तुलसी चौरा/५

विकिस्रोत से
तुलसी चौरा  (1988) 
द्वारा ना॰ पार्थसारथी, अनुवादक डॉ॰ सुमित अय्यर

[ ४९ ]
आवाज सुनकर अड़ोस-पड़ोस के लोग बाहर निकल आये। कामाक्षी ओसारे के खम्भे के सहारे खड़ी हुई थी।

कार से उतरे रवि और कमली को देखकर बसन्ती शरारत से मुस्कुराई और बोली, 'तुम दोनों इस रंगोली के ऊपर खड़े हो जाओ, पूरब की ओर मुँह करके। आरती उतार देती हूँ।' शर्मा जी कार से उतर गए थे।

बसन्ती की इच्छानुसार ही रवि कमली का हाथ पकड़कर रंगोली के ऊपर आकर खड़ा हो गया। बसन्ती और पार्वती ने मिलकर आरती उतारी।

'मंगलम मंगलम जय मंगलम
श्री रामचन्द्र की शुभ जय हो,
महिलाओं की मंगल आरती,
कन्याओं की कपूर आरती
सोने की थाल में, पंचरंगी रंगोली,
मोती के थाल में नवरत्नों की आरती,
सीतापति की शुभ जय हो'

बसन्ती का गला इतना मधुर है, कमली को पहली बार पता लगा। सुबह के सन्नाटे को चीरते पक्षियों के कलरव के बीच यह मधुर गीत बेहद सुखद लगा। कमली ने रंगोली और गीत दोनों की तारीफ की।

किनारे खड़ी माँ के पास रवि कमली को ले गया, और उसका परिचय करवाया। कमली ने झुककर उनके पैर भी छू लिए। कामाक्षी सकुचाकर कुछ पीछे हो गई। यह सकुचाहट थी या गुस्सा कोई भांप नहीं पाया।

'ऊपर ले जाओ उसे। वहाँ तुम लोगों के ठहरने की पूरी व्यवस्था है।' शर्मा जी ने रवि से कहा।

'व्यवस्था कैसी, बाऊ? यहीं रह लेंगे। कमली के लिए किसी [ ५० ]
अतिरिक्त सुविधा की कोई आवश्यकता नहीं है।'

'एस, आयम टायर्ड आफ लक्सरीज। धन प्रधान जीवन से भी ऊब गई हैं।' कमली भी रवि का समर्थन करने लगी। फिर भी शर्माजी के आदेशानुसार उन दोनों का सामान ऊपर वाले कमरे में पहुँचाया गया। कुमार और पार्वती ने छुट्टी ले रखी थी। बसन्ती भी साथ ही बनी रही।

'इतना सब क्यों कर डाला बाजी? मैंने तो आपको लिखा ही नहीं था। कमली बहुत लचीले स्वभाव की है। सुविधानुसार अपने को दाल सकती है' 'कुछ भी हो, आखिर सभ्यता भी तो कोई चीज है। मुझसे जो बन पड़ा मैंने कर दिया। वेणु काका और बसंती ने भी कहीं-कहीं सुझाव दिए।'

वे लोग ऊपर बने कमरे में रखी कुर्सियों पर बैठे थे।

'बाऊ जी भुमिनाथपुरम गए हैं। दोपहर तक लौट आएँगे। तुम आते वक्त सुरेश से मिले थे? कुछ कहलाया है उसने?'

