तुलसी चौरा/४

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तुलसी चौरा  (1988) 
द्वारा ना॰ पार्थसारथी, अनुवादक डॉ॰ सुमित अय्यर

[ ३९ ]'इसके लिए तो श्री मठाधीश को एक पत्र डालना होगा। उनसे पूछकर ही कुछ कर पाऊँगा।'

'अब जो भी लिखना है जल्दी लिख डालो।'

'ठीक है याद से आज ही लिख दूँगा।'

'तो फिर चलूँ।'

'ठहरो देशिकामणि। तुमसे एक सलाह लेनी है।'

इरैमुडिमणि फिर ओसारे पर बैठ गए। धीमे स्वर में शर्मा जी ने रवि के पत्र और अपने उत्तर के विषय में सूचना दी।

'तुम तो मेरे जिगरी दोस्त हो तुम ही बताओ मुझे क्या करना होगा?'

'तो उसने कुछ गलत तो नहीं किया। आज्ञवल्क्ष्य में पता है, क्या लिखा है? विवाह की आयु को प्राप्त युवक का विवाह यदि उसके माता-पिता उचित काल में नहीं करते, तो उसे अपनी पत्नी स्वयं चुनने का पूरा अधिकार है।'

'देख यार! मैं तुमसे अधिकार या न्याय की बात नहीं पूछ रहा! मैं तो उसके व्यावहारिक पक्ष के विषय में जानना चाहता हूँ।'

'संभव या असंभव के बीच त्रिशंकु की तरह झूलते रहने से बेहतर है कि संभव बना लिया जाए। जहाँ तक मेरा प्रश्न है, मैं इस तरह विवाह का स्वागत करता हूँ।'

कुछ देर बातें करने के बाद इरैमुडिमणि लौट गए।

इरंमुडिमणि ने एक तार्किक बुद्धिजीवी के रूप में अपनी बात रख दी थी। याज्ञवल्क्य का उद्धरण देकर अपनी बात की पुष्टि भी कर दी। शर्मा जी को कोई आश्चर्य नहीं हुआ। इसकी वजह भी थी।

इरैमुडिमणि एक आश्चर्यजनक व्यक्ति थे। एक बार हुआ यह था कि उन्होंने किसी पुराण कथा का तार्किक विश्लेषण करते हुए उसका संदर्भ गलत दे दिया था। विरोधी पक्ष ने जमकर खिंचाई की [ ४० ]
थी। किसी भी तथ्य के अधूरे ज्ञान के आधार पर तर्क नहीं किया जा सकता। बस तभी से वे जुट गए थे। लगन से संस्कृत और तमिल के पुराण पढ़ डाले, नीति शतक और धार्मिक ग्रन्थों का गंभीर अध्ययन प्रारम्भ कर दिया। उनकी इस लगन और ईमानदारी की कइयों ने तारीफ की। किसी भी बात का खन्डन करने के पहले जरूरी है कि उसके बारे में पूरी तरह आश्वस्त हो लिया जाय। यह उनकी निष्ठा का तकाजा था। नास्तिकवाद और बुद्धिवाद के प्रति लोगों में विश्वास भी, इसी कारण जगा। पर शंकरमंगलम और उसके आस पास के गाँव वालों को जब भी कोई पौराणिक, ऐतिहासिक या धार्मिक शंका उठती वे या तो शर्मा जी के पास आते या परम नास्तिक इरैमुडिमणि के पास पहुँचते। शर्मा जी देर तक याज्ञवल्क्य के उद्धरण पर विचार करते रहे। फिर भीतर से कागज कलम उठा लाए। खाली जमीन के संदर्भ में श्री मठ को एक पत्र लिखा। कुमार के हाथों उसे भिजवा भी दिया, ताकि जल्दी पहुँच सके।

पर मन था कि बार बार रवि और उस फ्रेंच युवती के बारे में सोच रहा था।

'धरमशाले से आपके मकान में प्रायवेसी कहीं नहीं हैं। कहाँ ठहरायेंगे उन्हें?'

