दुखी भारत/३३ संसार का सङ्कट–भारतवर्ष

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तेंतीसवाँ अध्याय
संसार का सङ्कट––भारतवर्ष

अपनी पुस्तक के अन्त में मिस मेयो यह घोषणा करती है कि महामारियों का गृह और उद्गम-स्थान होने के कारण भारतवर्ष संसार के लिए सङ्कट-स्वरूप है। हम इस बात से सहमत हैं कि भारतवर्ष संसार का सङ्कट है। हाँ, हम इस विषय पर केवल एक भिन्न दृष्टिकोण से विचार करते हैं। हम इस पुस्तक में प्रमाण और अङ्क देकर यह सिद्ध कर चुके हैं कि भारत की इस दशा का उत्तरदायित्व अँगरेज़ों पर है जो भारत को राजनैतिक दासता में जकड़े हुए हैं और जो अपनी राजनैतिक प्रधानता का प्रयोग करके भारत को चूस रहे हैं। इसलिए जब तक भारत की राजनैतिक असमर्थता दूर न कर दी जाय और उसे वह स्वतंत्रता न दे दी जाय जो अन्य स्व-शासन करनेवाले राष्ट्रों को प्राप्त है तब तक वह स्वास्थ्य और शान्ति दोनों की दृष्टि से संसार के लिए सङ्कट-स्वरूप बना ही रहेगा। भारतवर्ष ब्रिटिश साम्राज्य की धुरी है। भारत और चीन दोनों के हाथ में विश्वशान्ति की कुञ्जी है। अतीतकाल से भारतवर्ष साम्राज्य-निर्माण करनेवालों का लक्ष्य रहा है। जिसके हाथ में कभी भारतवर्ष रहता है उसके हाथ में विश्व की प्रधानता और उन्नति की कुञ्जी रहती है। विशेषतः आधुनिक युग में। जब तक ग्रेटब्रिटेन ने भारत पर अधिकार नहीं किया था तब तक वह एक ग़रीब देश था। उसके पास न तो आय के कोई उल्लेखयोग्य साधन थे और न कोई साम्राज्य था। भारतीय धन की सहायता पाकर उसने औद्योगिक क्रान्ति की और खासा धनी हो गया। भारत के स्वर्ण ने और भारत के सिपाहियों ने उसे इस योग्य बनाया कि उसने संसार को जीत लिया। एशिया और अफ़्रीका में जितने देशों पर उसका अधिकार है उनका एक एक खण्ड उसे तब प्राप्त हुआ था जब वह भारतवर्ष में पूर्ण रूप से अपना आधिपत्य जमा चुका था। पूर्व में ब्रिटेन का साम्राज्य भारत पर ही निर्भर रहा है और निर्भर रहेगा। चाहे जितनी बातें बनाई जायँ [ ४४७ ]यह बात अन्यथा नहीं सिद्ध की जा सकती। ब्रिटेन ने योरप तथा एशिया की अन्य शक्तियों के साथ जो युद्ध किये हैं उनमें से अकिधांश का सम्बन्ध प्रत्यक्ष रूप से या अप्रत्यक्ष रूप से उसके भारत में शासन के साथ था। भारतवर्ष में शासन स्थापित करने के पश्चात् से वह सदा रूस से लड़ता रहा है। एक शताब्दी से ऊपर तक अँगरेज़ राजनीतिज्ञों और समाचार-पत्रों के मस्तिष्क में ज़ार का रूस वैसे ही चढ़ा हुआ था जैसे आज-कल सोवियत का रूस चढ़ा हुआ है। अनेक अनुभवी विद्वानों की यही सम्मति है। उनमें अमरीका के प्रसिद्ध लेखक हरबर्ट आडम्स गिबन्स का नाम लिया जा सकता है। उनकी 'एशिया का नवीन मान-चित्र' नामक पुस्तक इसी निबन्ध से आरम्भ होती है[१]। गिबन्स के अनुसार बीसवीं शताब्दी की भाँति १९ वीं शताब्दी में भी ब्रिटेन की वैदेशिक नीति भारत में उसके साम्राज्य की रक्षा का ध्यान रखकर निर्धारित की जाती थी। अँगरेज़ों की वैदेशिक नीति के भिन्न भिन्न रूपों से यह बात बड़ी अच्छी तरह सिद्ध हो जाती है। मिस्टर गिवन्स ने इन बातों को अपनी पुस्तक के प्रथम अध्याय में बड़ी खूबी के साथ संक्षेप में लिख दिया है। हम इस अमरीकन लेखक के ही शब्दों में यह कथा पाठकों के सम्मुख उपस्थित करना अधिक पसन्द करते हैं:––

"ग्रेटब्रिटेन की जो वैदेशिक नीति नैपोलियन के युद्धों के समय से लेकर आज तक युद्धों और राजनीति की कूट-चालों को प्रोत्साहित करती रही है उसे कोई तब तक नहीं समझ सकता जब तक वह युद्धों, कूट चालों, सन्धियों, सहयोगों, राज्यापहरणों और संरक्षित राज्यों की सीमा-वृद्धि पर विचार करते समय, भारतवर्ष को निरन्तर अपने सामने न रक्खे।

