तुलसी चौरा/३

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तुलसी चौरा  (1988) 
द्वारा ना॰ पार्थसारथी, अनुवादक डॉ॰ सुमित अय्यर

[ २९ ]तुम्हारी माँ, पार्वती और कुमार मजे में हैं। शेष, जब तुम यहाँ आओगे।' सिर्फ इतना लिखकर छोड़ दिया और लिफाफे को मोड़कर बसंती को पकड़ा दिया।

'गुस्से में, कुछ ऐसा वैसा तो नहीं लिख डाला, काकू।'

बसंती ने हँसकर पूछा।

अब पहले तू ही इसे पढ़ ले, फिर अपने बाऊ को भी पढ़वा दे। ऐसा कोई रहस्य तो है नहीं। 'शर्मा जी हँस पड़े।

'मेरे पढ़ने की कोई जरूरत नहीं है, काकू। आपने ठीक ही कहा होगा।'

'कह तो रहा हूँ न। तू पढ़ ले…।'

बसंती ने लिफाफो को खोलकर पढ़ा और पिता को और बढ़ा दिया। पढ़कर बोले, 'यार जब हवाई डाक में इतना खर्च करते हो, तो चार लाइन की कंजूसी भी दिखा दी! इतनी दूर से बेटा आ रहा है, तो क्या इतना भी नहीं लिख सकते कि यहाँ तुम्हारी प्रतीक्षा हो रही है।'

शर्मा जी ने कोई उत्तर नहीं दिया। शर्मा जी चुप रहे।

'अब बाऊ, आप काकू को और परेशान क्यों करते हैं? इतना लिख दिया, वहीं बहुत है।'

वेणु काका और उनकी बेटी बसंती से जब शर्मा जी विदा लेने लगे, तो काका ने पूछ लिया, 'तो फिर यहाँ उन्हें ठहराने के सम्बन्ध में क्या निर्णय लिया है?'

'अपने ही गांव में, अपने ही मां-बाप, भाई-बहन के बीच कोई लौट रहा है। अगर वह अपने ही घर नहीं ठहर सकता तो फिर जहाँ जी में आये ठहर ले। ऐसी सुविधाएँ तो पी. डब्ल्यू. डी. के बंगले में भी हैं, फारेस्ट रेस्ट हाउस में भी हैं…।'

वेणु काका तो उन्हें देखते ही रह गए। भीतर कुछ चुभा जरूर पर इस खीझ में बेटे के लिए प्यार साफ नजर आ रहा था। अपने [ ३० ]
बेटे को अपने पास नहीं ठहरा पाने की तकलीफ साफ पकड़ में आ रही थी।

शर्मा जी लौट गए।

'बसंती, यह क्या कह गए?'

'गलत क्या कह गये, बाऊ? बेटे का मोह भी उनसे नहीं छूट रहा, दूसरी ओर अपने नेम अनुष्ठानों को भी चिंता उन्हें है। बस, दोनों ओर से पिसे जा रहे हैं, बेचारे।'

'अच्छा, छोड़ो। पहले इसे पोस्ट कर आओ। यही गनीमत है, कि चार पंक्तियाँ लिख दी।'

बसंती ने लिफाफे पर पता लिखा और खुद डाकखाने के लिए निकली। आधा रास्ता ही पार किया होगा कि सामने से पार्वती को अपनी ओर भागकर आती हुई देख रुक गयीं।

पार्वती हांफती हुई उसके पास रुक गयी।

'दीदी, बाऊ जी ने कहलाया है, कि यह लिफाफा आज नहीं डाले।'

'क्यों री? क्या हो गया है, तेरे बाऊ जी को?'

'हमें तो कुछ पता नहीं। बस यही कहलाया है।'

बसंती को लगा, पारू को आसानी से वश में किया जा सकता है।

'पारू देख, तू चाहती हैं न कि तेरे भैय्या यहाँ आएँ।'

'हाँ' दीदी। भैय्या को देखे तीन साल हो गए। माँ और कुमार भी उन्हें देखना चाहते हैं।'

तो फिर एक काम करो। बाऊ जी से जाकर कह दो, कि तुम्हारे पहुँचने के पहले ही मैंने यह लिफाफा पेटी में डाल दिया था। रवि को बुलवाने के लिए अभी-अभी तेरे बाऊ जी ने लिखा था। अब जाने क्यों मना कर रहे हैं। देख, मेरी तो समझ में नहीं आता तेरे बाऊ क्या करेंगे? हो सकता है, कि इस पत्र को फाड़ दें, और [ ३१ ]
फिर दूसरा पत्र डालें कि बेटा, अब मत आओ।'

