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दुर्गेशनन्दिनी द्वितीय भाग/ चौदहवां परिच्छेद

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दुर्गेशनन्दिनी द्वितीय भाग
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, अनुवादक गदाधर सिंह

वाराणसी: माधोप्रसाद, पृष्ठ ५८ से – ६१ तक

 

 

चौदहवां परिच्छेद।
मोह।

जगतसिंह ने झुक कर देखा कि वह बेसुध होगई और अपने वस्त्र से वायु करने लगे इस पर भी उसको चेत नहीं हुआ तब पहरे वाले को बुला कर बोले 'देखो इस स्त्री को मूर्च्छा आगई, इसके सङ्ग कौन आया है? उससे कहो कि इसका यत्न करे।'

उसने उत्तर दिया 'इसके सङ्ग तो मैंही आया हूँ।' राजपुत्र ने आश्चर्य से कहा 'तुम।'

प्रहरी ने कहा 'और कोई नहीं है।'

"फिर क्या होगा? किसी दासी को बुलाओ?"

प्रहरी चला फिर राजपुत्र ने उसको पुकार कर कहा 'आज रात को कौन अपना आनंद छोड़ कर इसकी सुधि लेने आवेगा?'

प्रहरी ने कहा 'यह भी सच है। और पहरे वाले किसको भीतर आने देंगे। मैं दूसरे किसी को कारागार में नहीं बुला सकता।'

राजपुत्र ने कहा 'फिर क्या करोगे? इस का एक उपाय है, तुम चट पट किसी दासी के हाथ नवाब की बेटी के पास कहला भेजो।'

प्रहरी जल्दी से दौड़ा। राजकुमार अपनी बुद्धि के अनुसार तिलोत्तमा की शुश्रूषा करने लगे। उस समय उनके मन में क्या क्या तरङ्ग उठीं होंगी? अकेले तिलोत्तमा को लिये कारागार में व्यग्र बैठें सोचते थे कि 'यदि आयेशा के पास सम्बाद न पहुँचा अथवा वह न आ सकी तो क्या होगा?'

इतने में तिलोत्तमा को कुछ २ चेत होने लगा। उसी समय जगतसिंह ने देखा कि प्राहरी के सङ्ग दो स्त्री आती है। एक घूंघट काढ़े है। दूर से उसके उन्नत शरीर और गजगति से जाना कि दासी साथ लिये आयेशा आपही आती है।

जब दोनों द्वार पर पहुंच गयीं पहरे वाले ने अंगूठी वाले से पूछा "यह भी दोनो भीतर जाँयगी?"

उसने कहा 'तुम जानो—मैं नहीं जानता।'

रक्षक ने कहा 'वेश' और दोनों स्त्रियों को रोक दिया। आयेशा ने घूंघट हटा कर कहा 'हमको जाने दो यदि इसमें तुम्हारी कोई हानि हो तो मैं दोषी हूंगी।'

पहरे वाला आयेशा को चीन्हता नहीं था परन्तु दासी ने उसके कान में कहा कि "यह नवाब की बेटी है। उसने हाथ जोड़ा और कहा 'हमारे अज्ञात अपराध को क्षमा कीजिये' आप को जाने की कहीं रोक नहीं है।"

आयेशा भीतर घुसी। यद्यपि वह हंसती नहीं थी पर मुर्ख उसका प्रफुल्ल कमल की भांति खिला हुआ था। कारागार दीप्तिमान होगया।

उसने राजपुत्र से पूछा 'यह क्या हुआ?'

राजपुत्र ने कुछ उत्तर नहीं दिया, उंगली से तिलोत्तमा की ओर संकेत कर दिया।

तिलोत्तमा को देखकर आयेशा ने पूछा 'यह कौन है?' राजपुत्र ने संकोच से कहा 'वीरेन्द्रसिंह की कन्या।'

