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दुखी भारत/२५ बुराइयों की जड़-दरिद्रता

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प्रयाग: इंडियन प्रेस, लिमिटेड, पृष्ठ ३४८ से – ३६६ तक

 

पचीसवाँ अध्याय
बुराइयों की जड़––दरिद्रता

"भारतवर्ष दिनों दिन शक्ति-हीन होता जा रहा है। हमारे शासन के अधीन जो महान् जन-समुदाय है, उसका जीवन-रक्त शिथिल पड़ गया है, तिस पर भी वह बड़ी शीघ्रता के साथ कम होता जा रहा है।"

––एच॰ एम॰ हिंडमैन

('भारत का दिवाला' नामक पुस्तक में, पृष्ठ १५२)

श्रीयुक्त डब्ल्यू॰ एस॰ लिली अपनी 'भारतवर्ष और उसकी समस्याएँ' नामक पुस्तक (पृष्ट २८४-५) में लिखते हैं:––

"किसी राष्ट्र की उन्नति की पहचान यह नहीं है कि वह विदेशों को बहुत माल भेजने लगा है, दस्तकारी और अन्य व्यवसाय बहुत बढ़ गये हैं––तथा उसने अनेक नगर बसा लिये हैं। कदापि नहीं। उन्नति-शील देश वह है जहाँ के निवासियों का बृहत् समूह मानव-जीवन––अल्प व्यय में सुख का जीवन व्यतीत करने के योग्य आवश्यक वस्तुओं को कम से कम परिश्रम से उत्पन्न कर सके। क्या इस कसौटी पर कसने से भारतवर्ष समुन्नत कहा जा सकता है?

" 'सुख' शब्द का प्रयोग वास्तव में भौगोलिक परिस्थितियों से सम्बन्ध रखता है। भारत जैसे गर्म देश में सुख का आदर्श अत्यन्त निम्न है। साधारण वस्त्र और साधारण भोजन; यही यथेष्ट है। एक जलपूर्ण कूप, थोड़ी सी खेती के योग्य भूमि, एक छोटा सा बग़ीचा––इन्हीं से भारतीय के हृदय की अभिलाषाएँ तृप्त हो जाएँगी। यदि आवश्यकता हो तो इसमें उनके काम के कुछ आवश्यक पशु भी सम्मिलित कर दीजिए। बस भारतीय प्रजा का इतना ही आदर्श है। इसे भी बहुत कम लोग प्राप्त कर पाते हैं। भारतवर्ष में लाखों किसान ऐसे हैं जो केवल आधी एकड़ भूमि की सहायता से जीवन से युद्ध कर रहे हैं। उनके अस्तित्व से और भूख से दिन-रात युद्ध होता रहता है। युद्ध का अन्त प्रायः उनकी मृत्यु में होता है। उनके सामने यह समस्या नहीं है कि वे मनुष्य का जीवन––अपने छोटे सुख के आदर्श का जीवन––व्यतीत करें; परन्तु यह समस्या है कि वे किसी प्रकार जीते रहें, मर न जायँ। हम यह बड़ी अच्छी तरह कह सकते हैं कि भारतवर्ष में, जिन स्थानों में सिंचाई के प्रबन्ध हैं उनके अतिरिक्त, सर्वत्र, सदा अकाल पढ़ा रहता है।"

इस संसार में भारतवर्ष के निवासी सबसे अधिक ग़रीब हैं। यदि ऐसी दरिद्रता योरप या अमरीका के किसी देश में होती तो अब तक लोगों ने सरकार का तख्ता उलट दिया होता। श्रीयुत अरनाल्ड लप्टन का कथन है[] कि 'भारतवासियों के सम्बन्ध में सबसे प्रथम और सबसे आवश्यक विचारणीय बात यह है कि यहाँ सौ में बहत्तर मनुष्य कृषि-कार्य करते हैं।'

इस सम्बन्ध में हमें वे बतलाते हैं कि[]:––

"यह जानना बड़ा सरल है कि भारतवर्ष के अधिकांश भागों के किसानों में इतनी अधिक दरिद्रता क्यों है? बात इतनी ही है कि भूमि की दशा बड़ी शोचनीय है; उत्पत्ति यथेष्ट नहीं होती; ब्रिटेन की भूमि में जितना उत्पन्न होता है, उसका आधा भी यहाँ नहीं उत्पन्न होता। ब्रिटिश किसानों और ब्रिटिश मज़दूरों को वर्तमान समय में खेती से जो मिलता है यदि उसका आधा ही मिले तो उनकी क्या अवस्था हो? भारतीय कृषक बड़ा घोर परिश्रम करते हैं। वे और उनके पूरे कुटुम्ब कृषि की देख-रेख में लगे रहते हैं। वे प्रातःकाल से काम करना आरम्भ करते हैं और प्रायः बड़ी रात तक काम करते रहते हैं। फिर भी उनके खेतों में प्रति एकड़ जो उत्पन्न होता है, वह ब्रिटिश-खेतों की प्रति एकड़ उपज का आधा भी नहीं होता। अब यदि कोई व्यक्ति सोचे कि इसी उत्पत्ति से उन्हें खेती के कर, नमक के कर और कुछ दूसरे कर देने पड़ते हैं तो उसे भारतीय किसानों को इस शोचनीय आर्थिक दशा पर आश्चर्य न होगा। आश्चर्य इसी में है कि भारत के कृषक जी रहे हैं। उनके जीवित रहने का भी कारण यह है कि उन्होंने कम से कम आय से निर्वाह करना सीख लिया है।

"घास-फूस या ताड़ की पत्तियों से छाया एक मिट्टी का घर उसका महल है। उसका बिछौना पौधों के डंठल या पुआल का बना होता है जो पृथ्वी से मुश्किल से ६ इञ्च ऊँचा होता है। चटाई हुई तो इस बिछौने पर डाल लेता है, नहीं तो यही सोता है। उसके घर में न दरवाजा होता है न खिड़कियाँ। खाना पकाने का या आग जलाने का छोटा सा स्थान बाहर रहता उसके सोने के कमरे के बाहर एक मिट्टी का चबूतरा होता है। उसी को उसकी आराम कुर्सी समझिए। पहनने के लिए उसके पास केवल एक धोती रहती है। जब वह उस धोती को धोता है तब पहनने के लिए दूसरी धोती नहीं होती। वह न तो तम्बाकू पीता है, न शराब; और न अखबार पढ़ता है। वह किसी उत्सव में नहीं भाग लेता। उसका धर्म उसे सहनशीलता और सन्तोष की शिक्षा देता है। इसलिए वह सन्तोषी जीवन तब तक व्यतीत करता रहता है जब तक दुर्भिक्ष उसे पीठ के बल गिरा नहीं देता।"

