दुर्गेशनन्दिनी द्वितीय भाग/ नवां परिच्छेद

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दुर्गेशनन्दिनी द्वितीय भाग  (1918) 
द्वारा बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, अनुवादक गदाधर सिंह

[ ३५ ]"हस्ती"

और।

करी, दन्ती, वारण, नाग, गज।

हां हां ठीक है, इसका नाम गजपतिविद्या दिग्गज है।

विद्यादिग्गज! वाह! बड़ी भारी अल्ल है। जैसा नाम वैसाही उपनाम। इसके संग बात करने को जी चाहता है।

उसमान ने उसकी बातें सुनी थीं, मन में सोचा कि इसके संग बात करने में कुछ हानि नहीं बोले 'चिन्ता नहीं' दोनों ने बरामदे में जाकर एक भृत्य द्वारा उसको बुलवाया॥

नवां परिच्छेद।
दिग्गज सम्वाद।

नौकरों के संग विद्यादिग्गज आए जगतसिंह ने पूछा आप ब्राह्मण हैं?

दिग्गज ने हाथ जोड़ कर कहा।

यावन्मेरौ स्थितादेवा यावद्गङ्गा महीतले।

असारे खलु संसारे सारं श्वशुरमन्दिरं'।

जगतसिंह ने मुसकिरा कर प्रणाम किया और ब्राह्मण ने आशीर्वाद दिया 'खोदा खां बाबूजी को अच्छी तरह रक्खे'।

राजपुत्र ने कहा महाराज! मैं मुसलमान नहीं हूं में तो हिन्दू हूं।'

दिग्गज ने मन में कहा 'मुसल्मान हम को धोखा देते है या इनका कुछ काम होगा नहीं तो काहे को बुलाते' विषन्न वदन होकर बोले, खां बाबूजी मैं आपको चीन्हता हूँ, मैं आपके घरबों का दास हूँ, मुझसे कुछ न कहिये [ ३६ ]

जगतसिंह ने देखा कि यह आपत्ति है बोले, महाराज आप ब्राह्मण हैं मैं राजपूत हूँ आपको ऐसा कहना उचित नहीं। आपका नाम गजपतिविद्यादिग्गज है?

दिग्गज ने कहा, हाय! नाम पूछता है! न जाने क्या विपद पड़े? और हाथ जोड़ कर बोला। 'दोहाई शेखजी की! मैं गरीब हूँ, आप के पैरों पड़ता हूँ।'

जब जगतसिंह ने देखा कि ब्राह्मण इतना डरा है कि उससे कोई कार्य सिद्ध नहीं हो सकता तो बात टाल दूसरा विषय छेड़ बोले— 'आपके हाथ में कौन पोथी है'?

'यह माणिकपीर की पोथी है।'

'ब्राह्मण के हाथ में माणिकपीर की पोथी।'

'जी-जी हाँ, मैं पहिले ब्राह्मण था अब तो ब्राह्मण नहीं हूँ।'

राजकुमार बड़े विस्मयापन्न हुए और बोले 'यह बात क्या? आप मान्दारणगढ़ में नहीं रहते थे?'

दिग्गज ने सोचा अब बहुत बिगड़ी! मेरे धीरेन्द्रसिंह के दुर्ग में रहने का पता लग गया, जो दशा उनकी हुई वहीं मेरी भी होगी और मारे डर के काँपने लगा।

राजकुमार ने कहा, 'हैं क्या हुआ?'

दिग्गज ने हाथ जोड़ कर कहा 'दोहाई खां बाबा की, बाबा मुझको मारो मत, बाबा मैं तुम्हारा गुलाम हूँ।'

'तुम क्या उन्मत्त होगए?'

'नहीं बाबा मैं आपका दास हूँ, मैं सेवक हूँ, मैं तो आपही का हूँ।'

जगतसिंह ने ब्राह्मण को स्थिर करने के लिये कहा 'तुम कुछ चिन्ता न करो, तनिक अपनी माणिकपीर की पोथी तो पढ़ो मैं सुनूँगा।' [ ३७ ]

ब्राह्मण पोथी खोल सुरसे पढ़ने लगा।

थोड़े देर के अनन्तर राजकुमार ने फिर पूछा 'आप ब्राह्मण होकर माणिकपीर की पोथी को पढ़ते थे?'

उन्ने सुर रोक कर कहा, मैं मुसलमान हो गया।

राजपुत्र ने कहा 'यह था?' गजपति ने कहा जब मुसलमान लोग गढ़ में आए मुझसे बोले 'अरे बम्हन तेरी जाति का नाश करूँगा' और हमको पकड़कर ले गए और बांध कर मुर्गी का पोलाव खिला दिया।

'पोलाव क्या?'

दिग्गज ने कहा 'गरम चावल घी में पका हुआ'

राजपुत्र समझ गए और बोले 'हाँ फिर?'