"ग्रेटब्रिटेन के 'नेपोलियन से मेडीटेरेनियन, मिस्त्र और सीरिया में' युद्ध करने का कारण केवल भारतवर्ष था। दीवाना की कांग्रेस में ग्रेटब्रिटेन ने योरप में कुछ नहीं माँगा। वह अपना पारितोषिक इसी बात में समझता था कि उसकी माल्टा, आफ़ गुड होप, मौरिशश, सिचीलीज़ और लङ्का की जीत स्वीकार कर ली गई थी। १८१५ ईसवी के पश्चात् से ग्रेटब्रिटेन तुर्क-साम्राज्य की अखण्डता का हिमायती बन गया ताकि कोई शक्ति स्थल-मार्ग से भारत [ ४४८ ]में न पहुँच सके। जब मुहम्मद अली तुर्क-साम्राज्य को भङ्ग करने के लिए मिस्र से रवाना हुआ तब सीरिया में उसे अँगरेजी वेड़े और सेना का सामना करना पड़ा। ठीक वैसे ही जैसे नैपोलियन को करना पड़ा था। वैदेशिक दफ्तर अँगरेज जनता के स्वभाव के विरुद्ध, बालकन राज्यों की स्वतंत्रता का बराबर विरोध करता रहा और मुसलमानों-द्वारा ईसाइयों का वध करवाता रहा। क्रीमीन में उसने तुर्की की रक्षा करने के लिए युद्ध किया था और अदि सैन स्टीफैनो की सन्धि तोड़ न दी गई होती तो लार्ड बिकान्सफील्ड १८७७ ईसवी में रुस के साथ दूसरा युद्ध आरम्भ कर देते। ब्रिटिश सरकार ने स्वेज़ नहर के काटे जाने का विरोध किया था। परन्तु जब नहर बन कर तैयार हो गई तब ब्रिटिश ने उसे स्वेज़ कम्पनी द्वारा अपने अधिकार में कर लिया। तब ब्रिटिश ने स्वयं वह कार्य किया जिसे कोई दूसरा राष्ट्र करने की चेष्टा करता तो वह उससे बिना युद्ध किये न रहता। उसने सिपरस की संधि करके और मिस्र पर अधिकार करके प्रथम बार तुर्क-साम्राज्य की अखण्डता को भङ्ग किया। जब मिस्त्र सुरक्षित रूप से अँगरेजों के हाथ में आ गया तब वैदेशिक कार्यालय ने अपनी बालकान-नीति बदलने में जरा भी आगा पीछा नहीं किया। १८८५ ईसवी में ब्रिटिश न्रे पूर्वीय रूमीलिया के बलगारिया में मिला दिये जाने का समर्थन किया। परन्तु उसके पाठ वर्ष पूर्व बृहत् बलगारिया के निर्माण को रोकने के लिए अँगरेज़ राजनीतिज्ञ योरप को युद्ध के रक्त में डुबो देने से ज़रा भी न हिचकते।

"मिस्त्र पर ब्रिटेन ने थोड़े ही समय के लिए अधिकार किया था। ब्रिटिश सरकार ने अन्य राष्ट्रों के सम्मुख बड़ी गम्भीरता के साथ यह घोषणा की थी कि माइल पर स्थायी रूप से अधिकार जमाने की उसकी इच्छा नहीं है और वह मिस्त्र को शीघ्र ही स्वतंत्र कर देगा। इस अधिकार की अवधि बढ़ती ही गई। सदा ही उसे न छोड़ने के लिए यथेष्ट कारण उपस्थित थे। १९ वीं शताब्दी के अन्त में ब्रिटेन ने मित्र और लालसागर पर अपना अधिकार सुरक्षित रखने के लिए सुदान को फिर जीत लिया। बोर युद्ध भी इसी लिए किया गया कि उसके हाथ से दक्षिणी अफ्रीका न निकल जाय। केप से कैरो तक––पूरी ब्रिटिश-रेलवे निर्माण करने की योजना की गई। नील के उद्गम की ओर बढ़ते बढ़ते अँगरेज़ फसोडा में फ्रांसीसी शासन के संघर्ष में पहुँचे। यदि फ्रांसीसी लोग सम्भव समझते या उनके ऐसे मित्र होते जो उनकी सहायता करते तो वे अँगरेजों के विरुद्ध युद्ध-घोषणा कर देते। दोनों देशों के राजनीतिज्ञों ने युद्ध करने के स्थान पर समस्त औपनिवेशिक प्रश्नों पर आपस में समझौता कर लिया। यह कार्य कठिन नहीं था क्योंकि फ्रांसीसियों की दृष्टि मोरक्को पर जमी हुई थी और भारत में किसी प्रकार के अधिकार का वे दावा नहीं करते थे। ८ मई १९०४ ईसवी में ग्रेटब्रिटेन और फ्रांस ने एक सन्धिपत्र [ ४४९ ]पर हस्ताक्षर करके अपने बीच में संसार के समस्त झगड़ों का अन्त कर लिया। संधि का मूल यह था कि फ्रांसीसी मित्र से उदासीन रहें और अँगरेज़ मोरक्को से। इस सन्धि में ब्रिटेन का मुख्य उद्देश्य यह था कि मिस्र में फ्रांस की कोई कूट नीति काम न कर सके। स्वेज नहर-द्वारा भारत के मार्ग पर सदा अधिकार बनाये रहने के लिए यह आवश्यक था।......

