ली थी। पर उस घृणा और क्रोध के पीछे छिपी उनकी अनुरक्ति बसन्ती ने बेहद कोशिश की, कि काकी का मन पिघल जाए किसी तरह। पर उसे सफलता नहीं मिली। आस पास के गाँव की लड़की से विवाह करता तो माता पिता, गाँव देश से उसका नाता बना रहता। पर कमली से ब्याह करके कहीं वह फ्रांस ही न बस जाए, यह आशंका ही काकी को हिलाए जा रही थी। बसन्ती को ऐसा ही कुछ लग रहा था। अंतिम कोशिश उसने फिर की। 'शादी चार दिनों की होगी। सारे अनुष्ठान होंगे।'

'कितनी बातों में तो तुम लोगों ने शान के विपरीत काम किया हैं। अब इसमें नेम अनुष्ठान क्या बचा है। क्यों, उनके यहाँ के रिवाज के अनुसार अगूठियाँ बदल लेते न।'

काकी के स्वर में कड़ वाहट थी।

अपने बड़े बेटे को एक विदेशी युवती अपने से अलग कर ले जाएगी। इसकी कड़वाहट काकी में थी। बसंती ने कितनी कोशिश की, पर कामाक्षी मन नहीं पिघला तो नहीं पिघला। विद पकड़ ली थी उन्होंने। स्वास्थ्य ठीक रहता तो सूर्योदय के पहले घाट जाकर नहा आती पर उन्हें किसके माध्यम से सारी बातों को पता चल रही थी। यह [ १५० ]
वसंती की समझ में नहीं आया। पार्वती ने ही बताया कि मीनाक्षी दादी सारी खबर रखती है और वही परोसती है।

पार्वती ने ही बताया कि मीनाक्षी दादी अम्मा को भड़काती रही, कि यदि घर की स्त्री जिद पकड़ ले तो पुरुष अकेला क्या कर लेगा? बसंती को लगा इस तरह की अज्ञानी ईष्या और जिद रखने वाली बूढ़ी औरतें ही गाँव की राजनीति खेलती हैं। शादियों को रुकवाना, परस्पर वैमनस्य पैदा करना, अफवाहें फैलाना, पीठ पीछे बुरा कहना, कान भरना, बूढ़ी औरतों के पास यही काम बच रहा है। कुछ जरूर ऐसी हैं जो इन बुराइयों से दूर रहती हैं। पर कितनी कम हैं वे संख्या में। वसंती ने शर्मा जी को आकर सूचना दी। पर रवि और कमली से कुछ नहीं कहा। उन्हें किसी तरह की घबराहट तक नहीं देना चाहती थी।

जहाँ तक वेणुकाका का प्रश्न था। काकी को इस जिद का उन पर कोई असर नहीं पड़ा। वे विवाह की तैयारियों में लगे थे। नादस्वरम तथा अन्य तैयारियाँ की जा रही थीं।

इन सबसे सीमावय्यर का क्रोध और भड़क उठा था। आग में घी पड़ने वाली एक घटना भी घट गयी थी, सीमावय्यर उसमें बुरी तरह फंस गए।

