सामग्री पर जाएँ

दुर्गेशनन्दिनी द्वितीय भाग/ चौथा परिच्छेद

विकिस्रोत से
दुर्गेशनन्दिनी द्वितीय भाग
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, अनुवादक गदाधर सिंह

वाराणसी: माधोप्रसाद, पृष्ठ १३ से – १७ तक

 
चौथा परिच्छेद।
घूंघटवाली।

दुर्ग जय करने के दूसरे दिन पहर दिन चढ़े कतलूखां का 'दरबार' हुआ। पारिषद लोग श्रेणीबद्ध दोनों ओर खड़े थे और सामने शतश: मनुष्य चुपचाप देख रहे थे। आज बीरेन्द्र सिंह का विचार होनेवाला है।

कई सिपाही अस्त्र बांधे बीरेन्द्रसिंह के हाथ में हथकड़ी और पैर मैं बेड़ी डाले उपस्थित हुए। यद्यपि उनका शरीर रक्त वर्ण हो रहा था पर मुंह पर भय का कोई चिन्ह नहीं था। आंखों से आग बरसती थी नाक का सिरा फरफराता था और दांत ओठों को खाये जाते थे। बीरेन्द्रसिंह को देख कतलू खां ने पूछा 'बीरेन्द्रसिंह! आज मैं तुम्हारे अपराध का विचार करने बैठा हूं बताओ तुमने हमसे बिरोध क्यों किया?'

बीरेन्द्रसिंह ने क्रोध करके कहा 'पहिले तुम यह तो बतलाओ कि हम ने क्या विरोध किया'।

एक पारिषद ने कहा 'विनीत भाव से बात करो'।

कतलू खां ने कहा 'तुमने क्यों हमारी आज्ञा के अनुसार हमको द्रव्य और सेना नहीं भेजी?'

बीरेन्द्रसिंह ने नि:शंक कहा 'तुम राजद्रोही लुटेरों को हम क्यों द्रव्य दें? और सेना दें?'

कतलू खां का कलेवर कोप से कांपने लगा किन्तु रोष को रोक कर बोला 'तुम ने हमारे अधिकार में रह कर मोगलियों से क्यों मेल किया?'

बीरेन्द्रसिंह ने कहा 'तुम्हारा अधिकार कहां है?'

कतलू खां को और कोप हुआ 'सुनरे दुष्ट जैसा तूने किया है वैसा भोगेगा। अभी तो तेरे जीने की आशा थी पर तू ने अपने हाथ से वह बिगाड़ा।'

बीरेन्द्रसिंह गर्व पूर्वक हंस कर बोले कतलू खां—मैं हाथ पैर बंधा कर तुम्हारे समीप दया की आशा कर के नहीं आया हूं जिस का जीवन तुम्हारी दया के आधीन है उसका जीनाही क्या? यदि तुम केवल मेराही प्राण ले कर सन्तुष्ट होते तब भी मैं तुमको आशीर्वाद देता परन्तु तुमने तो हमारे कुल का नाश कर डाला और प्राण से भी अधिक तुमने हमारे बीरेन्द्रसिंह के मुंह से और बात नहीं निकली कंठ रूंध गया आंखों से पानी बहने लगा। भय हीन दाम्भिक बीरेन्द्रसिंह सिर नीचे करके रोने लगे।

कतलू खां तो सहज निठुर था। वरन उसको परायः दुख देख कर उल्लास होता था बीरेन्द्रसिंह को इस अवस्था में देखकर उसको हंसी आयी और बोला 'बीरेन्द्रसिंह! कुछ मांगना हो तो मांग लो अब तुम्हारी घड़ी आगयी। रोते २ बीरेन्द्रसिंह की छाती कुछ ठंढी हुई और बोले 'मुझको और कुछ न चाहिये अब शीघ्र मेरे बध की आज्ञा दीजिये।'

क· — 'यह तो होगाही और कुछ?'

'अब इस जन्म और कुछ न चाहिये।'

'मरती समय अपनी कन्या से भेंट नहीं करोगे?'

इस शब्द को सुन कर बीरेन्द्र सिंह के हृदय पर नया घाव लगा। 'यदि हमारी कन्या तुम्हारे घर में जीती है तो उसको न देखूंगा और यदि मरगयी हो तो लाओ उसको गोद में लेकर मरूं।' दर्शकगण चुपचाप दांत तले उंगली दबाये इस कौतुक को देख रहे थे।

नवाब की आज्ञा पाय 'रक्षक बीरेन्द्रसिंह को बध भूमि की ओर ले चले। मार्ग में एक मुसलमान ने बीरेन्द्रसिंह के कान में कुछ कहा परंतु उन्होंने सुना नहीं तब एक पत्र उनके हाथ में दिया। उसको खोल कर उन्होंने देखा कि बिमला का लिखा है और मींज मांजकर फेक दिया उस मुसलमान ने उसको उठा लिया और चला गया। निकटवर्ती एक दर्शक ने अपने एक मित्र से धीरे से कहा 'जान पड़ता है यह पत्र इसकी कन्या का है।'

बीरेन्द्रसिंह इस बात को सुन उसकी ओर फिर कर बोले 'कौन कहता है कि हमारी कन्या है? हमारी कन्या नहीं है।'

पत्रवाहक ने पत्र ले जाते समय रक्षकों से कहा था जब तक हम न आवें तुम यहीं ठहरे रहना।

उन्होंने उत्तर दिया 'अच्छा सरकार।'