"समुद्र की ओर से भारतवर्ष की रक्षा करने के लिए अँगरेज़ों ने पश्चिम की और अरबसागर पर, पूर्व की ओर बङ्गाल की खाड़ी पर और इन दोनों समुन्द्रों को जानेवाले हिन्दमहासागर के समस्त मार्गों पर अधिकार करने का निश्चय किया। ब्रिटिश वैदेशिक कार्यालय ने सोचा कि समुद्रों पर हमारे अविरोध-प्रभुत्व से समस्त द्वीप हमारे अधिकार में रहेंगे और अरबसागर तथा स्याम की खाड़ी को जानेवाले जलडमरूमध्यों पर प्रभुत्व होने से उन तक फैला हुआ मुख्य भू-भाग पर अधिकार रहेगा। इसके पश्चात् अधिकार-नीति अरबसागर और स्याम की खाड़ी का किनारा भी सम्मिलित कर लेने के लिए और आगे बढ़ी। तदुपरान्त यह तो स्पष्ट ही था कि किनारों की रक्षा समुचित रूप से तभी हो सकती है जब उनके पीछे के भू-भाग पर भी अधिकार कर लिया जाय! लन्दन और लीवरपूल से हांगकांग तक समुद्र पर केवल एक जहाज़ी बेड़े की सहायता से अधिकार नहीं रक्खा जा सकता था। इसका परि- रणाम क्या हुआ? भारतवर्ष के पश्चिमी मार्ग पर जिब्राल्टर, माल्टा, सिपरस, मिस्र, अदन, पेरिम और सुदान में तथा पूर्वी मार्ग पर सोकोत्रा, सिचीलीज़, और अन्य द्वीपों में जिनसे अरबसागर की रक्षा होती है, बेहरीन द्वीपसमूह में जो फारस की खाड़ी पर प्रधानता रखते हैं, लङ्का में जो भारत की नाक पर है, बङ्गाल की खाड़ी के द्वीपों और मुख्य भूमि में, सिङ्गापूर, मलाया प्रायद्वीप और बेर्नियों के उत्तरी भाग में अँगरेजी झण्डा फहराने लगा।"

स्थल की ओर विचार करते हुए इसी लेखक ने लिखा है:––

पृथ्वी की ओर भारतवर्ष बिलूचिस्तान, अफगानिस्तान; बुखारा और तुर्किस्तान के रूसी प्रान्तों; सिंकियांग और तिब्बत के चीनी प्रान्तों; नैपाल; भूटान और बर्मा से घिरा हुआ है। जब से भारत सरकार ने बिलूचिस्तान और बर्मा को अपने शासन में सम्मिलित कर लिया है तब से फारस; चीन के स्ज़ीचुआन और यूनान प्रान्तों; फ्रांसीसी इंडोचीन और स्याम की सीमाएँ भारत की सीमा के साथ मिल गई हैं।

"भारत-सरकार ने १८७५ से १९०३ तक में बिलूचिस्तान पर और १८७९ से १९०९ तक में बर्मा पर अधिकार किया। चूँकि बिलूचिस्तान और [ ४५० ]बर्मा समुद्र तट पर थे इसलिए अँगरेज़ों को इन पर बिना पूर्णरूप से राजनैतिक शासन और प्रभावशाली सनिक आधिपत्य प्राप्त किये सन्तोष नहीं हो सकता था। परन्तु 'सुरक्षा' के भाव का एक बार आरम्भ हो जाने पर फिर उसका अन्त नहीं होता। भोग करने में भोग की कामना और भी उद्दीप्त होती है। जब गत महायुद्ध आरम्भ हुआ तब ग्रेट ब्रिटेन दक्षिणी फ़ारस में अपनी रक्षा करने के लिए घुसा; फ़ारसवासियों की अनुमति से नहीं बल्कि रूस के साथ सन्धि करके। अफगानिस्तान को ब्रिटिश-आधिपत्य स्वीकार करने के लिए विवश किया गया। मिस्त्र में वहाँ के निवासियों की अनुमति से नहीं बल्कि फ्रांस के साथ सन्धि करके ग्रेटब्रिटेन ने नाइल पर अधिकार कर लिया। और तब तक सन्तोष नहीं हुआ जब तक वह अधिकार नाइल के उद्गम तक नहीं पहुँच गया।

"जिस प्रकार बिलूचिस्तान के भारतवर्ष में सम्मिलित कर लिये जाने पर दक्षिणी फ़ारस के ऊपर स्वभावतः अधिकार जम गया उसी प्रकार बर्मा के सम्मिलित कर लिये जाने पर ब्रिटिश राज्य का विस्तार स्याम की क्षति करके किया जाने लगा। १९०९ ईसवी में ग्रेटब्रिटेन ने स्याम की किलान्तन, त्रिंगनू और केदा नामक तीन रियासतें उससे छीन कर बङ्गाल की खाड़ी के किनारे पर अपना प्रभुत्व जमाया। स्थल की ओर से भारत को सुरक्षित रखने के लिए जङ्गली जातियों को‌ सेनायें भेजकर दण्ड दिया गया जिससे वे रक्षित रियासतों पर आक्रमण न करें। जो नये प्रदेश जीते गये वे रक्षित रियासतो के रूप में बदल गये। इस प्रकार जब तक ब्रिटिश राज्य महान् पार्वत्य सीमा तक नहीं पहुँच गया तब तक यही क्रिया जारी रही।