'नहीं, दीदी! आप इसे पोस्ट कर दीजिए। मैं बाऊ जी से कह दूँगी।

बसंती दी ने मेरे पहुँचने के पहले पोस्ट कर दिया। दोनों अपने अपने घर लौट गयीं।

पार्वती घर लौटी तो पं. विश्वेश्वर शार्मा भूमिनाथपुरम के लिए निकल रहे थे।

अम्मा संझवाती आले पर रख रही थी। चौखट पर, ओसारे के बाहर, छोटी सी रंगोली बना दी थी। इस उम्र में भी माँ, कितनी सुन्दर अल्पना बनाती हैं? हाथ तक नहीं काँपते। पार्वती उनकी बनाई अल्पना देखकर अक्सर सोचती। पर उसके हाथ इतने सधे क्यों नहीं हैं। अम्मा की तो एक भी लकीर टेढ़ी नहीं पड़ती। कभी कभी तो अम्मा के हाथ की इस सफाई से उसे ईर्ष्या भी होने लगती है। एक बार उसने टीन के बने मोल्ड खरीदने चाहे तो अम्मा ने साफ मना कर दिया।

'हमारे जमाने में यह सब कहाँ चलता था, कन्या लड़कियों के मन और हाथों में लक्ष्मी और सरस्वती का वास होना चाहिए। श्रद्धा और निष्ठा हो तो सारे काम सधे हुए ही होते हैं। हमारे जमाने में अगर अल्पना के लिए बने बनाए मोल्ड की बात कोई करता भी तो लोग मजाक बनाते। कोई जरूरत नहीं। बस, धीरे-धीरे कोशिश करो। अपने आप हाथ सधेगा।'

शंकरमंगलम का समूचा अग्रहारम भी कोई छान डाले पर कामाक्षी की तरह सुघड़ गृहणी कहीं नहीं मिलेगी। 'गृह लक्ष्मी' शब्द को साक्षात् प्रतिमूर्ति हैं, वे! पर वे ऊँचा सुनती हैं, इसलिए शर्मा जी उन्हें अक्सर डाँटते, फटकारते पर इस डाँट फटकार के पीछे दुत्कार या तिरस्कार की भावना कतई नहीं होती! बस अपना

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अधिकार और आधिपत्य जमाना चाहते हैं। कामाक्षी भी इसे

समझती थी! जहाँ प्रेम होता है, वहाँ गालियाँ अर्थहीन हो जाती हैं। प्रेम और स्नेह के प्रवाह में जब शब्द डूब जाते हैं। तो उनके अर्थ भला कहाँ उतरायेंगे?

शर्मा जी का गुस्सा हो या उनकी चीख। कामाक्षी उसे अपने साथ किया जाने वाला सार्थक संवाद ही मानती। वैसे कठोर शब्द वे कामाक्षी के अतिरिक्त किसी के लिए नहीं कहते, यह वह अच्छी तरह जानती है। कामाक्षी उनके इस अधिकार क्षेत्र को लेकर मन ही मन खूब प्रसन्न होती है। दरअसल यह आम हिन्दुस्तानी औरतों का-सा संतोष है, जो कामाक्षी में भी है। पति के आधिपत्य में जीने को महान समझने वाली पारंपरिक नारी! उस आधिपत्य से मुक्त होने के लिए संघर्षरत शहरी नारी वो उनकी कल्पना से भी परे है। उलके लिए उनका सुख दुख, मान सम्मान, स्वतन्त्रता सब कुछ उस चौखट के भीतर ही है। कन्या के रूप में देहरी लांधकर एक बार भीतर जो आती है, वहीं माँ, नानी, दादी बनकर रह जाती है। इससे बाहर की किसी भी आजादी की न तो वे कल्पना करती हैं, न ही इच्छा।

क्यों री कामू? बेटा परदेश में पिछले तीन साल से है। मेरी मानो, यहाँ बुलवा लो, और ब्याह कर भिजवा दो। मीनाक्षी दादी ओसारे पर आकर बैठ गयी। काम से चूँकि यह बात ऊँचे स्वर में कही गयी थी। आसपास के चार पांच घरों तक बदस्तूर पहुँच गयी।

संझवाती जलाकर कामाक्षी श्लोक गुनगुना रही थी। मुस्कराते हुए संकेल से उन्हें रोका। दादी पारू की ओर मुड़ी। 'कुमार कालेज से नहीं लौटा था हमने कस्बे से एक सामान का दाम पुछवाया था।'

'अभी नहीं लौटा दादी। लौटने में सात बज जाते हैं।'

इतने में कामाक्षी श्लोक समाप्त कर वहीं आकर बैठ गयी। [ ३३ ]
दादी ने अपना सवाल दाग दिया।

'तेरा बेटा इस बार आयेगा या नहीं?'

