दुर्गेशनन्दिनी द्वितीय भाग/ पन्द्रहवां परिच्छेद

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दुर्गेशनन्दिनी द्वितीय भाग  (1918) 
द्वारा बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, अनुवादक गदाधर सिंह

[ ६१ ]नहीं पाया अंगूठी वालेने तिलोत्तमा के समीप आकर कहा 'अब मैं जाता हूँ।'

तिलोत्तमा ने निषेध किया पर दासी ने कहा 'हाँ!' प्रहरी ने कहा 'तो तुम्हारे पास जो अंगूठी है उसको फेर दो।'

तिलोत्तमा ने अंगूठी उतार कर उसको दे दिया और वह चला गया।।

 

पन्द्रहवां बयान।
मुक्त कंठ।

जब तिलोत्तमा और दासी दोनों बाहर चली गयीं आयेशा पलङ्ग पर बैठ गयी क्योंकि वहाँ कोई और बैठने का स्थान तो थाही नहीं। और जगतसिंह समीप ही खड़े रहे।

आयेशा जूड़े में से एक गुलाब का फूल लेकर नोचने लगी और बोली 'राजकुमार आप की चेष्टा से जान पड़ता है कि आप मुझ से कुछ कहेंगे! यदि मैं आप का कोई काम करसक्ती हूं तो आप बिना संकोच कहें मैं प्रसन्नता पूर्वक करूँगी।'

राजकुमार ने कहा 'नवाब पुत्री!' मैं किसी प्रयोजन के निमित्त तुमसे साक्षात करना नहीं चाहता था किन्तु अपनी दशा देख कर मुझको ज्ञात होता है कि अब हमसे तुमसे देखा देखी न होगी, यह अन्त समय जान पड़ता है। मैं तुम्हारा चिर बाधित हूँ इसका प्रतिउपकार कैसे हो? अपने अदृष्ट से मुझको यह भरोसा नहीं है कि तुम्हारा कोई काम करसकूँ अतएव निवेदन करता हूँ कि यदि कोई अवसर आवे तो तुम आशा करने में संकोच न करना। जैसे बहिन भाई से कहने में संकुचती नहीं उसी प्रकार अब तुम भी करो। [ ६२ ]जगतसिंह ने यह बातें ऐसे स्वर से कहीं कि आयेशा को भी दुःख होने लगा और बोली 'आप ऐसे निराश क्यों होते हैं ! सबै दिन नाहिं घरावर जात।'

जगतसिंह ने कहा मैं निराश नहीं होता हूं पर अब आशा करके क्या करना है ? अब यही इच्छा है कि इस पापी जीवन का त्याग करूं ! अब इस कारागार को छोड़ने की अभिलाषा नहीं हैं।'

इस करुणामय बचन को सुन कर आयेशा बहुत विस्मित हुई और कातर भी हुई और राजकुमार प्रति विशेष स्नेह उत्पन्न हुआ और उसने उनका हाथ पकड़ लिया। थोड़ी देर में हाथ जोड़ कर उनके मुंह की ओर देख करके बोली।

'जगतसिंह ! ऐसा दुःख क्यों करते हो ? मुझको अन्य न समझो। यदि साहस दो तो मैं कहूं-बीरेन्द्रसिंह की कन्या कि—

उसकी बात पूरी न होने पायी कि राजकुमार बोल उठे 'उस बात से कुछ काम नहीं वह तो स्वप्न था होगया।'

आयेशा चुप रही और जगतसिंह भी चुप रहे। फिर आयेशा ने मुंह नीचा कर लिया।

राजपुत्र कांप उठे और उनके हाथ पर एक बून्द पानी का गिरा। नीचे आंख करके देखा तो आयेशा रोती थी और कंठ पर्यन्त आंसू की धारा बह रही थी।

विस्मित होकर बाले 'आयेशा यह क्या, तुम रोती क्यों हो ! आयेशा चुप चाप फल को नोचती रही अन्त को बोली।

