तुलसी चौरा/१४

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तुलसी चौरा  (1988) 
द्वारा ना॰ पार्थसारथी, अनुवादक डॉ॰ सुमित अय्यर

[ १३९ ]‘मुझे तो लगता है, कि काम अपने से ही मानेगी। किसी के कहने पर मान जाए, मुझे नहीं लगता।’

रवि तार देकर लौट रहा था।

वेणुकाका ने रवि से पूछा’ ‘एक्सप्रेस दिया है, या सादा.......।

‘एक्सप्रेस ही दिया है, सुबह तक मिल जाएगा।’

‘शर्मा जी पंचांग साथ ही थामे थे, इसलिए मंडप, तिलक के लिए भी मुहूर्त निकालने का अनुरोध किया गया।’

शर्मा जी ने पंचांग पलटकर तिथि निश्चित की।

‘आज तो इतनी खुशी हो रही है कि बस खीर खिलाने का मन हो रहा है। यहीं खाना बनेगा?’

बेणुकाका ने बहुत आग्रह किया।

‘आज रहने दो। तिलक वाले दिन खा लेंगे। तुम्हारे यहाँ का खाना कहाँ भगा जा रहा है।’ शर्मा जी लौट आए।

लौटते में दोनों में कोई बातचीत नहीं हुई। फिर भी शर्मा जी वेणुकाका की तारीफ करते हुए चले आ रहे थे। बहुत अच्छे इन्सान हैं। मदद करना हो तो हमेशा हाजिर। मदद करने की भावना के साथ-साथ साहस्र का होना और वही दात है। लोग बड़ा मदद तो कर देंगे पर ऐसे कामों में जहाँ साहस की जरूरत होगी, पीछे हटेंगे। पर वेणुकाका में यह बात नहीं.....।

रवि जैसे उनकी बातों को मौन स्वीकार कर रहा था। जब तक तैयारियाँ पूरी न हों, बात को छिपाय रखने का आश्वासन एक दूसरे को दिया। कामाक्षी से बातें करने का जिम्मा बसन्ती पर छोड़ दिया गया। उस रात कमली से रवि ने इस बात का जिक्र किया।

अगले दिन सुबह को डाक से मठ के मैनेजर का एक पत्र आया। वकील के नोटिस की प्रतिलिपि शायद वहाँ भी भेजी गयी थी। कुछ गुमनाम पत्र भी वहाँ पहुँच गए थे। श्रीमक के मैनेजर ते उन पर ध्यान दो नहीं दिया पर हाँ यह सुझाव जरूर दिया था कि शर्मा जी [ १४० ]
रवि और उस फ्रेंच युवती के साथ आचार्य जी के दर्शन करने आएं। उनके पत्र से लगा जैसे बह दर्शन ही उनके लिए परीक्षा की वह बड़ी थी जिसके उत्तीर्ण होने या अनुत्तीर्ण होने पर उनकी भावी जिंदगी प्रभावित होगी। शर्मा बी समझ गए कि यह पत्र आचार्य जी की इच्छा पर ही लिखा गया होगा।

रवि को पन देते हुए बोले, 'उसे लेकर एक बार हो आओ आचार्य जी का आशिर्वाद मिल जायेगा।'

रवि मान गया। पर हौले से पूछ लिया, 'लोगों के पत्र पर ही मठवानों ने वहाँ आने को लिखा है। पता नहीं वहाँ क्या हो? वे बुला रहे हैं, आप भिजवा रहे हैं। हम लोग यही सोच कर जा रहे हैं, कि महाज्ञानी पूर्ण दृष्टि वाले पुण्यात्मा के दर्शन होंगे। इसमें कोई कठिनाई तो नहीं होगी।'

'कुछ नहीं होगा। हो आओ! उनका आशिर्वाद ले आओ।'

सोचने का या यात्रा की तैयारी का वक्त नहीं था। उसी दिन दोपहर वाली गाड़ी से निकल पड़े। अगले दिन सुबह साढ़े पाँच बजे ही वहाँ पहुँच गए।