वेणु काका का प्रश्न बार-बार जेहन में उभर रहा था। उनके घर ठहराना उचित नहीं होगा।

गाँव वाले तो यूं ही बात का बतंगड़ बनाते हैं, यदि ऐसा किया तो अच्छी खासी पंचायत हो जाएगी। लोगबाग ताने कसेंगे कि घर वालों के साथ रवि की पटरी नहीं बैठी, इसलिए वेणु काका के घर ठहर गया।

शर्मा जी का ध्यान भंग हुआ। पार्वती स्कूल जाते हुए उनसे विदा लेने बाहर आयी मन ने जैसे कोई निर्णय लिया और उठकर भीतर चले गये। बैठक और ऊपरी मंजिल को ध्यान से देखने लगे। [ ४१ ]
मन ही मन बैठक की लम्बाई चौड़ाई आंकने लगे।

उनकी पत्नी कामाक्षी चौके में थी। रवि को पूरा अधिकार है कि वह सटे स्नान घर वाला कमरा बनवा ले। पिछले कुछ वर्षों में प्रतिमाह वह जो रुपये भेजता रहा है, वह बैंक में यूँ ही पड़ा है। ब्याज समेत अब रकम खासी मोटी हो गयी थी। फिर भी उसने अपने पत्र में किसी सुविधा की माँग नहीं की थी। एक बारगी संदेह भी हुआ, कहीं ऐसा तो नहीं कि साहबजावे का इरादा स्वयं वेणु काका के यहाँ ठहरने का हो। खैर, कुछ भी हो। अब उसका आना टाला नहीं जा सकता।

अब तक इस समस्या की चर्चा जिनसे भी की है, वे सभी रवि के प्रति सहानुभूतिपूर्ण रहे हैं। रवि के अलग कमरे और स्नानघर की व्यवस्था वे खुद ही क्यों न कर डालें। रवि नहीं लिखता है, तो न सही। उन्हें तो करना चाहिये। वे तो किसी तरह मन को मना लेंगे पर यह औरत! यह क्या करेगी? उसे कैसे समझायेंगे वे? रवि के शंकरमंगलम पहुँचने के पहले यह खबर उसे देना आवश्यक है। अभी कुछ कहेंगे, तो यह मीनाक्षी दादी से कह देगी फिर सारे गाँव में बात फैलते देर नहीं लगेगी।

काफी देर सोचने के बाद उन्होंने निर्णय लिया कि रवि के आने के पहले उन्हें कुछ तैयारियाँ करनी होंगी। इस मकान के दो प्रवेश द्वार हैं। बगल में एक द्वार है, जो मवेशियों के आने-जाने के काम आता है। वहीं हौदी भी है। दस-बारह नारियल के पेड़, चार-पाँच आम, कटहल के पेड़ और फूलदार पौधों समेत एक बड़ा सा कुआँ भी वहीं है। नौकर-चाकर इसी रास्ते का उपयोग करते थे, चाहे बाग में आना हो या मवेशियों को ले जाना हो। इसी द्वार के पास सीढ़ियाँ ऊपर से उतरती थीं। ऊपरी तल्ले पर लकड़ी का एक पार्टीशन डलवा देंगे। एक पंखा भी लग जाएगा। बगल वाले कमरे में कुछ कुर्सियाँ, डयनिंग टेबल भी पड़ जायेगा। शर्मा जी ने निर्णय ले लिया था। लाख भीतरी [ ४२ ]
तकलीफों के बावजूद, जो लड़की उनके बेटे को इतना प्यार करती है। वह करोड़पति की पुत्री, साधारण से साधारण सुविधा के लिए भी तरसे, यह वह कतई नहीं चाहते। वेणु काका के कहे वाक्य याद आ गये।

'शर्मा का रुपया भी बच जायेगा।' उनके अहँ को चोट लगी थी। क्या दे खर्च बचाना चाहते हैं? नहीं…।

उस दिन किसी उत्तर भारतीय पर्व के लिए बैंक और डाकखाने बन्द थे। शर्मा जी ने बढ़ई और मिस्त्री को कहला भेजा। फिलहाल खर्च के लिए घर पर पर्याप्त रुपये थे। कभी सस्ते में शीशम की लकड़ी खरीदकर पिछवाड़े में डलवा दी थी। चलो अब काम आ जाएगी।

दूसरे पहर जब मिस्त्री और बढ़ई मा पहुँचे तब कामाक्षी ने पूछा, 'क्या बनवा रहे हैं? ये लोग किसलिए आये हैं?'

