तुलसी चौरा/९

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तुलसी चौरा  (1988) 
द्वारा ना॰ पार्थसारथी, अनुवादक डॉ॰ सुमित अय्यर

[ ८९ ]'आना तो नहीं चाहता था। मन नहीं माना। मठ की सम्पत्ति अच्छे लोगों के काम आए और मठ का भी फायदा उसमें हो……।'

'ठीक कहा आपने, इसमें कोई संदेह है? इस बात पर तो दो राय हो ही नहीं सकती।'

'बात तो आप बिल्कुल मीठी करते हैं। पर काम तो विपरीत करते हैं।'

पिछले दिन वाली बटाई की घटना और उस बैठक को स्थगित करने से उत्पन्न सीमावय्यर गुस्सा साफ झलक रहा था।'

ओसारे पर वह भी एक तीसरे आदमी के सामने सीमावण्यर से किसी बहस में, शर्मा जी उलझना नहीं चाहते थे। उनका ज्ञान, उनका विवेक इन्हें तमाम बहमों, लड़ाई झगड़ों की अनुमति नहीं देता। ऊँचे स्वर में बोलना तक वे नहीं जानते। कामाक्षी से बाज वक्त ऊँचे स्वर में बोलना पड़ता, तो वे सकुचा जाते। पर वहाँ मजबूरी थी। सीमावय्यर की तरह वे बातें नहीं कर सकते। वे सीमावय्यर को समझा बुझाकर भेजना चाहते थे।

शाम का वक्त था और ओसारे पर किसी तरह का विवाद संझ- वाती के वक्त नहीं उठाना चाहते थे।

बोले, 'इस वक्त आप क्या चाहते हैं? मुझे देर हो रही है। संध्या वंदन का समय हो रहा है। नदी तक जाना है। आपके पास भी काम होंगे। बड़े आदमियों को मैं देर तक नहीं रोकता। आप बताइए……।' शर्मा जी ने पूछा।

'तो क्या, फिर से बताना होगा? मैंने तो लिखा था न। मियाँ को बह खाली प्लाट दिलवाना है।'

'तो ठीक है। आप यह मियाँ एक पत्र लिखकर दें। उसे मठ भिजवा देता हूँ। जवाब मिलेगा तो बता दूँगा।'

'मेरा पहले वाला पत्र भिजवा दो, काफी है।'

शर्मा जी ने वह पत्र दुबारा पढ़ा और बोले, 'इसमें तारीख [ ९० ]
तो पड़ी ही नहीं। डाल दीजिये।' उनकी ओर बढ़ाते हुए बोले।

घर के भीतर से कोई संझवाती लिए आले पर रख गया। कमली थी यह! लगा एक स्वर्ण दीपक दूसरे दीपक को लिये चला आ रहा : हो। सीमावय्यर और अहमद अली ने भी उसे देखा।

'यह कौन है?'

'यहाँ आयी है।'

'यूरोपियन लगती है।'

'हाँ! संध्या वंदन में देर हो रही है। आम तारीख डाल दीजिये।'

सीमावय्यर ने तारीख डालकर पन शर्मा जी को दे दिया।

'ठीक है, उत्तर आने पर मैं कहला दूँगा।' वे हाथ जोड़कर उठ गए।

सीमावय्यर और अहमद अली चले गए।

शर्मा जी का ध्यान संझवाती लाती कमली पर ही केन्द्रित था। संस्कृत काव्यों में कितनी बार पढ़ा है, 'स्वर्ण दीपक लिए दूसरा स्वर्ण दीपक चलता रहा……।' पर यह तो आज ही प्रत्यक्ष देखा। पर यह हुआ कैसे? क्या दीया वह खुद लायी थी। या किसी ने उसे बताया था। अब तो सीमावय्यर को एक मुद्दा भी मिल गया है।