भारतीय जनता की दरिद्रता के इतने अधिक प्रमाण मिलते हैं कि मिस मेयो के समान विशेष तार्किक व्यक्ति ही इसकी अवहेलना कर सकते हैं। हाल ही में 'दी लास्ट डोमीनियन' नाम की एक पुस्तक प्रकाशित हुई थी उससे भी वैसी ही सनसनी फैल गई थी जैसी मदर इंडिया से। उसे भारतीय सिविल सर्विस के एक भूतपूर्व सदस्य ने 'अल॰ कार्थिल' नाम से लिखा था।

अल॰ कार्थिल ने भारतीय गाँवों का जो वर्णन किया है वह हमारे विषय के इतना अनुरूप है कि उसे हम यहाँ बिना उद्धृत किये नहीं रह सकते[]

"सम्पूर्ण भारत गाँवों में विभक्त है। ये गाँव सैकड़ों और हज़ारों हैं। चारों तरफ़ मिट्टी के समान रूप से बने झोपड़ों का समूह एक या दो मन्दिर, कुछ पुराने वृक्ष, एक कुआँ और बीच में प्राणस्वरूप थोड़ी सी खुली भूमि; बस यही गाँव है। इसके चारों तरफ़ खेती के योग्य भूमि और गाँव का कूड़ा पड़ा रहता है। यहीं किसान जन्म लेता है और मरता है। वास्तविक भारतीय राष्ट्र––वह परिश्रमी और सन्तोषी राष्ट्र जिसकी कमाई से कर अदा होता है, जिसके रक्त-सिञ्चन से साम्राज्य का निर्माण हुआ है, और उसकी रक्षा भी हो रही है––यही है।"

मिस्टर अरनाल्ड लप्टन ने, जिनकी हैपी इंडिया (सुखी भारत) नामक पुस्तक का हम उल्लेख कर चुके हैं, 'भारत के एक बड़े प्रान्त के एक अनुभवी गवर्नर और कुलीन अँगरेज़' की सम्मति प्रकाशित की है जिसने १९२२ के आरम्भ में भारतीय कृषकों के सम्बन्ध में कहा था कि—ये जी नहीं रहे हैं, केवल जीवधारियों में उनकी गिनती है[]।'

सर विलियम हंटर ने, जो एक अत्यन्त निष्पक्ष लेखक और भारतवर्ष के प्रसिद्ध इतिहासकार हैं तथा जो भारतीय जन-संख्या आदि की गणना के कई वर्ष अध्यक्ष रह चुके हैं, प्रकट रूप से यह कहा था कि भारतवर्ष के ४,००,००,००० निवासी पेट भर भोजन कभी नहीं पाते।

श्रीयुत जे॰ सी॰ काटन लिखते हैं[]:—

"यदि ब्रिटिश राज्य की क्षत्र-छाया में भारत की जनसंख्या में कुछ वृद्धि हुई है तो इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि इससे लोगों की साधारण दशा भी कुछ सुधरी हैं। इसका उपाय दो में से केवल एक ही है—या तो निम्न श्रेणी के लोगों की रहन-सहन में विशेषरूप से उन्नति की व्यवस्था की जाय और या फिर लोगों को यथेष्ट संख्या में खेती के काम से छुड़ा कर किसी अन्य व्यवसाय में लगाया जाय।.......

"इन दो में से एक बात भी नहीं की गई। इस विषय के सभी धुरन्धर आचार्य एक-स्वर से कहते हैं कि ब्रिटिश शासन में निन्न श्रेणी के लोगों की दशा और भी अधिक शोचनीय हो गई है।"

भारत-सरकार के कृषि-विभाग के मंत्री श्रीयुत ए॰ ओ॰ ह्यूम ने १८८० ईसवी में लिखा था—'विशेष रूप से उत्तम फसल हुई तब तो गनीमत है। नहीं तो बहुत से लोग साल में कई महीने आधा पेट भोजन करके दिन काटते हैं और उनके कुटुम्ब के लोगों को भी इसी प्रकार रहना पड़ता है।

सर आकलेंड कालविन, जो पहले अर्थ-विभाग के मंत्री रह चुके थे, भारतवर्ष की कर देनेवाली जनता का वर्णन करते हैं कि उनकी आय से उन आवश्यकताओं की भी पूर्ति नहीं होती जिनसे शरीर में प्राण बना रह सकता है। उनका जीवन अत्यन्त दरिद्रता में व्यतीत होता है।'

सर चार्लस इलियट ने, जो पहले आसाम के चीफ़ कमिश्नर थे, १८८८ ईसवी में लिखा था––'मुझे यह लिखने में ज़रा भी सङ्कोच नहीं कि आधे से अधिक किसान वर्ष के एक सिरे से लेकर दूसरे सिरे तक यह भी नहीं जानते कि 'पेट भर भोजन करना किसे कहते हैं।'

'इंडियन विटनेस' नामक ईसाइयों के एक समाचार पत्र में एक बार यह टिप्पणी प्रकाशित हुई थी कि 'यह अनुमान करना अनुचित न होगा कि १०,००,००,००० भारतवासी ऐसे हैं––जिनकी वार्षिक आय ५ शिलिंग प्रति मनुष्य से अधिक नहीं होती।'

एक अमरीकन मिश्नरी ने १९०२ ईसवी में दक्षिण-भारत से लिखा था––"गत वर्षे (१९०१) सितम्बर मास के ३ सप्ताह के दौड़े में मुझे जैसा दुःखद अनुभव हुआ है वैसा जीवन में पहले कभी नहीं हुआ था। मेरे खेमे को लोग रात-दिन घेरे रहते थे और मेरे कानों में केवल एक वाक्य गूँजता रहता था; 'हम बिना भोजन के मरे जा रहे हैं।' लोग दूसरे या तीसरे दिन एक बार भोजन करके जीवन व्यतीत कर रहे हैं। एक बार मैंने ३०० व्यक्तियों की एक धार्मिक सभा की आय की बड़ी सावधानी के साथ परीक्षा की तो मुझे ज्ञात हुआ कि औसत दर्जे पर एक मनुष्य की आय दिन भर में एक फार्दिंग से भी कम होती है। वे जी नहीं रहे थे, किसी प्रकार जीवधारियों में अपनी गिनती करा रहे थे। मैंने ऐसी झोपड़ियों में जाकर देखा है जहाँ लोग मरे हुए ढोरों को खाकर गुज़र कर रहे थे। फिर भी यह दशा, दुर्भिक्ष की दशा नहीं समझी जाती थी! ईश्वर के नाम पर कोई कहे कि यह दुर्भिक्ष नहीं है तो क्या है? भारत की अधिक निर्धन श्रेणियों की दशा अत्यन्त दरिद्रता की दशा है; असाधारण अवस्था है। जीवन अत्यन्त संकुचित और कठोर अवस्था में बीत रहा है। और भविष्य में किसी प्रकार के सुधार की आशा भी प्रतीत नहीं होती। एक ६ मनुष्यों की गृहस्थी––घर, बर्तन, खाट, वस्त्र आदि मिलाकर––१० शिलिंग से भी कम मूल्य की होगी। ऐसे कुटुम्ब की औसतन आय प्रति व्यक्ति के हिसाब से ५० सेंट मासिक से अधिक न होगी और प्रायः उसके आधे से कुछ ही ऊपर होती हैं। इसलिए यह अनुमान सहज ही किया जा सकता है कि इस आय से शिक्षा, सफ़ाई या गृह-निर्माण के लिए बहुत नहीं व्यय किया जाता[]"