श्रीमठ और पुरातन मन्दिरों के दर्शनार्थ आने वाले भक्त जनों और यात्रियों के लिए शहर में कुछ अच्छे लाँज और होटल बने हुए थे। उन्हीं में से एक जगह ठहर गए। नहा धो कर तैयार हो गये।

होटल मैनेजर ने बताया कि यह शहर से तीन चार किलो- मीटर दूर अमराई में आचार्य जो ठहरे हैं। चतुर्मास होने की वजह से वे मौन व्रत में हैं। केवल संकेतों में ही बातें करते हैं।

भीड़ के पहले जल्दी निकल जाएँ तो दर्शन आराम से हो सकते हैं। उसने स्वयं एक टैक्सी का प्रबन्ध कर लिया।

कमलो ने बंधेज की सूती साड़ी पहन रखी थी। माथे पर टीका और गीले बालों का जूड़ा बना लिया था। गोरा रंग, नीली आँखें और भूरे बाल न होते तो वह एक भारतीय स्त्री ही लगती। एकाध [ १४१ ]
डायरियाँ उसने हाथ में रख ली।

रवि ने जरी के किनारे की धोती, उत्तरीय पहन लिया था। फलों की दुकान पर रुक कर उसने फल और तुलसी की माला ले ली।

पूर्व दिशा लाल होनी लगी थी, कि दोनों निकल पड़े इतनी सुबह की यह यात्रा उन्हें बहुत पवित्र और निश्छल लगी। मन और देह शांत थे।

इतनी सुबह भी अमराई के बाहर चार पाँच टूरिस्ट बसें, दस बारह कारें, कुछ इक्के वाले खड़े थे। अमराई के बीचोंबीच तालाब के किनारे एक पर्णशाला बनी थी जिसमें वे ठहरे थे। अगरुगंध, कपूर और चंदन की मिली जुली महक वहाँ फैली हुई थी। कई पुरुष और स्त्रियाँ दर्शनार्थ खड़े थे।

रबि कमली के साथ श्रीमठ के संचालक के पास गया। उन्होंने उनका स्वागत किया और कुशल क्षेम पूछ लिया। सहसा कमली को देखकर बोले, 'आपको संस्कृत के शास्त्रों से और भारतीय संस्कृति के प्रति इतना लगाव है, यह सुनकर आचार्य जी को बहुत प्रसन्नता हुई।

कमलो और रवि को पहली बार एहसास हुआ कि उनके बारे में पहले ही चर्चा की जा चुकी है।

उन्होंने कमली को बताया कि कि वे चतुर्मास व्रत में हैं। संकेतों से ही बातें करेंगे। वकील के नोटिस के बारे में या उन गुम- नाम पत्रों के बारे में कोई बातचीत नहीं हुई।

दर्शनार्थियों की भीड़ में वे भी शामिल हो गये। एक यूरोपीय युवती को भारतीय परिधान में वहाँ आया देखकर बाकी लोगों की जिज्ञासा फैल गयी। कुछ ने रवि से पूछ लिया, कुछ लोगों ने कमली से पूछा। पर कमली ने तमिल में ही उत्तर दिया। कमली के आस-पास महिलाओं की भीड़ लग गयी। [ १४२ ]वहाँ के लोगों ने बताया कि आचार्य जी जाप कर रहे हैं। पर्ण- शाला लौटने पर दर्शन होंगे।

सुबह खिल आयी थी। पक्षियों की चहचहाहट फैल रही थी। श्री- मठ के संचालक उनके पास आए।

'आप लोग सीढ़ियों के पास जाएँ। आचार्य जी के पास जाकर बैठें। बातें वहीं हो जाएँगी। दोनों वहीं पहुँचे। अब वे सीढ़ियों पर ही बैठे थे। उन्हें देखकर लगा कि जैसे तालाब में खिले कई कमलों में से एक कमल सीढ़ियों पर आकर बैठ गया है। पूर्व में सूर्योदय हो रहा था। सीढ़ियों पर बैठा ज्ञान का सूर्य उसका स्वागत कर रहा था। उनके पैरों के पास फलों की थाल रखकर रवि और कमली ने साष्टांग प्रणाम किया।