'तुम्हारा साहबजादा आ रहा है न, फ्रांस से। सोच रहा हूँ, उसके लिए ऊपर एक कमरा बनवा दूँ। उसे सुविधा रहेगी।' रवि के आने की सूचना भर दी। शाम अचानक वेणु काका इधर से निकले तो सारी तैयारियाँ देखकर हँस पड़े। 'वाह! जब मैंने कहा था, तो मुँह बना रहे थे। अब सारा तामझाम इकट्ठा किए बैठे हो।'

'अब मन को अच्छा लगे या बुरा, करना तो होगा ही न।'

'अब ऐसा मत कहो। ऐसी कोई बात तो हुई नहीं।' वेणु काका ने उनका उत्साह बढ़ाया।

दस दिनों में सारा काम निपट गया। एक कमरा बनकर तैयार हो गया। वेणु काका और बसन्ती उन्हें प्रमाण पत्र दे गए।

पुताई-सफाई हो रही थी कि रवि से उसके आने की तारीखवार सूचना देता पत्र आ पहुँचा। उसमें एक चित्र भी था। भारतीय पारम्परिक परिधान में कमली का चित्र। चित्र भारतीय दुताबास में हुए किसी भोज के अवसर पर लिया गया था। 'आपको अवश्य पसन्द आयेगा'-रवि ने लिखा था। संचमुच उस चित्र में कमली बहुत [ ४३ ]
खूबसूरत लग रही थी। शर्मा जी को वह चित्र बहुत पसन्द आया। उन्हें बगा, कामाक्षी को अब साफ-साफ सब कुछ बताने का अवसर आ गया है।

बिना किसी भूमिका में पन लिए उसके पास पहुँचे और पत्र पढ़ता शुरू किया। पढ़ने के बाद कामाक्षी के हाथ लिफाफा भी थमा दिया। बे चाहते थे, कि कामाक्षी उस चित्र को देखे। उन्हें लगा, वह भावुक हो उठेगी। पर इसके विपरीत वह शान्त रहीं।

'क्यों जी, लगता है, वह अकेला नहीं आ रहा है। कोई और भी साथ आ रहा है क्या?'

'हाँ, तुम्हें जो चित्र दिया है, उसे देखा नहीं तुमने?'

'न पत्र आपने पढ़ाया था। चित्र कहाँ है?'

शर्मा जी ने लिफाफा उसके हाथ से लिया और चित्र निकालकर दिखाया।

'यह लड़की कौन है?'

'लिखा है न उसने। कमली है।'

'यह कौन है?'

'सुन्दर है न?'

'लड़की जवान हो, और रंग साफ हो तो खूबसूरत लगती ही है। पर यह है कौन? साड़ी तो पहनी है, पर नाक नक्श तो हमारे यहाँ के नहीं लगते?'

'रवि की दोस्त है। फ्रांसिसी लड़की है।'

'तो क्या उसके साथ बही आ रही है?'

