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दुर्गेशनन्दिनी प्रथम भाग/ग्यारहवां परिच्छेद

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दुर्गेशनन्दिनी प्रथम भाग
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, अनुवादक गदाधर सिंह

वाराणसी: माधोप्रसाद, पृष्ठ ४२ से – ४५ तक

 

ग्यारहवां परिच्छेद।
आसमानी का प्रेम

आसमानी को भीतर आते देख दिग्गजने बड़े प्रेम से कहा आओ प्यारी।

आसमानी ने कहा, वाहरे—ठठोली करते हो?

दि०| नहीं तुमसे क्या ठठोली करैंगे।

आ०| इसी से तुम्हारा नाम रसिक दास है?

दि०| रसिकः कौपिको वास:। प्यारी तुम बैठो मैं हाथ धो आऊं।

आसमानी ने मन में कहा, हां हाथ क्यों न धोवोगे। हम अभी तुमको और खिलावेंगे कि? और कहा कि क्यों; हाथ क्यों धोते हो, सब भात खा न जाओ।

दिग्गज ने कहा "यह कहीं हो सकता है कि बात कहके और फिर भात खाय।"

आ०| और यह भात बचा जो है। क्या भूखे रहोगे।

दिग्गज ने मुंह बिगाड़ कर कहा, क्या करूं तूने खाने भी दिया? और आंखे काढ़ कर पत्तल की ओर देखने लगे।

आसमानी ने कहा "तौ तुमको खाना पड़ेगा।"

दि०| हरे कृष्ण? चौके से उठ आये, कुल्ला किया, अब क्या खायेंगे?

आ०| हां न खाओगे? हमतो अपना जूठा खिलावेंगे और थाली में से एक कवर भात लेकर खा गयी।

ब्राह्मण हक से रह गया।

आधा कवर थाली में डाल कर आसमानी ने कहा 'ले अब खाओ' ब्राह्मण के मुख से शब्द नहीं निकला।

आ०| खाओ सुनते हो कि नहीं, मैं यह न किसी से कहूंगी कि तुमने हमारा जूठा खाया है, कुछ हानि नहीं।

दि०| हां उसमें क्या है।

किन्तु दिग्गज की क्षुधाग्नि क्षण २ बढ़ती जाती थी और मन में कहते थे कि यह दुष्ट आसमानी पृथ्वी में समाय जाती तो मैं यह सब भात खा जाता और पेट की आग बुझाता।

आसमानी चेष्टा से दिग्गज के मनकी बात लख गई और बोली "खाओ न-भला थाली के पास तो बैठो।"

दि०| क्यों फिर क्या होगा।

आ०| हमारा मन। क्या हमारा कहना न करोगे।

दिग्गज ने कहा "अच्छा लेओ बैठता हूं, इसमें कुछ दोष नहीं हैं। तुम्हारी बात रह जायं" और थाली के पास बैठ गए। पेट तो भूख के मारे ऐंठा जाता था और आगे का अन्न मुंह तक नहीं पहुंच सकता था। दिग्गज के आँखों से आँसू चलने लगे।

आसमानी ने कहा "यदि ब्राह्मण शुद्र का जुठा छूले तो क्या हो!" पण्डित ने कहा "स्नान कर डालना चाहिये।"

आ०| अब मैं जान गई कि तुम मुझको कैसा चाहते हो लो अब मैं जाती हूं। हमारे आने में तुमको क्लेश होता है।

दिग्गज लम्बी नाक सिकोड़ और कंजी आंखों को तिरछी कर हँसकर कहा "यह कौन बात है। अभी नहा डालूंगा।"

आसमानी ने कहा "मैं चाहती हूं कि आज तुमारी थाली का जूठन खाऊं। एक कोर बनाकर देओ तो।"

दिग्गज ने कहा "कुछ चिन्ता नहीं नहा कर स्वच्छ हो जाऊंगा" और भात सान कर कौर बनाने लगे।

आसमानी बोली कि मैं एक कहानी कहती हूं सुनो और जब तक मेरी कहानी समाप्त न हो तबतक तुम भात सानों, यदि हाथ खींच लोगे तो मैं चली जाऊंगी।

दिग्गज ने कहा अच्छा।

आसमानी एक राजा और उसके दुयो शुयो दो रानियों की कहानी कहने लगी और दिग्गज उसके मुंह की ओर देख कर हुंकारी भरने लगे और हाथ से भात भी सानते जाते थे।

सुनते २ दिग्गज का मन बंट गया और आसमानी के हवा भाव में भूल गया, भात का सानना भी स्मरण न रहा, परन्तु पेट की आतें कुलकुला ही रही थीं।

इतने में धोखे से भात का कौर मुंह तक पहुंच गया और मुंह में दांत तो थाही नहीं चुगलाने लगे। गाल फूला देखकर आसमानी खिलखिला कर हंसने लगी और बोली "क्यों यह क्या होता है?"

दिग्गज के ज्ञान चक्षु खुल पड़े और झट पट एक कौर और मुंह में धर आसमानी का पैर पकड़ कर कहने लगे "मेरी प्यारी आसमानी, किसी से कहना मत तुमको हमारी सौगंध।"

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