वे यह अच्छी तरह जानते थे कि इस छोटे से गाँव रवि और कमली ने आने की बात छिपा नहीं पायेंगे। बात तो यूँ भी फैल ही गयी है पर इस गुन्डे के सामने कमली ने यह क्या स्थिति पैदा कर दी। ये चिंतित हो उठे।

सीमावय्यर को यह बात तो मालुम ही हो गई होगी, कि उनके बेटा के साथ एक फ्रेंच युवती ठहरी है। पर कैसा नाटक किया यहाँ पर? जैसे पहली बार देख रहे हों। सीसावय्यर की इसी चालाकी पर तो उन्हें क्रोध आता है।

'मठ से सम्बन्धित कागजात को बक्से में रखकर चौके में झांका [ ९१ ]
तो गुत्थी अपने आप पहले सुलझ गयी। डोसे के लिए आटा पीसती कामाक्षी ने पूछा, 'सुनिए, बाहर शायद कुछ लोग बैठे थे, मैंने पाक को आवाज लगाकर संझनाती रखामे को कहा था। रख आयी कि नहीं। ढीठ हो गयी है लौंडिया। दस बार बावाज लगा चुकी हूँ। जवाब देते नहीं बनता। बस दो अक्षर क्या पड़ जाती है, सिर चढ़ जाता है इनका।'

'पारू कहाँ है? वह तो अभी लौटी नहीं।' शर्मा बी यह वाक्य बोलते-बोलते रुक गये।

'संशवाती रखी है आले में। तुम अपना काम करो,' शर्मा जी ने कहा। कमली का नाम लेकर उसे… किसी वाद विवाद में उलझाना नहीं चाहते थे।'

अच्छा हुआ, कमली भी इस वक्त यहाँ नहीं थी। ऊपर थी शायद। रवि को अपने साथ ले जाना चाहते थे, चार सीढ़ियाँ चढ़ कर आवाज लगायी।

'वह तो अपने किसी दोस्त से मिलने गये हैं।' कमली ने कहा 'कोई काम है? बताइए मैं किये देती हूँ।'

'कुछ नहीं बिटिया! तुम कुछ पढ़ रही थी ना, पढ़ो' शर्मा जी सीढ़ियाँ उतर आए। कमली को आप कहते-कहते रुक गये। गाँव की लड़कियों, बहुओं को, वे तुम कहकर ही सम्बोधित करते हैं उसी उन्न की हो तो हैं! 'आप' कहना अच्छा नहीं लगता। और फिर उनका मन कमली को गैर नहीं समझ पाया था। उसका सुन्दर गम्भीर व्यक्तित्व, भारतीय परम्परा के प्रति रुचि उसकी जिज्ञासा और अपने विपुल ज्ञान से उसने शर्मा जी का मन जीत लिया था।

कामाक्षी को आवाज पर खुद ही संझवाती चुपचाप जलाकर रख गयी। उसका यह व्यवहार उन्हें बहुत सन्तोष ले गया। बस सीमावय्यर की उपस्थिति ही कुछ खटकने वाली बात रही और फिर ऊपर से सीमावय्यर की कमली के प्रति जिज्ञासा। [ ९२ ]इरैमुढिमणि के जाते ही सीमावय्यर अहमद अली के साथ मठ के कारिंदे के उकसाने पर ही आए होंगे, यह शर्मा जी अच्छी तरह समझ गए। वह सीधा सीमावय्यर के पास गया होगा और पूरी बात कह सुनाई होगी। शर्मा जी को लगा कि सीमावय्यर सब कुछ जान कर भी अनजान बनने की कोशिश कर रहे थे। उस बात को उसी ढंग से इन्होंने संभाल लिया। सीमावय्यर के पत्र के साथ वे अपनी टिप्पणी भेज देंगे। किसी विरोध की गुंजाइश नहीं रह जायेगी। उनके पांडित्य और विवेक ने उन्हें इतना आत्म संतोषी बना दिया था कि ईर्ष्या, द्वेष, झगड़ों से वे दूर ही रहना चाहते थे। वे ऐसी कोई हरकत या ऐसी कोई भी बात नहीं कहना चाहते थे जिनसे दूसरों को चोट पहुँचे। यही वजह थी कि वे सीमा- वय्यर के साथ किसी विवाद में उलझना नहीं चाहते थे।

संध्या वंदन के लिए वे घाट की सीढ़ियाँ उतरने लगे तो तीन चार वैदिक पंडित जाप कर रहे थे। जाप समाप्त कर उनके पास आए। सुना, बेटा आया है?