'हाँ'

'तो हमारा देश देखने आ रही है।'

'हाँ, लगता तो कुछ ऐसा ही है।'

कामाक्षी ने आगे कुछ नहीं पूछा। पत्र उन्हें पकड़ाकर चली गयी। शर्मा जी को यह पत्र छिपाने की आवश्यकता नहीं रही। आले [ ४४ ]
पर ही अन्य पत्रों के साथ उसे भी रख दिया था। शाम को कुमार, पार्वती दोनों में ही पत्र पड़ा। चित्र भी देखा। शर्मा जी को लगा अब बात उस सीमा तक पहुँच गयी है, जब तीली जलती हुई उंगली के पास तक पहुँच जाती है। हड़बड़ाहट में या तो तीली फेंकनी होगी या उँगली जलानी होगी। शुरू-शुरू में उनके भीतर जो नफरत और क्रोध घर कर रहा था, वह जाने कहाँ बिला गया। कुछ हजार और खर्च कर उस पुराने ढंग के मकान में एक अलग कमरा, सटा हुआ स्नानघर, दाश बेसिन दर्पण, खाने की मेज, कुसियाँ–सारी सुविधायें इकट्ठी कर ली गयी थी। रवि ने लिखा था कि वह दो दिन बम्बई रहेगा फिर मद्रास से रेल द्वारा शंकरमंगलम आयेगा। रवि ने किसी को भी मद्रास आने से मना कर दिया था। पहले तो दिन धीरे-धीरे रेंग से लग रहे थे, फिर तो जैसे पंख लगा कर उड़ने लगे।

'तुम बैलगाड़ी लिए मत पहुँच जाना। मेरी कार हाजिर है। एस्टेट वाले शारंग पाणि नायडू से भी कार माँग रखी है। सब लोग चलेंगे, उन्हें लेने। उस दिन एक शादी में भी जाना है। तुम लोगों को पहुँचाकर मैं चला जाऊँगा।' वेणु काका बोले।

शर्मा जी बोले, 'यह तो अच्छा हुआ कि इस महीने से गाड़ी पौने छह बजे आने लगी हैं। वरना पहले तो साढ़े तीन आया करती थी। बड़ी दिक्कत होती थी।'

'कुमार, पार्वती और रवि की माँ भी चलेंगी न स्टेशन?'

'कुमार और पार्वती दोनों आ रहे हैं। उसका कोई ठिकाना नहीं। कल शुकवार भी है। पूजापाठ का दिन है।'

'एक दिन पूजापाठ जल्दी निपटा लेगी। इतनी दूर से बेटा लौट रहा है, माँ को स्टेशन आना ही होगा।'

'मैं उसे समझा कर देखता हूँ। पर मुझे तो शक है, उसके आने में।'

'चुप रहो यार। मैं सुबह चार बजे बसन्ती को भिजवाकर सब [ ४५ ]
ठीक करता हूँ।' रवि के आने के एक दिन पूर्व का वार्तालाप था यह! अगले दिन सुबह चार बजे ही शार्मा जी तैयार हो गएँ। लग्न का दिन था इसलिए हवा में तैरती नादस्वरम की मधुर ध्वनि पुष्प वर्षा की तरह उनके मन को भिगो रही थी। बसन्ती ने बहुत समझाकर देखा पर कामाक्षी टस से मस नहीं हुई।

'मेरा भला वहाँ क्या काम है, री? तुम लोग हो आओ। कोई घर पर भी तो रहे, उसके स्वागत के लिए। मैं रहूँगी घर पर।'

बसन्ती घर गयी। बाकी लोगों को लेकर चल दी। रास्ते में गाड़ी रोककर दो हार ले लिए। सुबह की ठंडी हवा, बेले के फूलों की भीनी महक और ऊपर से हवा में तैरती नादस्वरम की मधुर ध्वनि-विवाह का-सा माहौल लगने लगा था।

वेणु काका ने बसन्ती से पूछा, 'रवि की माँ क्यों नहीं आयी, बसन्ती! गुस्से में हैं क्या?'

'पता नहीं बाऊ। ऊपर से तो शांत ही लगती हैं, पर मन में जाने क्या…?'