"भारतवर्ष की सीमा पर केवल तीन ही स्वतंत्र राज्य शेष रह गये हैं। नेपाल, भूटान और अफगानिस्तान। पर वास्तव में ये राज्य भी स्वतंत्र नहीं हैं। इनके हाथ-पाँव भारत सरकार के साथ बँधे हुए हैं। नेपाल में अँगरेज़ रेजीडेन्ट सौ वर्ष से रह रहा है। भारतीय सेना में प्रबल गोरखा जाति से सिपाही भर्ती करने के लिए अँगरेज़ों को पूर्ण स्वतंत्रता के साथ आज्ञा प्राप्त है। और नेपाल का प्रधान सचिव, जिलके हाथ में वहाँ की सर्वशक्ति है, ब्रिटिशसेना का लेफ्टिनेंट जेनरल है। अफगानिस्तान और भूटान के शासकों को अच्छे व्यवहार के लिए खूब आर्थिक सहायता दी जाती। इस 'अच्छे व्यवहार' का अर्थ है केवल वही करना जिसके लिए ब्रिटिश सरकार कहे और बाह्य जगत् के साथ केवल उसी की मार्फ़त सम्बन्ध स्थापित करना[२]।१८६४ [ ४५१ ]ई॰ में भूटान का कुछ भाग बङ्गाल में मिला लिया गया था। १८६५ ई॰ से उसे ब्रिटिश से आर्थिक सहायता मिल रही है। जब से अँगरेज़ों ने भारत में अधिकार जमाना आरम्भ किया था तभी से भूटान में साधुओं और गृहस्थों का दोहरा शासन रहा है पर १९०७ ईसवी में उसका अन्त कर दिया गया। तिब्बत की कठिनाइयाँ चेतावनीस्वरूप थीं, उनकी अवहेलना नहीं की जा सकती थी। एक महाराजा चुना गया। इससे अँगरेज़ों को बिना जीते ही उस देश पर प्रभुत्व जमाने का अवसर मिल गया। ब्रिटिश सरकार द्वारा भूटान को जो आर्थिक सहायता मिलती थी वह १९१० ईसवी में द्विगुणित कर दी गई। इसके बदले में भूटान ने अपनी वैदेशिक सम्बन्ध की नीति पर अँगरेज़ों को पूरा अधिकार दे दिया तथा भूटान की सीमा के भीतर उन्हें दो दृढ़ स्थान दिये गये। ब्रिटिश भारत की रचना के इतिहास पर विचार करते हुए यह अनुमान किया जा सकता है कि विकट-भविष्य में नेपाल और भूटान दोनों भारत के अभिन्न अङ्ग बन जायँगे। हाँ, यदि हम अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में किसी भारी परिवर्तन के द्वार पर हो तो बात दूसरी है।

