दुर्गेशनन्दिनी द्वितीय भाग/ तीसरा परिच्छेद

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दुर्गेशनन्दिनी द्वितीय भाग  (1918) 
द्वारा बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, अनुवादक गदाधर सिंह

[ १० ] और जगतसिंह?

बिषम ज्वर में पड़े शय्या पर भुगत रहे हैं।

तीसरा परिच्छेद।
तुम तिलोत्तमा नहीं हो?

दूसरे दिन सन्ध्या को जगतसिंह की कोठरी में उसमान और चिकित्सक चुपचाप बैठे थे आयेशा पलङ्ग पर बैठी हाथ से पंखा झल रही थी। चिकित्सक नाड़ी देख रहा था और जगतसिंह अचेत पड़े थे। चिकित्सक ने कहा 'आज की रात ज्वर उतरने पर यदि प्राण बच जाय तो फिर कुछ चिन्ता नहीं। अब वह समय आता जाता है।'

सब का मन ब्यग्र हो रहा था, चिकित्सक भी बार २ नाड़ी देखता था और 'अब नाड़ी बहुत सुस्त चलती है' 'अब तो कहीं मिलती ही नहीं' 'देखो यह चल रही है' कहता था। एकाएक उसका मुंह श्याम होगया और बोला 'देखो अब समय आ गया।'

आयेशा और उसमान कान लगाकर सुनते थे और भिषक नाड़ी पकड़े बैठा था।

थोड़ी देर बाद वैद्य ने कहा 'नाड़ी बहुत धीमी चलती है' आयेशा का मुंह और सूख गया और जगतसिंह के मुंह की भी आकृति बिगड़ चली बरन कुछ टेढ़ापन भी आ गया और स्वेतता छा गयी, हाथों की मुट्ठी बन्ध गयी आंखैं घूम गयीं। आयेशा से जाना कि अब कुछ आशा नहीं, काल आन पहुंचा। चिकित्सक हाथ में एक शीशी लिये बैठा था जगतसिंह की इस अवस्था को देख उनका मुंह चीर औषधी भीतर डाल दी किन्तु वह ओठों द्वारा निकल पड़ी कुछ थोड़ीसी पेट में गयी। [ ११ ] दवा ने भीतर जातेही अपना प्रभाव दिखाया, शरीर का रङ्ग पलटने लगा स्वेतता जाती रही, रक्त का संचार होने लगा, हाथ की मुट्ठी खुल गई और आंख भी खुलने लगी। हकीम ने फिर नाड़ी देखी और किंचितकाल के अनन्तर हर्षयुत बोला 'अब कुछ भय नहीं अब काल टल गया।'

उसमान ने पूछा 'ज्वर उतर गया?'

भिषक ने कहा 'हां।'

आयेशा और उसमान दोनों इस बात को सुन कर प्रसन्न हुए?

भिषक ने कहा 'अब किसी बात की चिंता नहीं है मैं जाता हूं इस औषध को आधी रात तक देते जाना' और आप चला गया उसमान भी अपने घर चला गया केवल आयेशा पलङ्ग पर बैठी जगतसिंह की सेवा कर रही थी।

आधी रात के किंचित् पूर्व राजकुमार ने नेत्र खोला और आयेशा और उनकी चार आंखें हुईं। उस समय आयेशा को राजकुमार की चेष्टा देख बोध हुआ कि वे किसी वस्तु का स्मरण कर रहे हैं परन्तु श्रम निष्फल होता है। आयेशा की ओर किंचित्काल देख कर बोले 'मैं कहां हूं?' दो दिन में यही शब्द पहिले पहिल उनके मुंह से निकला।

आयेशा ने कहा 'कतलूखां के दुर्ग में'।

राजकुमार फिर कुछ स्मरण करने लगे और बोले 'मैं यहां कैसे आया?

पहिले आयेशा चुप हो रही फिर बोली ' आए पीड़ित जो हैं।' राजकुमार ने लक्षण समझ सिर को हिला कर कहा 'नहीं नहीं बन्दी हूं।' और चहरे का रङ्ग पलट गया।

आयेशा ने कुछ उत्तर न दिया। [ १२ ] फिर राजपुत्र बोले 'तुम कौन हो?'

'मेरा नाम आयेशा है।'

'आयेशा कौन?'

'कतलू खां की बेटी।'

राजपुत्र फिर चुप रह गए क्योंकि अभी उनको इतनी शक्ति तो थी ही नहीं स्वासा चलने लगी। जब फिर कुछ स्थिरता आई तो बोले 'हमको इस स्थान पर कै दिन हुए?'

'चार दिन।'

'मन्दारणगढ़ अभी तुम्हारे अधिकार में है?'

'हां है।'

फिर जगतसिंह का दम फुलने लगा और कुछ थम कर बोले-'बीरेन्द्रसिंह की क्या दशा हुई?'

'बीरेन्द्रसिंह कारागार में हैं आज उनका विचार होगा।'

जगतसिंह के मुंह पर और भी उदासी छा गई पूछा 'और २ परिजनों की क्या गति हुई?'

आयेशा उकता कर कहने लगी 'मैं सम्पूर्ण समाचार नहीं जानती।'

राजपुत्र अपने मन में सोचने लगे और उनके मुंह से एक नाम निकला आयेशा ने उसको सुन लिया-'तिलोत्तमा।'

आयेशा उठकर औषध लेने गई उस समय की शोभा युवराज के मन में बस गयी और वे उसी की ओर देखने लगे। उसने औषध लाकर दिया और राजपुत्र ने पान करके कहा—

'मैंने स्वप्न में देखा है कि स्वर्गीय देवकन्या मेरे सिरहाने बैठी शुश्रूषा कर रही है वह तुम्ही हो न तिलोत्तमा?'

आयेशा ने कहा 'आपने तिलोत्तमा को स्वप्न में देखा होगा।'

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