'न, पर यूनेस्को के दफ्तर में फोन जरूर किया था। पता लगा…… सुरेश जिनेदा गया है। लौटने में हपता लग जायेगा।'

पार्वती नये खरीदे गये हैं और प्यालों में कॉफी ले आयी। रवि ने महसूस किया कि बाऊ जी ने बहुत ही मुश्किल से एक-एक कर चीजें जुटाई हैं।' आज तक घर पर कांच या चीनी मिट्टी के बर्तन कभी नहीं आये। पीतल या कांसे के गिलास में ही कॉफी पी जाती थी। यह परिवर्तन किसके लिए हो सकता है? उसके लिए या फिर कमली के लिये! उसे लगा कमली के आगमन ने इस गाँव के पुराने घर को बहुत अधिक प्रभावित किया है।

कॉफी पी चुकने के बाद कमलो को घर और बगीचा घुमाने ले गया। पार्वती भी उनके साथ हो ली। कुमार किसी खरीददारी के लिये दुकान गया हुआ था।

ऊपर के कमरे में बाप-बेटे अकेले छूट गए थे। शर्मा जी ने ही बात [ ५१ ]
शुरू की, 'यह कोई महल तो है नहीं, कि दिलाने को कुछ हो। बसन्ती बता रही थी कि वह करोड़पति की बेटी है।'

'महल हो या झोपड़ी। मुझसे जुड़ी हर चीज से उसे प्यार है। भारत, भारतीय संस्कृति, भारतीय गाँव, गाँव का जीवन―कमली को इन सबसे बहुत प्यार है।'

'तुम्हारी अम्मा को मैंने पूरी बात अभी नहीं बताई है। तुम्हारा दूसरा पत्र ही उसे पढ़वा दिया था। चित्र को देखकर पूछने लगी कि क्या यह भारत घूमने आ रही है? मैंने भी हामी भर दी। बस! न उसने आगे कुछ पूछा, न मैंने बताया।'

'आपने गलत किया जो उन्हें नहीं बताया। बात को छिपाने की कला हम भारतीय जाने कितनी पीढ़ियों से पालते चले आ रहे हैं। यही तो सारी समस्याओं की जड़ है।'

'तुम्हारी माँ से ही नहीं, मैंने तो यह बात अभी किसी को नहीं बताई है। वेणु काका और बसन्ती को यह बात पहले से ही मालूम है। और अब मैं जान गया हूँ, बस।'

'ऐसे गाँव में बात को सीधी तरह से कह देना ही अच्छा होता है, बाऊ। अनुमान पर छोड़ देना बहुत खतरनाक होता है।'

'तुम पता नहीं, फंसे कह रहे हो? मेरी दो हिम्मत हो नहीं पड़ती। तुम्हारी अम्मा को बताते ही डर लग रहा है। दूसरों की तो बात ही छोड़ दो। तुम स्वयं सब जानते-समझते हो। तुम्हें समझाने की जरूरत नहीं। जब से श्रीमठ का उत्तरदायित्व मुझे दिया गया है, पता है गाँव में मेरे कितने विरोधी हो गए हैं।

'विरोध से भयभीत हो जाएँ, तो फिर क्या विरोध खत्म हो जाएगा? हमें तो डटकर सामना करना चाहिए। हमने कोई गलती तो की नहीं, फिर हमें किस बात का भय है?"

'वह सब तो ठीक है, बेटे। इसके बारे में फिर बातें करेंगे! तुम पहले अपनी अम्मा से मिल लो। उसने तो लगता है, तुमसे ठीक से बातें [ ५२ ]
भी नहीं की। तुम उस लड़की को उसके पास ले गए थे ना, तो उसकी प्रतिक्रिया कैसी रही?' 'अम्मा बिल्कुल सामान्य नहीं हैं, बाऊ। कमली ने पैर छुए, तो मुँह बनाए खड़ी रहीं। मैंने सोचा घर के बाहर कोई विवाद खड़ा करना ठीक नहीं।

'यह रंगोली वगैरह भी पारू और बसंती ने ही मिलकर बनायी है। कामू को यह सब रास नहीं आया होगा। तुम्हारे विवाह के लिये जाने क्या-क्या कल्पनाएँ लिये बैठी थी। पूरी गली में शामियाना लगाकर बिल्कुल पारम्परिक ढंग से विवाह रचाना चाहती थी।'