उनका दायाँ हाथ आशीर्वाद की मुद्रा में उठ गया। रवि ने आद- तन यह सोचकर अपना परिचय देना चाहा कि शायद है पहचान न पाये हों।

शंकरमंगलम विश्वेश्वर शर्मा के……………

उन्होंने मुस्कराकर हाथ से संकेत किया और बैठने को कहा। कमली ने एक पृष्ठ खोल लिया और उनके चेहरे को ध्यान से देख ने लगी। उसी तरह प्रसन्न मुद्रा में उन्होंने उसे पढ़ने का संकेत किया।

कमली ने कहा, 'मेरा जो थोड़ा बहुत ज्ञान है, उसके आधार पर कनक धारा स्तोत्र 'सौन्दर्य लहरी' का फेंच में मैंने अनुवाद किया है। आप सुनेंगे तो कृपा होगी।' वे मुस्कराये। उन आँखों में ज्ञान और करुणा का अवाह सागर था। उसने पहले संस्कृत में पढ़ा और फिर फ्रेंच अनुवाद पढ़ा।

रवि उन दोनों के बीच पवित्र साक्षी की तरह बैठा हुआ था।

सीढ़ियों के ऊपर भक्तों की भीड़ लग गयी। एक यूरोपीय युवती द्वारा 'सौन्दर्य लहरी' को स्पष्ट उच्चारण, फिर उसका फ्रेंच अनुवाद सुनकर भीड़ ठगी सी खड़ी रह गयी। उनके लिए यह अभूतपूर्व [ १४३ ]
अनुभव था।

एकाध जगह फिर से पढ़ने का संकेत किया। वह उनके संकेत करने पर रोक लेना चाहती थी पर वे तो सुनते ही चले गये। समय का किसी को ध्यान नहीं रहा। सौन्दर्य लहरी और 'कनक धारा स्तोत्र' समाप्त करने पर उसके पृष्ठ बंद कर लिया। आचार्य जी ने संकेत से पूछा, 'कुछ और काम चल रहा है?' कमली संकेत समझ गयी, 'भजगोबिन्दम' का अनुवाद कर रही हूँ।' मुँह पर हथेली रखकर बात करने की उस विनम्रता पर सब मुग्ध हो रहे थे।

आचार्य जी ने संकेत किया, कि 'भजगोबिन्द' से भी एकाध अनु- बाद सुना दे। 'पुनरपि जनमें पुनरपि मरणम् पुनरपि जननी जठरे शयनम्' का फ्रेंच अनुवाद सुनाया।

आश्चर्य की बात यह थी कि उन्होंने संकेत से जो कुछ कहा, कमली को उसे समझने में कहीं गलती नहीं हुई।

महात्मा अपने विचारों को वगैर शब्द के ही दूसरों को समझा सकते हैं शब्द और कान इनका उपयोग तो अज्ञानियों के लिए हैं। महात्मा इन दोनों माध्यमों के बिना ही अपने विचारों का सम्प्रेषण कर देते हैं।

बहुत देर के बाद उनकी दृष्टि रवि पर गयी। अपने विनम्र भाव से अपने और कमली के विषय में कुछ सूचनाएँ दीं। फ्रांस में भारतीय भाषाओं के छात्रों के विषय में बताया। कमली की विशेषताओं का जिक्र किया।