शंकरमंगलम के अंतोनी प्राथमिक पाठशाला की अध्यापिका मलरकोटि स्कूल से लौट रही थी कि सीमावय्यर ने अकेले में आकर हाथ खींच लिया। उनके एकाध नौकर भी बाग में थे। इसलिए उनकी हिम्मत और बढ़ गयी थी। अहमद अली की दी हुई विदेशी शराब भी पी रखी थी। सीमावय्यर के बाग में रात में चलने वाले पंपसेट के लिए एक सीमेंट की कोठरी बनी थी। उन के पीने पिलाने और रास लीला के लिए इसका खास उपयोग होता था। ये सारे कर्म वे घर में नहीं करते। बाग चूँकि गाँव से कुछ दूर पड़ता था, इसलिए सुविधा रहती थी। मलरकोडि पर उनकी आँखें कई दिनों से थीं। उस रात [ १५१ ]
उन्होंने फिर अकेले में छेड़ा तो वह चीखी चिल्लाई। पीछे ही इरैमुडिमणि के संगठन के कार्यकर्त्ता आ रहे थे। उन्होंने सीमावय्वर को रंगे हाथों पकड़ लिया और नारियल के पेड़ से बाँध दिया। इरैमुडिमणि को कहलवाया गया और वे पुलिस को खबर कर आए। सीमावय्यर के नौकर इन लोगों का सामना नहीं कर पाए और उन लोगों ने अहमद अली को खबर पहुँचाई। पैसे का सारा खेल खेल लिया गया, पुलिस समय पर नहीं पहुँची। पर सीमावय्यर को छुड़ाने के लिए अहमद अली ने किराये के गुण्डों की एक छोटी सी फौज ही भेज दी थी, अंधेरा घिरते ही उन लोगों ने सीमावय्यर को छुड़ाया था।

फिर वहाँ जो मार काट मची, उसमें इरैमुडिमणि और उनके कुछ साथियों को हँसिए के गहरे घाव लगे। इससे पहले कि पुलिस पहुँचे, गुंडे भाग लिए।

सीमावय्यर बच कर भागे ही नहीं बल्कि उन्होंने दो तीन साक्ष्य भी तैयार कर लिए जिन्होंने यह प्रमाणित कर दिया कि घटना के वक्त सीमावय्यर शिव मंदिर में थे।

पुलिस वालों ने इरैमुडिमणि और संगठन के कार्यकर्ताओं के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया कि वे उन लोगों ने सीमावव्यर के बाग में जवरन प्रवेश कर वहाँ उत्पात मचाया। इरैमुडिमणि के बायें कंधे पर गहरा घाव था। शंकरमंगलम के अस्पताल में भर्ती थे। अस्पताल पहुँ- चने में देर हो गयो काफी खून निकल गया था। खबर लगते ही शर्मा, रवि, कमली, घबराये हुए अस्पताल पहुँचे। इरैमुहिमणि का परिवार और वह उनके मित्र वहाँ जमा थे। खून दिया जाना था। कई लोग आगे आये पर किसी का खून उनके खून से नहीं मिल पाया।

डॉ॰ ने शर्मा को देखा।

'मेरा भी खून जाँच लीजिए।' शर्मा जी ने सहर्ष कहा। शर्मा जी का खून उसी ग्रुप का था। अगले दिन सुबह इरैमुडिमणि होश में आए। शर्मा जी को छेड़ते हुए बोले, 'हमारे संगठन के आदमी घबरा रहे [ १५२ ]
हैं, कि मैं ठीक होने के बाद आस्तिक बन जाऊँगा। सुना है खून तुमने दिया है।' पास ही में खड़े एक कार्यकर्ता ने कहा, 'एक बाँमन ने अपना खून बहाया था, दूसरे ने उसको खून देकर बचाया।' इरैमुडिमणि ने उसे धुरा। 'देखो! तुम बाहर रहो, मैं फिर बुलाऊँगा।'

शर्मा भी तुरन्त बोले, 'उन पर क्यों बिगड़ रहे हो। ठीक ही तो कहा है, उन्होंने।' पर व कार्यकर्त्ता जा चुका था। इरैमुडिमणि बोले, 'देख, सीमावय्यर ने कैसे बात पत्तट दी। हम पर उलटा आरोप लगा दिया कि उनके बाग में हम लोगों ने घुस कर उत्पात मचाया है। उस मरदुए ने तो साबित कर दिया कि वे उस समय शिव मंदिर में पूजा कर रहे थें। देखा, अपनें पर पड़ी तो भगवान को साक्षी बना डाला।'

'साक्षी जो भी हो। पर अन्याय करने वालों का विनाश निश्चित है।'