'तो मना कौन कर रहा है? हमारी परम्पराओं को मैं जितना प्यार करता हूँ, कमली भी उतनी ही रुचि रखती है। तो ठीक है, चार दिन का विवाह ही सही…।'

'तुम भी बेटे। मैं क्या कह रहा हूँ, और तुम अपनी ही कहे जा रहे हो, कामू को घरेलू, गाँव की लड़की चाहिए।'

अखबार वाला अखबार डाल गया। रवि ने पिता को अखबार पकड़ाते हुए कहा, 'आप तब तक अखबार देखिए, बाऊजी। मैं अम्मा से बातें करके देख लेता हूँ।'

रवि भी माँ से मिलने कतरा रहा था। अम्मा चौके में थीं। उनकी आवाज पिछवाड़े से आ रही थी। वसंती अम्मा की किसी बात का उत्तर दे रही थी, शायद।

रवि पिछवाड़े की ओर तेजी से लपका। अम्मा सामने से चली आ रही थी। उसे देखकर भी अनदेखा करती चौके में चली गयी। वसंती और अम्मा के बीच क्या बातें हुई होंगी, यह जानने की उत्सुकता उसमें थी। वह पहले कुँए के पास गया। तुलसी चौरे के पास खड़ी बसंती कमली को कुछ समझा रही थी। कमली ध्यान से सुन रही थी। पार्वती भी उनके पास खड़ी थी। 'अम्मा क्या कह रही थी?' रवि ने पूछा।

'कुछ नहीं रवि, अम्मा ने अभी-अभी पूजन खत्म किया है। हम [ ५३ ]
लोग बगैर नहाए ही यहाँ पास पहुँच गये, तो अशुद्धि के भय से कह दिया था बस! और कोई बात नहीं। पर काकी के कुछ कहने के पहले, ही कमली ने मुझसे कहा था, कि अल्पना और दीये को देखकर लगता है, कि अभी-अभी पूजन किया गया है। न मैंने स्नान किया है, न तुमने। इसलिए दूर ही से देख लेते हैं। मैंने भी काकी से वहीं कह दिया। कमली बतला रही थी कि उसने यह सब बातें 'हिन्दू मैनर्स, कस्टम्स एंड सेरिमोनीज,' नामक पुस्तक में पढ़ रखा है।' रवि मुस्कुरा दिया। कमली भी उसे देखकर मुस्करा दी।

'कमली को बाग दिखा लाओ बसंती। चमेली के हार को देख कर उसकी महक के बारे में जाने कितनी बार कह चुकी है। वह 'जास्मीन' नाम के स्टेशन से परिचित हैं, बस! उसे चमेली के पौधे दिखा दो।'

वे लोग बाग की ओर चले गये। रवि चौके की ओर चला आया। चौके में जिस सीमा तक सबको प्रवेश मिलला रहा, उसी सीमा पर खड़ा रहा। 'अम्मा, मैं रवि आया हूँ।' उसने कुछ जोर से आवाज दी। कोई उत्तर नहीं मिला।

दुबारा उसने आवाज लगाई तो भीतर से आवाज आयी।

'जानती हूँ रे। वहीं ठहरों, भीतर मत चले आना! नहाये तो होगे नहीं अब तक। मैं ही आ रही हूँ उधर?'

अम्मा मथानी से दही मथ रही थी। अम्मा उस वक्त कैलेंडर वाली यशोदा लग रही थीं।

'तो मैं फिर आ जाऊँ? नहाकर आऊँ तो बात करोगी?'

'यहर, अभी आयी।'

'तुम मुझसे नाराज क्यों हो, अम्मा?'

'तो तुम नहीं जानते? मुझसे पूछ रहे हो?'

'मैंने ऐसा क्या कर दिया है?'

'तो और क्या बचा है?'