फलों के थाल में से एक अनार, सेव और तुलसी की माला आचार्य ने उठायी। रवि के हाथ में सेव और कमली के हाथ में अनार रख दोनों को आशीर्वाद दिया। साष्टांग प्रणाम करके वे लोटने लगे थे कि कमली ने सहसा अपना फोटोग्राफ उनके सामने कर दिया। रवि चौंक गया। ऐसी कोई प्रथा यहाँ प्रचलित नहीं है। पता नहीं, आचार्य जी विगड़ जाएँ तो। पर उन्होंने मुस्कराते हुए कुंकुम और अक्षत को पृष्ठ [ १४४ ]
पर बिखेर दिया। फिर आने का संकेत भी किया।

रवि ने उपर आकर घड़ी देखी। पौने ग्यारह हो रहे थे। अमराई में अभी धूप नहीं पसरी थी। मैनेजर प्रसाद और प्रकाशित पुस्तकें ले आए।

बोले, 'आचार्य जी कलम उठाकर हस्ताक्षर कभी नहीं करते पर इनके ऊपर उनकी कृपा रही, इसलिए अक्षत और कुमकुम उस पर बिखेर दिया। इसके पहले कइयों ने इस तरह माँगे हैं। तब वे संकेत से उन्हें जाने को कह देते। पर आज पहली बार हँस कर अक्षत कुमकुम बिखेर दिया। आप सचमुच भाग्यशाली हैं।' वे लोग लौटने लगे तो बोले, 'जब सौन्दर्य लहरी कनकधारा स्तोत्र फ्रेंच में अनूदित कर छप जाये तो एक प्रति जरूर भिजवाएँ।'

रवि और कमली होटल में कॉफी पी रहे थें। तो मठ का चपरावी एक बड़ा लिफाफा उन्हें दे गया। लिफाफे पर बाऊ का नाम था।

XXX
 

घर लौटते हुए उनका मन सन्तुष्ट था। आचार्य जी ने कोई सवाल नहीं किया। कोई बात नहीं पूछी। उन्हें आशीर्वाद भिजवाया था। उनकी उदारता, उनकी करुणा का ध्यान आते ही, वे सिहर उठे। उसी दिन बसन्ती भी बम्बई से लौटी थी। आते ही पहला काम यही किया कि कमली को असबाब समेत घर ले गयी। चार दिनों वाले विवाह के बाद ही उसे इस घर में प्रवेश करना है, यह तय हुआ था। तब तक उसे बेणुकाका के घर ही रहना है। जब से रवि श्रीमठ से लौटा है अम्मा के व्यवहार में एक खास परिवर्तन देखा कि उसमें और बाऊ से बातचीत एकदम बन्द कर दी थी। वे लोग अपने से बातें करते भी तो जवाब न देकर मुँह घुमा कर चल देती।

'जब से तुम मठ गये हो यही हाल है। वेणुकाका और मेरी बात इसके कानों तक जाने कैसे पहुँच गयी।' [ १४५ ]
रवि को भी लगा, यही हुआ होगा। बसंती उससे बातें कर लें, तो उसके गुस्से का कारण पता चल जाये। उसी दिन शाम तय भी किया गया कि बसंती कामाक्षी से बात कर रे। श्री मठ के मैनेजर ने शर्मा जी को लिखा था कि आचार्य जी में किस तरह इन दोनों को स्नेह दिया। शर्मा को लगा, यह पत्र कामाक्षी को पढ़ा दिया जाए। खुद पढ़ें या रवि इसे पढ़कर सुनाएँ तो यह समझेगी, कि यह जान बूझकर पढ़ा गया होगा। पत्र को इसलिए पार्वती और कुमार के हाथ भिजवा दिया। वे जल्दी ही लौट आए।

'अम्मा ने तो पथ को छूने से भी मना कर दिया।'