'युबराज ! मैं यह नहीं जानती थी कि आज तुमसे इस तरह बिदा हूंगी। मैं तो सब क्लेश सह सकी हूं परन्तुं तुम को अकेले इस कारागार का दुख भोगने को छोड़ कर नहींbr> [ ६३ ]
जा सक्ती। तुम हमारे सङ्ग चलो घोड़सार में घोड़े बंधे हैं, मैं एक तुमको दे दूंगी तुम अपने लश्कर में चले जाओ।

राजपुत्र को बड़ा आश्चर्य हुआ और कुछ उत्तर न दे सक आयेशा फिर बोली, 'जगतसिंह आओ चलो।

राजकुमार बोले 'आयेशा ! क्या तुम हमको कारागार से निकाल दोगी ?'

आयेशा ने कहा 'अभी इसी दण्ड।'

ज०-अपने पिता की आज्ञा से?

आ०-आप इसकी कुछ चिन्ता न करें जब आप लश्कर में पहुंच लेंगे तब मैं उनसे कहूंगी। 'पहरेवाले कैसे जाने देंगे ?'

आयेशा ने अपने गले में से रत्न जड़ित कंठा निकाल कर कहा 'पहरे वाले इसकी लालच से छोड़ देंगे।'

फिर राजपुत्र ने कहाँ 'जब यह बात प्रकाशित होगी तो तुम्हारा पिता तुमको दंड न देगा?

'इस में कुछ हानि नहीं।'

'मैं न जाउंगा।'

आयेशा का मुंह सूख गया और उदास होकर बोली क्यों?' जा-'हम अपने प्राण बचाने के लिये तुम को दुःख नहीं दे सकते।'

'क्या आप वास्तविक न जायगे ?'

राजकुमार ने कहा 'तुम अकेली जाओ।'

आयेशा फिर चुप रह गयी और आंखों से आंसू चलने लगे।

उसको रोते देख राजपुत्र ने कहा आयेशा क्यों रोती हो ?'

आयेशा ने उत्तर नहीं दिया। फिर राजपुत्र ने कहा।

आयेशि! तुम अपने इस रोमे का कारण मुस से कहो केवल
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हमारा बन्दी होना इसका कारण नहीं हो सत्ता क्योंकि तुम्हारे पिता के कारागार में हमार ऐसे अनेक हैं।'

आयेशा आंचलसे आंसू पोछने लगी और फिर बोली 'राजपुत्र अब मैं न रोऊंगी।'

राजपुत्र अपने प्रश्न का उत्तर न पाने से उदास हुए और दोनों थोड़ी देर सिर नीचा किये चुपचाप बैठे रहे।

इतने में एक और मनुष्य आया पर किसी ने उसको देखा नहीं,वह आकर उनके समीप खड़ा हुआ तब भी किसी ने नहीं देखा। थोड़ी देर चुप चाप खड़ा रहा फिर क्रोध स बोला'आयेशा ! खूब'।

दोनों ने उसकी ओर देखकर उसमान को पहिचाना !

उसमान अंगूठी वाले प्रहरी से सब बातें सुनकर यहां आया था। उसको देख राजपुत्र को आयेशा के निमित्त भय हुआ कि उसमान और कतलूखां उसका तिरस्कार करेंगे। क्योंकि उसमान के क्रोध मय बचन से यही पाया गया। आयेशा ने उसमान के मर्म बचन को भली भांति समझा और उसका मुंह लाल हो गया परन्तु अधीर नहीं हुई।बोली'क्या खूब।'

उसमान ने पूर्ववत भाव से कहा 'नवाबपुत्री को अकेली रात के समय कारागार में बन्दी के साथ बात करना अच्छी बाल है?रात को बन्दी के निमित्त कारागार में मानाही उत्तम है ?'

आयेशा से यह बात सही नहीं गयी। उसमान के मुंह की ओर देखकर बोली। ऐसी बातें उसके मुंह से उसने कभी सुनी न थीं। 'मेरी इच्छा थी मैं रात को बन्दी से बात करने को माई। मैं अच्छा करती हूं चा दुरा तुमको मेरे कामों से मतलब ?' [ ६५ ]
उसमान विस्मित हुआ और कुपित होकर बोला।

'हमसे मतलब है वा नहीं कल प्रातःकाल नवाब के सामने बताऊंगा।'

आयेशा ने कहा 'जब पिता हमसे पूछेंगे हम उत्तर दे लेंगे। तुम चिन्ता न करो।'

उसमान ने फिर ब्यंग करके सहा और यदि हमी पूछे?'