'पर कहाँ हुआ, विश्वेश्वर? देखो न, हम लोग पड़े हैं अस्पताल में। वहाँ तो चार पैसे वाले कानून पुलिस सबको खरीद लेते हैं।'

'ठीक कहते हो, आज ईश्वर पर विश्वास करने वालों की तुलना में सुविधा भोगी लोगों की संख्या अधिक है। मेहनत और ईमानदारी से कोई काम नहीं करना चाहता। नेक और ईमानदार बनने को अपेक्षा नेक और ईमानदार दिखने में लोग ज्यादा विश्वास करने लगे हैं। वेद पाठ करने वाले झूठ भी बोलने लगे हैं। सीमावय्यर अव ईश्वर से ज्यादा अहमद अली के रुपयों पर भरोसा करने लगे हैं।

'पर जहाँ तक मेरा प्रश्न है। जो दूसरों को धोखा नहीं देता, मेहनत और ईमानदारी से जीता है, छल-कपट से दूर रहता है, वही सच्चा आस्तिक है। जो दूसरों को धोखा देकर, छल-कपट से कमाता है। मेहनत नहीं करता है। ऐसे व्यक्ति को मैं नास्तिक ही मानूँगा।

'यह तो तुम्हारा कहना है न। लोगों की नजरों में तो सीमावय्यर आस्तिक है और मैं नास्तिक।

'ऐसा चाहे जो सोचे पर मैं तुम्हारे बारे में कतई नहीं सोच सकता।' [ १५३ ]'तुम नहीं सोचोगे यार, यह मैं जानता हूँ।'

दोनों देर तक भीगे हुए खड़े रहे थे। इरैमुडिमणि को दस दिनों तक अस्पताल में रहना पड़ा। शर्मा उनसे मिलने रोज आते। एक दिन अस्पताल से लौट रहे थे कि रास्ते में सीमावय्यर के मित्र पंडित जी मिले। शर्मा कतराकर निकलना चाहते थे पर उन्होंने शर्मा को जबरन रोक लिया और कुशल क्षेम पूछने लगे।

'कहाँ से आ रहे हैं।'

'मेरा एक खास दोस्त अस्पताल में पड़ा है उसी से मिलकर आ रहा हूँ।'

'कौन? वही परचून वाला न! साला नास्तिक है। ईश्वर के खिलाफ बोलता है, न उसी की सजा भुगत रहा है।'

शर्मा जलभुन गए। ईश्वर के कृत्यों को इस तरह तोड़ मरोड़ कर देखने की प्रवृत्ति कितनी ओछी है। ऐसा आस्तिक किसी नास्तिक से कम नहीं होता। ईश्वर निन्दा तो इसका एक प्रकार है। जब व्यक्ति सोचें कि हमारे दुश्मनों के घर ईश्वर गाज गिराए। हमारे खिलाफ बोलने वालों का सर्वनाश हो। यदि यह सही है, तो क्या ईश्वर को भी क्षुद्र राजनीतिज्ञों को जमात में हम नहीं ले आते? सच पर तिल- मिलाने वाले, पद के उन्माद में झूमने वाले अहंकारी राजनीतिज्ञ की तरह। शास्त्री जी ने वेंदाध्यान किया है।

उपनिषद् पढ़ रखे हैं, पर कैसी बात कह दी है। शर्मा जी को घृणा होने लगी। इनको तुलना में वेदों को पढ़कर उन्हें उनके सही अर्थों के साथ जोड़कर देखने वाले इरैमुडिमणि अधिक विवेकशील लगे।

शर्मा ने भीतर की खीझ दबाते हुए कहा, 'यदि हम आपकी बात ही मान लें, तो क्या इसका मतलब यह हुआ ईश्वर भी आम लोगों की तरह स्वार्थी है। अपने खिलाफ बोलने वालों को दंडित करता है; क्यों?'

