दुखी भारत/२६ भारत के धन का अपव्यय

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छब्बीसवाँ अध्याय
भारत के धन का अपव्यय

मिस मेयो का मदर इंडिया लिखने का प्रकट उद्देश्य अमरीकावासियों के सम्मुख भारत के सम्बन्ध में 'सच्ची बातें' उपस्थित करना था। यह सम्भव है कि अमरीकावासी भारतवर्ष की आर्थिक दशा और आर्थिक शक्ति के सम्बन्ध में जानने की इच्छा रखते हों। निस्सन्देह यह जानना उनके लिए हितकर भी है कि यदि भारतवर्ष की ख़रीदने की शक्ति अधिक हो तो वह उनका बड़ा अच्छा ग्राहक बन सकता है। अर्थशास्त्र के क्षेत्र में मिस मेयो का मार्ग-प्रदर्शन बिल्कुल निराशाजनक है। अर्थशास्त्र-सम्बन्धी सिद्धान्तों के विषय में उसका ज्ञान बिल्कुल अधूरा और बेडौल है। भारतवर्ष की आर्थिक अवस्था समझने में उसे ज़रा भी सफलता नहीं प्राप्त हुई। जान पड़ता है उसने, दादा भाई नौरोजी, रानाडे, जोशी, वाचा आदि, भारतीय अर्थशास्त्र के पण्डितों के ग्रन्थों का कभी नाम ही नहीं सुना। भारतीय अर्थशास्त्र में प्रमाण समझे जानेवाले व्यक्तियों का नाम उसकी सूची में कहीं पाया ही नहीं। प्रोफ़ेसर के॰ टी॰ शाह जैसे अर्थशास्त्र के वर्तमान धुरंधरों की भी उसने पूर्णरूप से अवहेलना की है। उसने मेरी कुछ पुस्तकों के उद्धरण दिये हैं परन्तु उसकी पुस्तक में मेरी 'इँग्लेंड पर भारतवर्ष का ऋण' नामक पुस्तक का कहीं उल्लेख नहीं मिलता।

भारतवर्ष की आर्थिक स्थिति के सम्बन्ध में इतना कम ज्ञान रखते हुए भी, अमरीकन पाठकों के लाभ के लिए, जो आर्थिक बातों में सबसे अधिक दिलचस्पी रखते हैं, उसका भारत के विषय में पुस्तक लिखना धृष्टता-मात्र के लिए अमरीकावासियों को यह बतलाना–कि ब्रिटिश-सरकार आज-कल अमरीका के बने सिनेमे की फ़िल्मों को भारतवर्ष के बाज़ार से किसी प्रकार निकाल देने की बात सोच रही है ताकि उसके अयोग्य प्रतिद्वन्द्वी इँग्लेंड की फ़िल्मों की बिक्री हो–उनके लिए उन तमाम विषय-भोग [ ३६८ ]और धर्म-सम्बन्धी व्यर्थ बातों से अधिक महत्त्वपूर्ण है जिनका कि वह अपनी पुस्तक में वर्णन करती है। अमरीकन कारीगर स्वभावतः यह जानने की उत्सुकता प्रकट करेंगे कि भारत अपने लिए आवश्यक वस्तुओं का आधे से अधिक भाग ग्रेटब्रिटेन से क्यों खरीदता है और भारतवर्ष में जो विदेशी माल बिकता है उसमें अमरीका का भाग केवल ६ प्रतिशत ही क्यों होता है। और कदाचित् अमरीकाबासी यह भी जानना चाहेंगे कि भारतवर्ष का व्यापार करीब करीब पूर्णरूप से ब्रिटिश तक ही परिमित क्यों है? मिस मेयो भारतीय अर्थशास्त्री के मुँह से कहलाती है––'हम चाय की बड़ी बड़ी फसलें पैदा करते हैं और लगभग सब भारतवर्ष के बाहर चली जाती हैं। यह इस देश को दरिद्र करनेवाला दूसरा निकास है। इसके उत्तर में वह पूछती है––'तुम अपनी चाय बेचते हो या यों ही लुटा देते हो?' इस पर कल्पित भारतीय अर्थशास्त्री बड़बड़ाता है––ओह! हाँ, परन्तु चाथ, वह तो तुम देखती हो, नदारत है।' हम पूछते हैं कि ऐसा कौन-ला भारतीय अर्थशास्त्री है जो इस विषय को ऐसे बेढङ्गे तौर से उपस्थित कर सकता है––और फिर मिस मेयो के अतिरिक्त इसका इतनी सादगी के साथ खंडन भी कौन कर सकता है?