पहले प्रश्न का उत्तर मिलने के बाद अगला सवाल कुछ सकुचा कर पूछा―

'साथ में, कोई और भी है।'

'हो' शर्मा जी ने एक शब्द में उत्तर दिया।

'उनका लहजा ही कुछ ऐसा था कि वे आगे कुछ पूछने का साहस नहीं कर पाए। शर्मा जी नदी तट से लौटे तो अँधेरा घिर चुका था। शिवालय के घंटे शाम के सन्नाटे को तोड़ रहे थे। शिवालय में माथा टेककर ही दे घर लौटे। बीच में कई लोग मिले। औपचारिक प्रश्न, कई जिज्ञासाएँ। वही उत्तर…वही समाधान।

घर की सीढ़ियाँ चढ़ रहे थे, ओसारे पर कामाक्षी की तेज आव़ाज सुनाई दी। पारु और कमली बैठक में कामाक्षी के सामने खड़ी थी।

रवि शायद अब तक घर नहीं लौटा था। शर्मा जी के भीतर [ ९३ ]
आते ही, एक सन्नाटा खिंच गया। पर एक अशांत कसमसार हवा में तैर गयी थी। शर्मा जी को देखकर ही कामाक्षी ने शुरू किया, 'अब आप ही बताइए, यह भी कोई बात हुई?'

शर्मा जी की समझ में आया कि जिस बात को वे सफाई से छिपा गए थे, उसका पता कामाक्षी को चला गया था।

कामाक्षी ने प्रत्यक्ष रूप से कमली को कुछ नहीं कहा, पर पारू पर जिस-जिस तरह उनका गुस्सा बरस रहा था प्रकारान्तर से कमली को प्रभावित कर रहा था। पारू को देखते ही कामाक्षी ने झिड़का था 'कहाँ मर गयी थी? संशवाती जलाने को कहा, तो क्या जवाब देते नहीं बनता। दीयाबाती के बाद घर से बाहर कहाँ निकल गयी थी?'

'मुझे क्या पता, तुमने कब कहा था! मैं तो बाहर से अब आ रही हूँ। मैंने न तुम्हारी बात सुनी न संझवाती की? पारु ने तेज आवाज में उत्तर दिया था। उसकी आवाज सुनकर कमली नीचे उतर आयी थी।

'आपने जब कहा था, तो पारू घर पर नहीं था, मैंने ही संझवाती की थी आज।' कमली की बात को पारु ने ऊँची आवाज में कामाक्षी तक पहुँचायी। कामाक्षी इस पर पार्वती पर बरसने लगी। पर बातें कमली को तकलीफ देने वाली ही कही गयी थीं।

'जहाँ घर की औरतें संज्ञवाती करती हैं, वहीं लक्ष्मी का बास होता है। आने जाने वालों दीयाबाती करते रहें और तू आवारागर्दी करती फिरे, क्यों?'

अम्मा की यह दो टूक बातें पार्वती को अच्छी नहीं लगीं। कमली के संवेदनशील मन को बात चुभ गयी। तभी शर्मा जी लौट आए। भाते ही वे बात समझ गए। जिस विवाद के समय से वे बात को छिपा गए थे, वहीं विवाद उठ खड़ा हुआ।

बेटे पर पूर्ण विश्वास के साथ समर्पित एक युवती हजारों मील दूर-एक पराये देश में आयी है। कामाक्षी ने उसे आहत कर दिया। शर्मा जी को बेहद दुख हुआ। [ ९४ ]'ऐसी क्या अनहोनी हो गयी है, कि तुम चीखे जा रही हो। चुपचाप भीतर जाओ और अपना काम करो―। कामाक्षी को डपट दिया और पास को देखकर बोले, 'पारू, उसे लेकर ऊपर जाओ।' दोनों ऊपर चले गए। उनके जाने के बाद कामाक्षी को डाँटने, लगे 'तुम्हें अपनी बेटी पर नाराज होने का हक है, पर दूसरों का मन दुखाना क्या अच्छा लगता है? कैसी बातें बोल गयी हो तुम?'