'ऐसी कोई बात नहीं होगी। बेटा आ रहा है न। घर पर खीर- वीर बनाने में जुट गई होंगी।' वेणु काका ने बात बदल दी।

ट्रेन सही वक्त पर आ गई। इन लोगों की अपेक्षा के विपरीत रवि और कमली दूसरी श्रेणी के डिब्बे से उतरे। सूती धोती पहने माथे पर कुंकुम का टीका लगाए, कमली ने उन लोगों को देखकर हाथ जोड़े। स्टेशन के पास बने विवाहमंडप में मंगल ध्वनि होने लगी थी, ठीक उसी क्षण रवि और कमली ने शंकरमंगलम की भूमि पर पैर रखे। 'यह मेरे पिता हैं।' रवि ने परिचय दिया। कमली झट पंडित विश्देश्वर शर्मा के चरणों पर झुक गई। शर्मा जी पुलकित हो उठे। उसे मन से असीसा। विवाह मंडप में भी वर और वधू को उसी क्षण आशीर्वाद दिए गये होंगे। कैसा संयोग था। शर्मा जी का मन तृप्त हो उठा था। कमली की देह से उठती भीनी सुगन्ध प्लैट फार्म पर फैलने लगी। शर्मा जी ने [ ४६ ]
एक वधू को दिया जाने वाला आशीष ही अनजाने में दोहरा दिया था। उन्हें लगा वे चाह कर भी उसका तिरस्कार नहीं कर सकते। जाने क्यों, उनका मन ही उनके खिलाफ होने लगा था। कमली ने बसन्ती को गले लगा लिया। वेणु काका ने रवि को और बसन्ती ने कमली को हार पहनाये। 'वेलकम टु शंकरमंगलम' कहते हुए वेणु काका ने हाथ आगे बढ़ाया।

'हैंड शेकिंग ईज नॉट एन इंडियन कस्टम' कहते हुए कमली ने हाथ जोड़ दिए। रवि ने पार्वती और कुमार परिचय करवाया।' पार्वती की पीठ थपथपाते हुए कमली ने तमिल में ही वार्तालाप प्रारम्भ किया। कुमार की पढ़ाई के विषय में, उससे कुछ सवाल किए। लगा, रवि ने उसे सब कुछ पहले से ही सिखा-पढ़ा दिया है। वह क्षणांश के लिए भी नहीं हिचकी।

कमली ने वहाँ अजनबियों की सरह व्यवहार नहीं किया। लगा, जैसे इस परिवार को वह वर्षों से जानती रही हो। स्टेशन के प्लैट- फार्म पर एक छोटी भीड़ इकट्ठी हो गयी। यूँ भी रंगरूप या वेश- भूषा की भिन्नता थोड़ी भी नजर आ जाए, लोग घूरते हैं। भारतीय गांवों की यह मानसिकता आम है। हरेक को, हर वक्त समझने देखने की जिज्ञासा और उसके लिए पर्याप्त वक्त दोनों ही उनके पास हैं। गांव की जिज्ञासाओं का अंत नहीं।

शंकरमंगलम रेलवे स्टेशन पर यह बात साफ पकड़ में आ गयी, पिछले पचीस वर्षों से 'बड़े' वेचने वाले सुब्बा राव, अखबार वाला चिन्नैया, फल वाला वरदन, सभी उस भीड़ में शामिल थे। सुब्बा राव से तो इस रूट पर अन्सर जाने वाले अधिकांश यात्री इस कदर परिचित थे कि उनकी आवाज से ही स्टेशन का नाम भांप लेते।

पूरी भीड़ में सुब्बाराव को देखकर रवि ने उसका कुशल क्षेम पूछ लिया। सुब्बा राव की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। [ ४७ ]स्टेशन से लौटते हुए वेणु काका ने जान बूझकर रवि, कमली और शर्मा जी को एक कार में पीछे कर दिया और स्वयं बसंती, कुमार और पार्वती को लेकर आगे चले आएँ। इन लोगों को घर पर उतार कर काका शादी में चले गए। चौखट पर एक साधारण सी अल्पना ही बनायी गई थी। बसंती ने पारू को हांक दिया।'

'जल्दी से चावल का घोल बना ला। सुन गेरू भी लेती आना। बड़ी सी अल्पना बना लेंगे। झटपट एक थाल में हल्दी-चूना घोल कर आरती तैयार कर ले। वे लोग आते ही होंगे।' एक नब विवाहिता जोड़े के स्वागत की भी तैयारी करती हुई बसंती मन ही मन कामाक्षी काकी से घबरा भी रही थी।