'और नहीं तो क्या? भई, ईश्वर कब तक सहे।' [ १५४ ]शार्मा जी को शास्त्री जी के मन्दबुद्धि पर तरस आ गया। वे फिर वोले, 'ईश्वर तो स्वयं लोगों के लिये सरल शीलता का उदाहरण है। हम सहनशील व्यक्ति को देवता की उपाधि देते हैं। मेरे लिए तो ईश्वर क्षुद्र स्वार्थी कतई नहीं हो सकता।'

'आप यह क्या कह रहे हैं? उसके साथ मिल बैठकर आप भी उनकी तरह बातें करने लगे हैं।'

'नहीं, 'यह बात नहीं कई बार आस्तिक भी अपनी अज्ञता में ईश्वर का अपमान कर देते हैं। वह भी एक प्रकार से निंदा ही है आपने अब जो कहा है, वह भी कुछ ऐसा ही है।

हमारा द्वेष, हमारा अज्ञनाता, हमारे भीतर बदले की भावना सब कुछ इस ईश्वर पर आरोपित कर लेते हैं और कह देते हैं कि ईश्वर सर्वनाश करेगा, कितनी मूर्खता है, कभी सोचा है आपने। आपने तो वेद उपनिषद का पाठ किया है, क्या लाभ हुआ भला बताइये।

शर्मा जी नहीं चाहते थे, फिर भी उनके वाक्य में कड़वाहट घुल गयी। शास्त्री ने शर्मा की बातों का कोई उत्तर नहीं दिया और गुस्से में पैर पटकते हुए सीमावय्यर के ओसारे पर जा पहुँचे। वहाँ पंचायती लोगों की गोष्ठी जमी हुई थी। इनके पहुँचने के पहले भी वहाँ शर्मा विरोधी चर्चा ही चल रही थी। सीमावय्बर सबको मुफ्त में पान पेशकर रहे थे और इस शर्मा विरोधी अभियान को उत्साहित कर रहे थे।

शास्त्री ने आकर पूरी बात बतायी तो सीमावय्यर का उत्साह और बढ़ गया। मेरे बाग में पम्पलेट के मोटर को चुराने की योजना थी उस इरैमुडिमणि की। अच्छा हुआ बटाई वाले वक्त पर पहुँच गये और यह शर्मा उसकी तरफदारी कर रहा है। इसकी तो मति मारी गयी है। क्या करे बेचारे। उनके ऊपर मार भी तो कैसी पड़ी है। लड़का एक फ्रेंचन को घसीट लाया। अब उसका ब्याह करना पड़ रहा है। [ १५५ ]'सुना है, चार दिन का शास्त्र सम्मत विवाह होगा। और कैसा शास्त्र? सारा अनाचार कर डाला और शास्त्र का सहारा लिया जा रहा है।'

'यही नहीं, अस्पताल में पड़े उस नास्तिक को खून दिया है!'

'अरे इसके बाबा भी सरग से आ जाएँ तब भी वह नासपीटा नहीं बचेगा। अहमद अली की दुश्मनी मोल ले रखी है। मियां तो करोड़- पति है यह परचून वाला उसकी बराबरी करेगा?'

'पर मैंने तो सुना है कि उसकी दुकान चल निकली है। कहते हैं, दाम वाजिब है और चीजें भी साफ।'

'यह तो चालाकी है। कुछ दिन लोगों को आकर्षित करना है ना, पर इसकी असलियत तो आगे ही खुलेगी' सीमावय्यर ने बात काट दी। इरैमुडिमणि या शर्मा इन दोनों के बारे में लोगों के मन में थोड़ी सी भी जगह न बने इस संदर्भ में बेहद सतर्क थे। इरैमुडिमणि की दुकान की तारीफ उन्हें फूटी आँखें नहीं सूहा रही थी। शर्मा और इरैमुडिमणि को कोर्ट तक पीट कर मुकदमे का खर्चा स्वयं उठा लेने का आश्वासन―अहमद अली ने दिया था।