"अफगानिस्तान के सम्बन्ध में परिस्थिति भिन्न थी। दीर्घ और व्यय-पूर्ण युद्धों के पश्चात् १८९३ ईसवी की सन्धि से ब्रिटिश को अफगानिस्तान पर प्रधानता प्राप्त हो गई थी। परन्तु रूस, जो एशिया में अपना राज्य बढ़ा रहा था, बिना युद्ध के अफगानिस्तान को अँगरेज़ों के हाथ में नहीं जाने देना चाहता था। अब रूसी साम्राज्यवाद और ब्रिटिश साम्राज्यवाद का संर्घष हुआ।......मंगोलिया में प्रवेश प्राप्त कर चुकने के पश्चात् रूसी लोग अपना प्रभाव तिब्बत पर जमाना चाहते थे। वे भी उन्हीं कारणों से प्रेरित होकर अपनी साम्राज्यवादिनी नीति का अनुसरण कर रहे थे जिनसे कि ब्रिटिश थे। अँगरेज़ राजनीतिज्ञों को अफगानिस्तान और तिब्बत भारत की रक्षा करने के लिए दो ढालों के समान प्रतीत होने लगे। बीसवीं शताब्दी के प्रथम दस वर्षों तक भारत-सरकार और ब्रिटिश वैदेशिक कार्यालय इन दोनों देशों को और फ़ारस को भारत के 'बचाव के साधन' समझते रहे। इससे इनका ब्रिटिश साम्राज्य में मिलाया जाना आवश्यक समझा जाने लगा। १९०७ की सन्धि के कारण रूस से युद्ध नहीं हो सका। उन्हीं दिनों में बगदाद में रेलवे बनाने का विचार करने के कारण जर्मनी भारत के लिए सङ्कट-स्वरूप बन गया। ग्रेट-ब्रिटेन ने यह निश्चय कर लिया था कि वह न तो जर्मनी को फ़ारस की खाड़ी तक पहुँचने देगा और न रूस को। फ्रांस और रूस के साथ ग्रेटब्रिटेन की औपनिवेशिक प्रतिस्पर्धा जटिल रूप धारण कर चुकी थी इससे यह जर्मनी के साथ कोई समझौता नहीं कर सका। बग़दाद रेलवे का प्रश्न पलैंडर्स से लेकर मेसोपोटामिया तक के युद्ध-क्षेत्रों में हल किया गया।" [ ४५२ ]मिस्टर गिबन्स ने इन बातों और घटनाओं को जिस क्रम से उपस्थित किया है वह इतिहास पर अवलम्बित है और उसका विरोध नहीं हो सकता। गत महायुद्ध से युद्धों का अन्त नहीं हो गया। किसी समय में ऐसा दावा अवश्य किया जाता था। योरप अब भी एक ज्वालामुखी के शिखर पर बैठा हुआ है और निकट भविष्य में युद्ध अवश्यम्भावी है। अँगरेज़ों की धन और जनशक्ति का एक भारी साधन होने के कारण योरप और एशिया के सब राष्ट्र भारतवर्ष को सन्देह और अविश्वास की दृष्टि से देखते हैं। पूर्व ने अब योरप की प्रभुता के विरुद्ध विद्रोह खड़ा किया है। सोवियत-रूस योरप के मजदूरों को और एशिया के भिन्न भिन्न राष्ट्रवादियों को इँगलैंड के विरुद्ध करने में दत्तचित्त है। भारतवर्ष में भी आग धधक रही है। ऐसी परिस्थिति में यह कहने के लिए बहुत राजनैतिक पाण्डित्य की आवश्यकता नहीं है कि भारतवर्ष बहुत समय तक बन्धन में नहीं रक्खा जा सकता जैसा कि यह १५० वर्षों से रक्खा हुआ है। ब्रिटिश के हितों के लिए भी यह आवश्यक है कि वह भारतवर्ष के साथ कोई समझौता कर ले, जिससे कि भविष्य में भी उसका और भारत का साथ बना रहे। चीन में आग धधक ही चुकी है। अफ़ग़ानिस्तान स्वतंत्र हो गया है। फ़ारस एक पूर्ण राष्ट्र के रूप में अपना सङ्गठन कर रहा है। रूस करीब करीब अफ़ग़ानिस्तान की सीमा पर पहुँच गया है। ऐसी परिस्थिति में ग्रेटब्रिटेन को यह देखना चाहिए कि उसके राजनैतिक भविष्य पर असन्तुष्ट और दुखी भारत का क्या प्रभाव पड़ सकता है। ब्रिटेन के साम्राज्यवादी प्रतिद्वन्द्वी भारतीय राष्ट्रवादियों के भड़काये जाने में दिलचस्पी ले रहे हैं। आगामी युद्ध में इँगलैंड के हित भारतवर्ष को सुरक्षित न रहने देने के लिए ये एक भी उपाय शेष न रहने देंगे। इँगलैंड को अब संसार में कोई नहीं चाहता। और यद्यपि हम राष्ट्रों की पारस्परिक सन्धियों और समझौतों के सम्बन्ध में बहुत सुनते हैं तथापि वे जिन कागज़ों पर लिखे जाते हैं उनके योग्य भी नहीं हैं। गत २०० वर्षों के इतिहास ने यह दिखला दिया है कि संधियाँ जब जब किसी बड़ी शक्ति की साम्राज्यवादिनी आकांक्षाओं के मार्ग में बाधक बनी हैं तब तब उनके साथ में कागज़ के मामूली टुकड़ों के समान व्यवहार किया जाया है। वास्तव में कहा जाय तो राष्ट्र-संघ का किसी पर कोई प्रभाव नहीं [ ४५३ ]है। यह पूर्ण रूप से संसार की दो या तीन बड़ी शक्तियों के अँगूठे के नीचे दवा है। यह भी खूब अच्छी तरह स्पष्ट है कि ये दो या तीन शक्तियाँ भी एक दूसरे से बिल्कुल प्रसन्न नहीं हैं। उन शक्तियों का कहना ही क्या जो राष्ट्र-संघ में सम्मिलित नहीं हैं और जो अपने ऊपर हुए भूतकाल के अत्याचारों का बदला चाहती हैं। इस प्रकार भारत सदा ही चिन्ता का कारण रहेगा-ब्रिटेन के शत्रुओं के लिए सदा ही षड्यन्त्र का क्षेत्र बना रहेगा। परन्तु एक संतुष्ट भारत योरपियन शक्तियों के बीच होनेवाले समस्त युद्धों को दूर रख सकता है। दूसरे देशों के प्रति इंगलैंड जिस उद्दण्डता का व्यवहार करता है वह उसके भारत में प्राप्त साधनों से प्रेरित होती है या कम से कम प्रभावित होती है। वे साधन जव उसके हाथ से निकल जायेंगे, या कम हो जायेंगे या उसकी पहुँच से दूर कर दिये जायेंगे तब वह संयत राष्ट्र हो जायगा और अन्य राष्ट्रों के साथ न्याय तथा सुजनता का व्यवहार करने लगेगा। जब तक वह भारत का, उसके आर्थिक साधनों का, उसकी जन-शक्ति का प्रयोग कर सकता है तब तक उसके लिए वर्तमान काल की उस उद्दण्डता का भाव बनाये रखना अनिवार्य है जिसकी झलक लार्ड बर्कनहेड और मिस्टर विन्स्टन चर्चिल जैसे राजनीतिज्ञों के व्याख्यानों में प्रायः मिलती रहती है। एक अत्याचारी, उद्दण्ड, पृष्ट और भारतवर्ष को अपने इशारे पर नचानेवाला ग्रेटविटेन विश्वशान्ति के लिए खतरा है। भारत के स्वाधीन होते ही वह ख़तरा जाता रहेगा। यह विषय इतना स्पष्ट है कि इस पर अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं है।

