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दुर्गेशनन्दिनी द्वितीय भाग/ दसवां परिच्छेद

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दुर्गेशनन्दिनी द्वितीय भाग
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, अनुवादक गदाधर सिंह

वाराणसी: माधोप्रसाद, पृष्ठ ३९ से – ४२ तक

 

ब्राह्मण ने उत्तर दिया 'वह भी नवाब की उपपत्नी बनी दासी संयुक्त चैन करती है'।

राजकुमार ने तुरन्त ब्राह्मण का हाथ छोड़ दिया और वह गिरते २ बचा।

उसमान ने संकुच कर धीरे से कहा 'मैं केवल सेनापति हूँ' राजपुत्र ने कहा 'तुम पिशाचों के सेनापति हो'।

 

दसवां परिच्छेद।
प्रतिमा विसर्जन।

जगतसिंह को उस रात नींद नहीं आई। चिन्ता ग्रीष्मकालीन उत्तमभूमि के समान शरीर का दाह करती थी। जिस तिलोत्तमा के मरण पश्चात् राजपुत्र पृथ्वी को शून्य समझते वह तिलोत्तमा अद्य पर्यन्त जीती है यह दुःख उनके मन में उत्पन्न हुआ।

यह क्या? तिलोत्तमा ने प्राण त्याग नहीं किया क्यों? वह प्राणेश्वरी जिसके देखने से मन प्रसन्न होता था अभी जीती है? जिस समय राजकुमार इस प्रकार चिन्ता करते थे उनकी आँखों से आँसू चले जाते थे। फेर दुराचारी कतलू खां के बिहारमन्दिर का ध्यान हुआ। वही शरीर अब यवन अंकाभरण होगा।

हमारे हृदयमन्दिर की शोभादायनी मूर्ति पठान के भवन में है? हाँ! तिलोत्तमा कतलू खां की उपपत्नी हुई?

अब क्या वह फिर कभी राजपूत का स्मरण करती होगी? अपने हस्तच्युत प्रतिमा का पुनर्ग्रहण राजपूतों का कर्म नहीं है। हाँ! आज उस मूर्ति का ध्यान करके हृदय विदीर्ण होता है वह त्रिभुवनमोहिनी मूर्ति कैसे भूलेगा? अब तो जब तक जीव है इस मल मूत्र अस्थि मांस संयुक्त शरीर को वहन करनाही पड़ेगा और तब तक उस जीवेश्वरी का ध्यान भी न छूटेगा।

इस प्रकार (कारुणिक उत्कट चिन्ता करते २ राजपुत्र की स्थिरता और बुद्धि मन्द होने लगी और स्मरण शक्ति भी घटने लगी) सारी रात सिर में हाथ लगाये बैठें थे। घुमरा आने लगा और आँख खोलने की इच्छा नहीं होती थी।

एक अवस्था में देर तक रहने से शरीर में वेदना होने लगी और ज्वर सा चढ़ आया। खिड़की के पास जा कर खड़े हुए।

शीतल वायु मस्तक में लगी। अंधेरी रात बदली छायी हुई थी तारागण मन्द २ चमकते थे और दूर के वृक्ष अन्धकार के कारण एक में मिले हुए देख पड़ते थे निकटस्थ वृक्षों पर जुगनू चमक रहे थे और सम्मुखस्थ तड़ाग में पाश्ववर्ती लता वृक्ष की छाया स्पष्ट देख पड़ती थी।

मन्दसमीर के स्पर्श से शरीर शीतल हुआ खिड़की पर दोनों हाथ रखकर मस्तक नवाकर खड़े हुए। बहुत देर तक नींद तो आयी न थी कुछ मुर्च्छा आ चली कि फिर वही ध्यान आ गया। आशा छोड़ने में बड़ा क्लेश होता है। अस्त्राघात से बड़ा दुःख होता है किन्तु उससे जो घाव होता है उसमें उतना क्लेश नहीं होता, वह तो स्थायी न हो जाता है। वही दशा राजकुमार की हुई। अंधकारमय उड़गण हीन आकाश की ओर देखने लगे। उसका प्रतिबिम्बि अपने हृदय में देख सोचने लगे प्राचीन बातें सब स्मरण होने लगीं, बाल्यावस्था, युवामद सब का ध्यान हुआ और क्रमशः अन्यमन होने लगे। शरीर की शीतलता और बढ़ने लगी और कुछ नींद भी आने लगी। उस अवस्था में स्वप्न हुआ मुँह का रंग पलटने लगा ओठ काँपने लगे और ललाट में पसीना हो आया और हाथों की मुट्ठी बंध गई।