सेना-विभाग का व्यय

सेना-विभाग के व्यय के सम्बन्ध में मिस मेयो ने अपने जो विचार प्रकट किये हैं ये भी वैसे ही हैं जैसे कि उसके अर्थशास्त्र-सम्बन्धी साधारण ज्ञान से आशा की जा सकती है। वह इस विषय को नीचे लिखे अनुसार संक्षेप में स्वयं उपस्थित करती है और स्वयं ही उसका खण्डन भी कर डालती है (मदर इंडिया––पृष्ट ३५१-२):––

राजनीतिज्ञ महाशय कहते हैं––"सेना आवश्यकता से अधिक हैं!"

"क्या यह उस कार्य के लिए भी बहुत अधिक है जो इसे आपकी रक्षा और शान्ति के लिए करना पड़ता है?"

"मैं नहीं कह सकता। उस विषय पर मैंने ध्यान नहीं दिया। परन्तु कुछ भी हो, भारतीय कर की आय का एक बड़ा भाग तो इसमें स्वाहा हो जाता है।" प्रायः ऐसी ही बातें लोग कहते हैं। [ ३६९ ]कथा के रूप में यह वक्तव्य क्षम्य हो सकता है। परन्तु अर्थशास्त्र की समालोचना के रूप में यह बड़ा निराशा-पूर्ण है। ऐसे बहुत से लोग हैं जिन्होने 'इस बात पर गौर किया है।' मिस मेयो ने उनके उपस्थित किये गये प्रश्न की परीक्षा क्यों नहीं की?

हाल में इस सम्बन्ध में जो परीक्षाएँ की गई हैं उनमें बम्बई विश्व- विद्यालय के राजनैतिक अर्थशास्त्र के अध्यापक श्रीयुत के॰ टी॰ शाह की परीक्षा का उल्लेख किया जा लकता है। इस विषय पर उन्होंने 'भारतवर्ष का धन और उसकी कर-सहन करने की शक्ति[१] नामक एक आदर्श पुस्तक लिखी है। मिस्टर शाह ने १९२३ ईसवी में इञ्चकेप कमेटी के सामने उपस्थित करने के लिए एक विवरण तैयार किया था। उस विवरण को भी उन्होंने अपनी पुस्तक में संक्षेप रूप से दे दिया है।

सबसे पहली बात तो यह है कि क्या यह कहना उत्तम अर्थशास्त्र का धोतक है कि रक्षा के लिए जो व्यय किया जाता है उसका देश की कर सहन करने की योग्यता से कोई सम्बन्ध नहीं है? रक्षा के लिए जो व्यय किया जाता है उसे भी अन्य व्यय की भाँति राष्ट्रीय थैली की शक्ति को दृष्टि में रख कर करना चाहिए। दूसरे पृष्ट पर प्रोफेसर शाह द्वारा तैयार किया गया एक अङ्क- चक्र दिया जाता है। इसे उन्होंने स्टेट्समैन की वार्षिक पुस्तक (१९२२) से तैयार किया था। इससे इस विषय पर बड़ा सुन्दर प्रकाश पड़ता है।

इससे भी अधिक ध्यान देने योग्य और महत्वपूर्ण बात यह है कि भारतवर्ष, सेना पर किये गये व्यय को 'सम्पत्ति का नाश' केवल इसी लिए नहीं समझता कि यह असह्य और अधिक है किन्तु इसलिए भी कि भाग ब्रिटिश सैनिकों के लिए और ब्रिटेन में व्यय किया जाता है। इंगलैंड में सेना-विभाग पर कुल व्यय इस प्रकार किया गया है––