शर्मा की हिम्मत नहीं पड़ी कि खुद जाकर दें। अंत में बसंती के हाथ उस पत्र को कामाक्षी तक पहुँचाना तय हुआ। रवि और कमली यहाँ नहीं थे। तन उसके कानों खबर लग गयी थी। चीस चिल्लाहट मचायी थी। जाने क्या-क्या कह डाला था। क्या-क्या पूछ डाला था। शर्मा यह बात रवि, कमली से छिपा गये। उनका मन दुखी हो जाएगा। कानाक्षी को रक्तचाप को बीमारी है। घर पर उसकी सलाह के बिना, उसकी स्वीकृति के बिना, की जाने वाली तमाम तैयारियों ने उसे भीतर तक हिला दिया था। वह शरीर और मन दोनों से अस्वस्थ थी। कुमार से कहकर नारियल के बांण वाली खाट भी डलवायी, पर नहीं मानी। कच्ची फर्श पर लेटती। न खाना, न पीना। एकदम दुबली हो गयी थी। उस शाम बसंती के आने के वक्त रवि या खुद वह वहाँ नहीं रहेंगे――यह उन्होंने तय कर लिया था। योजना के अनुसार वे घाट चले गये। रवि इरैमुडिमणि के पास चला गया। कुमार परीक्षा की तैयारी कर रहा था, पार्वती घर के काम कर रही थी।

बसंती जब भी बंबई से आती, छुहारे, किसमिश, काजू लाती। पूजन के लिये इन चीजों को अक्सर जरूरत होती।

बसंती शाम को आयी। [ १४६ ]'क्या हुआ काकी। इतनी दुबली कैसे हो गयी।'

'आओ बिटिया, कब आयी?'

'सुबह आयी थी आपकी चीजें भी याद से लायी हूँ।'

'शादी में आया हो न।'

बसंती उनके स्वर से भाप नहीं पायी कि वे उसे सहज ढंग से पूँछ रही हैं या व्यंग्य में।'

'आप क्या समझती हैं, काकी, यहाँ आने के लिये बहाना चाहिए।'

'मैं तो आती जाती रहती हूँ।'

थोड़ी देर मौन छा गया। कामाक्षी का मौन आगे नहीं खिंच पाया।

अनर्गल बातें शुरू कर दी―'जैसे पुरुष अग्नि की उपासना करते हैं और उसे सदा प्रज्वलित रखते हैं, इस परिवार की औरतें पीढ़ियों से तुलसी का पूजन करती आयी हैं। इस परिवार को प्राप्त सौभाग्य लक्ष्मी की कृपा और श्रीदृष्टि―इस शारीरिक और आतंरिक शुद्धि से की गयी तुलसी पूजा का ही परिणाम है। दस पीढ़ियों के हाथों चला आ रहा या दीया इस परिवार की सुख शांति और संस्कृति की रक्षा करता है। कहते हैं, कई पीढ़ियों पहले रानी मंगम्मा एक व्रत नियम वाली ब्राह्मणी की तलाश में दीपक लिये भटकती रही थी। अंत में वह दीया इसी परिवार की एक बहू को दे डाला था। तब से इस परिवार की स्त्रियों को पीढ़ी दर पीढ़ी इस दीप को प्रज्वलित करने की योग्यता मिलती है। आजतक मैं उस दीपक को तुलनी चौरा में प्रज्वलित करती हूँ।'

इतना कहकर अपने सिरहाने से एक पेटी खींची और रेशमी कपड़े में लिपटा छोटा सा दीपदान उसके समीप कर दिया।

'मैं इस घर की नयी बहू बनकर आयी तो मेरी सास ने मुझे दिया।'

इतना कहती हुई रुक गयी। [ १४७ ]'आप चिंता क्यों करती हैं? आप भी अपनी सास की तरह अपनी बड़ी बहू को इसको दे दीजिए।'

'कुमार की शादी होगी और उसकी पत्नी इस घर के योग्य हुई तो उसे दूँगी।'

'क्यों आपकी बड़ी बहू में क्या खराबी है?'