शर्मा जी ने उन्हें जमीन नहीं दी, यह अहमद अली की नाराजगी का कारण था। व्यावसायिक प्रतिद्वंद्विता ने इरैमुडिमणि के खिलाफ कर दिया था। लिहाजा शर्मा और इरैमुडिमणि को परेशान करने के लिये वे रुपये खर्च करने को तैयार थे।

कमली और रवि के विवाह की तैयारियाँ चल रही थीं तभी कोर्ट से कमली और शर्मा के नाम सम्मन जारी किये गये। कमली के मन्दिर प्रवेश से भूमिनाथपुरम और शंकरमंगलम के मन्दिरों की पवित्रता नष्ट हो गयी है, इसलिये पुनः शुद्धिकरण के लिये दस हजार रुपये का दावा किया गया था। उनके अनुसार कमली के मन्दिर प्रवेश से मन्दिर की पवित्रता भ्रष्ट हो गयी है। आस्तिक हिन्दुः अब वहाँ पूजन नहीं कर सकते। कुंभाभिषेक की तैयारियाँ किये जाने की मांग [ १५६ ]
दावेदारों ने की है।

शर्मा और कमली को तारीख भी दे दी गयी है। शर्मा ने वेणुकाका से ही सलाह की। काका शांत रहे।

'देखा, विवाह के एक सप्ताह पहले की तारीख जान बूझकर दी है। कोई बात नहीं। प्रैक्टिस नहीं रही, इसलिये जो पढ़ा भूल गया। पर इस मुकदमें में तुम दोनों का बकील मैं बनूँगा। देख लेना सबके मुँह पर कालिख पोत दूँगा।'

'पर आप क्यों परेशान होंगे? किसी और वकील पर छोड़ देता हूँ, आपको विवाह की तैयारियाँ भी तो करनी है।'

'कुछ नहीं, वह काम भी चलेगा। इस केस में कुछ तर्क हैं। उस पर पहले ही सोचकर रख लिया है, बस पूरे केस को हथेली पर रख- कर फूँक कर उड़ा दूँगा। तुम चिंता मत करना।'

'मेरी बेइज्जती करने के लिये इस बात को अखबारों में दे दिया है।'

कितने केस रोज निपटाये जाते हैं, पर उनकी तो खबर नहीं बनती।

'अरे नहीं यार। यहाँ मामला विदेशी का है वह उनके लिये लिखेंगे―विदेशी का मन्दिर प्रवेश―धर्म भ्रष्ट। ऐसे हथकण्डे अखबारों की बिक्री के लिये जरूरी हैं।

जिन लोगों ने मानहानि का दावा किया है, कुछ तो धर्माधिकारी हैं। हो सकता है, किं पुजारी भी डर के मारे खिलाफ गवाही दे डाले।

'तुम्हें याद है कि उस दिन पुजारी कौन था?'

'जब भी कमली गयी है रवि, बसंती या पारू ही साथ में रहे हैं। उनसे पूछ लेंगे तो पता चल ही जायेगा।'

'यह तुम तुरन्त पता कर लो फिर उन्हें बुलवाकर बातें कर लेते हैं। केस में यह बहुत जरूरी हैं हमारे लिये।' [ १५७ ]'ठीक है आज ही पूछकर बता दूँगा। कोई गवाह और भी चाहिये।'

'तुम्हारा संगठन बाला कार्यकर्ता मित्र दे सकेगा।'

'उनकी गवाही से क्या होगा। वह तो इन बातों को मानता ही नहीं।'

'वह तो दूसरी बात है। मैंने तो सुना है, कि उनके यहाँ की गोष्ठी में भी कमली ने पहले गणेश वन्दना से भाषण शुरू किया था। वह उनके सिद्धान्तों के खिलाफ था पर सभ्यता के नाते वे लोग चुप रहे।'

'हाँ―पर इसका केस से क्या सम्बन्ध है?'