१९२२-२३ में
१९२३-२५ „
१९२४-२५ „


१४·१६ करोड़ रुपये।
१४·२० „ „
१५·०३ „ „

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देश कुल कर कुल व्यय सेना पर व्यय २ और ३ का प्रतिशत २ और ४ का प्रतिशत
अङ्क लाख और उससे ऊपर हैं।
भारतवर्ष रुपये १३३२.२ १४२३.९ ९१९.९ ७०.७ ६३.८
ग्रेटब्रिटेन पौंड १४२६.९ ११९५.४ ६४२.२ ४५.० ५३.७
आस्ट्रेलिया पौंड ६१.७८ ६४.६० ३१.२० ५०.० ४८.३
कनाडा[२] पौंड ८९.३८ ७४.१९ १७.९ २०.० २४.२
दक्षिणी अफ़्रीका पौंड २९.६७ २५.६९ १३.४ ४.५ ५.२
स्पेन पेसीटेस १९७६.६६ २५५०.७९ ४५०.३६ २२.८ १७.६
फ़्रांस फ्रैंक्स २२४५०.९ २४९३२.० ५०२७.४ २२.४ २०.०
इटली लायर १७६०३.० २०४५४.८ ३५५३.७७ २०.० १७.३
अमरीका डालर ३३४५.१८ ३१४३.४१ १२०१.४४ ३५.९ ३८.२
जापान येन १३१९.२० १३९९.२९ ६४६.४० ४९.० ४९.०
[ ३७१ ]सेना-सम्बन्धी बातों की जांच करने के लिए नियुक्त इशर कमेटी ने अपने विवरण के एक बड़े पत्र में लिखा था कि:––

"भारतीय सेना को हम साम्राज्य की कुल सेना से पृथक नहीं समझ सकते। शान्ति स्थापित करने के लिए जो सन्धि हुई है उसने भारतवर्ष में सेना का महत्व और भी बढ़ा दिया है। ठीक वैसे ही जैसे कि इससे साम्राज्य के अन्य भागों में विशेषतः ब्रिटिश द्वीपसमूह में सेना का महत्व चढ़ गया है।"

परन्तु यदि भारतीय सेना का उपयोग समस्त साम्राज्य के लिए किया जाय तो उचित यह होगा कि साम्राज्य उसके व्यय में भी भाग ले। वर्तमान परिस्थिति यह है कि ब्रिटेन साम्राज्य के विनोद के लिए बाजा बजवाता है और बाजा बजानेवाले को वेतन देता है भारतवर्ष। यह बाजा बजानेवाला भी प्रायः स्वयं ब्रिटेन ही होता है। यदि कभी भारतीय सेना के किसी भाग के लिए, जो साम्राज्य की रक्षा के लिए भारत की सीमा से बाहर भेजा जाता है, ब्रिटेन या साम्राज्य कुछ व्यय देता भी है तो हमें यह न भूल जाना चाहिए कि साम्राज्य उसके स्थायी व्यय में जरा भी भाग नहीं लेता। प्रोफेसर शाह कहते हैं:––

"यदि भारतीय सेना का उद्देश्य सीमा के देशों को जीतना हो; यदि एशिया में शक्ति बनाये रहने की इच्छा हो तो हम कहेंगे कि ये उद्देश्य हम पर साम्राज्य-वाद की दृष्टि से लादे गये हैं और इनसे इंगलैंड को उतना ही लाभ है जितना भारतवर्ष को हो सकता है। ब्रिटिश साम्राज्य की कुल सेना का सबसे बड़ा भारा भारतीय सेना से बना हुआ है और इसका सबसे अधिक व्यय भी भारत ने ही उठाया है। इंगलैंड के पश्चात् इस सम्बन्ध में भारत का ही नम्बर रहा है। ऐसी सेनाओं से साम्राज्य के प्रत्येक अङ्गको लाभ पहुँचता है पर सबसे अधिक स्वार्थ सवता है इंगलैंड का। तब साम्राज्य के हित के लिए रक्खी गई इस सेना के बढ़े हुए व्यय में इंगलैंड भी कोई भार क्यों नहीं लेता?............

