तुलसी चौरा/७

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तुलसी चौरा  (1988) 
द्वारा ना॰ पार्थसारथी, अनुवादक डॉ॰ सुमित अय्यर

[ ६९ ]सकता। क्योंकि ईमानदार व्यक्ति ही दूसरे व्यक्ति की बेईमानी का परिमाप बनता है साथ ही वह बेईमानी में बाधक भी बनता है। पंडित जी सीमावय्यर के लिए कुछ वैसे ही समझे जाते थे। शर्मा जी का मन गरल विश्वासी था यही कारण है कि सीमावय्यर के साथ भी शर्मा जी उसी सहजता से पेश आते। क्रोध और ईर्ष्या पर उनके ज्ञान और विवेक ने विजय प्राप्त कर ली थी। वे मानसिक रूप से परिपक्व हो चुके थे।

सीमावय्यर की बात सोचते हुए, शर्मा जी डाक देखने लगे। पहला पत्र इरैमुडिमणि के सम्बन्धित था।

'यदि किराया नियमित रूप से भरने के योग्य व्यक्ति मिल जाएँ तो शर्मा जी स्वयं किराये पर उठा दें।' श्रीमठ के मैनेजर ने उत्तर दिया था। दूसरे पत्र में बटाई का लाभ गरीब किसानों को दिलवाने पर जोर दिया गया था। कुछ जमींदार और उनके कारिन्दे या धनी ठाकुर, गरीब किसानों के मार्फत स्वयं बटाई का काम उठा लेते। थोड़े बहुत रुपये देकर उन गरीब किसानों का मुँह बंद कर देते थे। इस आशय के एकाध शिकायत पत्र भी साथ में नत्थी किये गये थे।

अगला पत्र स्कूल के छात्र-छात्राओं के लिए भगवत्‌गीता, तिरुकुरल प्रतियोगिता आयोजित करने से सम्बन्धित था।

चौथे पत्र में, संस्कृति वैदिक पाठशाला के संदर्भ में कुछ बातें पूछी गयी थीं। अगले पत्र में इलाके के उन पुराने मन्दिरों का ब्यौरा मंगवाया था, जिनका निर्माण कार्य बाकी है।

पत्रों को भीतर जा कर रख दिया और संध्यावंदन करने नदी की ओर चले गये। लौटते हुये रास्ते में इरैमुडिमणि की दुकान की ओर निकल गये।

दुकान में भीड़ नहीं थी। लगा, दुकान बंद करने का समय है। इरैमुडिमणि के संगठन के कुछ लोग वहाँ बातें कर रहे थे। [ ७० ]शर्मा जी को देखकर इरैमुडिमणि स्वयं उठ आये।

'क्या हो गया विश्वेश्वर? अगर कहला दिया होता, तो हम ही बने आते। तुम काहे परेशान हो रहे हो?'

'यहाँ नदी की ओर आया था, तुम्हें भी देखने चला गया। इस जमीन के बारे में मठ का उत्तर आ गया।'

'क्या लिखा है?'

'लिखा है, कि किराया वक्त पर भरने वाला व्यक्ति हो…।'

'तो तुम्हें क्या लगता है? मैं भर सकता हूँ?' इरैमुडिमणि हँस पड़े।

'विश्वास का क्या है। फल आना तय कर लेंगे।' शर्मा जी चलने लगे तो उन्हें रोक कर इरैमुडिमणि बोले, 'कल आ जाऊँगा, वहीं तय कर लेंगे। एक मिनट ठहरो। एक जरूरी बात बतानी थी।'

'कहो।' शर्मा जी ने कहा। इरैमुडिमणि ने भीतर देखकर आवाज लगाई। मलरकोडि इधर आना, बिटिंया।'

काले रंग की सूती साड़ी पहने एक युवती बाहर निकल आयी। साँवला रंग था उसका, पर तीखे नाक नक्श थे।