रवि और कमली के प्रति अगाध प्रेम ही था कि भय को भी परे कर दिया।

पार्वती ने गेरू का घोल तैयार किया। भीतर से कामाक्षी की स्त्रोत लहरी हवा में तैरकर बसंती के कानों तक पहुँच गयी।

'तुलसी श्रीसखि, शुभे पापहारिणी पुण्यदे

नमस्ते नारदनुते नारायण मनप्रिये।'

काकी के उच्चारण की स्पष्टता पर बसंती मुग्ध हो उठी। उसे जाने क्यों बार-बार यही लग रहा था; कि काकी ने काम वाला बहाना जान बूझ कर बनाया है। उनके न आने की वजह तो कुछ और ही है।'

पार्वती ने खूबसूरत अल्पना बना दी थी। बसंती ने गेरू की रेखा से सटी एक रेखा और खींच दी। पार्वती भीतर से आरती का घोल ले आयी। शंकरमंगलम रेलवे स्टेशन से गाँव के भीतर आते हुए रास्ते में पीपल के पेड़ के नीचे गणेश जी का एक पुरातन सा मन्दिर था। चाँद वाले उन्हें 'पथबन्धु विनायक मन्दिर' कहते थे। गाँव से बाहर जाने वाले और बाहर से गाँव आने वाले एक पल के लिए यहाँ जरूर रुकते। [ ४८ ]शर्मा जी भी सोच में पड़े थे, इसलिए भूल ही गए। पर रवि ने कार रुकवाई। शर्मा जी और रदि की चप्पलें कार में छोड़कर नंगे पाँव उतरे, तो कमली ने भी उनकी देखादेखी बही किया। नारियल फोड़कर परिक्रमा की और कार में आकर बैठ गए। रवि रास्ते में कमली को गणेश मन्दिर और गाँव में प्रचलित प्रथा के सन्दर्भ में बताता रहा। रेवलोन इंटीमेट की गंध कार में फैली हुई थी। कमली को गाँव का प्राकृतिक माहोल बहुत अच्छा लग रहा था। रवि हालाँकि उसे अंग्रेजी या कभी फ्रेंच में समझाने की कोशिश कर रहा था, पर कमली ने तमिल बोलने की पूरी चेष्टा की।

उसके बोलने का लहजा कुछ अटपटा जरूर था, पर उसके शब्द साफ समझ में आ रहे थे। प्रत्येक नये शब्द को वह उत्साह से सीख रही थी। जैसे वे शब्द न होकर कोई मानदेय हों। यूँ यह स्थिति हर उस छात्र की रहती है, जो किसी भाषा को सम्पूर्ण उत्साह के साथ सीखता है। 'पथ बंधु विनायक' का नामकरण उसे बेहद भा गया। उसे बार-बार दोहराती रही।

शर्मा जी ने बताया, 'गाँव के इतिहास में इसका नाम 'मार्गसहाय विनायक' है। पर लोगों ने सुविधानुसार इन्हें 'पथबंधु' कहना शुरू कर दिया।

'इतिहास चाहे जो भी कहे, लोगों की प्रचलित मान्यताएं ही स्थाई होती हैं। लोगों की भाषा, लहजा उनके भाव को महत्व दिया जाता रहा है। भाषा विज्ञान की अवधारणा का मूल कारण यही तो है। यदि ऐसा न हो, तो भाषा व्याकरण के घेरे में बंधकर बस धीरे-धीरे समाप्त हो जाएगी और उसकी जगह म्यूजियम में ही रह जायेगी।' कमली बोली। शर्मा जी को लगा यह फिरंगी युवती सुन्दर ही नहीं है बल्कि इसे विषय का ज्ञान भी खूब है। उन्हें याद आया रवि को बचपन से भाषा विज्ञान और तुलनात्मक अध्ययन में बेहद रुचि रही है।

कार घर के आगे जब रुकी, सुनह खिल आयी थी। कार की