पार्लियामेंट की नीली पुस्तक में भारतवर्ष की १८७४-७५ की नैतिक और आर्थिक उन्नति के सम्बन्ध में निम्नलिखित वर्णन जाता है:––

"कलकत्ता में ईसाई धर्म प्रचारकों का जो सम्मेलन हुआ था उसमें बङ्गाल की प्रजा की अत्यन्त शोचनीय और वृणित अवस्था पर विचार किया गया था। इस बात का प्रमाण है कि उन्हें बहुत से कष्ट भोगने पड़ते हैं और उन्हें अत्यन्त आवश्यक वस्तुओं की भी कमी प्रायः सदा ही बनी रहती है।...पश्चिमोत्तर प्रान्तों में इस शताब्दी के आरम्भ से लेकर अन्त तक मज़दूरों की मज़दूरी में कोई अन्तर नहीं पड़ा। और लगान देने पर कृषक के पास जो बच रहता है वह उसके परिश्रम का मूल्य भी नहीं होता।············बहुत से लोग मोटे अनाज खाकर अपना जीवन व्यतीत करते हैं। इसका स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है और लकवा मार जाता है।············कृषक-समुदाय में इस अत्यन्त गरीबी का होना भी एक ऐसा कारण है जिससे कृषि और जुताई आदि में किसी प्रकार का सुधार होना मुश्किल हो जाता है।"

श्रीयुत एच॰ एम॰ हिंडमैन अपनी 'भारतवर्ष का दिवाला' नामक पुस्तक में ७४ पृष्ठ पर लिखते हैं:––

"भारतवर्ष के निवासी दिनों दिन दरिद्र होते जा रहे हैं। लगान वास्तव में ही नहीं, परिस्थिति के साथ उनका जहाँ तक सम्बन्ध है उसको देखते हुए भी बहुत अधिक है। एक के पश्चात् दूसरे अभावों से दरिद्रता का क्षेत्र बहुत विस्तृत होता जा रहा है। अकाल जल्दी जल्दी पड़ रहे हैं। अधिकांश व्यापार ऐसे हैं जो दरिद्रता को बढ़ाने वाले हैं और लोगों को आवश्यकता से अधिक कर-वृद्धि की चक्की में पीस रहे हैं। इन बातों के अतिरिक्त एक भली भाँति सुसंगठित विदेशी शासन भी देश की सम्पत्ति-विकास का एक भयङ्कर कारण है।" वायसराय की कौंसिल के पूर्व के एक सदस्य सर विलियम हंटर ने १८७५ ईसवी में व्याख्यान देते हुए कहा था:—

"सरकार की मालगुज़ारी किसानों के पास इतना भोजन नहीं रहने देती कि वे वर्ष के अन्त तक अपना और अपने कुटुम्ब का पेट भर सकें।

इलाहाबाद के अर्द्ध-सरकारी पत्र पायोनियर ने १८७७ ईसवी में एक लेख में लिखा था:—

"बन्दोबस्त की कर-वृद्धि से त्रसित दक्षिण की प्रजा को ३३ वर्ष के लिए ब्रिटिश के कुशासन को फिर स्वीकार करना पड़ा।.........इस सम्बन्ध में बार बार शिकायतें की गई हैं। और कृषकों की दुःख-गाथा से सरकारी दफ़्तरों की आलमारियां भरी कराह रही हैं। यदि किसी को इन शब्दों के सत्य होने में सन्देह हो तो वह नं॰ ए॰ की सरकारी फाइलें (बम्बई-प्रान्त के कृषकों के सरकारी ऋण-सम्बन्धी काग़जात) देख सकता है। ऐसे घृणित अपराध किसी सभ्य सरकार के विरुद्ध कभी नहीं लगाये गये।"

श्रीयुत विल्फ्रेड स्कैवेन ब्लन्ट, अपनी 'रिपन के शासन में भारत' नामक पुस्तक में पृष्ठ २३६-२३८ पर, लिखते हैं:—

"कोई भी व्यक्ति जो पूर्व की यात्रा से परिचित है बिना यह सोचे नहीं रह सकता कि भारतवर्ष के कृषक कितने दरिद्र हैं। किसी भी बड़ी रेलवे लाइन से, जो देश को दो भागों में विभाजित करती हो यात्रा करने से आपको यह बात जानने के लिए अपना डिब्बा छोड़ कर अन्यन्त्र नहीं जाना पड़ेगा।.....प्रत्येक ग्राम में, जहाँ मैं गया, मैंने, अधिक कर वृद्धि की, कर-वृद्धि में असमानता की, जङ्गल के क़ानूनों की, काम करनेवाले पशुओं की कमी की, और नमक के मूल्य के कारण उनकी अवनति की, और सूदख़ोरों के ऋण में प्रत्येक के ग्रस्त होने की, शिकायतें सुनी....."

इसके पूर्व ये ही लेखक अपनी पुस्तक के २३२ पृष्ठ पर लिखते हैं।

"भारतवर्ष में अकाल और भी भयङ्कर रूप से तथा जल्दी जल्दी पड़ने लगे हैं। गांव की जनता पर और भी अधिक निराशाजनक ऋण लद गया है। उनकी अधारता और भी अधिक बढ़ गई है। लगातार भूमि का मूल्य बढ़ानेवाली पद्धति में परिवर्तन नहीं किया गया। नमक का कर यद्यपि कुछ घट गया है परन्तु यह गरीबों को अब भी लूट रहा है। भूख और वे रोग जो भूख से उत्पन्न होते हैं, बजाय घटने के बढ़ते ही जा रहे हैं। दक्षिण के कृषक इस समय जितने गरीब हो रहे हैं वैसे गरीब शायद संसार में कहीं के किसान न होंगे। धन-सम्बन्धी नियमों में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। भारतवर्ष के निवासियों के व्यवसाय और परिश्रम के बलिदान पर जिस अर्थ-नीति के द्वारा अँगरेज़ी व्यापार और अँगरेज़ों को लाभ पहुँच रहा है यह ज्यों की त्यों बनी है। [पचीस वर्ष पहले जो बुरा था वह अब बहुत बुरा हो गया है] यह सब होने हुए भी भारतवासियों की खुराक उसी प्रकार विदेशियों के मुँह में जा रही है। चारों तरफ़ प्रकट रूप से फैले हुए अकाल और महामारियां आदि ऐसी समस्याएँ हैं जो किसी प्रकार के सरकारी अङ्क-चक्रों-द्वारा यों ही नहीं टाली जा सकतीं। (कोष्ठक के शब्द हमारे हैं।)"