'यह मलरकोडि है। यहीं के अंतोनी प्राथमिक पाठशाला में टीचर है। हमारे संगठन की सक्रिय कार्यकर्ता है अठारह साल पहले हमारे यहाँ जो सुधारवादी सम्मेलन हुआ था न, तब यह साल भर की रही होगी। इसका नाम नेता जी ने ही रखा था। खैर वह तो पुरानी बातें हैं। पर मैं जो कहना चाहता है, वह कोई दूसरी ही बात है। शाम को यह घर लौटती है तो सीमावय्यर की अमराई से होकर लौटना पड़ता है। एकाध दिन इससे छेड़छाड़ भी की थी। एक दिन तो इसका हाथ ही पकड़ लिया। तुम जरा उसे समझा देना। मैं सोचता हूँ, बात को बहुत आगे न बढ़ने दिया जाए। तुम समझा सको तो…।'

'देशिकामणि! वह तो गुंडा है। मेरे कहने पर वह सुधरने से रहा। गाँव का बड़ा आदमी है, पैसे वाला है। आज शाम को चार किसानों [ ७१ ]
के साथ जरी का उत्तरीय पहले ऐसी शान से चला जा रहा था कि बस! पूछ रहा था, रवि के बारे में। मैंने भी बस दो बातें कर ली।'

'तो बेटा आ गया?'

'हाँ, आ गया। कल मिल लेना।'

'दो, कुछ प्रेम वेम का जो चक्कर था...वह क्या हुआ।'

'चक्कर भी साथ लाया है। देख लेना न आकर!'

'ऐसे क्यों कह रहे हो यार! उसकी जिंदगी में तुम काहे टाँग अड़ा रहे हो।'

'मेरी टाँग अड़ाने की आदत ही नहीं है?'

'अच्छा छोड़ो! मैं खुद उससे बात कर लूँगा।'

शर्मा जी विदा लेकर वहाँ चल पड़े। सीमावय्यर के संदर्भ में इस तरह की शिकायतें पहले भी वे सुन चुके हैं। गढ़ी हुई प्रतिमा की तरह सुन्दर मलरकोडि के साथ उन्होंने बदतमीजी की होगी, इसमें कोई संदेह की गुंजाइश नहीं हैं। सीमावय्यर तो छुट्टे साँड़ हैं। उनकी वजह से गाँव का नाम बदनाम हो रहा है। कई जगह मुँह की खा चुके हैं, पर अभी तक अक्ल नहीं आयी। इन्हीं कारणों से सीमावय्यर के हाथों से मठ के तमाम अधिकार छीन लिये गए थे। पर सीमा- वय्यर को अपनी गलतियों का एहहास तक नहीं होता। उन्हें तो हमेशा यही लगता रहा कि शर्मा जी ने उनके खिलाफ साजिश की है और अधिकार हथिया लिए हैं।

'इन्सान बाज वक्त कामुक भी हो सकता है। पर हमेशा कामुक की तरह फिरता पशु, इन्सान कैसे हो सकता है?' नीति श्लोक में कहा गया है। शर्मा जी को श्लोक याद आया। सीमावय्यर की तरह यदि उच्च वर्ग में कुछ गंदे लोग पैदा होते रहे तो इरैमुडिमणि जैसे लोगों को भी, उन्हें सुधारने के लिये निम्न वर्ग में जन्म लेना होगा।

शर्मा जी यूँ दीया बाती के बाद, पका हुआ भोजन नहीं करते। गाय का दूध और दो केले यही उनका रात्रि भोजन है। अपना भोजन [ ७२ ]समाप्त कर वे श्रीमठ के विवाह मंडल की ओर चल दिये। यह बैठक वहीं होनी थी। बटाई का बही खाता, मठ के काम आए पत्र दोनों को ही झोले में डाल लिया। रास्ते में देशुकाका का घर पड़ता था। वहाँ की जगमगाहट और सड़क पर लगी कारों को देखकर उन्हें लगा कि रवि और कमली को घर लौटने में ग्यारह बज जाएँगे।

श्रीमठ विवाह मंडप के पास गली में वह मुड़ने लगे, तो सामने से आता एक किसान रुक गया। सिर के अँगोछे को कमर में बाँध लिया और बोला, 'सरकार, आज बटाई की बैठक नाहीं है क्या? फिर कब आवै के परै?'