"भारतवर्ष की भौगोलिक और राजनैतिक परिस्थिति ऐसी है कि हम इस बात का अर्थ नहीं समझ सकते कि स्वयं इस देश की रक्षा और लाभ के लिए भी ब्रिटिश-जल-सेना की आवश्यकता है। समस्त सम्भावनाओं के विरुद्ध [ ३७२ ]यदि समुद्र के मार्ग से शत्रुओं का आक्रमण हो ही जाय तो उनका सामना करने के लिए भारतवर्ष का किनारा ही यथेष्ट है; क्योंकि वह घाटों (पर्वतों) और मरुस्थलों से इतना सुरक्षित बना दिया गया है कि ऐसे आक्रमणों से उसे किसी विशेष हानि का भय करने की आवश्यकता नहीं है। रही उसके सामुद्रिक व्यापार की बात। वह बड़ा चढ़ा अवश्य है, पर वह पूर्णरूप से भारतवर्ष के लाभ के लिए नहीं है। इस व्यापार को जारी रखना भारत की अपेक्षा उसके ग्राहक ही अधिक चाहते हैं। इसलिए यह मानने का कोई कारण नहीं है कि भारतीय सेना का बढ़ा हुआ व्यय उसके बजट में सेना के व्यय की कमी की पूर्ति करता है।"

इसमें क्या सन्देह कि मिस मेयो को इन बातों पर विचार करने का अवकाश नहीं था और न वह विचार ही करना चाहती थी। परन्तु यह स्मरण रखना उचित है कि गत महायुद्ध में भारतवर्ष ने भिन्न भिन्न युद्ध-स्थलों को ५३,३८,६२० से कम मनुष्य नहीं भेजे[३] और प्रकटरूप से उसने जो आर्थिक सहायता की वह स्वयं सरकारी मत के अनुसार १४६.२ लाख पौंड थी। अप्रकट रूप से उसने धन और सामग्री से जो सहायता की उसका तो कुछ कहना ही नहीं। इँगलैंड ने भारतवर्ष के लिए ऐसा कौन सा त्याग किया है जिसकी इन अङ्कों के साथ तुलना की जा सके? ब्रिटेन भारतवर्ष में नहीं एक अँगरेज़ सिपाही रखता है वहां दो भारतीय सिपाही रक्खे जा सकते हैं! अँगरेज़ सिपाही पर अधिक व्यय पड़ता है इसलिए इससे भी अपव्यय की वृद्धि होती है।

भारतीय सेना में योरपियन लोग न रक्खे जायँ! इस बात पर भारतीय राजनीतिज्ञ, राष्ट्रीय और लिबरल दोनों, बहुत समय से जोर देते आ रहे हैं। इस सम्बन्ध में कुछ महत्वपूर्ण बातों पर विचार करने के लिए कुछ वर्ष हुए सरकार ने एक कमेटी नियुक्त की थी। उसके सभापति एक प्रसिद्ध ब्रिटिश सैनिक सर एण्डू, स्कीन थे। इस कमेटी ने, जिसे सरकार ने नियुक्त किया था, जिसमें सरकार के ही मनोनीत सदस्य थे और एक प्रसिद्ध ब्रिटिश सैनिक [ ३७४ ]दुखी भारत

त्यागमूर्ति पण्डित मोतीलाल नेहरू

[ ३७५ ]जिसका सभापति था, सर्व-सम्मति से सेना को भारतीय रूप दे देने की सिफ़ारिश की; यद्यपि यह भी राष्ट्रवादियों की सम्मति में अत्यन्त शिथिल चाल थी। परन्तु इन सिफ़ारिशों को भी अत्यन्त न्यून आदर प्रदान किया गया है।