यह मनुष्य उसमान था इसी लिये रक्षकों ने सरकार कहा।

उसमान हाथ में चिट्ठी लिये चार दीवारी के समीप गया। उस स्थान पर एक वृक्ष के नांचे घूंघट काढ़े एक स्त्री बैठी थी। उसके समीप पहुंच कर उसमान ने सब वृत्तांत कह सुनाया। घूंघटवाली ने कहा 'आपको क्लेश तो बहुत होता है पर हम लोगों की यह दशा आपही के कारण हुई है। आप को फिर यह काम करना पड़ेगा' उसमान चुप रह गया।

घूंघटबाली ने रोकर कहा 'न करोगे न सही। अब तो मैं अनाथ हो गयी केवल ईश्वर रक्षा करनेवाला है।

उसमान ने कहा 'माता! तुम नहीं जानती हो। यह काम बड़ा कठिन है। यदि कतलू खां सुन पावे तो मरवा डाले'! स्त्री ने कहा 'कतलू खां— क्यों हमको डराते हो। उसकी सामर्थ नहीं जो तुम्हारा बाल बांका कर सके।'

उ॰–– तुम कतलू खां को चीन्हती नहीं हो? अच्छा चलो
हम तुम को बध भूमि में ले चलें।

उसमान के पीछे २ स्त्री बध भूमि में जाकर चुपचाप खड़ी हुई। बीरेन्द्रसिंह एक भिखारी ब्राह्मण से बात कर रहे थे इस्से इसको नहीं देखा। घूंघटवाली ने घूंघट हटा कर देखा तो वह ब्राह्मण अभिराम स्वामी था।

बीरेन्द्रसिंह ने अभिराम स्वामी से कहा 'गुरुदेव अब मैं बिदा होता हूं। और मैं आप से क्या कहूँ इस लोक में अब मुझको और कुछ न चाहिये।'

अभिराम स्वामी ने उंगली से पीछे खड़ी घूंघटवाली स्त्री को दिखाया। बीरेन्द्रसिंह ने मुंह फेर कर देखा और घूंघटवाली झपट घूंघट हटा बेड़ी बद्ध बीरेन्द्रसिंह के चरण पर गिर पड़ी।

बीरेन्द्रसिंह ने गदगद स्वर से पुकारा 'बिमला।'

किन्तु बिमला रोने लगी।

'हे प्राणनाथ! हे स्वामी? हे राजन्! अब मैं कहां जाऊं। स्वामी मुझको छोड़कर तुम कहां चले ? मुझको किसको सौंपे जाते हो। हा प्रभू।'

बीरेन्द्रसिंह की आंखों से भी आंसू गिरने लगे। हाथ पकड़ कर बिमला को उठा लिया और बोले 'प्यारी? प्राणेश्वरी! क्यों तू मुझको रोलाती है। शत्रु देख कर मुझको कायर समझेंगे।'

विमला चुप रही। बीरेन्द्रसिंह ने फिर कहा 'बिमला। मैं तो अब जाता हूं तुम लोग मेरे पीछे आना।'

विमला ने कहा ' आऊंगी तो।'

(और धीरे से जिसमें और लोग न सुनें) आऊंगी तो परंतु इस दुख का प्रतिशोध करके आऊंगी।' बीरेन्द्रसिंह का मुखमंडल दीप्तमान हो गया आर बोले 'हां!' बिमला ने दहना हाथ दिखला कर कहा 'इस हाथ का कंकण भी मैंने उतार दिया अब उसका क्या काम है, अब इस को केवल अस्त्र, छूरी आदि भूषण पहिराऊंगी।'

बीरेन्द्रसिंह ने प्रसन्न होकर कहा 'ईश्वर तेरी मनोकामना पूरी करें।'

इतने में जल्लाद ने चिल्ला कर कहा अब 'मैं नहीं ठहर सक्ता।'

बीरेन्द्रसिंह ने बिमला से कहा 'बस अब तुम जाओ।'

बिमला ने कहा 'नहीं, मैं अपनी आंखों से देख लूंगी आज मैं तुम्हारे रुधिर से अपने लाज संकोच को धो डालूंगी।'

'अच्छा जैसी तेरी इच्छा' कहकर बीरेन्द्रसिंह ने जल्लादों को संकेत किया। बिमला देखती रही इतने में ऊपर से कठिन कुठार गिरा और बीरेन्द्रसिंह का सिर भूलोटन कबूतर की भांति पृथ्वी पर लोटने लगा। वह चित्र लिखित क ीसी खड़ी रही न तो उसके आंखों में आंसू आए और न मुंह का रंग पलटा यहां तक कि पलक भी नहीं गिरती थी।


पांचवां परिच्छेद।
विधवा।

तिलोत्तमा क्या हुई? वह पिता हीन अनाथ कन्या क्या हुई? बिमला भी क्या हुई? कहां से आकर उसने बध भूमि में अपने स्वामी का मरण देखा था? और फिर कहां गयी?

बीरेन्द्रसिंह ने मरते समय अपनी प्रिय कन्या को क्यों नहीं देखा वरन नाम लेते क्रोध के मारे शरीर कांपने लगा? और 'हमारी कन्या नहीं है' कहने का क्या प्रयोजन था? बिमला के पत्र को बिना पढ़े क्यों फेंक दिया?

This work is in the public domain in the United States because it was first published outside the United States (and not published in the U.S. within 30 days), and it was first published before 1989 without complying with U.S. copyright formalities (renewal and/or copyright notice) and it was in the public domain in its home country on the URAA date (January 1, 1996 for most countries).