'किसने कहा कि आज बैठक नहीं है? बैठक आज ही है। चलो मेरे साथ।'

'पर सीमावय्यर कहत रहे कि आज नहीं है...।'

'तू चल मेरे साथ।' शर्मा जी विवाहमंडप के अन्दर गए। वहाँ आमतौर पर लगते वाली भीड़ नहीं थी। केवल सीमावय्यर और उनके चार पाँच खास किसान बैठे हुए थे।

आस-पास के अठारह गाँवों से बटाई के लिये किसान आया करते थे। और आज एक भी नहीं आये, यह अविश्वसनीय बात लगी।

मरवन बांगला, नत्तमपाडी, आनंद कोकै, अलंकासमुद्रम––आस-पास के इन गाँवों से भी कोई नहीं आया।

'आइए पंडित जी। आज तो भीड़ ही नहीं है। काम जल्दी निपट जाएगा।' सीमावय्यर ने उत्साह के साथ आवाज लगाई। उन्हें लगा होगा कि इस बार सस्ते में वे पट्टीदारी ले लेंगे, शर्मा जी को उनकी चाल समझ में आ गयी।

'आप क्षमा करें, सीमावय्यर! श्रीमठ के आदेशानुसार आस-पास के अठारह गाँव के लोगों के सामने ही बैठक होनी है।'

'तो, इसका मतलब यह हुआ कि तीन चार गाँवों से जो लोग आए हैं, उन्हें अपमानित करके भिजवा दिया जाए, क्यों?' [ ७३ ]'इनमें कैसा मान अपमान! श्रीमठ के आदेश की, अवहेलना मैं नहीं कर सकता।' 'मेरे जमाने में वो ऐसा नहीं होता था। काम जल्दी मिपटा लिया जाता था।'

शर्मा जी ने कोई उत्तर नहीं दिया। कारिदे को बुलवा कर अगले सप्ताह इसी दिन फिर बैठक के आदेश देकर आस-पास के अठारह गाँवों में मुनादी करवाने को कह दिया।

वे लौटे तो कामाक्षी ओसारे पर बैठी मीनाक्षी दादी से बतिया रही थी। दादी अमली के बारे में पूछताछ कर रही थी।

कामाक्षी जाने क्या कहती, पर शर्मा जी इसी बीच सीढ़ियाँ चढ़- कर भीतर आ गए।

'वे लोग नहीं आए'

'किन्हें पूछ रहे हैं?'

'वही जो पार्टी में गए हैं।'

'नहीं! अभी तो देर लगेगी। इतनी जल्दी कहाँ लौटेंगे।'

शर्मा जी के आते ही दादी उठकर चली गयी।

आधे घंटे में पार्वती और कुमार अकेले ही लौटे।

'क्यों? वे लोग कहाँ रह गए?'

'बाऊ जी, पार्टी में एस्टेट मालिक शारंगपाणि नायडू आये थे। पार्टी खत्म होने के बाद उन्होंने भैय्या और उनकी दोस्त को एस्टेट गेस्ट हाउस में रात ठहरने के लिए कहा। वे लोग वहीं चले गए।'

'कौन? नायडू!'