आयेशा ने उसको गोदी में उठा लिया और दासी के हाथ से गुलाब लेकर उसके मुंह पर छिड़कने लगी। दासी पंखा झलने लगी। तिलोत्तमा चैतन्य हुई और उठ बैठी। मन में आया कि यहां से चलदे पर पुरानी बातों का ध्यान आ गया और फिर सिर घूमने लगा। आयेशा ने उसका हाथ पकड़ कर कहा 'बहिन' तुम क्यों घबराती हो? तुम्हारे शरीर में शक्ति नहीं है, तुम हमारे घर चलकर विश्राम करो, फिर जहाँ चाहोगी वहाँ तुमको भेज दूँगी।'

तिलोत्तमा बोली नहीं।

आयेशा ने प्रहरी के मुह से सब बातें सुनी थी तिलोत्तमा के मन के सन्देह की शंका कर बोली 'मैं तुम्हारे शत्रु की कन्या तो अवश्य हूँ परन्तु इससे तुम कुछ सन्देह न करो। मैं विश्वासघातिनी नहीं हूँ। मैं कभी किसी से कुछ न कहूँगी। प्रात होते २ तुम जहाँ कहोगी मैं दासी द्वारा तुमको वहीं भेज दूँगी'

आयशा ने यह सब बातें ऐसे मीठे स्वर से कहीं कि तिलोत्तमा को विश्वास आ गया और उसके सङ्ग चलने को प्रस्तुत हुई।

आयशा ने कहा 'तुमसे चला न जायगा, इस दासी का कंधा पकड़ कर चलो।'

उसके कंधे पर हाय रक्खे तिलोत्तमा धीरे धीरे चली। आयेशा जब राजकुमार से विदा होने लगी वे उसके मुँह की भार देखने लगे। उसने समझा कि कुछ कहेगे दासी से बोली तुम, इसको हमारे शयनागार में पहुँचा कर आओ तब मैं चलूँगी।'

दासी तिलोत्तमा को लेकर चली।

जगतसिंह ने मन में कहा 'यह हमारा तुम्हारा अन्तिम साक्षात है।' और फिर ठंढी सांस लेकर चुपचाप, जबतक तिलोत्तमा आंखों के ओर नहीं हो गयी, उसी को देखते रहे।

तिलोत्तमा भी सोचती थी कि 'यह हमारा तुम्हारा अन्तिम साक्षात है।' और जबतक वे देख पढ़ते थे तबतक पीछे फिर कर नहीं देखा और अब देखा तो जगतसिंह को नहीं पाया अंगूठी वालेने तिलोत्तमा के समीप आकर कहा 'अब मैं जाता हूँ।'

तिलोत्तमा ने निषेध किया पर दासी ने कहा 'हाँ!' प्रहरी ने कहा 'तो तुम्हारे पास जो अंगूठी है उसको फेर दो।'

तिलोत्तमा ने अंगूठी उतार कर उसको दे दिया और वह चला गया।।

 

पन्द्रहवां बयान।
मुक्त कंठ।

जब तिलोत्तमा और दासी दोनों बाहर चली गयीं आयेशा पलङ्ग पर बैठ गयी क्योंकि वहाँ कोई और बैठने का स्थान तो थाही नहीं। और जगतसिंह समीप ही खड़े रहे।

आयेशा जूड़े में से एक गुलाब का फूल लेकर नोचने लगी और बोली 'राजकुमार आप की चेष्टा से जान पड़ता है कि आप मुझ से कुछ कहेंगे! यदि मैं आप का कोई काम करसक्ती हूं तो आप बिना संकोच कहें मैं प्रसन्नता पूर्वक करूँगी।'

राजकुमार ने कहा 'नवाब पुत्री!' मैं किसी प्रयोजन के निमित्त तुमसे साक्षात करना नहीं चाहता था किन्तु अपनी दशा देख कर मुझको ज्ञात होता है कि अब हमसे तुमसे देखा देखी न होगी, यह अन्त समय जान पड़ता है। मैं तुम्हारा चिर बाधित हूँ इसका प्रतिउपकार कैसे हो? अपने अदृष्ट से मुझको यह भरोसा नहीं है कि तुम्हारा कोई काम करसकूँ अतएव निवेदन करता हूँ कि यदि कोई अवसर आवे तो तुम आशा करने में संकोच न करना। जैसे बहिन भाई से कहने में संकुचती नहीं उसी प्रकार अब तुम भी करो।

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