'हाँ लिखा तो है। इन्होंने भी आने को लिख दिया है। वेणु काका की बनंती, पारू को बता रही थी में, ये कहाँ बताते हैं हमें?'

'तो वेणुगोपाल की बिटिया से तुम्हें खबर लगी, क्यों?'

'हाँ हाँ! और कौन है, जो हमें आकर बताए। इनसे तो कुछ पूछ लो, बस सर्र से गुस्सा चढ़ जाता है।'

मीनाक्षी दादी और कामाक्षी ओसारे पर बैठी बतिया रही थी। पारू सीढ़ियों के पास बैठी थी।

पश्चिम की ओर से एक मोटा और नाटा आदमी चला आ रहा था। चार हाथ की धोती, काले रंग की कमीज, कंधे पर अंगोछा और बड़ी बड़ी मूँछों वाला वह व्यक्ति घर के सामने आ खड़ा हुआ। पार्वती धीमे से उठ गयी।

'बिटिया! बाऊ जी घर पर हैं?'

'न' भूमिनाथपुरम गये हैं। लौटने में देर लगेगी।'

'तो ठीक है। वे लौटें तो बोल देना इरेमुडिमणि आये थे। कल सुबह फिर आ जाऊँगा।'

वह व्यक्ति लौट गया। कामाक्षी ने आवाज सुनकर बाहर झाँका।

बाऊ जी से मिलने आये थे। कल सुबह फिर आएँगे' पार्वती बोली।

'कौन था री! देशिकामणि नाडार की आवाज लग रही थी।' मीनाक्षी दादी ने पूछा।'

'हाँ, दादी, वे ही थे। इनके पास काम से आए थे।'

'तो वही था। उसको विश्वेश्वर से कौन सा काम पड़ गया?'

'हमें तो नहीं मालूम। कभी वह आते हैं, कभी वे उससे मिलने चले जाते हैं।' [ ३४ ]'येल्लो। यह कैसा आश्चर्य है।'

'इसमें आश्चर्य की कौन सी बात है?'

मीनाक्षी दादी ने इस बात का सीधा उत्तर नहीं दिया और दैव-शिखामणि नाडार के बारे में विस्तार से बताने लगीं।

कामाक्षी ने पूरी बात सुनकर कहा, 'दादी आप तो, जाने क्या क्या कह रही हैं। यह तो उनकी बहुत तारीफ करते हैं।

इतने में एक बीस वर्षीय दुबला पतला युवक भीतर आया। पारू ने आवाज दी, 'दादी, कुमार लौट आया।'

दादी को देखते ही कुमार को जैसे काम याद आ गया और बोला, 'दादी' आपने जितना बड़ा पतीला बताया था न, उतना बड़ा तो अब नहीं मिलता। दुकानदार कह रहा था, यह तो स्टील के बर्तनों का जमाना है। यहाँ पीतल या फूल के बर्तनों को कौन पूछता है?

'वह मरा लाख कह ले! तू पूछ के देख ले। 'अपनी अम्मा से। फूल के पतीले मैं पकी दाल के क्या कहने? उसका स्वाद कहीं स्टील के बर्तन में मिलता है?'

'अब मिले न मिले। उसने जो कहा, मैंने आपको बता दिया।'

'ठीक है, बैठ। पर कालेज तो चार बजे छूट जाता है, तुझे आते आते इतनी देर क्यों हो जाती है? पुदुनगर से शंकरमंगलम गाड़ी को आने में तीन घंटे लगते हैं क्या?

'वह तो बीस किलोमीटर की दूरी ही है दादी। पर बस बीस मील की दूरी में छोटे बड़े मिलाकर कुल उनतालीस गांव हैं। चार गांवों के स्टेशन हैं। कानूनन गाड़ी को उनमें ही रुकना है। पर बाकी लड़के इधर-उधर चेन खींच देते हैं। सुबह भी यही होता है, शाम भी।

कुमार के पीछे पीछे पार्वती भी चली गयी।

'बाऊ जी कहाँ हैं पारू?'