'हाँ, बाऊजी।'

कामाक्षी ने कुमार की बातें ठीक से नहीं सुनीं। शर्मा जी से फिर पूछा, वे 'लोग कहाँ हैं।' शर्मा जी ने वही बात फिर दोहराई।

XXX
 

वेणु काका के घर पार्टी खत्म होते-होते दस बज गए थे। वेणु- काका और बसँती ने ही नायडू को सुझाया था कि वे रवि और कमली [ ७४ ]
को आमंत्रित करें। उस रात उस प्रेमी युगल को एकांत सुख देने के लिये यह योजना बनायी गयी थी। कामाक्षी क कट्टरपन और कठोर नियमों से एक दिन तो मुक्ति मिले।

वेणू काका का एस्टेट भी पहाड़ में ही था। पर वहाँ तक पहुँचने के लिए चार घंटे की यात्रा करनी पड़ती। पर नायडू का एस्टेट घंटे भर की दूरी पर ही था। वहाँ ठहरने की अच्छी व्यवस्था थी। नायडू एस्टेट में भी परिवार के साथ रहा करते थे। पर वेणु काका ने अपने एस्टेट में एक छोटा सा गेस्ट हाउस भर बनाया था। यही कारण था कि नायडू के एस्टेट बंगले में रवि और कमली के साथ वेणुकाका बसंती भी चले गये।

एक कार में नायडू, वेणुकाका, बसंती, दूसरी कार में रवि और कमली थे। ठंडी हवा के झोंके में कमली जल्दी ही सो गयी। रवि चूंकि दोपहर में खूब सो लिया था, इसलिए उसे नींद नहीं आयी। कंधे से लगी कमली के देह की गंध उसे उत्तेजित करने लगी। उसे लगा सुन्दर युवती के वालों की सुगंध और चमेली की सुगंध के बीच कोई रिश्ता भी हो सकता है। कुछ फूलों की सुगंध आलिखित कवि- ताओं की तरह होती है। शब्दों के माध्यम से व्यक्त कविताओं की अर्थ सीमा निर्धारित होती है अलिखित कविता असीमित होती है। श्रेष्ठ फूलों की सुगंध भी असीमित होती है। सुगंध और कवियों के बीच बहुत मधुर रिश्ता हो।

फूलों की यह सुगंध रवि को बहुत सालों पीछे ले गयी। शंकर- मंगलम में अलसुबह ये फूल खिलते, बाग में सुगंध फैलाते और वह ठंडे पानी में मुँह हाथ धोकर ओसारे पर आकर बैठता। अमर कोश और शब्द मँजरी बाऊ के सामने बैठकर याद करता। सुबह साढ़े तीन- बजे से साढ़े पांच बजे तक―बाऊ के साथ संस्कृत शिक्षा फिर सुबह बच्चों के साथ स्कूल में अंग्रेजी की विधिवत् शिक्षा। उन दिनों गाँव में बिजली कहाँ थी? बाऊ जी से दीया भी जलाने नहीं देते।' ओसारे [ ७५ ]
पर बैठकर अपनी गुरु गंभीर आवाज में शुरू कर देते थे 'रामः रामौ रामा। रामम् रामी रामान...राम के रूप को दोहराते वक्त, वह सुबह, वह सुगंध याद आने लगती। एक बार भी भूल कर देता, तो बाऊ को लगता वह सो गया है, कान उमेठ देते। दोनों का सम्मिलित स्वर गूँजता और शकरमंगलम में सुबह होती। निघंटु, शब्द―आदि समाप्त करने के बाद रघुवंश का अध्ययन याद आया। शंकरमंगलम में बिताया वह अनुशासन युक्त बाल्य काल, कुछ-कुछ स्वतंत्रता लिये हुए कालेज के दिन, फिर पैरिस की स्वच्छंद जिंदगी-कमली से प्यार, सब कुछ जैसे कितनी जल्दी में घट गए और अब पहाड़ की ओर यह यात्रा। उसे लगता है, उम्र चाहे जितनी हो जाये, पहाड़ की ओर चढ़ते हुए, या तेजी से अपनी ओर आती समुद्र की लहरों को झेलते हुए आदमी बिल्कुल बच्चों की तरह हो जाता है। इन दोनों ही स्थानों पर आदमी की उम्र सहसा कम हो जाती है। बुढ़ापा जाने कहाँ गायब हो जाता है। थकान, हिचकिचाहट सब गुम होने लगते हैं। पहाड़ पर चढ़ते हुए ऊपर चढ़ते जाने का उत्साह हावी होने लगता है।