आयेशा उठ खड़ी हुई और देर तक उसके मुंह की ओर घूरती रही उसकी आंखें और बड़ी २ हो गयीं। बदन का रङ्ग पलट गया और एक ओर की लट भी खुल पड़ी और हृदय समुद्र की लहर की भांति कांपने लगा अति परिस्कार स्वर से बोली 'अच्छा यदि तुम पूछते हो तो मेरा यही उत्तर है कि म इस बन्दी को चाहती हूँ।'

उस समय यदि चक्र गिरता तो राजपुत्र अथवा पठान को इतना अधिक विस्मय न होता जगतासिंह की आंखें खुल सी गई और आयेशा के रोने का कारण अब जानपड़ा। उसमान ने पहिले भी इसका सन्देह किया था और इसी निमित्त आयेशा पर इतना लाल पीला हुआ किन्तु यह उसको स्वप्न म भी सम्भव न था कि वह उसके सामने 'बेबाकाना' बात करेगी। वह चुप रहा।

आयेशा कहने लगी "सुनो, उसमान मैं इस बन्दी को चाहती हूं-- इस जीवन में दूसरा कोई मेरा हाथ नहीं पकड़ सकता। कल यदि वधभूमि इसके रुधिर द्वारा अपनी पिपासा शान्ति करे।(यह कहते समय आयेशा कांप उठी)तो भी इसकी मनोहर मूर्ति अपने हृदय मन्दिर में स्थापित कर मरण पर्यन्त पूजती रहूंगी। अद्ध पश्चात यदि फिर इसका दर्शन न मिले और यह कोटियों स्त्री के झुंड में बिहार करे और मुझको
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भूल जाय तब भी मैं इसकी प्रेमाकांक्षी दासी बनी रहूंगी ! और सुनो। यदि पूछो कि इतनी देर अकेली मैं क्या बातें करती थी तो सुनो धन से विनय से जैसे होगा पहरेवालों को बश करूं, पिता के घोड़सार से घोड़ा हूँ और इस बन्दी को अभी इसके पिता के लश्कर में पहुँचाऊँ परन्तु इसको स्वीकृत नहीं है, नदी तो अब तक तुम इसकी परछांहीं भी न देख पाते।"

आंसू पोंछ कर थोड़ी देर चुप रही फिर मधुर भाव से बोली, उसमान, इतनी बातें कह कर मैंने तुमको बड़ा क्लेश दिया, मेरा अपराध क्षमा करो तुम को मेरा स्नेह है और मुझ को तुम्हारा स्नेह है यह हम को उचित नहीं था। किन्तु तुमने हमारा विश्वास नहीं किया। आयेशा जो काम करती है उसको छिपाती नहीं। आज तुम्हारे सामने कहा है यदि काम पड़ेगा तो कल पिता के सामने भी ऐसाही कहूंगी।'

फिर जगतसिंह की ओर देख कर बोली, 'आप भी मेरा अपराध क्षमा करें। यदि उसमान ने आज हमको दुःख न दिया होता तो कदापि इस बात को प्रकाशन करती -- तीसरे कान तक न पहुँचन देती।'

राजपुत्र चुपचाप खड़े अन्तर्ज्वाला से हृदय को जला रहे थे उसमान ने भी कुछ नहीं कहा, आयेशा ने कहा।

उसमान, यदि मैंने कोई अपराध किया हो तो क्षमा करना, मैं वही तुम्हारी प्यारी बहिन हूं और बहिन समझ कर तुमको भी प्रेम संकोच न करना चाहिये । अब मुझको इस औसर पर निराश होकर डुबाओ मत।

यह कहकर दासी के आने की आशा छोड़ अकेली चल खड़ी हुई । उसमान थोड़ी देर भयचक सा होरहा और फिर अपने स्थान को चला गया।

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