एकाएक चमक उठे और इधर उधर टहलने लगे। यह यन्त्रणा कब तक रही मालूम नहीं। जब प्रातःकाल सूर्य के किर्ण से चहुदिक प्रकाश हुआ उस समय जगतसिंह भूमि पर बिना बिछौना पड़े सो रहे थे।

उसमान ने आकर उनको उठाया। जब वे उठे उसमान ने उनके हाथ में एक पत्र दिया। पत्र हाथ में ले राजकुमार चुप चाप उनका मुँह देखने लगे। उसमान ने समझा राजकुमार इस समय सोच में हैं अतएव इनसे किसी प्रयोजन की बातचीत अभी नहीं हो सकती, बोला।

राजकुमार! मुझ को आप के भू शयन का कारण पूछने की विशेष आकांक्षा नहीं है पर जिसने यह पत्र दिया है उसको मैं बचन दे आया हूँ कि यह पत्र आपही के हाथ में दूँगा अभी तक मैंने आपको नहीं दिया था उसका एक कारण था अब वह दूर हुआ आप सब बातें जान गए। इससे पत्र आप के पास छोड़ कर जाता हूँ आप अपने अवकाश में इसे पढ़ियेगा कल मैं फिर आऊँगा। यदि उत्तर देना चाहियेगा तो मैं भेज दूँगा। और पत्र रखकर उसमान चला गया।

राजकुमार ने अकेले बैठ पत्र को आद्योपान्त पढ़ा फिर उसको मेज़ पर धर के फूंक दिया और जब तक वह जल कर भस्म नहीं हो गया उसी की ओर देखते रहे। जब उसका कोई चिन्ह न रहा तो अपने मन में कहने लगे 'स्मारक चिन्ह तो आग में जला कर नाश करडाला पर स्मृति को क्या करूँ वह अभी तक बेदना दे रही है।'

रीति के अनुसार नित्यक्रिया के अन्तर पूजादि कर इष्टदेव को प्रणाम किया फिर हाथ जोड़कर आकाश की ओर देख बोले 'गुरुदेव! मेरी सुध रखना मैं राजधर्म्म पालन करूँगा, क्षत्री कुलोचित कर्म करूँगा! अपने चरणों का प्रसाद मुझको दीजिये। दुराचारी के उपपत्नी का ध्यान इस चित्त से दूर कीजिये जिस में शरीर त्याग करने पर आप के समीप पहुंचूं मनुष्य को उचित है सो मैं करता हूँ। आप अन्तरयामी हैं मेरे अन्तःकरण में दृष्टि करके देखिये अब मैं तिलोत्तमा के प्रणय की इच्छा नहीं रखता। अब उसके दर्शन की लालसा नहीं रखता केवल भूतपूर्व स्मृति अहर्निशि हृदय को जलाती है। आज अभिलाषा त्याग किया। क्या याद न भूलेगी? गुरुदेव चरण कमल का प्रसाद मुझ को दीजिये नहीं तो यह स्मृति दुःख सहा नहीं जाता।

प्रतिमा का विसर्जन हुआ।

तिलोत्तमा ने भूमि में पड़ी स्वप्न देखा है कि निगिड़ अन्धकार में वह एक तारे की ओर देख रही है किन्तु उसने अपनी ज्योति खींच ली इस घोर आंधी में जिस लता से अपना प्राण बांधा था वह टूट गयी, जिस नौका पर चढ़कर समुद्र पार जाने की आशा थी वह नौका डूब गयी॥

 

ग्यारहवां परिच्छेद।
गृहान्तर।

अपने कहने के अनुसार दूसरे दिन उसमान आकर राजपुत्र के सामने उपस्थित हुआ और बोला!

'युवराज। पत्र का उत्तर भेजियेगा?'

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