'अम्मा का सारा जोर 'और' 'शब्द पर था और रवि इसका वजन [ ५४ ]
समझ रहा था। उसे लगा सारा आक्रोश इसी शब्द पर उतर आया है। बाऊ जी भी शायद कुछ पिघल गये हैं। पर अम्मा! अम्मा की सख्ती को गलाना बेहद टेढ़ा काम है। उसके मन की तरह उसके शब्द भी तीखे और संक्षिप्त हो गये थे। दस मिनट से अधिक उसे बाहर ही रहना पड़ा। अम्मा बाहर निकली।' अब से परे हट कर बड़े हो जाओ हथेली आगे करी।' अम्मा बोली।

रवि के मन में एक बचकानी शंका भी उभर आयी। कहीं अम्मा बेंत तो नहीं लगाएँगी। पर हुआ कुछ और ही।

अम्मा मक्खन में गुड़ मिलाकर उसकी हथेली पर रख दिया। 'खा लो! तुम्हें पसन्द है न? 'अम्मा सतर्क थी कि हथेली छू न जाए।

बिसी भी उन में किसी भी महौल में, किसी के भी समक्ष अपने पेट जाए बेटे को बिल्कुल बच्चे की तरह बदल देने की कला सिर्फ मां ही जानती है। ज्ञान, अहंकार, यश, प्रतिभा, घमंड, उम्र―से तमाम मुखौटे मातृत्व के समक्ष किस कदर उतरने लगते हैं।

विदेश में रहने वाले नामी प्रोफेसर को उस माँ ने क्षण भर में ही, नंगे धड़गे शरारती शिशु के रूप में बदल डाला।

मक्खन को निगलता हुआ रवि बोला, 'तुमने हथेली आगे करने को कहा था न अम्मा, मैं तो डर ही गया था कि कहीं बेंत न लगा बैठो।'

'बेंत से तो क्या, तूने जो काम किया है, लगता है, तुम्हें इस बेलन से ही चार हाथ लगा दूँ।'

इस वाक्य में प्यार और गुस्से का सानुपातिक मिश्रण था। रवि कुछ कहता कि मीनाक्षी दादी आ गयी। रवि ऊपर जाने लगा, पर दादी ने उसे रोक लिया।

'कौन? रवि है न? सुबह आये हो? ठीक ठाक तो हो न?'

'हो दादी! ठीक हूँ।' रवि खिसकने लगा। [ ५५ ]पर दादी भला कैसे छोड़ती! आँखें भरीं, ठीक से दिखती ही नहीं। तनिक पास आओ रवि, जी भर कर देख लें...।' अपनी हथेली की ओट आँखों पर कर ली और पास आ गयीं। रवि को अपर से देखा।

'पहले से रंग निखर आया है। ठंडी जगह है न? इसलिए। क्यों कामू? ठीक ही कहा न।'

उन दोनों को उसी बहस पर लटकाकर रवि ऊपर चला आया। वाऊ जी सोलह पेजी अखबार के संपादकीय पृष्ठ तक पहुँच चुके थे। पाठकीय पत्रों को देख रहे थे। रवि को लगता है कि रिटायर होने वाले पिताओं का इस पत्र वाले कालम से कोई खास रिश्ता होगा। उसने देखा है, कि भारतीय अखबारों में इस कालम में लिखने वाले एक खास वर्ग/उम्र के लोग होते हैं। वह बाऊ जी को उसी काम में उलझा देखकर मुस्करा दिया।

बाऊ जी ने सिर उठाकर उसे देखा और पूछा,

'क्यों रवि? उससे बातें हुई? क्या कह रही है?'