कार जैसे ऊपर चढ़ती चली गई, हवा कानों के पास सनसनाती हुई निकलती रही। ठंडक बढ़ने लगी तो रवि ने खिड़की के दरवाजे बन्द कर दिए। कमली फूलमाला की तरह उस पर टिककर सो रही थी।

बाऊ के अनुशासन में बंधी बधाई जिंदगी जीते हुए आधी नींद में ही उठकर श्लोक रटते हुए उसने तो कल्पना तक नहीं की थी, कि वह कभी विदेश जायेगा, या किसी विदेशी युवती से प्यार करेगा। कुछ भी घटा है, वह सच है। प्रमाण है यह कमली। निश्शब्द संगीत की तरह आश्वस्त करने वाला यह सौदर्य आप्लावित करने वाला यह यह मधुर स्वभाव......।

चूँकि रात का वक्त था, और रास्ते में कई हेयरपिन वाले मोड़ पड़ते रहे, वे साढ़े ग्यारह के लगभग ही एस्टेट वाले बंगले तक [ ७६ ]
पहुँच जाए।'

एस्टेट में ठंड बढ़ गयी थी वेणु काका और बसंती नायडू के बंगले में ही ठहर गया। बंगले की कुछ ऊँचाई पर गेस्ट हाउस था। ऊपर जाने के लिए धुमावदार सड़क थी। नायडू ने उन्हें बंगले तक छोड़ दिया, जैसे वे दोनों हनीमून मनाने आए कोई नवविवाहिता जोड़े हों। बेडरूम में हीटर लगा था। नायडू सब दिखा बुझाकर चले गये। थोड़ी ही देर में नौकर थर्मस में गरम दूध और प्लेट में फल दे गया

कमली जग गयी थी। रवि उनके पास बैठ गया था। धीमे से पूछा, 'कमली, लगता है, दोपहर भर तुम सोई नहीं। क्या करती रही? तुम ऊपर तो थी नहीं। नीचे अम्मा से बातें करती रही थी क्या?'

कमली ने सारी बातें कह सुनाई।

'अम्मा का व्यवहार कैसा था? गुस्से में तो नहीं थी?'

'कह नहीं सकती। गुस्से में तो नहीं लग रही थीं। हाँ, सामान्य भी नहीं लग रही थीं।'

'तुम थोड़ा धैर्य रखो, और उसका मन जीत लो। अम्मा की पोढ़ी की जितनी भी हिन्दुस्तानी माँ हैं, उनका मन इतना ही जिद्दी होता है। वे इतनी जल्दी नहीं मानतीं।'

'मुझे लगता है, हमारे रिश्ते को लेकर माँ के मन में संदेह और भय भी। बसंती ने बताया था कि मेरा बिना बाहों वाला ब्लाउज पहनना अम्मा को अच्छा नहीं लगा। मैंने तुरन्त बदल डाला।'

'तुम्हारे कपड़े पहनने ओढ़ने को लेकर अगर माँ नाराज होने लगी हैं, तो मैं समझता हूँ, यह अच्छी शुरुआत है। यदि एक युवती के पहनने ओढ़ने, बैठने उठने को लेकर उसके प्रेमी की माँ यदि चितित होने लगे, तो समझ लो, वह अपने की भावी सास मानने लगी है।' कमली हँस पड़ी। रवि भी हँस दिया। [ ७७ ]कमली कामाक्षी के स्वर की मधुरता, लोक कलाओं में उसकी प्रवीणता की प्रशंसा करती रही।' आप के यहाँ की स्त्रियाँ ललित कलाओं में कितनी पारंगत होती हैं? मुझे तो ईर्ष्या होने लगी है।'

'यदि एक ही स्त्री अपने से उम्र में वरिष्ठ दूसरी स्त्री से ईर्ष्या करने लगे तो समझो बहू होने की सम्पूर्ण योग्यता उसमें है।'

रवि काफी उत्साहित लग रहा था। कमली ने वेणुकाका के घर भोज में मिले कुछ लोगों के बारे में, उनकी बातों की चर्चा करने लगी।