'वह तो मुझे देखना है न। वह साथ देंगे।'

'जरूर देंगे। देशिकामणि सच जरूर बोलेगा किसी से नहीं डरता, वह!'

'बस यही काफी है।'

"सीमावय्यर के अन्याय की खामियाँ बह बेचारा भुगत रहा है। अभी लौटा है अस्पताल से।"

'क्या करें शर्मा! भभूत और ईश्वर भक्ति उन्हें अच्छा और नेक होने का प्रमाण पत्र जो दे देती है।'

'यदि निडर और सच्चे मन से कहूँ तो देशिकामणि ही सही मायने में आस्तिक है।' सीमावव्यर को घोर नास्तिक कहा जा सकता है।

'ढोंग करने वालों से बेहतर ही हैं, जो साफ और निष्कपट हैं। सीमावय्यर न तो शास्त्र जानते हैं, न पुराण, न रिवाज। बस ढोंग करते हैं। किसी की बुराई करो, तो उसके बारे में पूरी जानकारी भी होनी चाहिये। उस सिद्धान्त को देशिकामणि ने समझा है। इसलिए तो उसने सारे शास्त्र पढ़ डाले पर, पर उसे देखिए तो कितना विनम्र है।

'मेरी तो इच्छा है, सीमावय्यर को फँसाया जाय और उनसे क्रास सवाल किए जाएँ।'

'वे कहाँ आएँगे? दूसरों को भड़काकर चुप बैठना उनकी आदत [ १५८ ]
है। उन्हें तो दूसरों का नुकसान ही करना है। वही एक काम तो वे जानते हैं। उनकी भक्ति वक्ति तो महज ढोंग है।’

‘कमली के जाने से मंदिर अशुद्ध हो गया है न उनका और इससे पता नहीं चलता कि खुद कैसे हैं?’

‘वैसे इसमें कमली को फिजूल में घसीटा गया है। उनका गुस्सा मेरे और देशिकामणि के ऊपर है। मुझे तंग करना है, सड़क पर लाकर छोड़ना है। सीमावय्यर पहले मठ का काम देखते थे तो अच्छे पैसे बन जाते थे। पर मठ के मैंनेजर को लगा उनसे मठ की प्रतिष्ठा धूमिल पड़ जाएगी। इसलिए मुझे कार्य भार सौंप दिया, तब से और गुस्से में हैं। फिर उन्होंने कोशिश की कि मैं उनकी इच्छा के अनुसार चलूँ। खेत बटाई पर उठाने से लेकर, जमीन किराये पर देने तक। पर मैं नहीं माना। उस पर भी नाराज हैं।’

‘देखो शर्मा सीमावय्यर एक बार विटनेस बाक्स में चढ़ जाएँ तो यह सब एक्सपोज कर दिया जाएगा।’

‘उनका फँसना तो मुश्किल है वे तो पानी के साँप हैं सिर भर बाहर निकालते हैं, हाथ में पत्थर उठाया कि कि नहीं भाग कर छिप जाते हैं।’

‘क्या बढ़िया उदाहरण दिया है। ऐसे ओछे आदमी की तुलना तुम साधारण साँप से भी नहीं करना चाहते। साँप का अपमान जो होगा।’

साधारणतया साँप में खुदारी होती है उसे मारने दौड़ो तो फुंका- रता है, फन उठाता है। काटने भी दौड़ता है।

शर्मा जी ने जिस तरह सीमावय्यर का चित्रण किया, वेणुकाका खूब हँसे। फिर बोले―

‘मंदिर के लिये कमली ने जो चँदा दिया है उसकी रसीद मिल गयी। उसे संभालकर रखा है। क्या लिखा है उसमें याद है?’

‘आस्तिकों! यह आपका पुनीत कार्य है। आप खुशी से दान