१८८८ ईसवी में लार्ड डफरिन ने भारतवासियों की आर्थिक दशा की गुप्त-रीति से जाँच कराई थी। इस जांच का फल सर्व-साधारण को कभी नहीं बतलाया गया। परन्तु मिस्टर डिग्बी ने अपने चिरस्मरणीय ग्रन्थ में, संयुक्त-प्रान्त और पञ्जाब के सम्बन्ध में जो विवरण उपस्थित किये थे, उनके उद्धरण प्रकाशित किये थे। भारतवर्ष के अर्थ-शास्त्र के विद्यार्थियों के लिए ये विवरण बड़े महत्त्व के हैं। हम संक्षेप में उनका उल्लेख कर सकते हैं। जो विवरण अत्यन्त दिलचस्प हैं उनमें एक ४ अप्रैल १८८८ को श्रीयुन ए॰ एच॰ हरिंगटन कमिश्नर द्वारा तैयार किया विवरण भी है।

श्रीयुत हरिंगटन ने अवध के गज़ेटियर के संग्रहकर्ता श्रीयुत्त बेनेट का मत उद्धृत किया है और उन्हें—'अवध की निम्न से निम्न श्रेणियों की दशा के सम्बन्ध में भी निराशावाद से बिलकुल परे' एक अफ़सर बतलाया है।

हरिंगटन ने लिखा है—'दुःख और अधःपतन के अत्यन्त गहरे गड्ढे में जो जातियां जा पहुंची हैं वे कोरी और चमारों की जातियां हैं। वे सदैव भूखों मर जाने के निकट पहुँची रहती हैं।' अवध में इन जातियों की जन-संख्या १० या ११ प्रतिशत है। इसके पश्चात् श्रीयुत हरिंगटन ने दन लेखों से उद्धरण दिये हैं जो उन्होंने 'अवध की समस्याएँ' शीर्षक के अन्दर १८७६ ईसवी के पायनियर में प्रकाशित कराये थेः—

"यह अनुमान किया गया है कि सम्पूर्ण देशी जनता का ६० प्रतिशत...ऐसी घृणित दरिद्रता में डूबा हुआ है कि उस थोड़ी सी पूँजी में, जिससे कुटुम्ब प्राण धारण किये रहता है, यदि छोटे बच्चों तक की ज़रा ज़रा सी कमाई न जोड़ी जाय तो कुटुम्ब के कुछ लोग अवश्य भूखों मर जायँ।"

भारतवर्ष के अधिकांश लोगों को कभी भर पेट भोजन नहीं मिलता। यह बात ठीक है या नहीं? इसका उत्तर वे निम्नलिखित शब्दों में देते हैं:—

"कृषि-सम्बन्धी ऋण के प्रश्नों पर प्रत्येक दृष्टिकोण से विचार करने के पश्चात् मेरा निजी विश्वास तो यह है कि यह धारणा सर्वथा सत्य है। हाँ, यह बात अवश्य है कि यह संख्या घटती बढ़ती रहती है पर भारत के अधिकांश भाग में ऐसे लोगों की एक यथेष्ट संख्या विद्यमान रहती है।"

इलाहाबाद डिवीज़न के कमिश्नर श्रीयुत्त ए॰ जे॰ लारेन्स ने, जिन्होंने १८९१ ईसवी में पेंशन ली थी, लिखा था:—

"मैं इस बात को जानता हूँ कि निर्धन श्रेणियों में और भूख से अधमरे हुए लोगों में बहुत थोड़ा सा अन्तर है। परन्तु उपाय क्या है?"

संयुक्त-प्रान्त के एक दूसरे जिले शाहजहाँपूर के सम्बन्ध में कहा गया है कि—'भूमि-रहित मज़दूरों की दशा किसी प्रकार भी अच्छी और वाञ्छनीय नहीं कही जा सकती। एक मनुष्य की उसकी स्त्री की और दो बच्चों की सम्मिलित कमाई ३ रुपये मासिक से अधिक नहीं अनुमान की जा सकती। (अमरीका के सिक्के में यह एक डालर से भी कम है) जब अनाज का भाव सस्ता या औसत दर्जे का रहता है, बराबर काम मिला जाता है और सारे घर का स्वास्थ्य अच्छा रहता है तब इस आय से उन्हें दिन भर में एक बार भर पेट भोजन मिल जाता है, अपने सिर के ऊपर के एक फूस की झोपड़ी खड़ी कर लेते हैं और सस्ता कपड़ा तथा कभी कभी एक पतला कम्बल ख़रीद लेते हैं। वर्षाऋतु और शीतकाल में उन्हें निस्सन्देह बहुत कष्ट होता है क्योंकि उनके पास वस्त्रों की कमी होती है और आग के लिए ईंधन का भी प्रबन्ध वे नहीं कर सकते। जलाने के लिए थोड़ी सी सूखी टहनियाँ मिल जायँ तो वे अपना बड़ा भाग्य समझते हैं परन्तु यह भी ईंधन की कमी और उसका दाम बढ़ जाने के कारण उन्हें नसीब नहीं होता।"

बाँदा के कलेक्टर मिस्टर ह्वाइट लिखते हैं:—

"निम्न श्रेणी के बहुसंख्यक लोगों की शारीरिक अवस्था देखने से यह साफ़ साफ़ मालूम हो जाता है कि या तो वे आधा पेट खाना खाकर रहने हैं या अपनी बाल्यावस्था में अकाल की भीषणता का कष्ट भोग चुके हैं; क्योकि यदि कोई भी कम आयु का जीवधारी अपनी शारीरिक बाढ़ के समय में भोजन न पाने के कारण अपना स्वास्थ्य नष्ट कर लेता है तो पश्चात उसे कितना ही पौष्टिक भोजन क्यों न मिले उसकी अवस्था सुधर नहीं सकती।"

गाज़ीपुर के कलेक्टर मिस्टर रोज लिखते हैं:—

"जहां कृषक के पास औसत दर्जे की भूमि होती है, उस पर ऋण का भार नहीं रहता, जहां कर अधिक नहीं होता और उत्पत्ति भी औसत दर्जे की हो जाती है, संक्षेप में जहाँ सब परिस्थितियाँ अनुकूल होती हैं वहीं सब बात को देखते हुए उसकी दशा सुख की होती है। परन्तु अभाग्य से ये अनुकूल परिस्थितियां सदा प्राप्त नहीं होती। साधारणतया अधिकांश ऋण में भी डूबे रहते हैं।"

झांसी डिवीज़न के कमिश्नर मिस्टर बार्ड कहते हैं:—

"इस डिवीज़न का एक अल्प भाग सदैव आधा पेट भोजन पाता है।"

सीतापुर डिवीज़न के स्थानापन्न कमिश्नर मिस्टर बेज बिना किसी सिलसिले के २० कुटुम्बों की जांच का विवरण इस प्रकार देते हैं:—

"प्रतिपुरुष की कमाई प्रति वर्ष १९ शिलिंग २ पेंस या ५ डालर से कुछ कम पड़ती है।"