'मैं क्या, पुरा गाँव बोल रहा है। आप शायद नहीं जानते।'

शर्मा जी ताड़ गए कामाक्षी युद्ध की तैयारी कर रही है। फिर कोई झगड़ा बड़े और कमली तक बात पहुँचे यह वह नहीं चाहते थे।

'जाओ, अपना काम करो।' उनके स्वर की तेजी में कामाक्षी सक- पका कर भीतर चली गयी।

देर सबेर जिस समस्या के उठने की प्रतीक्षा कर रहे थे, 'वह अब सिर पर आ पहुँची।

कामाक्षी तो अधूरी जानकारी पर ही भड़क उठी है। शर्मा को एक बात साफ समझ में आ गयी कि अब डांट उपटकर इस समस्या को दबाया नहीं जा सकता।

X XX
 

अभी तो कामाक्षी और कमली के बीच सास बहू का औपचारिक रिश्ता भी नहीं बना था, पर लगता है झगड़ा पहले उठ जायेगा। यही कारण था कि वे रवि से साफ-साफ बातें कर लेना चाहते थे। रवि की योजना क्या है, वह क्या करना चाहता है, यह सब बातें वे साफ-साफ कर लेना चाहते थे। अब बात और नहीं दवायी जा सकती। यह सच है कि बाहर दबाव अभी पड़ना शुरू नहीं हुआ, पर घर के भीतर की स्थितियाँ लगातार खिलाफ होने लगी थीं सीमावय्यर का प्रश्न, घाट पर दूसरे पंडितों की जिज्ञासा, इनके सबके बारे में सोचने लगे। कुल मिलाकर यह बात जल्दी ही गाँव में अफवाह बनकर फैलने वाली हैं। [ ९५ ]कामाक्षी की बातों के लिए कमली से क्षमा याचना कर लेना जरूरी लगा। ऊपर सीढ़ियाँ चढ़ने लगे थे कि कानों में 'दुर्गा स्तुति' अमृत की तरह उतरने लगी।

'सर्व मंगल मांगल्ये, शिवे सर्वाथ साधके,
शरण्ये बयम्बके देवी नारायणी नमोस्तुते।'

पार्वती बोल रही थी, कमली उसे दोहरा रही थी। कमली के उच्चारण में कहीं भी अटपदापन नहीं था। शर्मा जी के रोयें खड़े हो गए। इतना साफ उच्चारण है इस लड़की का और मूर्ख कामाक्षी इसी के लिये कह रही थी कि इसके दीयाबाती करने से लक्ष्मी नहीं टिकेगी। कामाक्षी पर उन्हें क्रोध आया। शर्मा जी सीढ़ियों पर ही खड़े रहे। देश काल, आचार संस्कृति जाति, रंग―इन सबके आधार पर पूरी मानवजाति के बीच दरार पैदा करने वालों पर उन्हें क्रोध आया। ऊपर जाकर उनके एकांत को भंग करना क्या जरूरी हैं? उन्होंने सोचा। पर कमाक्षी की हरकत के लिये क्षमा याचना किये बगैर, उन्हें चैन नहीं मिलेगा।

उन्होंने कमरे में प्रवेश किया कमली और पार्वती ने श्लोक पाठ रोक दिया और उठकर खड़ी हो गयी।

'कामाक्षी की उम्र हो गयी पर वह नहीं जानती है कि किससे क्या कह रही है।―'मन में मैल मत रखना बेटी, भूल जाना इसे...।'