दिग्गज ने कहा फिर हमको कलमा पढ़ाया—

'कलमा'

फिर हमसे बोले 'अब तू मुसलमान हो गया' तबले मैं मुसलमान हूँ।

राजाकुमार ने अवसर पाय पूछा 'औरों की क्या दशा हुई?' और और सब ब्राह्मण ऐसेही मुसलमान होगए?'

राजपुत्र ने उसमान का मुँह देखा उन्ने उनके तिरस्कार को समझ कर कहा 'इसमे दोष क्या! मुसलमानों के लेखे उन्हीं का धर्म्म सच है। बल हो अथवा छल से हो सत्य धर्म्म के प्रचार में पाप नहीं, पुण्य होता है'।

राजपुत्र ने उत्तर नहीं दिया और विद्यादिग्गज से पूछने लगे 'विद्यादिग्गज महाशय!'

'जी अब शेख दिग्गज कहिये।'

अच्छा शेख़जी गढ़ के और किसी का समाचार आप नहीं जानते? [ ३८ ]

उसमान राजपुत्र का आशय समझ घबराया दिग्गज ने कहा और 'अभिराम स्वामी भाग गए'।

राजपुत्र ने सोचा कि इस अज्ञ से स्पष्ट पूछने बिना कुछ न जान पड़ेगा। बोले 'बीरेन्द्रसिंह क्या हुए'।

ब्राह्मण ने कहा 'नवाब कतलू खां ने उनको कटवा डाला।'

राजकुमार का मुँह लाल हो आया। उसमान से पूछा 'यह क्या? क्या यह झूठ कहता है?'

उसमान ने धीरचित्त से कहा 'नवाब ने विचार करके राजद्रोही समझ उनको प्राणदण्ड दिया।

राजपुत्र की आँखों में रोष भर आया। उसमान से पूछा 'क्या यह काम तुम्हारी सस्मति से हुआ है?'

उसमान ने कहा 'हमारी मति के विरुद्ध।'

कुछ काल युवराज चुप रहे उसमान ने समय पाय दिग्गज से कहा अब तुम जाओ।

वह उठ कर चला कि कुमार ने उसका हाथ पकड़ कर निषेध किया और कहा कि एक बात और पूछता हूँ बिमला क्या हुई?

ब्राह्मण ने ठंडी सांस ली और रो कर कहा 'वह अब नवाब की उपपत्नी हुई है'। राजकुमार ने कराल नेत्र से उसमान की ओर देख कर कहा 'यह भी सच है?'

उसमान ने कुछ उत्तर न देकर ब्राह्मण से कहा 'तुम अब क्या करते हो? जाओ।'

राजकुमार ने ब्राह्मण का हाथ दृढ़ता पूर्वक पकड़ा जिसमें जा न सकें और बोले 'थोड़ा और ठहरों एक बात और है' उनके रक्तवर्ण आँखों से आग बरसने लगी, 'और एक बात है, तिलोत्तमा?' [ ३९ ]

ब्राह्मण ने उत्तर दिया 'वह भी नवाब की उपपत्नी बनी दासी संयुक्त चैन करती है'।

राजकुमार ने तुरन्त ब्राह्मण का हाथ छोड़ दिया और वह गिरते २ बचा।

उसमान ने संकुच कर धीरे से कहा 'मैं केवल सेनापति हूँ' राजपुत्र ने कहा 'तुम पिशाचों के सेनापति हो'।

 

दसवां परिच्छेद।
प्रतिमा विसर्जन।

जगतसिंह को उस रात नींद नहीं आई। चिन्ता ग्रीष्मकालीन उत्तमभूमि के समान शरीर का दाह करती थी। जिस तिलोत्तमा के मरण पश्चात् राजपुत्र पृथ्वी को शून्य समझते वह तिलोत्तमा अद्य पर्यन्त जीती है यह दुःख उनके मन में उत्पन्न हुआ।

यह क्या? तिलोत्तमा ने प्राण त्याग नहीं किया क्यों? वह प्राणेश्वरी जिसके देखने से मन प्रसन्न होता था अभी जीती है? जिस समय राजकुमार इस प्रकार चिन्ता करते थे उनकी आँखों से आँसू चले जाते थे। फेर दुराचारी कतलू खां के बिहारमन्दिर का ध्यान हुआ। वही शरीर अब यवन अंकाभरण होगा।

हमारे हृदयमन्दिर की शोभादायनी मूर्ति पठान के भवन में है? हाँ! तिलोत्तमा कतलू खां की उपपत्नी हुई?

अब क्या वह फिर कभी राजपूत का स्मरण करती होगी? अपने हस्तच्युत प्रतिमा का पुनर्ग्रहण राजपूतों का कर्म नहीं है। हाँ! आज उस मूर्ति का ध्यान करके हृदय विदीर्ण होता है

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