यह भी भली भाँति स्पष्ट है कि जब तक भारत स्वतंत्र नहीं हो जाता, वह अपने राष्ट्रीय जीवन के उन विभागों की उन्नति नहीं कर सकता जो रोग से उसकी मुक्ति कर सकते हैं। रोग और महामारियाँ, जैसा कि हम बतला आये हैं, मूर्खता और गरीबी से उत्पन्न होती हैं। और मूर्खता और ग़रीबी का नाश तब तक नहीं हो सकता जब तक ब्रिटेन भारत को अपनी मुट्ठी में किये हुए है और जब तक ब्रिटिश की राज्य-कोष-नीति उसी के स्वार्थों––साम्राज्यवाद, सेनावाद और अर्थवाद––की दृष्टि से निश्चित की जाती है। यह आशा करना बहुत अधिक है कि इंगलेंड इनमें से किसी का कोई अंश कम कर देगा। शक्ति के इस नशे में ब्रिटिश मन्त्रिमण्डल ने और, [ ४५४ ]ब्रिटिश-पार्लियामेंट ने हाल के शाही कमीशन के विधान में भारतीय लोकमत का जो अपमान किया है उससे भी यही बात सिद्ध होती है। यहाँ एक दूसरे प्रामाणिक अमरीकन लेखक का वक्तव्य उद्धृत करना उपयुक्त ही होगा जो न्यूयार्क से चिल्ला रहा है। न्यूयार्क के आध्यात्मिक विद्यालय के भूतपूर्व सभापति और वेदान्त के अध्यापक रेवरेंड डाक्टर चार्लस कटबर्ट हाल लिखते हैं:––

"इस बात को अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि इँगलेंड भारत पर, उसके लाभ के लिए नहीं बल्कि अपने लाभ के लिए शासन कर रहा है। मेरे लिए यह कहना बहुत कठिन है। क्योंकि जब तक मैं भारत नहीं गया था, मेरी समस्त सहानुभूति अँगरेज़ों के साथ थी। मेरी आरम्भिक शिक्षा अधिकांश में इँगलेंड में ही हुई थी और वहाँ मेरे बहुत से प्रिय मित्र हैं। परन्तु इस समय मैं जो कह रहा हूँ वह सत्य है; और सत्य को अवश्य कहना चाहिए।......

"यह प्रत्यक्ष बात हमारे चेहरे में घूरती है कि भारत में किसी समय, किसी वर्ष खाद्य पदार्थ की कमी नहीं होती। कठिनाई यह है कि ब्रिटिश सरकार ने जो कर लगाये हैं वे उपज के ५० प्रतिशत हैं। इससे भारतीय भूखों मरते हैं ताकि इँगलेंड की वार्षिक कर की आय में एक रुपये की भी कमी न हो। सम्पूर्ण जनसंख्या के ८० प्रतिशत भाग को खेतों में जान देने के लिए विवश होना पड़ा है क्योंकि इँगलेंड की पक्षपात से चुङ्गी लगाने की नीति ने सब प्रकार के देशी व्यवसायों को नष्ट कर दिया। और ये खेत जोतनेवाले जब अपने आपको अन्तिम बार ऋणदाता के हाथ बेच देते हैं, जब बार बार अपनी फसल और अपनी भूमि का छोटा-सा टुकड़ा गिरवी रख चुकते हैं तब तहसीलदार उनका सब कुछ नीलाम करके उन्हें भिखारी बना देता है। बेचारे इधर-उधर भटकते हैं और अन्त में भूख से तड़पकर मर जाते हैं।.........हम जहाज़ों में अन्न भर कर भारतवर्ष को भेजते हैं परन्तु भारतवर्ष में यथेष्ट अन्न है। कठिनाई यह है कि लोग गरीबी से इतना अधिक पिस गये हैं कि उनके पास अन्न खरीदने के लिए पैसा ही नहीं है। अकाल ने अब वहाँ स्थायी रूप धारण कर लिया है। फिर भी उसी प्रकार प्रतिवर्ष खाद्य पदार्थ जहाज़ों में लाद कर इँगलेंड को रवाना किया जा रहा है और प्रतिवर्ष उसी प्रकार करोड़ों रुपयों का अपव्यय किया जा रहा है[३]।........." [ ४५५ ]डाक्टर पाल एस॰ रीज़च, जिन्होंने अमरीकन सचिव की हैसियत से चीन में काम किया अपनी 'पूर्व में बौद्धिक और राजनैतिक लहरें' नामक पुस्तक में लिखते हैं:––

"भारत की वर्तमान दशा एक सभ्य जाति की राजनैतिक पराधीनता के कुछ दुःखद परिणामों को चित्रित करती है। राजनैतिक बातों में ही नहीं आर्थिक बातों में भी भारतवर्ष को इँगलेंड का गुलाम बना कर रक्खा जाता है। परन्तु वर्तमान परिस्थिति में सबसे बड़ी निराशाजनक बात यह है कि जो लोग स्वभावतः शासन-व्यवस्था में और पुरुषार्थ के कामों में नेता हो सकते हैं उन्हें स्वयं अपने देश में कानूनी अधिकारों के प्रयोग करने का भी अवसर नहीं मिलता। सम्पूर्ण जाति को इस प्रकार मुर्दा बना देना, शान्ति स्थापना के लिए या सुप्रबन्ध के ही लिए यह कार्य क्यों न किया जाय, उस जाति का एक भारी बलिदान करना है। यदि यही नीति जारी रही तो या तो भारत के राष्ट्रीय जीवन का पूर्णरूप से विनाश और अधःपतन हो जायँगा या फिर ब्रिटिश-राज्य का ही अन्त हो जायगा।"