कमली समझ गयी कि बात उसको लक्ष्य कर कही जा रही है। उसके उत्तर की प्रतीक्षा किये बगैर ही वे तेजी से सीढ़ियाँ उतर गए। मन बहुत परेशान था। इससे तो अच्छा यही होता कि वेणुकाका की सलाह पर कमली और रवि को उनके ही घर ठहराते। इससे क्या हुआ, यह शुभ कार्य अब कर डालेंगे। हालांकि इससे घर और बाहर समस्यायें पैदा होंगी। रवि के लौटने पर इस बारे में विस्तार से बातें करेंगे, और एक निर्णय लेंगे। उन्हें एक ही बात का भय था, ऐसा न हो कि एक के बाद एक ऐसी घटनाएँ घटती चली जाएँ [ ९६ ]
कि कमली का फूल सा मन दुख जाए।

कामाक्षी की बातों पर, उसके व्यवहार पर लगातार नजर रखना असंभव है। कमली पर उन्हें रह-रहकर तरस आ रहा था। स्वच्छंद युवती को इस घर की रूढ़िवादी मान्यताओं के पिंजड़े में वे कैद नहीं करना चाहते। कमली और रवि के यहाँ आने के पहले जाने कितनी हिचकिचाहट थी। पर उसमें घृणा का अंशमात्र भी नहीं था। कमली के आने के बाद, उससे मिलने के बाद रही सही हिचकिचाहट भी कहीं गायब गयी और उनके भीतर एक तरह का स्नेह भाव पनपने लगा था।' उन्हें लगा, यह देह का आकर्षण मात्र नहीं है दोनों के आकर्षण की बुनियाद है, एक दूसरे की स्वभावगत विशेषताएँ। रवि उसकी गोरी चमड़ी के प्रति आकर्षित होकर उसे मात्र अपनी दैहिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये नहीं लायेगा। यह सचमुच गांधर्व संबंध है। रवि ने ठीक ही लिखा था। दोनों के समर्पण भाव और प्रेम के प्रति वे आश्वस्त थे। देह के अलावा विचारों का, संवेदनाओं का, बुद्धि का साम्य ही इस आकर्षण के बुनियादी कारण रहे होंगे। यह वह बखूबी समझ गए।

कामाक्षी की तरह वे इनसे घृणा नहीं कर सकते। पूर्ण ज्ञान की उदारता जिसमें हो, वह ईर्ष्या, घुणा आदि दुर्गुणों का दास नहीं हो सकता। जहाँ ईष्या द्वेष, जैसी ओछी भावनाएँ हों वहाँ पूर्ण ज्ञान नहीं होता।

रवि लौट आया। शर्मा जी ने ओसारे पर ही उसे रोक कर कहा, 'मैं घाट पर जा रहा था। तो तुम्हें बहुत पूछा, तुम मिले नहीं। मैं तुमसे अकेले में बात करना चाहता हूँ।'

'सुन्दररामन ने बुलवाया था। वहीं चला गया था।'

'बातें यहीं करें, कि घाट तक चले चलें ।'

'क्यों, यहीं पिछवाड़े में बगीचे में बैठकर बातें कर लेते हैं।'

'चलो, फिर....।' [ ९७ ]दोनों पिछवाड़े के कुएँ के पास बनी सीमेंट के चबूतरे पर बैठ गए।

बातें शुरू करने के पहले शर्मा जी ने भूमिका बाँधी। कमली के बारे में कामाक्षी की शंकाएँ, उसके प्रश्न, संशवाती की घटना से उठा विवाद, सीमावय्यर का प्रश्न, घाट पर पंडितों की पूछताँछ-एक-एक कर बताते चले गये। बोलते-बोलते एकाएज रुक गए। रवि की प्रति- किया जानना चाहते थे।

'आप ठीक कह रहे हैं, बाऊ जी। यह तो मैं अपेक्षा कर ही रहा था। पर अब मुझे क्या करना होगा, यह तो बताइए।'