"प्रतिबालक की कमाई ९ शिलिंग ६ पेंस या + डालर से कुछ कम पड़ती है।" उनकी सम्मति में इन कुटुम्बों को स्वस्थ अवस्था में रखने के लिए यह आय यथेष्ट है। वे कहते हैं—"कुछ कारणों से इस समय यह उचित नहीं है कि उनके सुख में कुछ और वृद्धि की जाय।"

रायबरेली के डिप्टी कमिश्नर मिस्टर अरविन लिखते हैं:—

"सब कृषक साधारण समय में और कुछ चुने चुने सब ऋतुओं में यथेष्ट भोजन पाते हैं। परन्तु कुछ लोग जब फ़सल अच्छी नहीं होती तब भूख से पीड़ित होते हैं और कुछ लोग फसल कटने के समय के अतिरिक्त—जब अन्न खूब इफ़रात रहता है और सरलता से मिल जाता है—शेष सब काल में भूख भूख चिल्लाया करते हैं। मैं नहीं समझता कि जांच में शहरों के निर्धन लोगों को भी सम्मिलित करना ठीक होगा? इसमें किसी को सन्देह नहीं हो सकता कि वे भोजन की तङ्गी के कारण गांववालों से भी अधिक दुःख सहते हैं; विशेष कर अभागिनी पर्देनशीन स्त्रियाँ और वे कुलीन लोग जो इस संसार के मायाजाल में आ फँसे हैं, निर्धनता के कारण अपनी शेष जायदाद बेच बेचकर गुज़र कर रहे हैं और भिक्षा माँगने से शरमाते हैं। अनाज के भाव में जितनी ही तेज़ी होती है उतनी ही उनकी पीड़ा भी बढ़ जाती है। ऐसे लोगों के लिए गल्ले की महँगी का अर्थ है, आधी मृत्यु। हाँ उत्पन्न करनेवाले को, जो वस्तु उसने उत्पन्न की है उसका मूल्य बढ़ जाने से, लाभ होता है।"

वायसराय की कौंसिल के भूतपूर्व सदस्य और कर-विभाग के अनुभवी सदस्य श्रीयुत ट्वायनबी सी॰ एस॰ एल॰ ने कहा कि:—

"इस जांच का जो परिणाम निकलता है वह यह है कि कृषकों में ४० प्रतिशत ऐसे हैं जो पेट भर भोजन नहीं पाते। वस्त्र और मकान की तङ्गी का तो कुछ कहना ही नहीं। जीवित रहने और काम करते रहने के लिए तो उनके पास यथेष्ट सामग्री होती है परन्तु वे कुछ समय तक दिन में एक बार खूब कसकर खाने के लिए प्रायः बड़े बड़े उपवास करते रहते हैं।"

१८९३ ईसवी के पायनियर में ग्रीरसन के निकाले अङ्कों का सार इस प्रकार दिया गया था:—

"संक्षेप में, मजदूरी करनेवाली समस्त जनता और कृषकों तथा कारीगरों के १० प्रतिशत को, या सम्पूर्ण जनता के ४५ प्रतिशत को भोजन का कष्ट, या मकान का कष्ट या दोनों रहते हैं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि ब्रिटिश भारत में १० करोड़ मनुष्य दरिद्रता की चर्मसीमा पर पहुँचे हुए हैं।"

पञ्जाब की गणना भारतवर्ष के सम्पन्न प्रान्तों में की जानी है। भूत-पूर्व फाइनैंसियल कमिश्नर और पंजाब कमीशन के सदस्य मिस्टर आरवर्न 'शान्ति और युद्ध में पन्जाब[] नामक पुस्तक में उस प्रान्त के कृषकों के सम्बन्ध में लिखते हैं:––

"यह ध्यान देने की बात है कि पञ्जब का समन्न कर––१०,२०० पौंड––भूमि-कर से लेकर छोटे से छोटे टिकट के मूल्य तक, प्रायः किसानों की ही जेब से आता है। पढ़े-लिखे लोग और व्यापारी लोग, जिन्हें इस नवीन शासन-पद्धत्ति ने उन दीन कृषकों को हानि पहुँचाकर लाभ पहुँचाया है, प्रायः किसी प्रकार का कर बिना दिये ही निकल जाते हैं।"

पुनश्च[]:--

"सिपाही-विद्रोह के पश्चात् कुल मिलाकर ७ वर्ष अकाल पड़ा; अर्थात्, १८६०-६१, १८७६-७८, १८९६-९७ और १८९९-१९०१ ईसवी में अकाल पड़े। इसके अतिरिक्त जिन स्थानों में लोग वर्षा पर पूर्णरूप से नहीं अवलम्बित रहते वहाँ भी वर्षा की कमी से फसल में कई बार कमी हुई। आरम्भ के अकालों में कुल चार वर्ष पानी के महसूल और सिंचाई की भूमि-कर से पृथक भूमि-कर में कठिनता से २ प्रतिशत की कमी की गई थी और जो कर पश्चात् वसूल कर लेने की आशा से छोड़ा गया था वह तो बहुत ही कम था। १८९६ ईसवी के पश्चात् से, कृषकों की दरिद्रता सरकारी जांच के अनुसार सिद्ध हो जान पर, सरकार लगान छोड़ने या घटाने में कुछ कम कंजूसी से काम लेने लगी। अभाग्य से कृषकों को जो सहायता देना सरकार स्वीकार करती है वह देर से पहुँचती है। इससे जिन्हें इसकी अत्यन्त आवश्यकता होती है––अर्थात् अत्यन्त निर्धन खुद काश्त करनेवाले किसान––वे इससे वञ्चित रह जाते हैं। और इससे केवल उन्हीं धनिकों को लाभ होता है जो किसानों की भूमि गिरवी रख लेते हैं या ख़रीद लेते हैं।...... "यदि यह स्मरण रहे कि भारतीय जनता की आय का औसत प्रति-मनुष्य प्रतिदिन डेढ़ पेंस से भी कम पड़ता है और पूरी जनसंख्या का २५ प्रतिशत इससे भी वञ्चित रह जाता है तो साधारण समय में भी रोज़ कमाने और रोज़ खानेवाले पञ्जाबी कृषकों की दशा का कुछ अनुमान किया जा सकता है। यदि परिस्थिति ऐसी है तो, अकाल की बात जाने दीजिए, साधारण तङ्गी के समय में भी उनकी, बिना ऋण लिये, कर चुकाने की असमर्थता और भूखों मरते मरते बच जाने की दशा सिद्ध करने के लिए प्रदर्शन की आवश्यकता नहीं है।"

कलकत्ता-विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र के भूतपूर्व अध्यापक श्रीयुत मनोहरलाल जुलाई १९१६ के 'इंडियन जनरल आफ़ इकनामिक्स' नामक समाचार पत्र में एक लेख खिलते हुए एक स्थान पर कहते हैं:––

"दरिद्रता, हमें पीस डालनेवाली दरिद्रता ही हमारे अर्थशास्त्र के सामने एक भीषण समस्या है; और इसलिए राष्ट्रीय समस्या भी यही है। इन पंक्तियों के लेखक की समझ में यह हमारे जन-समुदाय की मूर्खता और निरक्षरता से भी अधिक विकराल रूप धारण किये हुए है। इस दरिद्रता से हम नाना प्रकार के रोगों के शिकार बने हुए हैं, हमें प्लेग और दुर्भिक्ष निगले जा रहे हैं और इससे हमारी उन्नति में पग पग पर बाधा पड़ रही है......