'एक बात कहूँ कमली जो पुरुष स्त्रियों के सामने संकोच होने का प्रदर्शन करते हैं, उनसे अकेले में सतर्क रहना चाहिए। बहुत अधिक संकोची पुरुष और आवश्यकता पर थोड़ा सा भी संकोच न करने शली स्त्री दोनों ही विश्वसनीय नहीं होते। भोज में जिनसे तुम मिली हो उनमें अधिकांश विघटित व्यक्तित्व वाले हैं। तुम्हारे जैसे यूरोपीय 'कृष्ण कान्शन्सेन्स' "योग" "सेक्रेन्ड बुक्स ऑफ ईस्ट" को देख कर पूर्व के प्रति आकर्षित होते हैं। यहाँ के कुछ कुंठा ग्रस्त लोग पश्चिम को देखकर आकर्षित होते हैं। इसलिए होता यह है, कि अब तुम दोनों मिलते हो, तो जिज्ञासायें विपरीत दिशा की ओर प्रवृत्त होती हैं।

तुम नायडू से विशिष्टाद्वैत के बारे में पूछती हो और नायडू तुमसे 'मौलिन रोज', 'पलोर शो' के विषय में जानना चाहते हैं।"

'आप ठीक कह रहे हैं। पर नायडू या उसके जैसे लोग ही तो भारतीयों के प्रतिनिधि नहीं हैं। इसी भारत में ही तो शास्त्रों, महाकाव्यों के अध्येता तुम्हारे पिता और ललित कलाओं की ज्ञाता तुम्हारी माँ भी है न!

'तुम मेरे माता पिता की जरूरत ने ज्यादा प्रशंसा करने लगी हों, कमली!' [ ७८ ]‘वे लोग इस योग्य हैं ही! मैंने तो ऐसा कुछ भी नहीं कहा, जो उनमें नहीं है।’

रवि को यह जानकर अच्छा लगा कि कमली शंकरमंगलम से या उसके माता पिता से ऊबी नहीं। फ्रेंच युवतियों का स्वाभाविक आकर्षण, अनुशासन, तहजीव निश्छल स्वभाव और समझदारी और एक तरह की खास स्मार्टनेस सब कुछ है कमली में। इन्हीं बातों की वजह से तो वह कमली के प्रति आकर्षित हुआ था। अब उसकी बातों से उसका अंदाज सही साबित हो रहा था। देर तक ये बातें करते रहे फिर सो गये।

पहाड़ी क्षेत्र होने की वजह से सुबह नौ बजे के पहले कोई नहीं उठा। सुबह कोहरे में लिपटी थी और ठंडक भी बढ़ गयी थी। रवि और कमली दस बजे ही उठे। काँफी पीकर बे चलने लगे तो नायडू ने रोक लिया।

‘वाह! पहाड़ आए हैं तो क्या बगैर देखे लौट जायेंगे। पास ही मैं एक झरना है। आराम से नहाया जा सकता है। फिर दस मील दूर ‘एलीफेंट वैली, है, वहाँ हाथी झुन्ड के झुन्ड आते हैं। दुरबीन से देखा जा सकता है। सब देख दाख कर दोपहर तक लौट जाना, वेगुकाका और बसंती ने भी इनका समर्थन किया! कमली की इच्छा भी झरने में स्नान करने और हाथियों के झुंड देखने की थी।

दोपहर ग्यारह के आस-पास गुनगुनाती धूप फैली। धूप निकलने के बाद ही वे झरने तक गये। नायडू रास्ते में इलायची, चाय, काँफी के बागान दिखाते हुए ले गए।

झरने में दूधिया साफ पानी छल-छल कर रहा था। कमली ने बसँती से जानना चाहा कि क्या इतनी तेजी से गिरते पानी में सिर दर्द नहीं हो जायेगा?

बसँती ने उसे बताया कि नारियल का तेल लगाकर नहाना होगा।