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दुर्गेशनन्दिनी द्वितीय भाग/ अट्ठारहवां परिच्छेद

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दुर्गेशनन्दिनी द्वितीय भाग
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, अनुवादक गदाधर सिंह

वाराणसी: माधोप्रसाद, पृष्ठ ७४ से – ७९ तक

 


हुए कतलूखां ने कहा 'पिता होन- मैं पापी-ऊंह प्यास "

आयशा ने फिर कुछपिलाया किन्तु फिर गला घुटने लगा।

सांस छोड़ते २ बोला 'दारुण ज्वाला-साध्वी तुम देखना -'

राजपुत्र ने कहा 'क्या?

कतलूखां ने सुन लिया और बोला।

इस क-इसकन्या-सी-पवित्र-स्पर्श-न-देखा नहीं। ~~तुम ऊह । बड़ी ण्यास-प्यास-चले-आयेशा।'

फिर बोल न निकला । अपने जान परिश्रम तो बहुत किया परन्तु सिर झुक गया और कन्या का नाम लेते २ प्राण पयान कर गया।

अट्ठारहवां परिच्छेद ।

बराबरी।

अगतसिंह छूट कर अपने पिता के लइकर में गये और वहां से आकर सन्धि का निषध करा दिया । पठान लोग दिल्लीश्वर के आधीन हुए तथापि उङिस्सा उनके हाथ में रहा, सन्धि का नियम विस्तार पूर्वक लिखने का इस स्थान पर कुछ प्रयोजन नहीं है । मेल होने के पीछे भी कुछ दिन तक दोनों दल के लोग अपने २ स्थान पर बने रहे । ईसाखां ने कतलूखां के पुत्रादि को लेकर उसमान के साथ मानसिंह को 'नज़र' दी । राजा ने भी उनका बड़ा आदर किया और खिलत देकर विदा किया इस प्रकार सन्धि करने और मिला मेंटी करने में कुछ दिन बीत गये।

अन्त को जगतसिंह की सेना के पटने को कूच करने का दिन समीप आया। एक दिन संध्या को युवराज अपने नोकर चाकरों को लेकर दुर्ग में उसमान आदि से विदा होने को चले। कारागार में सेंट होने के अनन्तर उसमान का युबराज पर बह भाव नहीं रहा जैसा पहिले था । अतएव सामान्य बात चीत करके उसने उनको विदा किया। .

वहां से जगतसिंह ईसाखा के पास गये और सब से पीछे आयेशा से विदा होने गये । महल के द्वार पर एक पहरे वाले से कहला भेजा कि जिस दिन से नवाब साहब मरे हैं उस दिन से देखा नहीं, अप में पटने जाता हूँ न जाने फिर आना हो, या न हो इसलिये मिलने आया हूँ।'

थोड़ी देर के याद खोजा ने आकर उत्तर दिया कि बीपी साहेबा कहती हैं कि मैं भेंट नहीं कर सक्ती मेरा अपराध क्षमा कीजिये।

राजपुत्र बहुत उदास होकर फिरे। द्वार पर उसमान उनकी राह देख रहा था।

उनको देखकर राजपुत्र ने पूछा 'यदि मुझसे कोई काम होतो कहो।'

उसमान ने कहा 'आप के सङ्ग बहुत से चाकर हैं सबके सामने नहीं कह सक्ता, इन लोगों से कह दीजिये कि आगे चलें और आप मेरे सङ्ग आइये"

राजपुत्र ने निःसंकोच सबको आगे बढ़ने का आदेश दिया और आप अकेले घोड़े पर चढ़कर उसमान के सह चले । उस मान भी धोड़े पर सवार था। थोड़े समय में दोनों एक शाल के जङ्गल में पहुंच बन के बीच में एक टूटी झोपड़ी थी जिसके देखने से बोध होता था कि किसी ने अपने छिपने को बनाई हो । घोड़ को एक पेड़ में बांँध दिया और दोनों भीतर गए। देखते क्या हैं कि एक ओर तो एक कबर खुदी पड़ी है और एक ओर चिता सजी है । गजकुमार ने पूछा 'यह क्या व्यापार हे?

उसमान ने उत्तर दिया कि यह सब मेरी आशा से बनाया गया है आज यदि मैं मारा जाऊं तो मुझको इस 'कबर' में गाड़ दीजियेगा और कदाचित आप मारे जाय तो किसी ब्राह्मण से आप को इसी चिता पर फुकवा दूंगा। कोई जानेगा भी न ।' .

राजपत्र ने आश्चर्य से कहा मैं इसका अर्थ नहीं समझा' उसमान ने कहा 'हमलोग पठान हैं, जब हमारा अन्तःकरण जलता है तो उचित अनुचित नहीं विचारते ! इस पृथ्वी पर आयेशा के चाहने वाले दो नहीं रह सके, एक को यहीं प्राण देना पड़ेगा।

अब तो बातें खुल पड़ी। राजकुमार ने पूछा फिर तुम्हारी क्या इच्छा है?