"यह उनकी शारीरिक मृत्यु को छोड़ कर और सब प्रकार की मृत्यु का बिल्कुल ठीक चित्र है। इससे मानुषी सभ्यता के किसी भी समुदाय का बोध नहीं हो सकता।"

श्रीयुत मनाहरलाल अब पञ्जाब-सरकार के एक सदस्य हैं और इस पद पर पञ्जाब के गवर्नर-द्वारा नियुक्त हुए

११ जनवरी सन् १९१७ ईसवी को श्रीयुत एस॰ पी॰ पैत्रो ने, जिन्होंने मदरास-प्रान्त की आर्थिक स्थिति के सम्बन्ध में जाँच की थी, मदरास के गवर्नर के सभापतित्व में हुई एक सभा में अपना एक निबन्ध पढ़कर सुनाया था। नीचे हम उस लेख का एक अंश उद्त करते हैं।

"श्रीयुत पैत्रो ने देखा कि एक विशेष गाँव के कृषकों के बजट में प्रतिवर्ष २९ रुपये ९ आने की कमी पड़ती जाती थी और उनके लिए प्रतिदिन भरपेट भोजन पा जाना सम्भव नहीं था। इसी प्रकार चिकाकोलो डिवीज़न में एक गाँव की जांच करने पर उन्हें विदित हुआ कि उस गाँव के एक साधारण ज़मीन्दार की, जिसके पास सूखी और तर दोनों प्रकार की जमीन थी, वार्षिक आय १२९ रुपये ८ आने थी और व्यय, चावल, तेल वस्त्र आदि का मूल्य मिलाकर, १८१ रुपये ८ आने था। इस प्रकार प्रतिवर्ष उसे ५२ रुपये का घाटा होता था। १९०७ ईसवी में उस कुटुम्ब के मालिक ने व्याह करने और मुकदमा लड़ने के लिए ३८० रुपये ऋण लिये। इस ऋण को उसने १९१३ ईसवी में चावल बेच कर और मोटे अन्न पर तथा चावल के कणों पर गुज़ारा करके चुका दिया। उस जमींदार के कथनानुसार उसके कुटुम्ब को केवल जनवरी से मार्च तक पेट भर भोजन मिला। एक दूसरे कुटुम्ब को अपने जमींदारी के गाँव से ३१६ रुपये की आय हुई। और व्यय हुए ३२१ रुपये ६ आने। इसके अतिरिक्त उस कुटुम्ब पर पहले का ऋण भी था। एक दूसरे कुटुम्ब की जमींदारी से उसे ७७८ रुपये की आय हुई और व्यय हुए ६९८ रुपये ४ आने। इस प्रकार उसे ६८ रूपये की बचत हुई। इसका कारण यह था कि उस कुटुम्ब में अत्यन्त किफायत के साथ व्यय किया जाता था। यह लाभ नहीं था बल्कि वह मजदूरी थी जो कुटुम्ब के लोगों ने खेत पर स्वयं परिश्रम करके १४ रुपये प्रतिमनुष्य प्रतिवर्ष के हिसाब से कमाये थे।"

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सरकार-द्वारा किये गये अनुमान के अनुसार कुछ समय पूर्व तक भारतवासियों की वार्षिक आय का औसत प्रतिमनुष्य ३० रुपये था। भारत के अर्थसचिव लार्ड क्रोमर ने १८८२ ईसवी में भारतवासियों की वार्षिक आय का औसत २७ रुपये प्रतिमनुष्य बतलाया था। लार्ड कर्जन, भूतपूर्व वायसराय, ने ८५ प्रतिशत कृषकों की वार्षिक आय का औसत ३० रुपये प्रतिमनुष्य अनुमान किया था। १९०१ ईसवी में बजट पर व्याख्यान देते हुए लाई जार्ज हैमिल्टन ने, जो उस समय भारत-मंत्री थे, वार्षिक आय का औसत प्रतिमनुष्य ३० रुपये (२ पौंड) बतलाया था। श्रीयुत विलियम डिग्बी, सी॰ आई॰ ई॰ ने, लोगों की आर्थिक और प्रौद्योगिक अवस्था का बड़ी सावधानी के साथ अध्ययन करके आवश्यकता से कहीं अधिक प्रमाण इस बात के दिये हैं कि भारतवासियों की वार्षिक आय का औसत प्रतिमनुष्य १७ रुपये ८ आने (करीब ६ डालर) से अधिक नहीं है। यदि हम रुपये के मूल्य पर विचार करें जो अमरीका के सिक्के में करीब ३३ सेंट होता है तो हमें भारतवर्ष की चकित कर देनेवाली लाखों की संख्या का पता चलता है जो केवल ६ शिलिंग से १० शिलिंग तक वार्षिक या करीब २ सेंट दैविक व्यय से जीवन व्यतीत कर रहे हैं। यह सरकारी अनुमान है।

रेवरेंड डाक्टर सन्डरलेंड भारत के अकालों के सम्बन्ध में अपनी सम्मति को पुष्ट करने के लिए निम्नलिखित बातें और अङ्क उपस्थित करते हैं:––

"सच बात तो यह है कि भारतवर्ष की दरिद्रता एक ऐसी वस्तु है जिसकी हम तब तक कल्पना नहीं कर सकते जब तक हम स्वयं उसे अपनी आंखों से देख न लें। ओफ़! मैंने उसे देखा है...... क्या यह कोई आश्चर्य है कि भारतीय कृषक अपनी आवश्यकता के समय के लिए अचाकर नहीं रख सकता।......प्लेग-द्वारा उनका जो सर्वनाश होता है उसका मुख्य कारण उनकी महान् दरिद्रता ही है। इस भयङ्कर महामारी से प्राणों की जो क्षति होती है वह दिल दहला देनेवाली है। १९०१ ई॰ में इससे २,७२,००० मनुष्य मरे; १९०२ ई॰ में ५,००,०००; १९०३ ई॰ में ८,००,०००; और १९०४ ई॰ में १०,००,००० से भी अधिक यह महामारी बिना किसी रोकथाम के अब भी अपना काम कर रही है। अधिक समयों तक भरपेट भोजन ना पा सकने के कारण लोगों की शक्ति बहुत घट गई है। जब तक भारतवर्ष में वर्तमान गरीबी बनी हुई है तब तक प्लेग का दमन करने की आशा नहीं की जा सकती।......भारतवर्ष में अकाल पड़ने का वास्तविक कारण वर्षा का अभाव नहीं है; जनसंख्या का बढ़ जाना भी इसका कारण नहीं है; यह है भारतवासियों की निकृष्ट, वृणित और भयङ्कर दरिद्रता!"