यह तर्क उपस्थित किया जा सकता है कि भारतवर्ष बिना ब्रिटिश की सहायता के बाहरी शत्रुओं के आक्रमण से अपनी रक्षा नहीं कर सकता। यह बात भी निराधार है। स्वतंत्र भारत की सैनिक शक्ति के सम्बन्ध में नीचे हम जनरल सर इयान हैमिल्टन का प्रमाण उद्धृत करते हैं:––

"भारतवर्ष के उत्तर में वह वस्तु है जो अच्छे नेतृत्व में योरप की कृत्रिम समाज को नींव से हिला देने के लिए यथेष्ट और योग्य है––यदि वह एक बार साहस करके उस क्षात्र धर्म का प्रयोग करे जो अकेला उसके सामने धन और धन से ख़रीदी हुई विलासिता से अधिक ऊँचा एक दूसरा आदर्श उपस्थित करता है। केवल वीरता, आत्म-बलिदान और पुरुषार्थ से युद्ध का उद्धार होता है और राष्ट्रीय चरित्र बनता है। ये गुण उन अपवित्र युद्धों में कहाँ देख पड़ते हैं जो राष्ट्रों में व्यापारिक प्रधानता के लिए होते हैं? अब यदि नेताओं की खोज करने का प्रश्न रह जाय तो क्रमशः ज्ञान के प्रसार से वे नेता उत्पन्न हो जायँगे और यदि वे एक बार उत्पन्न हो जायँगे तो इँगलेंड इस विशाल साम्राज्य को ब्रिटिश के ताज के अधीन स्थायी रूप से रखने की कैसे आशा [ ४५६ ]कर सकता है––जब तक भारतवासियों को वास्तव में वही स्वतंत्रता न दी जाय जो आज कनाडा और अस्ट्रेलिया को प्राप्त है[४]?"

किसी दूसरी शक्ति द्वारा भारतवर्ष के जीत लिये जाने की सम्भावना का खण्डन भी बिना विशेष वाद-विवाद के किया जा सकता है। संसार की परिस्थिति किसी दूसरी शक्ति को भारतवर्ष पर अधिकार न करने देगी। यदि भारतवर्ष स्वतंत्र रहेगा तो योरप की शक्तियों को उससे कोई भय नहीं होगा। परन्तु यदि कोई अन्य शक्ति भारत पर अधिकार करने की चेष्टा करेगी तो योरप की शक्तियाँ स्वयं अपने स्वार्थ के लिए ऐसे कारणों के लिए उसका विरोध करेंगी जो इस अध्याय के आरम्भ में दिये जा चुके हैं। परन्तु हाँ, यदि भारत साम्राज्य के अन्तर्गत ही रहे, जैसा कि वह वर्तमान समय में पसन्द भी कर सकता है, तो वह ग्रेटब्रिटेन के शत्रुओं के विरुद्ध उसके लिए एक बड़ी शक्ति का साधन होगा। परन्तु यदि उसे साम्राज्य से बिलग होने के लिए विवश किया जायगा तो संसार की शान्ति का एक ख़तरा दूर हो जायगा।

युद्ध के पश्चात् से संसार में साम्राज्यवाद और समाजवाद के सिद्धान्तों में बड़ा घोर संघर्षण चल रहा है। युद्ध ने रूस में एक ऐसी क्रान्ति को जन्म दिया है जिसके समान धटना इतिहास में कभी नहीं हुई। योरप के पूँजीवाले साम्राज्यों ने रूसी क्रान्ति का विरोध किया है और सोवियत रूस पर कई प्रकार से आक्रमण किया है। हमें समय समय पर यह बताया गया है कि रूस का सर्वनाश बहुत निकट है फिर भी यह इन समस्त आक्रमणों को पार कर गया है और खूब अच्छी तरह जीवित है। यहाँ तक कि ब्रिटिश-कूटनीतिज्ञों तथा ब्रिटिश वैदेशिक कार्यालय को रूस के राजनैतिक और आर्थिक प्रभाव को एशिया और योरप दोनों जगह स्वीकार करना पड़ा है। हम बोलशेविक विचारों से सहमत हों या न हों परन्तु यह तो निश्चय है कि सोवियत रूस में जो प्रयोग हो रहे हैं उनका संसार के जीवन पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ रहा है। जो कुछ आज योरप और अमरीका में देखने में आ रहा है उससे यह स्पष्ट है कि साम्राज्यवाद के विरुद्ध एक लहर उठ रही [ ४५७ ]है। साम्राज्यवाद और समाजवाद में या यह कहिए कि पूँजीवाद और समाजवाद में जो युद्ध चल रहा है उसमें कुछ समय लगेगा परन्तु सब लक्षणों से प्रकट होता है कि नवीन भावों की विजय अवश्यम्भावी है। बोलशेविज्म का सामना करने का एक ही उपाय है कि इस समय साम्रज्यावादी जातियाँ जिन जातियों को लूट-खसोट रही हैं और उनका रक्त चूस रही हैं––भारत भी उनमें एक है––उन्हें तुरन्त उनका अधिकार सौंप दिया जाय। नहीं तो असन्तुष्ट और लुटे देश बोलशेविज्म की उत्पत्ति के केन्द्र बन जायेंगे भारतवर्ष को स्वतंत्रता मिल जानी चाहिए नहीं तो हिमालय की श्रेणियों भी यहाँ बोलशेविज्म के प्रदेश को रोक नहीं सकेंगी।