उसमान ने कहा ' आप के हाथ में शस्त्र है, मुझ से युद्ध करो यदि तुम्हारे में समर्थ हो मुझको मारकर आप अकंटक चैन करो नहीं मैं तो तुम्हारा प्राय लेने को खड़ाही हूं।'

और उत्तर की आशा न करके जगतसिहं के ऊपर आघात करने लगा। राजकुमार ने भी तुरन्त म्यानसे तलवार निकाल अपनेको बचाया। उसमान बारम्बार राजकुमार के प्राण लेन का उद्योग करता रहा पर राजकुमार ने एक भी हाथ नहीं चलाया केवल अपने शरीर की रक्षा करते रहे ! दोनों शस्त्र विद्या में निपुण थे अतएव कोई पराजित नहीं हुआ। राजकुमार को बहुत चोट लगी और चारो ओर से रुधिर बहने लगा और कुछ सिथिलता भी आने लगी। अपनी यह दशा देख कातर घर से बोले 'उसमान ठहर आओ मैंने हार मानी ।' उसमान हंसने लगा और बोला 'मैं यह नहीं जानता था कि राजपुत्र सेनापति मरने से डरता है, लड़ो, मैं तुमको मारूंगा छोडूंगा नहीं तुम जीते जी आयेशा को नहीं पा सकते।'

राजपुत्र ने कहा 'मैं आयेशा को नहीं चाहता।'

उसमान तरवार भांजते २ बोला 'तुम आयेशा को नहीं चाहते किन्तु आयेशा तुमको चाहती है । लड़ो, छूटोगे नहीं।

राजकुमार ने असि दूर फेंक कर कहा 'मैं न लडूंगा। तुमने हमारा इतना उपकार किया है मैं तुमसे लड़ नहीं सक्ता।

उसमान ने क्रोध करके राजकुमार के छाती में एक लात मारी और कहा 'जो सिपाही लड़ने से भागता है उसको ऐसे लड़ाते हैं।

फिर राजकुमार से न रहा गया और चट भूमि पर से तरवार को उठा सिंह की भांति कूद कर उसके छाती पर चढ़ बैठे और उसके हाथ से तरवार छीन ली। दहिने हाथ से तरबार उसके गले पर रख बोले 'अब तो साधमिट गयी?'

उसमान ने कहा 'अभी तो दम में दम है।'

राजपुत्र ने कहा 'अब दम निकाल लेने में क्या बाधा है?'

उसमान ने कहा 'फिर निकाल लो नहीं तो मैं तुमको मारने को जीता रहूंगा।

जगतसिंह ने कहा 'रहो कुछ भय नहीं।' मैं तो तुमको मार डालता किन्तु तुमने मेरी प्राण रक्षा की है मैंने भी छोड़ा।'

यह कह दोनों पैरों से उसका दोनों हाथ दबा लिया और एक २ करके उसका सब शस्त्र छीन लिया और फिर उसको छोड़कर बोले 'अव बराबर घर चले जाओ, तुमने मुसलमान होकर राजपुत्र की छाती में लात मारा था इसीलिये तुम्हारी यह दशा की गयी नहीं तो राजपूत कृतघ्न नहीं होते जो अपने

उपकारी का बाल बांका करें!

उसमान चुप चाप घोड़े पर चढ़कर दुर्ग की ओर चला गया। राजपुत्र ने वस्त्र द्वारा आंगन में कुयें से जल निकाल शरीर के रुधिर को धोया और घोड़े पर चढ़े तो क्या देखा कि 'रास' में एक पत्र बंधा है उसके लिफ़ाफे़ पर लिखा था 'दोदिन के भीतर इस पत्र को न खोलियेगा नहीं तो कार्य सिद्ध न होगा।'

राजकुमार ने सोचकर पत्र को कवच में रख लिया और चल खड़े हुए।

लश्कर में पहुंचने के दूसरे दिन एक दूत ने आकर एक पत्र और दिया उसका वृत्तान्त अगले परिच्छेद में लिखा जायगा।'

उन्नीसवां परिच्छेद।

आयेशा का पत्र।

आयेशा लेखनी लेकर पत्र लिखने को बैठी और एक काग़ज लेकर लिखने लगी। पहिले लिखा 'प्राणाधिक' और फिर उसको काटकर लिखा 'राजकुमार' और रोने लगी। आंसू की बून्द जो काग़ज पर गिर पड़ी इसलिये उस काग़ज को फाड़कर फेंक दिया। फिर दूसरे काग़ज पर लिखने लगी किन्तु उसपर भी आंसू टपक पड़ा और उसको भी फाड़ डाला। फिर दूसरे काग़ज पर लिखा। जब पत्र समाप्त होगया उसको पढ़ने लगी और किसी तरह उसको बंद करके दूत के हाथ भेज दिया और आप अकेली सेजपर बैठी रोती थी।

जगतसिंह ने पत्र लेकर पढ़ा।

'राजकुमार!

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