इस सम्बन्ध में हाल में जिन लोगों ने अनुसन्धान किये हैं उनमें श्रीयुत अरनाल्ड लप्टन का नाम लिया जा सकता है। इन्होंने अपनी पुस्तक, हैपी इंडिया में, जिसका कि हम उल्लेख कर चुके हैं इस समस्त विषय को भूसा में से अनाज की तरह निकाल कर रख दिया है। मिस्टर लप्टन ने भारत की राष्ट्रीय आय का लेखा लगाने की चेष्टा की है और वे निम्नलिखित परिणाम पर पहुँचे हैं[]:––

"जो लोग सीधे ब्रिटिश सरकार के शासन में हैं उनकी––अर्थात् २४,७०,००,००० भारतवासियों की कृषि और दस्तकारी की––आय जोड़ दी जाय तो १,९०,००,००,००० पौंड होती है। या नं॰ ७ के अङ्क-चक्र को लें तो ९०, २९,३६,००० पौंड होती है। इस प्रकार प्रति मनुष्य की वार्षिक आय का औसत ७ पौंड ६ शिलिंग या ७ पौंड १२ शिलिंग होता है। या प्रत्येक पुरुष, स्त्री या बालक की आय प्रतिदिन ५ पेंस होती है।

"संयुक्त-राज्य की समस्त जन-संख्या की अर्थात् ४,७०,००,००० मनुष्यों की सन् १९२० ईसवी की २,५०,००,००,००० पौंड आय पर विचार करें तो वार्षिक आय का औसत प्रतिमनुष्य लगभग ५३ पौंड पड़ता है। यह आय भारतवर्ष के प्रतिमनुष्य की वार्षिक आय की अठगुनी के लगभग पहुँचती है।"

प्रोफ़ेसर के॰ टी॰ शाह की 'भारत का धन और उसकी कर सहन करने की शक्ति' नामक पुस्तक से (बम्बई १९२४) नीचे हम एक अङ्क-चक्र उद्धृत करते हैं। इसमें प्रतिमनुष्य की वार्षिक आय के सम्बन्ध में भिन्न भिन्न आचार्य्यों के प्रमाण देखिए[१०]:—

अनुमानकर्ता सन् प्रतिमनुष्य की आय का औसत
दादा भाई नौरोजी... ... १८७० २० रुपये
बैंरिग-बारबर... ... ... १८८२ २७ "
डिग्बी... ... ... १८९८-९९ १८.९ "
लार्ड कर्ज़न... ... ... १९०० ३० "
डिग्बी... ... ... १९०० १७.४ "
मिस्टर फिंडले शीराज़... १९११ ५० "
माननीय सर बी॰ एन॰ शर्मा[११] १९११ ८६ "
प्रोफ़ेसर शाह... ... १९२१-२२ ४६ "

भारतवर्ष की दरिद्रता की मुख्य पहचान यहाँ के इनकम टैक्स देनेवाले लोगों की संख्या है। ८ मार्च १९२४ ईसवी को बड़ी व्यवस्थापिका सभा में किये गये एक प्रश्न के उत्तर में फाइनेंस मेम्बर ने बतलाया कि २४ करोड़ जनसंख्या में इनकम टैक्स देनेवालों की संख्या १९२२-२३ में २,३८,२४२ थी। कम से कम २,००० रुपये की वार्षिक आय पर इनकम टैक्स लगाया जाता है। किसान लोग केवल जम़ीन का लगान देते हैं, इनकम टैक्स नहीं। मिस मेयो ने जिन प्रमाणों के आधार पर भारतवर्ष की आर्थिक स्थिति का वर्णन किया है वे विचित्र ही प्रकार के हैं। अपनी पुस्तक के ३७५ पृष्ट पर सर्वसाधारण की आर्थिक स्थिति के सम्बन्ध में वह इस प्रकार लिखती है:––

"ज़रा भी आर्थिक स्थिति सुधरी तो किसान लोग ऐसी ऐसी अनावश्यक वस्तुएँ खरीदने लगते हैं जिन्हें किसी समय में वे स्वप्न में भी नहीं प्राप्त कर सकते थे। फरवरी १९२६ ईसवी में, अलीगढ़ के एक मेले में केवल एक समाह में लगभग १,००० पौंड के सस्ते बूट बिक गये। और बेचनेवालों को २० प्रतिशत का लाभ हुआ। जिन लोगों ने, इन बूटों को खरीद कर पहना उन्होंने बीस वर्ष पहले इसके सुख का नाम तक न सुना था। उसी अवसर पर छाते, लैम्प और स्टील के सुन्दर रंगे हुए ट्रकों की बड़ी बड़ी दूकानें कई बार खाली हुई और कई बार भरी गई। इन सब वस्तुओं के खरीदनेवाले केवल साधारण किसान थे। आज-कल वे लोग चाय, सिगरेट, दियासलाई, लालटेन, बटन, चाकू, आइना और फोटोग्राफ़ आदि धड़ाधड़ खरीद रहे हैं जो १५ वर्ष पूर्व ऐसी कोई वस्तु नहीं खरीदते थे। तीसरे दर्जे के मुसाफिरों का रेल द्वारा अधिकाधिक संख्या में यात्रा करने से भी यही जान पड़ता है कि उनके हाथ में रुपये हैं। अमरीका में जो स्थान 'मोची' का है वही भारत में कृषकों की रेल-यात्रा का। १९२४-२५ में १२,४६,००० अव्वल दर्जे के यात्रियों के मुकाबिले में ५८,१८,०४,००० तीसरे दर्जे के यात्रियों ने रेल से सफर किया। इससे भी यही सिद्ध होता है कि कृषकों के पास व्यय करने के लिए यथेष्ट धन है। तीसरे दर्जे की गाड़ियों में इन कुंड के झुंड किसानों को चढ़ते उतरते देखकर मैंने बार बार पूछा––'ये सब कहाँ जा रहे हैं; उत्तर मिला––

"कहीं भी––शादी-ब्याह में सम्मिलित होने, छोटी-मोटी वस्तुएँ खरीदने,––बस, "अभी जायँगे और लौट आयेंगे"। अधिकांश तो केवल रेल की यात्रा का कौतुक देखने के लिए ही बढ़-उतर रहे हैं।"

मिस मेयो को 'बूटों' के सम्बन्ध में सूचना किसने दी? 'बूट' का भारतवर्ष में अर्थ है पाश्चात्य लोगों की पैर में पहनने की वस्तु। भारतवर्ष के किसान और जन-साधारण उनको व्यवहार में नहीं लाते। यह तुलना करने के लिए उसे २० वर्ष पूर्व की परिस्थितियों की बातें किसने बताई? निःसन्देह अँगरेज़ अफ़सरों ने। यह सरकारी पक्ष समर्थन करनेवालों की ही भाषा है। उसके अर्थशास्त्र के शीशे से दिखाये गये दृश्य वास्तव में सरकारी शीशे से दिखाये गये दृश्यों के कुछ बिगाड़ के साथ रूपान्तर-मात्र हैं। रेलों के कारण भारतवर्ष की प्राचीन उन की सवारियां नष्ट हो गई हैं। परन्तु निर्धन लोग 'इस अभी जायँगे और लौट आयँगे' के विनाद-मात्र के लिए व्यर्थ धन नहीं व्यय कर सकते।

