दुर्गेशनन्दिनी द्वितीय भाग/ सतरहवां परिच्छेद

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दुर्गेशनन्दिनी द्वितीय भाग  (1918) 
द्वारा बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, अनुवादक गदाधर सिंह

[ ७१ ]वे सब फाटक छोड़ कर दौड़े और बिमला ने अपनी राह ली।

थोड़ी दूर जाकर उसने देखा कि एक पुरुष एक वृक्ष के नीचे खड़ा है। देखतेही उसने अभिराम स्वामी को पहिचाना! ज्यों उनके समीप पहुंची कि स्वामी जी बोले ' मैं तो घबरा गया था, दुर्ग में कोलाहल कैसे होता है ?'

विमला ने कहा - मैं तो अपना काम कर आई, अब यहां बहुत बात करने का अवकाश नहीं है, जलदी घर चलो फिर मैं सब बताऊंगी। तिलोत्तमा घर पहुंच गयी।'

अभिराम स्वामी ने कहा 'वह अभी आसमानी के संग जाती है आगे मिल जायगी।'

दोनों जल्दी २ चले और कुटी में पहुंच कर देखा कि आयेशा की अनुग्रह से आसमानी के सङ्गतिलोतमा भी पहुंच गयी । वह अभिराम स्वामी के पैर पर गिर कर रोने लगी। स्वामी जी ने सन्तोष देकर कहा ' ईश्वर की कृपा से तुम सब दृष्ट के हाथ से छूटी हो अब यहां ठहरना उचित नहीं है। मुसलमान यदि सुन पावेंगे तो अबकी बार प्राण से मार डालेंगे चलो रातो रात यहां से चल दें।'

यह बात सब के मन भायी ॥

सतरहवां परिच्छेद ।

अन्त काल।

विमला के भागने के थोड़ेही काल पीछे एक कर्मचारी ने जगतसिंह से कारागार में जाकर कहा।

युवराजा जवाव साहेब का मरण काल समीप है, वे आपको बुलाते हैं।' [ ७२ ]युवराज में आश्चर्य से कहा 'क्या?

उसने कहा 'महल में किसी ने आकर नवार साहेब को मारा और मागगया। अभी प्राण है,किन्तु अब कुछ आशा नहीं माप शीघ्र चलें नहीं तो फिर भेंट न होगी।'

राजपुत्र ने कहा 'ऐसे समय में मेरे बुलाने का क्या 'कारण है!'

उसने कहा में नहीं जानता, में तो केवल सवाद देने आया हूं।'

युवराज दूत के साथ चले महल में पहुंच कर देखा कि कतलखां के जीवन का दीप टंदा होने चाहता है। उसमान आयेशा और,और और पुत्र पुत्री,पत्ती उपपत्नी,दास दासी और मंत्री आदि सब बैठे बाड़ मार मार रो रहे हैं किन्तु आयेशा मन ही मन रोती थी,आंसु की धारा दोनों कपोलों के ऊपर होकर बह रही थी।पिता का सिर गोद में लिये चुप चाप बैठी थी।

जगतसिंह ने देखा कि वह बड़ी धीर बैठी हैं 'निर्वात निकम्प मित्र प्रदीपम्।

राजकुमार के पहुंचते ही इसाखां नाम खोजा ने उनका हाथ पकड़ कतलखां के समीप लेजाकर चिल्ला के बोला' युकराज जगतसिंह आये हैं।'

कतलूखां ने कहा 'शत्रु, मैं मरता हूँ मेरा कहा सुना साफ।'

जगतसिंह ने कहा'इस समय मैने माफ़ किया।'

कत्तलखां ने फिर कहा 'स्वीकार कीजिये तो कुछ कहूं।"

जगतसिंह ने पूछा कि क्या स्वीकार कर!'

कतलूखां ने कहा मेरा हाथ।'

अभिप्राय समझ उसमान ने जगतसिंह का हाथ पकड़ [ ७३ ]
कतलूखां का हाथ पकड़ा दिया।

जगतसिंह को बड़ा कोप हुआ पर चुप रहे बोले नहीं।

कतलूखां ने फिर कहा 'बालक सब युद्ध प्यास "

आयेशा ने तुरन्त शरबत पिलाया।

'युद्ध - कुछ काम नहीं-सन्धि !'

जगतसिंह ने कुछ उत्तर नहीं दिया कतलूखां मुंह देखने लगा। फिर कष्ट से बोला 'स्वीकृत नहीं है ?

युवराज ने कहा 'यदि पठान दिल्लीश्वर के आधीन हो जाय तो स्वीकार किया ।

कतलूखां ने फिर कहा 'उडिस्सा ?

जगतसिंह ने उत्तर दिया 'यदि कार्य सिद्ध हुआ तो तुम्हारे पुत्रों से उङिस्सा न छूटेगा।'

कतलूखां के चेहरे की रंगत हरी हो भाई और बोला, आप छूटे- जगदीश्वर-उत्तम'

जगतसिंह जाने लगे तब आयेशाने झुक कर पिता के कान में कुछ कह दिया । कतलूखां ने ख्याजा ईसा की ओर देख कर राजपुत्र की ओर देखा ख्वाजा ने राजपुत्र से कहा 'जान पड़ता है कि अभी आप से कुछ कहना है।'

राजपुत्र लोट आये। कतलूखां ने कहा 'कान ।'

राजपुत्र समझ गये और समीप जाकर झुक कर कसलूखां के मुंह के पास कान कर दिया।

कतलूखां ने कहा 'बीर।'

ठहर गया फिर बोला 'बीरेन्द्रसिंह-प्यास'

आयेशा ने फिर शरबत दिया ।

बीरेन्द्रसिंह की कन्या ।'

राजपुत्र को सांप सा डस गया और चिहुंक कर दूर खड़े [ ७४ ]
हुए कतलूखां ने कहा 'पिता होन- मैं पापी-ऊंह प्यास "

आयशा ने फिर कुछपिलाया किन्तु फिर गला घुटने लगा।

सांस छोड़ते २ बोला 'दारुण ज्वाला-साध्वी तुम देखना -'

राजपुत्र ने कहा 'क्या?

कतलूखां ने सुन लिया और बोला।

इस क-इसकन्या-सी-पवित्र-स्पर्श-न-देखा नहीं। ~~तुम ऊह । बड़ी ण्यास-प्यास-चले-आयेशा।'

फिर बोल न निकला । अपने जान परिश्रम तो बहुत किया परन्तु सिर झुक गया और कन्या का नाम लेते २ प्राण पयान कर गया।

अट्ठारहवां परिच्छेद ।

बराबरी।

अगतसिंह छूट कर अपने पिता के लइकर में गये और वहां से आकर सन्धि का निषध करा दिया । पठान लोग दिल्लीश्वर के आधीन हुए तथापि उङिस्सा उनके हाथ में रहा, सन्धि का नियम विस्तार पूर्वक लिखने का इस स्थान पर कुछ प्रयोजन नहीं है । मेल होने के पीछे भी कुछ दिन तक दोनों दल के लोग अपने २ स्थान पर बने रहे । ईसाखां ने कतलूखां के पुत्रादि को लेकर उसमान के साथ मानसिंह को 'नज़र' दी । राजा ने भी उनका बड़ा आदर किया और खिलत देकर विदा किया इस प्रकार सन्धि करने और मिला मेंटी करने में कुछ दिन बीत गये।

अन्त को जगतसिंह की सेना के पटने को कूच करने का दिन समीप आया। एक दिन संध्या को युवराज अपने नोकर

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