'बातें शुरू ही की थी कि मीनाक्षी दादी चली आयीं। अम्मा तो सहज ही थीं, पर बाऊ जी लगता है, उनके भीतर गुस्सा है।'

'यही तो फर्क है स्त्रियों और पुरुषों में। पुरुष जिस पर विचार करता है, और उस पर संदेह व्यक्त करने की सोचता है, उसी बात को स्त्रियाँ जाने कैसे भाँप लेती हैं, और शुरुआत ही संदेह से करती हैं।'

'आप अम्मा को पहले से ही पूरी बात बता चुके होते तो सारी बातें साफ हो जाती अब छिपाने की वजह से परस्परिक मतभेद की गुंजाइश बढ़ गयी है।'

'सोचो तो, जब उसे कुछ भी नहीं मालूम है, तब इतना गुस्सा आ रहा था। मालूम हो गया होता तो? तुम्हारा पत्र पढ़कर तो मैं ही चौंक गया था। समझ में ही नहीं आया क्या उत्तर दूँ। पर [ ५६ ]
वेणु काका और बसन्ती ने मुझे समझा बुझाकर मेरा गुस्सा शांत किया।'

'अब यहाँ झगड़ा और समाधान की बात कैसे आ गयी, मैंने तो आपसे कुछ नहीं छिपाया। मुझे लगा आपको गलतफहमी न हो, इसलिए पहले ही लिख दिया। वेणु काका और बसन्ती जब पैरिस आये थे, उन्हें भी सब कुछ बता दिया था। उन्हें समझा दिया था कि वे लोग आपको समझा दें।'

'माना, तुम ठीक कह रहे हो। पर यह गांव? तुम तो जानते ही हो कि हमारे कितने और कैसे विरोधी हैं। अगस्त्य नदी के तट पर स्थित इन गाँववासियों के लिये विटामिनों की तरह यह पंचायत भी जरूरी है। विटामिन शरीर में कम हो तो कोई बात नहीं, पर दूसरों की पंचायत करने का तौर तरीका ये छोड़ नहीं सकते। पुराने जमाने में ये ओसारे इसलिए बनाये जाते थे कि मित्रों, अतिथियों और राहगीरों को विश्राम के लिए स्थान मिले। पर अब? यहाँ तो पंचायत बैठने लगी है। चुगल खोरी, बुराइयाँ कहने-सुनने का अड्डा भर बन कर रह गए हैं, ये ओसारे। इस गांव में तीन सौ ओसारें हैं। इसे वाद रखना। अभी भी पनघट पर तुम्हारी ही चर्चा हो रही होगी।'

'बाऊ जी, मेरी जिंदगी मेरी अपनी है। इसका निर्णायक मैं हूँ, यह तीन सौ ओसारे या तीन गलियां नहीं।'

'ठीक है, तुम पहले नहा धोकर आओ। कॉफी ही तो पी है। इन बातों पर फिर चर्चा करेंगे। उससे भी कह दो नहा ले। और खाना? हमारे यहाँ का खाना चलेगा?'

'हाँ, बाऊ जी। जो भी मिलेगा, वह खा लेगी। यही तो हममें और उनमें फर्क है। वे लोग स्थान के अनुरूप रहना जानते हैं। अपनी ही आदत के अनुसार रहने की जिद हम लोगों में ही है।'

'ऐसा तो नहीं कहा जा सकता। कुछ बातों में जिद करना ठीक भी है।' [ ५७ ] 'पर सही बात के लिए जिद नहीं करते। जहाँ नहीं करनी चाहिए वहाँ करते हैं।

रवि ने अपने बक्से खोलने शुरू किये।

'पारू और कुमार दोनों ने ही पत्र लिखा था कि उन्हें रिस्टवाच चाहिये। कोई सात आठ महीने पहले की बात है। मैं तो भुल भी गया था। कमली ने ही याद दिलाया। उसने याद न दिलाया होता तो भूल ही गया होता। 'रवि ने दो छोटी-छोटी डिविया आगे बढ़ायी।

शर्मा जी ने खोल कर देखा।

'अच्छी हैं, उससे कह दो, खुद अपने हाथों से बच्चों को दे दे।'