बाऊ भूमिनाथपुरम गए हैं। अच्छा छोड़ो, पता है, भैय्या आ रहे [ ३५ ]
हैं। बाऊ ने उन्हें लिखा है।'

'न कब आ रहे हैं?' वह चहका

'पता नहीं। पर रवि भैय्या आ रहे हैं, यह तय है।

पार्वती ने स्टोव जलाकर काँफी बनाने के लिए दूध गरम किया।

चौके में कॉफी या चाय नहीं बन सकती।

चाय कॉफी पीने वाले तीन ही प्राणी हैं। शर्मा जी, पारू और कुमार। इसलिए बैठक में ही एक ऊँचा चबूतरा बना दिया गया था। स्टोव, मिट्टी का तेल चौके में वजित था। चौके में तो पुरानी परम्परा का चूल्हा ही था। कामाक्षी चौके को खूब साफ रखा करती थी। मंदिर के नियमों की तरह उसके चौके के भी अपने नियम थे। लोगों को भी उन्हें नियम अनुष्ठानों के अनुसार चलना पड़ता था।

शर्मा जी भी कई दिनों तक चाय कॉफी से परहेज करते रहे। इधर पिछले कुछ ही सालों से उन्होंने चाय कॉफी पी लेनी शुरू की है। पर उनके लिए भी चौके के नियमों में कोई फेर बदल नहीं किया गया। उनको भी बैठक के चबूतरे तक ही सीमित रखा।

रवि पैरिम जाने के पहले मद्रास में था। छुट्टियों में घर आता तो हँस कर कहता, 'अम्मा, तुम यह जो अल्ल पुबह से चालु हो जाती हो न, गोपूजन फिर तुजसी पूजा, दीप पूजा... पूरे घर को मंदिर बना डालती हो। अब हम लोगों को रहने के लिए कोई दूसरी जगह ढूँढ़नी होगी।'

हालाँकि माँ की लगातार को रोकटोक से खीझ कर वह यूँ कहा करता था, पर मन ही मन माँ के नियम अनुष्ठान की तारीफ किया करता। माँ की सत्यनिष्ठा और सिद्धांतवादिता से वे लोग हमेशा प्रभावित रहे। देखा जाए, तो शर्मा जी की परम्परावादिता और कट्टरपन भी कामाक्षी की ही प्रेरणा का परिणाम है। वह उन्हें छेड़ती, बस, कॉफी तक ही रहिएगा। एक-एक कर बुरी आदतें डालते जायेंगे तो...!' [ ३६ ]अल्ल सुबह स्नानादि से निपट कर भीगे बालों को खोले, माथे पर सिंदूर का टोका लगाए, बेला, कपूर, तुलसी, दशाँश की महक फैलाती माँ रवि को साक्षात् देवी स्वरूपा लगती।

माँ के तमाम नियम अनुष्ठानों से लाख असुविधायें भले ही होती हों, पर उसे ही नहीं घर के बाकी सदस्यों को भी उनके नियम मान्य रहे। यह माँ के दिए संस्कारों का प्रभाव है, यह बह खूब जानता था।

इसी अगस्त्य नदी के तट पर स्थित शंकरमंगलम से कुछ ही मील दूर स्थित ब्रह्मपुरम के एक वैदिक ब्राह्मण के परिवार की पुत्री पिरू कैसे संस्कार लेकर आती? माँ का संस्कृत और शास्त्र, ज्ञान बाऊ जी की तरह गहन भले ही न हो पर उन्हें अच्छा ज्ञान था, इससे इन्कार नहीं किया जा सकता। अपने छात्र जीवन में माँ के इस पूजा पाठ से दैनिक जीवन में होने वाली असुविधाओं को रवि न एक खूबसूरत नाम दे रखा था―'पवित्र असुविधाएँ है!' पर पूरा घर इस असुविधाओं के साथ जीता था। मजे की बात यह कि उनसे अलग भी नहीं होना चाहता था।

रवि का पत्र कामाक्षी के भय से ही शर्मा जी ने छिपा रखा था। रवि के इस प्रेम प्रसंग की बात उनके अतिरिक्त दे दो ही लोग जानते थे, जिनसे उन्होंने चर्चा की थी।

रवि के फ्रेंच युवती सहित भारत आने की बात के किसी को फिल- हाल बताना नहीं चाहते थे। इसमें कई दिक्कतें थी। वेणु काका ने रवि और उसको प्रेमिका को अपने घर ठहराने की पहल की थी, पर उनके होते हुए उनका बेटा सिर्फ इस वजह से किसी गैर के घर रहे कि उसकी प्रेमिका विदेशी है―उन्हें यह बात नागवार लगी।