'मुझे गलत मत समझना। तुम्हारा पत्र मिलने पर मेरे मन में जो क्षोभ उभरा था, वह अब लेश मात्र भी नहीं रहा। कमली मुझे बहुत पसंद है। तुम्हारे प्यार में मैं कोई कमी नहीं पाता। पर तुम यह मत भूलना कि तुम्हारी माँ, घर, गाँव सब इसके विपरीत है।'

'आप इसे सही समझ रहे हैं, यह मेरा सौभाग्य है।'

'मैं सही समझ रहा हूँ वह ठीक है, पर यह मत भूलना कि मैं भी समाज के नियमों से मुक्त नहीं हूँ।'

'यही तो अपने देश की विडम्बना है कि हमारे यहाँ के विद्वान बुद्धिजीवी भी कायर हैं।'

'देखो बेटे, ज्ञान और सामाजिकता दोनों अलग बातें हैं। मैं यह अपने लिये नहीं कह रहा। शाम जो घटना घटी थी, यदि इसी तरह की घटनाएँ एक के बाद एक घटती चली जायें तो... उसका मन कितना दुखी हो जाएगा कभी सोचा तुमने।'

'तो बाऊ जी, आप ही बताइए, क्या किया जाए। यह तो एक या दो दिन की बात नहीं है। मैं इस बार एक वर्ष के लीव में आया हूँ। वह भारत के औपनिवेशिक फ्रेंच समाज पर और भारतीय संस्कृति की फ्रेंच संस्कृति पर पड़े प्रभाव पर शोध कार्य करने आयी है। इस कार्य के लिये अमेरिकन फाउंडेशन उसकी मदद कर रहा है। वह भी [ ९८ ]
साल भर यहीं रहेगी। मैं भी लगभग कुछ ऐसे ही एंसाइनमेंट पर आया हूँ। हमारा मुख्यालय शंकरमंगलम रहेगा....।’

‘मुझे कोई आपत्ति नहीं है। तुम साल भर यहाँ रहोगे यह मेरे लिए खुशी की बात है।’

‘फिर आप चिंता किस बात की कर रहे हैं, बाऊ?’

‘यही कि एकदम गंवार और दकियानूस औरत के आधिपत्य में तुम दोनों यहाँ रहकर काम कर सकोगे या नहीं, मेरी तो चिंता इसी बात की है कि इस घर में मेहमान की तरह जो आयी है उसका मन दुखे।’

‘कमली मेहमान नहीं है बाऊ। वह इस घर की ही एक सदस्या है।’

शर्मा जी कुछ हिचके, फिर पूछ लिया।

‘ठीक है, तुम कहते हो, और मैं भी मान लेता हूँ। पर तुम्हारी मांं? उसे तो अभी पूरी बात नहीं मालूम है। पर हजार शंकायें हैं उसके दिमाग में। तुम्हारी माँ के भय से ही एकबारगी सोचा था कि तुम दोनों को वेणुकाका के घर ठहरा दूँ।’

‘अब बात समझ में आयी है, बाऊ! आप यही पूछना चाहते हैं न कि इस माहौल में हमारा यहाँ रहना संभव है या नहीं।’

‘तुम्हारे ठहरने के बारे में मुझे कोई चिंता नहीं है। यह घर तुम्हारा है और तुम्हारे मां-बाप और तुम्हारे बीच कोई झगड़ा होने से रहा। समस्या कमली की है। यदि तुम्हें आपत्ति न हो तो कमली को वेणुकाको के घर ठहरा देंगे। वे लोग प्रगतिशील विचारों के हैं, इसलिए वहाँ कोई समस्या नहीं होगी।’

‘अगर ऐसा हुआ, तो उसे अकेले वहाँ भेजते अच्छा नहीं लगेगा। मुझे भी साथ ही जाना होगा।’

‘उसके जाने से तो कुछ नहीं होगा। अगर तुम भी साथ चले गए तो अफवाहें फैलेगी।’