कुछ देर तक गाँव की बात होती रहीं।

शर्मा जी नीचे उतरने लगे।

बसंती के साथ टोकरी भर चमेली के फूल गये कमली सीढ़ीयाँ चढ़ रही थी। उसका बच्चों का सा उत्साह देखकर शर्मा जी हँस दिए।

कमली को ऊपर छोड़कर बसंती वर लौटने लगी। घर जाने के 'पहले याद से चौके तक गयी और कामाक्षी से बोली, 'काकी'! खीर बनाइए! कितने दिनों बाद तो बेटा लौटा है। 'बसंती खीर का असली कारण छिपा गयी। लौटकर उसे कमली को फूल गूंथना भी सिखाना है। वह घर के लिए चल दी।

सुबह से लगातार बूंदा-बांदा हो रही थी। शंकरमंगलम बैहद खूब सूरत लग रहा था! पश्चिमी दिशा की पर्वत श्रेणियाँ गहरे नीले रंग में चमक रही थीं। बरसात के दिनों में पर्वतीय इलाके दुलहन की तरह खूबसूरत लगने लगते हैं। शर्मा जी ने दुबारा स्नान किया और पूजाघर के अंदर चले गये। उस घर में सुबह की पूजा का विशेष महत्व है। पौन घंटे से एक घंटे तक यह पूजा चलती है। कामाक्षी ने धूप जला दिया। लकड़ी के दहकते कोयले धूपदानी में डाल दिए। पार्वती ने नहा धोकर पूजा के लिये फूल लाकर रखा दिए। 'पारू भैय्या वहां [ ५८ ]
चुके हों तो कह दो नीचे आ जाएँ।’―पारू से कहला भेजा।

कामाक्षी ने उन्हें झिड़का। ‘उसे काहे परेशान कर रहे हैं। थका हुआ आया है। आराम कर ले।’

‘बहुत दिनों के बाद लौटा है। पूजा भी देख ले।’

कामाक्षी भीतर से भोग लाने चली गयी। रवि और कमली इसी बीच नीचे उतर आए। रवि धोती और उतरीय में था। कमली पीले रंग की चुनरी साड़ी पहने थी। माथे पर टीका। शेंपू से धुले बाल, स्लीवलेस ब्लाउज। ब्लाउज का रंग स्वचा से मेल खाता हुआ, पह- चान में ही नहीं आ रहा था! एक नयी कोमल कविता की तरह वह पूजाघर में आ खड़ी हुई।

वह पहले ही नहा चुकी थी और रवि उसके बाद नहाने वाथरूम पहुँचा। बाथरूम में उसके शैंपू, साबुन की महक फैली हुई थी। चूने और गारे की गंध जाने कहाँ गुम हो चुकी थी। रवि को लगा, जैसे वह गंधर्व लोक में विचरण कर रहा हो। वह नहाकर बाहर निकला, तो कमली तैयार हो चुकी थी। स्लीवलेंस ब्लाउज पर वह उसे टोकना चाहता था, पर जाने क्या सोचकर रुक गया। कहीं वह यह न समझ ले कि उसकी स्वतन्त्रता पर आघात किया जा रहा है।

सम्पन्नता में पली लड़की उसके प्यार में सब कुछ छोड़कर यहाँ आयी है। उसे एक-एक बात पर टोकना वह नहीं चाहता। हालाँकि कह देता तो वह मानने को सहर्ष तैयार हो जाती। फिर भी वह चुप रहा। दूसरों की आजादी को महत्व देने की यह सभ्यता उसने विदेश में रहकर सीखी थी।

दूसरी ओर शंकरमंगलम जैसे गाँव में सोने की मूर्ति सी कोई युवती, कंधे उघाड़ कर चले, तो इसकी क्या प्रतिक्रिया हो सकती है, उससे भी वह खूब वाकिफ था।

गाँव की बात जाने भी दें, तो भी, घर पर बाऊ जी और अम्मा क्या सोचेंगे? उसने मन ही मन सोचा। जहाँ तक उसका प्रश्न था