'चुप करो। उसके बारे में, रवि के बारे में मुझसे बातें मत करो। मेरी तो छात्री में आग लगी है।'

मैं आचार न नेम, पता नहीं किस देश से घसीट कर ले आया है और कहता है, इसी से विवाह होगा। और यह ब्राह्मण महाराज भी, उसकी हाँ में हो मिलाए जा रहे हैं। मुझे तो कुछ और अच्छा नहीं लग रहा। सर्वनाश होने वाला है। वह तो एक-दो महीने में उसे लेकर चला जाएगा। हमारे जमाने में बहू लक्ष्मी की तरह घर की रोशनी हुआ करती थी। पर ये? जाने कहाँ से आई है, और जाते हुए यहाँ से लड़के को भी ले जाएगी। इसे मैं लक्ष्मी कैसे कह दूँ।'

'काकी, तुम चाहे जो कहो, पर कमलो को आचार नेम से शून्य मत कहना। हमारे घरानों की लड़कियों की तुलना में कमली को तो बहुत कुछ आता है। हमारे यहाँ की लड़कियों को नहीं पाता जितना वह जानती हैं। ऐसा नहीं होता तो आचार्य जी स्वयं उसे बुलाकर आशीर्वाद नहीं देते। उसने फ्रेंच में सौन्दर्य लहरों और कनक धारा स्तोत्र का जो अनुवाद किया है, उसे सुनकर आचार्य जो प्रसन्न हो गए। यह कितनी बड़ी बात है। काकू को उन्होंने एक लंबा सा पत्र लिखा है। सुनेंगी आप।'

रहने दो। मैनेजर साहब को तो सोमावव्यर से पड़ती नहीं है। सीमावय्यर ने जो धाँधलेबाजी की, उसके बाद ही इन्हें उत्तरदायित्व किया गया। तब यही मैनेजर थे। अपने ब्राह्मण महाराज के दोस्त हैं न इसलिए लिख दिया होगा। अरे मैं तो कहूँ, कहीं खुद उन्हें न लिख दिया हो, कि भई ऐसा लिख देना! क्या पता किया भी हो।' [ १४८ ]बसंती की समझ में नहीं आया वह उन्हें कैसे समझाये। काकी को एक ही चिंता थी कि बेटा उस फ्रेंच औरत के साथ हमेशा के लिये उनसे दूर हो जाएगा। काकी को उसने सविस्तार बताया कि कैसे करोड़पति पिता की इकलौती बेटी रवि के भरोसे यहाँ आयी है। काको ने कोई विरोध नहीं किया। शांत सुनती रही, यह अच्छा हुआ।

'अरे, हमें सब पता है तुम्हारी, रवि, बाऊ, सबकी इसमें मिली भागत है। सबने मिलकर मुझे उल्लू बनाया। मुझे तो मालूम था कि तुम इस बारे में मुझसे बातें करोगी।'

'मै कुछ गलत कह रही है, काकी। जो सच है वही तो कह रही हूँ। कमली बहुत बच्छी लड़की है।'

'तो होगी। हमें क्या? लास सोने का मूला हो, तो कोई आँखें तो नहीं फोड़ लेगा।'

'आप पर तो, उसकी अपार श्रद्धा है काकी। आपको तो भार- तीय संस्कृति के प्रतिमूर्ति कहती है।'

'हो, कह रही होगी, कि मैं पुरातन पंथी हूँ, क्यों?

'हाय राम! ऐसा नहीं है काकी। वह तो मज़ाक तक नहीं करती! वह आपको देवी मानती है।'

'पर मुझे वह अच्छी नहीं लगती।'

'पर काकी, आप ऐसा. मत कहिए। आपको तो काका के साथ मंडप में आना है। कन्यादान लेना हैं। हम लोग तो लड़की वाले है।'

'ऐसी बेमतलब की शादी और तिस पर लड़की वाले और लड़के वाले, हुँह ।'

'काकी, आप तो बड़ी हैं, बुजुर्ग हैं इस मंगल बेला में अशुभ क्यों बोल रही हो आपको समझाने की या कुछ कहने की औकाव ही कहाँ।'