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दुर्गेशनन्दिनी द्वितीय भाग/ उन्नीसवां परिच्छेद

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दुर्गेशनन्दिनी द्वितीय भाग
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, अनुवादक गदाधर सिंह

वाराणसी: माधोप्रसाद, पृष्ठ ७९ से – ८१ तक

 


उपकारी का बाल बांका करें!

उसमान चुप चाप घोड़े पर चढ़कर दुर्ग की ओर चला गया। राजपुत्र ने वस्त्र द्वारा आंगन में कुयें से जल निकाल शरीर के रुधिर को धोया और घोड़े पर चढ़े तो क्या देखा कि 'रास' में एक पत्र बंधा है उसके लिफ़ाफे़ पर लिखा था 'दोदिन के भीतर इस पत्र को न खोलियेगा नहीं तो कार्य सिद्ध न होगा।'

राजकुमार ने सोचकर पत्र को कवच में रख लिया और चल खड़े हुए।

लश्कर में पहुंचने के दूसरे दिन एक दूत ने आकर एक पत्र और दिया उसका वृत्तान्त अगले परिच्छेद में लिखा जायगा।'

उन्नीसवां परिच्छेद।

आयेशा का पत्र।

आयेशा लेखनी लेकर पत्र लिखने को बैठी और एक काग़ज लेकर लिखने लगी। पहिले लिखा 'प्राणाधिक' और फिर उसको काटकर लिखा 'राजकुमार' और रोने लगी। आंसू की बून्द जो काग़ज पर गिर पड़ी इसलिये उस काग़ज को फाड़कर फेंक दिया। फिर दूसरे काग़ज पर लिखने लगी किन्तु उसपर भी आंसू टपक पड़ा और उसको भी फाड़ डाला। फिर दूसरे काग़ज पर लिखा। जब पत्र समाप्त होगया उसको पढ़ने लगी और किसी तरह उसको बंद करके दूत के हाथ भेज दिया और आप अकेली सेजपर बैठी रोती थी।

जगतसिंह ने पत्र लेकर पढ़ा।

'राजकुमार! मैंने जो तुमसे भेंट नहीं किया उससे मुझको अधीर न समझना नहीं तो मुझको दुःख होगा । उपमान के हृदय में अग्नि जल रही थी मेरे भेंट करने से कदाचित उसको क्लेश होता इसलिये मैंने तुमसे साक्षात नहीं किया । मैंने यह भी नहीं समझा था कि न भेंट करने से तुमको विषाद होगा और अपने दुःख सुख को तो जगदीश्वर के चरण में अर्पण कर चुकी । यदि तुमस साक्षात होता तो भी यह दुःख भोगना ही पड़ता और नहीं हुआ तो भी भोग रही हूं।

फिर यह पत्र क्यों लिखती हूं ? एक बात है इसीलिये लिखा है। यदि तुमने सुना हो कि मैं तुमको चाहती हूँ तो उस बात को अब भूल जाओ। मैंने संकल्प किया था कि इस देह से इस बात का प्रकाश न होगा परन्तु विधना की यही मनो गति थी। अब भूल जाओ । अब मैं तुम्हारी आकांक्षा नहीं रखती । मुझे को जो देना था मैं दे चुकी तुम से मुझको कुछ न चाहिये। मेरा प्रेम तो ऐसा दृढ़ है कि तुम मुझको न भी चाहो तो मैं मुखी हूं किन्तु अब उससे क्या काम है ?

नुमको मैने अमुखी देखा था जब कभी तुमको मुख होय आयेशा को अवश्य स्मरण करना और लिखना । याद इच्छा न हो तो न भी लिखना । क्या कभी आयेशा फिर तुमको स्मरण होगी?

मैंने जो तुमको पत्र लिखा है या फिर कभी लिखू तो लोग दोष देंगे परन्तु मैं दोर्षा नहीं हूँ लोगों के कहने से क्या हो सक्ता है। तुमको जब कभी इच्छा हो पत्र अवश्य लिखियगा।

तुम अब इस देश को छोड़ जात हों परन्तु पठान शान्त नहीं है इससे तुम्हारे फिर इस देश में आने की सम्भावना है पर मुझ से अब भेट नहीं हो सकी । मैंने इसको अपने हृदय

में भली भांति सोच के स्थिर किया है। स्त्रियों काहृदय स्वाभाविक दुर्दम है अतएव अधिक साहस उचित नहीं।

मुझको एक बेर और तुम्हारे दर्शन की लालमा है। यदि तुम यहां पर अपना विवाह करो तो मुझको सम्बाददेना मैं अपने सामने विवाह कराऊंगी और आप की पत्नी के लिये कुछ अलंकार रख छोड़ा है यदि समय मिला तो अपने हाथ से पहिराऊंगी, एक निवेदन और है। जब मेरे मरने का समाचार तुम्हारे पास पहुंचे तो एक बेर इस देश में आना और तुम्हारे नामांकित संदूक में जो कुछ रक्खा है उसको अनुग्रह पूर्वक ग्रहण करना। पिता के स्नेह के कारण कन्या होकर जो द्रव्य मने पाया है धन हीन देश में वह लाख करोड़ के तुल्य है। यदि राजवंश को इसके लेने में कुछ दोष न हो तो आकर इसका अधिकार लेना।

दान पत्र इसी सन्दूक में मिलेगी।

और क्या लिखूं? लिखने को तो बहुत जी चाहता है किन्तु क्या प्रयोजन? जगदीश्वर लक्ष्मी पति गदाधर सर्वदा तुमको सुखी रक्खे। मेरा ध्यान करके कभी दुखी न होना।

जगतसिंह पत्र पढ़कर रोने लगे और कुछ देर उसको हाथ में लिये इधर उधर टहलते रहे फिर झट एक टुकड़ा कागज ले निम्न लिखित पत्र लिख दूत के हाथ दिया।

'आयेशा' तू स्त्री रत्न है! मेरे जान विधाता की यही इच्छा है कि जगत में सब दुखीही रहें। मैंने तुम्हारी किसी बात का उत्तर नहीं लिखा। तुम्हारे पत्र से मे अत्यन्त कातर हो गया हूं। इतना निश्चय करक जानना कि मैं तुमको सर्वदा अपनी सहोदर बहिन की तरह समझता रहूंगा।'

दूत पर लेकर आयेशा के पास फिरगया

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