उन्होंने इस मसले पर और अधिक व्यावहारिक होकर सोचना चाहा। बेटे पर जान देने वाली वह युवती क्या सोचेगी उसके बारे में? बेटा भी उसे कैसे समझायेगा कि किसी पराये घर में उन दोनों [ ३७ ]
को क्यों ठहराया गया है। मान लो वह पलट कर एक सवाल कर दे कि क्या इस देश में प्रेम करना पाप है, तो? अगर वह घर की असुविधाओं की बात कहे और वह लड़की इन असुविधाओं के साथ भी यहाँ रहने को तैयार हो जाये तब? उन्हें तकलीफ हुई कि वर्षों बाद घर लौटते बेटे के स्वागत में इतनी दिक्कतें आ रही हैं। इन्हें लगा, अगर उनका बेटा, एक माह बाद आता तो उन्हें इस मुद्दे पर सोचने को पर्याप्त वक्त मिल जाता। यही वजह थी पार्वती को भिजवा कर उन्होंने पत्र को भेजने से रोका था।

भूमिनाथपुरम जाते और वहाँ से लौटते में भी वे लगातार रवि के पत्र के विषय में सोचते जा रहे थे। वे लौटे, तो पार्वतो सो चुकी थी। सुबह पूजा पाठ समाप्त कर वे काँफी पी रहे थे कि पार्वती ने कहा, 'बाऊ मेरे पहुँचने के पहले ही बसंती दी ने पत्र भिजवा दिया था। और हाँ जब आप भूमिनाथपुरम गये थे तब इर्रमणिमुडि आपसे मिलने आये थे। सुबह फिर आने को कह गए हैं।

'इरैमणिमुडि नहीं री, इरैमुडिमणि कहो।'

'इरैमणिमुडि'

'फिर गलत कहा? देवशिखामणि का तमिल पर्याय है, यह नाम दैव' यानी इरै, शिखा यानि कि मुडि मणि-यानी मणि।'

'हटो बाऊ, हमसे नहीं होगा'

वे हँसते हुए बाहर आए। इरैमुडिमणि ठीक उसी वक्त पहुँच गए।

'नमस्कार, विश्वेश्वर जी।'

'कौन? दैवशिखामणि? आओ ...।'

'कल आया था, बिटिया ने बताया था कि तुम भूमिनाथपुरम गए हो।'

काले बालों की शिखा माथे पर भभूत, धोती, उत्तरीय और गले में रुद्राक्ष पहने वैदिक पंडित के साथ लंबी घनी मूंछों और [ ३८ ]
काली कमीज वाले परम नास्तिक को बैंठे और बतियाते देखकर लोगबाग विस्मित होकर क्षण भर के लिए ठिठक जाते।

पंडिल विश्वेश्वर शर्मा और इरँमुडिमणि सालों पहले शंकर- मंगलम के माध्यमिक विद्यालय में सहपाठी रहे थे। जीवन की दिशाएँ, उनके मूल्य एक दूसरे के विरोधाभासी भले ही रहे हों, पर मैत्री उसी तरह बरकरार रही। तु-तड़ाक में ही बातें होतीं। पर दूसरों के साथ चर्चा करते तो एक दूसरे का उल्लेख आदर के साथ करते। वे अपने- अपने मूल्यों पर टिके रहते हुए भी दोस्ती को बखूबी निभा रहे थे, इस बात का उन्हें गर्व था। इरैमुडिमणि इतने सबेरे, उनके पास किस काम से आया होगा! शर्मा जी सोचने लगे। वह स्वयं बतलायेगा। इतना अधीर होना भी शोभा नहीं देता। वे परिवार का कुशल- क्षेम पूछने लगे। बात रवि पर आ कर टिक गयी।

‘बेटे से कोई पत्र आया है?’

‘हाँ, आया है। आने ही वाला है।’

‘कब आ रहा है?’

‘तारीख तो नहीं पता, हाँ जल्दी आयेगा। हमने तो लिख दिया है।’

शर्मा जी को लगा, इस परम प्रिय मित्र से खुलकर सब कुछ कह डालें और उससे परामर्श लें। फिर भी वे पहले उसके आने की वजह से वाकिफ हो जाना चाहते थे।

इरैमुडिमणि जल्दी ही असली मुद्दे पर आ गए।

‘उत्तरी मोहल्ले के छोर पर जो खाली जमीन पड़ी है, उसमें बड़का जमाई,....

अरे वही गुरु स्वामी―दुकान उठाना चाहता है। पूछा तो पता लगा, जमीन मठ की हैं। इसलिए तुम्हारे पास चला आया। सही किराये पर जमीन मिल जाये तो अच्छा रहेगा।

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