ब्रिटेन, भारत के कच्चे माल
का ख़रीदार

भारतीय जीवन में यह एक साधारण बात है कि यहाँ के निवासी व्यवसाय में पिछड़े हुए हैं। भारतवर्ष का मुख्य व्यवसाय कृषि है। हम मिस्टर लप्टन की हैपी इंडिया नामक पुस्तक का उल्लेख कर चुके हैं। उसमें इस विषय की बड़ी विस्तृत विवेचना की गई है। मैंने अपनी 'इँगलेंड पर भारतवर्ष का ऋण' नामक पुस्तक में, ईस्ट इंडिया कम्पनी के आरम्भ-काल से लेकर उस पुस्तक के लिखे जाने के समय तक भूमि के सम्बन्ध में ब्रिटिश सरकार की जो नीति रही है उसके इतिहास का पता लगाया था। उसमें मैंने १९०३-४ ईसवी से लेकर १९१३-१४ ईसवी तक भारत का जो कच्चा माल इँगलेंड भेजा गया था उसके अङ्क दिये थे। भारतवर्ष से जो माल बाहर भेजा गया था उसका २३.४ प्रतिशत इँगलेंड में पहुँचा था। किसी अन्य देश को १० प्रतिशत से अधिक नहीं मिला। १९२४-२५ में ग्रेटब्रिटेन में २५.५ प्रतिशत भारत का माल पहुँचा था। ब्रिटेन के पश्चात् जापान का नम्बर था। जापान को १४.३ प्रतिशत प्राप्त हुआ था। १९१३-१४ में भारतवर्ष ने जो विदेशी माल ख़रीदा उसमें इँगलैंड का माल ६४.१ प्रतिशत था। १९२४-२५ में इँगलेंड ने भारत को ५४.३ प्रतिशत दिया। मैंने अपनी 'इँगलेंड पर भारतवर्ष का ऋण' नामक पुस्तक में दिये गये अङ्का से पैदावार की मुख्य वस्तुओं के विषय में निम्नलिखित परिणाम निकाले थे––

जूट––ग्रेटब्रिटेन भारतवर्ष से सब देशों से अधिक जूट ख़रीदता है।

ऊन––भारतवर्ष में जितना ऊन पैदा होता है, प्रायः वह सबका सब ग्रेटब्रिटेन चला जाता है। १९१२-१३ में भारतवर्ष ने कुल १७,५६,४४८ पौंड को लागत का ऊन बाहर भेजा था। उसमें से १७,०४,७८५ पौंड की लागत का उन ग्रेट ब्रिटेन ने लिया। [ ३७६ ]गेहूँ-ग्रेटब्रिटेन भारतवर्ष के गेहूँ का अधिकांश भाग ही नहीं खरीदता बरन कभी कभी भारतवर्ष से जितना गेहूँ बाहर जाता है, वह सब ग्रेटब्रिटेन ले लेता है। १९०८-९ ईसवी तक यही होता रहा। १९०९-१० ई॰ में भारतवर्ष से ८५,००,००० पौंड का गेहूँ बाहर भेजा गया था। इसमें से ग्रेटब्रिटेन ने ७०,००,००० पौंड का खरीदा। १९११-१२ में ८८,९८,९७२ पौंड का गेहूँ बाहर भेजा गया। इसमें ग्रेटब्रिटेन ने ६७,४१,१९० पौंड का लिया। १९१२-१३ में १,१७,९५,८१६ पौंड का गेहूँ बाहर भेजा गया था। इसमें से ग्रेटब्रिटेन ने ८३,८०,४२२ पैड का ख़रीदा था।

जौ और बीज-भारतवर्ष के जो की सबसे अधिक खपत ग्रेटब्रिटेन में होती है। बीज भी यह अन्य देशों की अपेक्षा बहुत अधिक खरीदता है।

चाय-भारतवर्ष से जितनी चाय बाहर भेजी जाती है, उसका दो-तिहाई से अधिक ग्रेटब्रिटेन लेता है।

चमड़ा-इसी प्रकार ग्रेटब्रिटेन चमड़ा भी औरों की अपेक्षा भारतवर्ष से सबसे अधिक खरीदता है।

इससे मिस मेयो के इस कथन का खोखलापन प्रकट हो जाता है कि ग्रेटब्रिटेन को भारत से कोई लाभ नहीं है।


  1. लन्दन, पी॰ ए॰ किंग एंड सन्स, १९२४।
  2. कनाडा के अङ्कों में कुल डेट चार्ज का आधा भाग भी सम्मिलित है। फ़्रांस के अङ्कों में साधारण, असाधारण और जहाज़ी बेड़े का बजट है पर डेट चार्ज नहीं है। यदि वह भी जोड़ दिया जाय तो कुल योग १७,५.५३ लाख फ़्रैंक या ३८ और ७० प्रतिशत क्रमशः हो जायगा।
  3. 'महायुद्ध में भारतवर्ष का भाग'। ब्रिटिश-सरकार की आज्ञा से प्रकाशित १९२३ ईसवी, पृष्ठ ९८, १६०।