बम्बई-प्रान्त के कृषि-विभाग के डाइरेक्टर डाक्टर हरल्ड मैन ने, पेंशन लेते समय वहाँ के कृषकों की आर्थिक दुरवस्था के सम्बन्ध में, गत अक्तूबर टाइम्स आफ़ इंडिया के संवाददाता से वार्तालाप करते हुए, कहा था:––

"मुझे यह कहने में ज़रा भी संकोच नहीं कि कृषकों की रहन-सहन का आदर्श ऊँचा अवश्य हो गया है परन्तु यह नहीं कहा जा सकता कि अधिकांश २ मास में कि जिन स्थानों में प्रायः अकाल पड़ा करता है––वहाँ के पूरे ७५ प्रतिशत निवासियों की आर्थिक दशा स्वयं उनके आदर्श से बहुत नीचे है और उसे अच्छी स्थिति नहीं कह सकते। इसके विरुद्ध जो स्थान सम्पन्न समझे जाते हैं वहाँ केवल ६६ प्रतिशत लोग ऐसे होते हैं जिनकी आर्थिक स्थिति अच्छी कही जा सकती है। मैं यह स्वीकार करता हूं कि इस विषय पर विस्तार के साथ कोई मत निश्चित करना अत्यन्त कठिन है, क्योंकि टिप्पणियों की तुलना करने के लिए यथेष्ट साधन पास नहीं हैं। परन्तु बीस वर्ष के सावधानी के साथ किये गये अनुसन्धान और अनुभव के पश्चात् मेरी निष्पक्ष सम्मति यह है कि गत बीस वर्षों में गांवों में जीवन का आदर्श ऊँचा हो गया है परन्तु इस आदर्श के साथ गाँव की वृहत् जनता का जो वास्तविक सम्बन्ध है उसमें कुछ हुआ सुधार नहीं

कृषि में कुछ ऐसे सुधार करने की राय देने के पश्चात्, जो सम्भव हो सकते हैं और जिन्हें कृषक बिना किसी अधिक व्यय के स्वयं कर सकते हैं डाक्टर मैन ने आगे इस प्रकार कहा था––

"परन्तु इस रीति से भी बहुत बड़े दायरे में कोई सुधार तब तक नहीं किया जा सकता जब तक सरकार और समाज-सुधारक लोग यह न स्वीकार कर लें कि कृषि करनेवाली सम्पूर्ण जनता की उन्नति का रहस्य केवल इतना ही है कि उसे भर भर पेट भोजन मिलने लगे। भारतवर्ष की उन्नति में सबसे बड़ा बाधक कृषकों का खाली पेट है। डाकृर मैन ने भारतवर्ष छोड़ने से पूर्व इस बात पर बड़ा जोर दिया था कि उन्नति के समस्त उद्योगों को तुरन्त कृषकों का पेट भरने की ओर केन्द्रीभूत करना चाहिए। यह पूछे जाने पर कि जन-साधारण के खाली पेटों को भरने के लिए क्या उपाय किया जाय, डाकृर मैन ने कहा––बहुत कुछ तो वे लोग स्वयं ही कर सकते हैं। उन्हें काम में जुट जाना चाहिए। कोई ऐसा देश उन्नति की आशा नहीं कर सकता जिसकी जनसंख्या का अधिकांश भाग वर्ष में ६ मास काहिल बना बैठा रहे। लोगों को सूखे मौसम में कुछ न कुछ काम मिलना चाहिए। परवाह नहीं, आमदनी चाहे जो हो। अन्य मार्गों में मिस्टर गान्धी चाहे जितना भटक गये हों, परन्तु चर्खे का प्रचार करने में वे भारतवर्ष की दरिद्धता की जड़ तक पहुँच गये हैं। इससे कोई मतलब नहीं कि चखें से केवल कुछ ही थानों की आय होती है। इसलिए समस्या के इस पहलू की और सरकार को, वह यदि वास्तव में देश की उन्नति चाहती है, 'अधिक से अधिक ध्यान देना चाहिए। और उन्होंने इस बात पर आश्चर्य प्रकट किया कि इतने समय के बीत जाने के पश्चात् अब कहीं जाकर सरकार ने इस समस्या में गम्भीरता के साथ हाथ लगाया है।"

इस देश के लोगों को डाकर मैन का अन्तिम सन्देश निम्नलिखित शब्दों में दिया गया था:––

"डाकृर मैन ने कहा––'मुझे इस बात की बड़ी आशा थी कि बम्बई प्रान्त की आर्थिक स्थिति बहुत ऊँची हो जायगी और इस काम में प्रजा भी भाग लेगी। परन्तु वे लोग जिनके पेट खाली हैं ऐसी अच्छी दशा प्राप्त करने के लिए कोई उद्योग नहीं कर सकते! इसलिए इस देश के लोगों को, समस्त सामाजिक काव्य-कर्ताओं को, और उनको जिनके हाथ शासन की बागडोर है, मेरा अन्तिम सन्देश यह है कि सब मिलकर कोई ऐसा उपाय निकाल जिससे कृषकों को पेट भर भोजन मिलने लगे।"

इस समस्या की कठिनाई डाकृर मैन के ऊपर दिये गये मोटे शब्दों से स्पष्ट हो जाती है। यह एक ऐसे अँगरेज़ की भाषा है जो गत बीस वर्षों तक ग्राम्य-जीवन के चिकट-सम्पर्क में रहा है और जो उस नौकरशाही का एक अङ्ग रहा है जो इस देश पर शासन करती है। यह किसी 'अभिशापित' स्वराजिस्ट, या होम-रूलर या अग्नि-भक्षक की भाषा नहीं है बल्कि नौकरशाही के एक उच्च पदाधिकारी की भाषा है।


  1. सुखी भारत, पृष्ठ ३९।
  2. वही पुस्तक, पृष्ठ ३६-३७।
  3. दी लास्ट डोमीनियन, ब्लैकउड, लन्दन १९२४ पृष्ठ ३०५-६।
  4. हैपी इंडिया, पृष्ठ १८२।
  5. 'उपनिवेश और रक्षित राज्य' पृष्ठ ६८ (१८८३) आगे के उद्धरण देने के लिए मैंने अपनी पुस्तक 'इँगलैंड पर भारतवर्ष का ऋण'—की सामग्री का उपयोग किया है।
  6. "डिग्बी भारतवासियों की दशा" (१९०२) पृष्ठ १४––१५।
  7. पृष्ठ १७५।
  8. उसी पुस्तक से, पृष्ठ २४३-३।
  9. उसी पुस्तक से, पृष्ठ ९८।
  10. पृष्ठ ६८।
  11. ६ मार्च १९२१ को कौंसिल आफ़ स्टेट में कहा गया।