अब हमें इस प्रश्न पर व्यापारिक दृष्टिकोण से भी विचार कर लेना चाहिए। अपनी भौगोलिक स्थिति से भारत निकट के पूर्व और दूर के पूर्व को जोड़ता है और विश्व के व्यापार का केन्द्र है। जाति की दृष्टि से देखा जाय तो यह योरपियन आर्यों और पीली जातियों को मिलाता है। गोरी और पीली जातियों में यदि कोई युद्ध छिड़ेगा तो उसका निपटारा भारतवर्ष ही करेगा। शान्ति के दिनों में भारतवासी समता और सौंदर्य की वृद्धि करेंगे। जाति की दृष्टि से उनका सम्बन्ध योरपियन लोगों से है। धर्म और संस्कृति की दृष्टि से वे चीनियों और जापानियों के निकट हैं।

इसके अतिरिक्त इसका एक रूप और भी है। ७ करोड़ मुसलमानों के होने से भारत इसलामी भावनाओं का भी एक महत्वपूर्ण केन्द्र है। वर्तमान समय में ब्रिटिश सरकार विभिन्न रूपों में हिन्दू-मुसलिम झगड़े उत्पन्न करके और पक्षपात करके मुसलमानों को संतुष्ट और अपनी ओर रखने की चेष्टा कर रही है। परन्तु इस नीति का असफल हो जाना अवश्यम्भावी है। क्योंकि मुसलमानों में अपने-पन का भाव बल पकड़ रहा है। भारतवर्ष की मुसलमान जनता में बहुसंख्यक ऐसे हैं जो विश्व में इसलाम के हित के लिए भारत का महत्त्व समझते हैं। हम यह कह सकते हैं कि इसलामी शक्तियों की स्वतन्त्रता भारत की स्वतन्त्रता पर निर्भर है। हिन्दू-मुसलमानों में जो वर्तमान सामयिक वैमनस्य है उसका किसी न किसी दिन अन्त हो जाना अनिवार्य है––कम से कम उस समय जब भारत के लाखों मुसलमानों को [ ४५८ ]यह ज्ञात हो जायगा कि जब तक भारत पुनः स्वतंत्र न हो जाय तब तक इसलाम का न तो उद्धार किया जा सकता है, न उसकी शक्ति बढ़ाई जा सकती है और न उसे योरप के प्रभावों से बचाया जा सकता है। इसलाम मरा नहीं है। यह न मर सकता है और न मरेगा। इसको मेल और शान्ति की शक्ति बनाने का एक मात्र उपाय यही है कि इसकी आन्तरिक दृढ़ता को स्वीकार कर लिया जाय और इसके भावों का आदर किया जाय। इसलामी देशों की राजनैतिक स्वाधीनता के बिना ऐसी स्थिति उत्पन्न नहीं हो सकती और इसलाम के भावी विकास में भारतवर्ष का बहुत बड़ा भाग लेना निश्चय है।

मनुष्यता की उन्नति की ओर देखते हुए, इस बात की उपेक्षा नहीं की जा सकती कि भारत, जिसमें सम्पूर्ण मानव जाति का पाँचवां भाग निवास करता है और चीन, जिसकी जनसंख्या और भी अधिक है, दोनों इस मानव-जाति की उन्नति की दौड़ में सबसे बड़ी रुकावटें हैं। ये दोनों देश इस स्थिति को जानते हैं। दोनों अपनी वर्तमान असमर्थता और अपनी महान शक्ति से परिचित हैं। दोनों उन्नति-चक्र के आन्तरिक अङ्ग हैं। परन्तु एक स्वतंत्र भारत मनुष्यता की उन्नति में और भी बहुत बड़ा सहायक होगा। उत्तर-पूरब में प्रजातांत्रिक चीन, उत्तर-पश्चिम में बली और वीर्यवान् अफगानिस्तान, पीठ की ओर स्वाधीन और उन्नतशील फ़ारस, और उत्तर में हिन्दूकुश के पार बोलशेविक रूल के होते हुए भारत पर मनमाना शासन करने की चेष्टा करना भारी मूर्खता होगी। स्वयं ईश्वर भी चाहे तो ऐसा अधिक समय तक नहीं कर सकता। ब्रिटिश-पार्लियामेंट और भारतीय व्यवस्थापिका सभाएँ अपनी सम्पूर्ण शक्ति सैकड़ों कड़े विधान बनाने में लगावें तब भी यह सम्भव नहीं हो सकता।

विश्व की शांति, अन्तर्राष्ट्रीय प्रेम और सहानुभूति, अँगरेज़ जाति के गौरव, मनुष्य-मात्र की उन्नत्ति, और संसार के आर्थिक मङ्गल के लिए यह परमावश्यक है कि भारतवर्ष में शान्ति के साथ प्रजातान्त्रिक शासन विकसित हो। और अँगरेज़ लोग इस निश्चित बात को जितनी ही शीघ्र समझ लेंगे उतना ही अधिक इस विषय से सम्बन्धित जातियों का कल्याण होगा।


  1. सेनचरी कम्पनी, न्यूयार्क, १९१९।
  2. अफगानिस्तान के सम्बन्ध में अब स्थिती बिल्कुल बदल गई है।
  3. न्यूयार्क के बार एसोसिएशन में दिये गये एक व्याख्यान से। 'दी पब्लिक', २० नवम्बर १९०८ से उद्धृत।
  4. ए॰ एम॰ पूले-लिखित 'जापान की वैदेशिक नीति' देखिए।